Monday, July 5, 2021

किताबों की दुनिया - 235

कब तक मुझे घेरे में रखेंगी ये चटानें 
रिस-रिस के निकलने का हुनर सीख रहा हूं 
*
खो दिया सब ताप बादल से लिपट कर 
धूप भी किसकी मोहब्बत में पड़ी है 

याद रख हम एक छाते के तले हैं 
भूल जा रिमझिम है ऊपर या झड़ी है 
*
लाशों की है ये भीड़, ज़रा गौर से देखो 
ज़िंदा कई लोगों ने कफ़न ओढ़ रखा है 
*
समझ पर बोझ बढ़ता जा रहा है 
ये तितली-सी उड़ा करती थी पहले
*
टटोलो नब्ज़ को और ये बताओ
तुम्हारे हाथ में किसकी घड़ी है

उन्हें ख़ुद के सिवा दिखता नहीं कुछ
हमें सारे ज़माने की पड़ी है

वो नक्शा राह का खींचा है मैंने
स्वयं मंज़िल उठी और चल पड़ी है
*
साँप के घर में है ममेन्टो-सा
किस सपेरे की बीन का टुकड़ा 
*
सदी बदल गयी फिर भी दिखाई देती है
इलाहाबाद के पथ पर वो तोड़ती पत्थर

'सदी बदल गयी फिर भी..' शेर के मर्म तक वही पहुँच सकता है जिसने महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी की कालजयी कविता 'वह तोड़ती पत्थर' पढ़ी है। इस कविता में 'निराला' जी ने गर्मियों की तेज धूप में एक मजदूर स्त्री की व्यथा कही है जो इलाहबाद की एक सड़क के किनारे पत्थर तोड़ रही है। उसी स्त्री की व्यथा का चित्रण इस शेर में किया गया है जिसकी स्तिथि में सदियों बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आया है। ग़ज़ल में ऐसे शेर अमूमन नज़र नहीं आते, ये दुर्लभ हैं।

इस तरह के अनूठे शेर कहने और समझने के लिए जरूरी है कि आपकी साहित्य पढ़ने में गहरी रूचि हो। ये सब यहाँ लिखने का मक़सद इतना ही है कि आप जितना अधिक पढ़ेंगे उतना अच्छा और अनूठा लिख सकेंगे वरना तो हम सब जानते ही हैं कि लीक पर चलने वालों के पैरों के निशान जल्द मिट जाते हैं।

उज्जैन मध्य प्रदेश, से लगभग 55 किलोमीटर दूर बसे मालवा क्षेत्र के 'गौतमपुरा' गांव के निवासी 'शंकर लाल' जी को जब 'आदिम जाति कल्याण विभाग' की ओर से नियुक्ति पत्र मिला तो उनकी खुशी का पारावार न रहा। घर की बिगड़ती आर्थिक परिस्थिति के मध्य ₹50 माहवार की सरकारी नौकरी मिलना किसी वरदान से कम नहीं था । वयस्क होने की और अग्रसर शंकर लाल जी को विभाग की तरफ से आदेश मिला कि वो आदिवासियों के गांव 'रूप खेड़ा' जाएं और वहाँ जाकर बच्चों को पढ़ाएं। 'रूपखेड़ा' मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में है जो अधिक विकसित इलाक़ा नहीं है। 'रूप खेड़ा' नाम के निमाड़ क्षेत्र में तीन चार गांव थे, लेकिन विभाग ने 'शंकर लाल' जी को ये बताना जरूरी नहीं समझा कि वो कौन से वाले 'रूपखेड़ा' गांव में जाएं। जोश से लबरेज़ 'शंकर लाल' जी नियुक्ति पत्र लिए एक 'रूपखेड़ा' से दूसरे 'रूपखेड़ा' तक भटकते रहे, आखिरकार जब वो अपनी नियुक्ति वाले 'रूप खेड़ा' गांव किसी तरह से पहुंचे तो भोंचक्के रह गए । उन्हें इस बात का अंदाजा तो था कि ये घने जंगलों से घिरा एक आदिवासियों का गाँव है लेकिन इसका अंदाज़ा नहीं था कि ये इतना पिछड़ा होगा कि इसके निवासी नाम मात्र के वस्त्र पहने मिलेंगे जो निमाड़ी कम और उनकी अपनी भीलों की भाषा ही बोलते हैं। ये 1954 की बात है, गांव में लगभग 40-50 कच्चे घर थे और 200 के करीब की जनसंख्या थी । गांव के पटेल का ही घर थोड़ा बहुत पक्का था । गांव के पटेल ने 'शंकर लाल' जी को अपने घर में आश्रय दिया ।

