तुम्हे जो याद करता हूँ तो अक्सर गुनगुनाता हूँ
हमारे बीच की सब दूरियों को यूँ मिटाता हूँ
इबादत के लिए तुम ढ़ूंढ़ते फिरते कहाँ रब कों
गुलों कों देख डाली पर मैं अपना सर झुकाता हूँ
नहीं औकात अपनी कुछ मगर ये बात क्या कम है
मैं सूरज कों दिखाने को सदा दीपक जलाता हूँ
मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज़ पहुँचेगी
मगर तन्हाईयों में मैं तुम्हे अक्सर बुलाता हूँ
मैं तन्हा हूँ समंदर में मगर डरता नहीं यारों
जो कश्ती डगमगाती है तुझे मैं साथ पाता हूँ
अँधेरी सर्द रातों में ठिठुरते उन परिंदों कों
अकेले देख कर कीमत मैं घर की जान जाता हूँ
घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी "नीरज"
इन्ही में दिल करे जब भी तुझे मैं देख आता हूँ
बहुत खूबसूरत गजल....एक-एक शेर लाजवाब. इतनी सुंदर गजल याद रहेगी...हमेशा.
ReplyDeleteवाह! वाह! वाह!
ReplyDeleteजबरदस्त! सुंदर! अति सुंदर!
आप छा गए हो.
निफ्टी और सेंसेक्स का गम भूल गए हम तो. कल भी आईयेगा.
ये पक्तियाँ विशेष रूप से पसन्द आयी।
ReplyDeleteनहीं औकात अपनी कुछ मगर ये बात क्या कम है
मैं सूरज कों दिखाने दिन में भी दीपक जलाता हूँ
वाह क्या कहने
यह जिनके विषय में लिखा है आपने - उन्ही से मिलने का अभियान है यह जीवन। आपने बहुत सरलता से लिख दिया। हम तो पूरी फिलासफराना भाषा छांट कर भी यह नहीं कह सकते।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर।
मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज़ पहुँचेगी
ReplyDeleteमगर तन्हाईयों में मैं तुम्हे अक्सर बुलाता हूँ
मुझे विदित है स्वर की सीमा द्वार तुम्हारे तक जाती है
लेकिन क्या तुम सुन पाते हओ जो यह वाणी कह जाती है ?
मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज़ पहुँचेगी
ReplyDeleteमगर तन्हाईयों में मैं तुम्हे अक्सर बुलाता हूँ
ध्रिष्ट्ता के लिए माफ़ी चाहूंगी.पर आपकी इस बात से मैं इत्तेफाक नही रखती.यह अपने विश्वाश पर संदेह करना हुआ.नही??
बाकि सारी बातें अति सुंदर,मनमोहक............
बहुत सुन्दर लिखा हे ।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
क्या बात है!!
ReplyDeleteतुम्हे जब याद करता हूँ मैं अक्सर गुनगुनाता हूँ
ReplyDeleteहमारे बीच की इन दूरियों को यूँ मिटाता हूँ
बहुत खूबसूरत गज़ल है.
मुझे मालूम है तुम तक नहीं आवाज़ पहुँचेगी
ReplyDeleteमगर तन्हाईयों में मैं तुम्हे अक्सर बुलाता हूँ
बहुत खूब !!
आपकी पोस्ट यहाँ भी है……नयी-पुरानी हलचल
ReplyDeletehttp://nayi-purani-halchal.blogspot.com/
इबादत के लिए तुम ढ़ूंढ़ते फिरते कहाँ रब कों
ReplyDeleteगुलों कों देख डाली पर मैं अपना सर झुकाता हूँ
वाह क्या बात कही सर!
सादर
नहीं औकात अपनी कुछ मगर ये बात क्या कम है
ReplyDeleteमैं सूरज कों दिखाने को सदा दीपक जलाता हूँ
बहुत खूबसूरत गज़ल ..हर शेर बहुत खूबसूरत
मैं तन्हा हूँ समंदर में मगर डरता नहीं यारों
ReplyDeleteजो कश्ती डगमगाती है तुझे मैं साथ पाता हूँ
sunder abhivyakti ...!!
अँधेरी सर्द रातों में ठिठुरते उन परिंदों कों
ReplyDeleteअकेले देख कर कीमत मैं घर की जान जाता हूँ
बहुत बढ़िया...
घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी "नीरज"
ReplyDeleteइन्ही में दिल करे जब भी तुझे मैं देख आता हूँ
बहुत खूबसूरत ख्यालात हैं नीरज जी ! बहुत सुन्दर रचना है ! बधाई एवं शुभकामनायें !