आज आपको मरियम आपा (मैं उनको इसी नाम से बुलाता हूँ, वैसे वो मरयम ग़जा़ला के नाम से लिखती हैं) की शायरी से रूबरू करवाता हूँ.आपा एक ऐसी शाख्शियत हैं जिनसे मिलते ही लगता है जैसे बरगद की ठंडी छाँव मिल गयी हो. मुम्बई में बसी जिंदा दिल आपा ने खूब लिखा है. उनकी गज़लें मैं अपने ब्लॉग पर नियमित रूप से पोस्ट करता रहूंगा.
ठोकरें खा के भी वो संभलता नहीं
आदमी अपनी फितरत बदलता नहीं
हम भी डूबे सनम तुम भी डूबे सनम
इश्क दरया है जिस का किनारा नहीं
मुझसे लिपटा है ये वक्त का अज़दहा( अजगर )
थूंकता भी नहीं वो निगलता नहीं
बंद कमरे में है एक घुटन हर घड़ी
खिड़कियों को कभी तूने खोला नहीं
इश्क का आशिकी का चलन अब कहाँ
कोई मजनू नहीं कोई लयला नहीं
आरजू तितलियां बन उडीं हर तरफ
पर ग़जा़ला कोई फूल खिलता नहीं
बहुत बढ़िया गजल....मरियम आपा की गजल पोस्ट करने के लिए शुक्रिया भैया. मरियम आपा ऐसी ही बढ़िया गजलें लिखती रहीं, यही कामना है.
ReplyDeleteSir aapne jo kiya hai,uski baarabri dhanyawaad nahi kar sakti.Isliye wah to ab kya doon??
ReplyDeleteItni sundar rachna padhakar aapne bade punya ka kaam kiya hai.Aapa ko ishwar aisi hi banaye rakhen.
ठोकरें खा के भी वह संभालता नहीं
ReplyDeleteआदमी अपनी फितरत बदलता नहीं"
बहुत खूब.
एकदम सही कहा है. शानदार ग़ज़ल है. आपको धन्यवाद.
वाह वाह.
ReplyDeleteतेरा दौलत कदा है रौशन
ReplyDeleteकौन यह तेरे घर आया है?
लाख समुन्दर इसमें डूबें
दिल दरिया तूने पाया है
नीरज भाई
आप जो हैं न बहुत प्यारे हैं
मरियम आपा ने आपके ब्लॉग मैं
आ कर चार चाँद लगा दिये हैं
मेरा आदाब कहें.
चाँद शुक्ला हदियाबादी डेनमार्क
मरियम आपा की गजल पढ़ी। हमारे जैसे काव्य निरक्षर के मन में यही बात आती है कि वे (या आप) सरल से शब्दों की प्रस्तुति में क्या जादू करते हैं कि वे तिलस्म से जगमगाने लगते हैं।
ReplyDeleteयह हमें व्यक्त करने में टनों शब्द लगेंगे और तब भी वह रंगत न आयेगी।
मैं याह अतिशयोक्ति या जबरी प्रशंसा में नहीं - अपने आंतरिक भाव व्यक्त कर कह रहा हूं।
बहुत सुन्दर कविता।
न केवल आप अच्छा लिखते है बल्कि उच्च कोटि के लेखको और कवियो से भी मिलवाते है। मन मुग्ध हो जाता है यहाँ आकर।
ReplyDeleteनीरज जी आपने दो जगहों पर टंकण की ग़लती कर दी है उसे सुधार लें कोष्ठक में ग़लत लिखे हैं
ReplyDeleteठोकरें खा के भी वो संभलता नहीं
( ठोकरें खा के भी वो संभालता नहीं )
थूंकता भी नहीं वो निगलता नहीं
( थूंकता भी नहीं वो निगलता भी नहीं )
खिड़कियों को कभी तूने खोला नहीं
(खिड़कियों को तूने कभी खोला नहीं)
आरजू तितलियां बन उडीं हर तरफ
( आरजू तितलियां बन उडी हर तरफ)
आरज़ू तितलियां बन उड़ीं हर तरफ
ReplyDeleteटंकण की ग़लती अर्थ का अनर्थ कर देती है अत: सावधान रहें । और हां मैं इस ग़ज़ल के बारे में एक मेल आपको करूंगा वो मेरी ओर से क्षमा के साथ गजाला जी को दिखा दीजियेग
पंकज जी
ReplyDeleteआप की पारखी नज़र को सलाम
कान पकड़ के गलतियाँ सुधार ली हैं
इल्तज़ा है की ऐसे ही निगाहे करम रखें
नीरज