'रूप खेड़ा' में जहां मूलभूत सुविधाएं ही ना हो आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल चलाना एक असाध्य कार्य था ।"जहाँ चाह वहाँ राह" उक्ति को सच करते हुए 'शंकर लाल' जी इस असंभव कार्य को संभव करने में जुट गए ।'रूप खेड़ा' गांव के ही नहीं बल्कि आसपास गांव के घरों से भी वो बच्चे इकट्ठे करने लगे। धीरे-धीरे उनका भागीरथी प्रयास रंग लाया और गांव के बच्चों में शिक्षा की गंगा बहने लगी। गाँव के पटेल के घर के आँगन में कक्षाएँ आरम्भ हुईं। बाद में जब उन्होंने अपना एक मकान वहां बनवा लिया तो वो उसी मकान में स्कूल चलाने लगे जो बहुत सालों तक अबाध गति से चलता रहा।

पढाई के अलावा बहुमुखी प्रतिभा के धनी 'शंकर लाल' जी ने बच्चों को गायन और नाटक की विधा से भी परिचय करवाया। शंकर लाल जी जब गाँव में संगीत सुनने को ट्रांजिस्टर लाये तो पूरा गाँव इस अजूबे को देखने आने लगा जिसमें से आवाज़ आती थी। ऐसे गाँव में जहाँ एक भी बच्चा पढता नहीं था वहां 'शंकर लाल' जी के प्रयासों से लगभग पचास बच्चे शिक्षा ग्रहण करने लगे। गाँव में 'वीर तेजा' जी और रामदेव जी महाराज की कथाओं वाले नाटक मंचित होने लगे जिसे देखने आस पड़ौस के हज़ारों लोग देखने आते। ये एक सब धीरे धीरे 'शंकर लाल' जी के सालोँ के अथक परिश्रम से संभव हो पाया । 'शंकर लाल' जी को गांव का वातावरण, वहां के सीधे सादे आदिवासी लोग, जंगल और पहाड़ इतने भाए कि वो वहांँ रम गए ।

इसी पिछड़े 'रूपखेड़ा' गांव में 1 सितंबर 1969 को हमारे आज के शायर 'विजय कुमार स्वर्णकार' जी का जन्म हुआ जिनकी ग़ज़लों की किताब 'शब्दभेदी' आज हमारे सामने हैं. इस किताब को भारतीय ज्ञानपीठ ने छापा है और ये अमेजन पर ऑन लाइन उपलब्ब्ध है।
  

गजब जुनून है बाती में ढल के जलने का 
ये किस के खेत में उपजा कपास है लोगो

उजाले बांँट दे और आग दायरे में रखे 
उसूल ख़ास ये सूरज के पास है लोगो
*
हर कदम चार के बराबर है 
जब से यह तेरी रहगुज़र आयी
*
मौत को हक़ नहीं जल्दबाज़ी करे
आदमी को अगर ज़िंदगी मार दे
*
सृष्टि में हर कोई अनोखा है 
किसलिए ढूंँढिए स्वयं जैसे 

हमको रास आती है नयी दुनिया 
आपके शौक़ म्यूजियम जैसे
*
सीढ़ियां मेहरबान है मुझ पर 
तू कुआं दे मुझे कि खाई दे
*
क़ैद होना ही था तुमको आख़िरश 
किसलिए तुम ख्व़ाहिशों के घर गए
*
सूरत बदल भी जाए तो सीरत न जाए है 
पत्थर नदी में गोल हुआ गल नहीं गया
*
यही है 'शब्दभेदी' की प्रतिज्ञा 
न अपने ध्येय से भटके न स्वर से

विजय जी की प्रारंभिक शिक्षा वहीँ छोटे से आदिवासी गाँव 'रूप खेड़ा' में हुई। चौथी कक्षा तक विजय जी रूप खेड़ा में पढ़े बाद में पास के गाँव में जो लगभग पाँच किलोमीटर दूर था के स्कूल में सातवीं तक पढ़े। उसके बाद वो 'ठीकरी' जो एक क़स्बा था और वहां ग्यारवीं तक का स्कूल था पढ़ने चले आये। 'ठीकरी' आने के बाद विजय जी वहाँ के एकमात्र पुस्तकालय में नियमित जाने लगे और पुस्तकालय में आने वाली सभी साहित्यिक पत्रिकाएँ और किताबें दीवानावार पढ़ने लगे। पढ़ने का ये शौक भी उन्हें अपने पिता से मिला जो दूर कस्बे की किसी रद्दी की दूकान से उनके लिए पत्र-पत्रिकाएं खरीद लाते थे। विजय जी शुरू से ही मेधावी छात्र रहे उन्होंने आठवीं में टॉप करने के बाद ग्यारवीं में भी टॉप किया और ग्यारवीं की परीक्षा में उनके द्वारा प्राप्त अंकों का रिकार्ड आज तक नहीं टूट पाया।

ग्यारवीं में टॉप करने पर उन्हें नेशनल स्कॉलरशिप मिली और उनका इंदौर के पॉलिटेक्निक कॉलेज में दाख़िला हो गया। पॉलिटेक्निक कॉलेज में मिली छुट्टियों का सदुपयोग उन्होंने पुस्तकालय जा कर किताबें पढ़ने में किया। हिंदी के अतिरिक्त राजकमल द्वारा प्रकाशित विश्व साहित्य की श्रेष्ठ पुस्तकों से भी उनका परिचय हुआ। विजय जी ने पॉलिटेक्निक कॉलेज में भी टॉप किया और फलस्वरूप उन्हें इंदौर के इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला मिल गया।

पॉलिटेक्निक और इंजीनियरिंग कॉलेज में पढाई के दौरान उनका लेखन की और रुझान हुआ। कॉलेज से निकलने वाली पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपी। इंजीनियरिंग के कठिन विषयों के साथ-साथ हिंदी साहित्य से उनका जुड़ाव बना रहा और वो जब भी समय मिलता हिंदी और विश्व साहित्य की श्रेष्ठ किताबें पढ़ते। पढ़ने की इस आदत ने उनकी समझ को विकसित किया। भाव को भाषा में किस तरह व्यक्त किया जाता है ये उन्होंने समझा। इसका सकारात्मक असर उनके लेखन पर भी हुआ, उसमें परिपक्वता आयी । सन 1991 में इंजीनियरिंग करते ही उनका चयन केंद्रीय लोक कल्याण विभाग में (सी.पी.डब्ल्यू डी.) कनिष्ठ अभियंता के पद पर हो गया। 'रूप खेड़ा' जैसे पिछड़े आदिवासी गाँव में जन्में और पले बच्चे के लिए प्रथम श्रेणी से इंजीनियरिंग करके राजधानी दिल्ली में सरकारी नौकरी पाना कितना कठिन रहा होगा लेकिन अपनी अथक मेहनत लगन और जुझारू प्रवृति के चलते उन्होंने ये मुकाम हासिल किया। किसी भी परिस्थिति में हार न मानने वाली प्रवृति उन्होंने अपने पिता से प्राप्त की।
        
हंँसती है आसमान में बिजली ये सोचकर 
ख़तरे में कोई और है सदमे में कोई और 

बातें न ख़ुद से कीजिए होता है ये भरम 
रहता है साथ आपके कमरे में कोई और
*
यही दुख है किनारों-सा बदन है 
नहीं तो मन मेरा लहरों का वन है 

तुम्हें यह मन बड़ा करना पड़ेगा 
पता है इश्क़ का क्या आयतन है 

ये रिश्ते क्यों कहीं जाते नहीं है
न जाने किस ज़माने की थकन है
*
अभी कुछ देर पहले हम लुटे हैं सुख के जत्थे से 
दुखो! अफसोस है लश्कर तुम्हारा देर से पहुंचा
*
उस नशे में हूंँ अब कि ख़ुद मुझको 
छोड़ देगी शराब भी शायद 
*
तुम अपने बोझ से आधे धँसे बैठे थे धरती में 
तुम्हें कुछ सोच कर यह आसमां सर पर उठाना था
*
जिस जगह से भी चांँद को देखो 
ऐसा लगता है वो वहीं का है
*
मचान गिरने से, मौक़े पे, मेमने के क़रीब 
बदल गई है फ़जा में शिकार की ख़ुशबू

एक तो सरकारी नौकरी उसके कुछ वर्षों पश्चात हुए विवाह और विवाह से उत्पन्न पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते विजय जी का लेखन पीछे छूट गया। कुछ वर्षों तक वो कभी कभी सिर्फ मुक्त छंद लिखते रहे।सन 2011 के आसपास उन्हें आभास होने लगा कि मुक्त छंद से अधिक उनका रुझान ग़ज़ल लेखन की और अधिक है । जब उन्होंने ग़ज़ल कहना शुरू किया तो उसमें आ रही तकनीकी कमजोरियों की ओर लोगों ने उनका ध्यान खींचा और सलाह दी कि वो ग़ज़ल का व्याकरण सीखे बग़ैर ग़ज़लें न कहें।

सन 2012 में उनके हाथ श्री 'गोविंद चानन पुरी' साहब की किताब 'ग़ज़ल एक अध्ययन' हाथ लगी।इस किताब ने विजय जी के लेखन की दिशा बदल दी जिसे बाद में परिष्कृत किया श्री कुँअर बेचैन, निश्तर ख़ानक़ाही और आर.पी.शर्मा जी जैसे विद्ववानों द्वारा ग़ज़ल व्याकरण पर लिखी किताबों ने। ग़ालिब के दीवान को बार बार पढ़ कर उन्होंने शेर में कहन का सलीक़ा सीखा।

राजपाल एण्ड संस द्वारा प्रकाशित और 'प्रकाश पंडित' द्वारा संपादित 'लोकप्रिय शायर और उनकी शायरी' श्रृखंला की सभी किताबों के साथ साथ 'अयोध्या प्रसाद गोयलीय' जी द्वारा लिखी सभी किताबें विजय जी ने धीरे धीरे समझ कर पढ़ीं। जिन्होंने इन किताबों को पढ़ा है वो जानते हैं कि इन्हें पढ़ने से आपकी शायरी की समझ बढ़ जाती है।

न इश्क़ चंद्रमुखी से इसे न पारो से 
हमारे दिल में अजब देवदास बैठा है 

तुम्हारी बज़्म में रुसवा हैं होशमंद सभी 
वो ख़ुशनसीब है जो बदहवास बैठा है
*
खुद मुसव्विर भी है हैरान तमाशाई भी 
कैसे तस्वीर के पिंजरे से परिंदा निकला

कोई सूरत न थी उठ जाते हवा में दोनों 
पांँव दलदल से जो निकला वो अकेला निकला 

आ गया याद तेरा जाना, बिखरना मेरा 
टूट कर जब किसी तस्बीह से धागा निकला

ग़ज़ल कहना भी एक तरह का नशा है। शायरी आपके भीतर साँस की तरह अनवरत चलती रहती है और जब तक क़ाग़ज पर नहीं उतरती तब तक आपको बेचैन किये रखती है। एक कैफ़ियत है जो हमेशा आपके ज़हन पर तारी रहती है। आप शायद ये जानकर हैरान होंगें कि सात आठ सालों के दौरान विजय जी ने अपनी कही हज़ार से ज्यादा ग़ज़लों में से सिर्फ़ 99 ही अपनी किताब 'शब्दभेदी' में संकलित की हैं। अपनी ग़ज़लों की इसकदर काटछाँट करना भी साहस का काम है।अक्सर लोग किताब छपवाने की जल्दी में अपनी कमजोर ग़ज़लों को भी शामिल कर लेते हैं, नतीजा किताब जल्द ही अपना वजूद खो देती है।

विजय जी फेसबुक पर चल रहे 'काव्योदय' ग्रुप के सदस्य बने जिसमें रोज एक मिसरा दिया जाता था जिसपर ग़ज़ल कहने की मश्क करनी होती थी। बहुत से सदस्य ग़ज़ल का व्याकरण जाने बिना अपनी ग़ज़ल़ें पोस्ट करते थे। ऐसी ग़ज़लों पर विजय जी अपनी टिप्पणी से उन्हें समझाते कि कहाँ क्या ग़लती हुई है। कुछ लोग इस बात के लिए उनका धन्यवाद करते तो कुछ नाराज़ भी हो जाते। जो लोग ग़ज़ल वाकई सीखने में इच्छुक थे उन्होंने विजय जी से एक अलग ग्रुप बनाने का अनुरोध किया जिसमें सिर्फ़ वो ही लोग जो स्वेच्छा से ग़ज़ल का व्याकरण सीखना चाहते हैं आपस में जुड़ें ।अत: ग़ज़ल सीखने वालों का एक अलग समूह बनाया गया जिसमें विजय जी ने ग़ज़ल के व्याकरण के अलवा खुद के बनाए एक आसान वैज्ञानिक तरीके से भी लोगों को अवगत करवाया जिसकी मदद से कोई भी किसी भी ग़ज़ल की बहर जान सकता है। उनके ग़ज़ल लेखन पर बनाए वीडियो से हजारों लोग लाभान्वित हो चुके हैं। वीडियोज की ये श्रृँखला आपको ग़ज़ल लेखन की सभी बारीकियों से अवगत करवाने में सक्षम है। इन वीडियोज के पहले भाग के लिए आप यहाँ क्लिक करें :-

https://youtu.be/XH2t-Z7kcAg

यह शहर क़ब्रगाह है बस फ़र्क़ है कि लोग 
रहते नहीं है चैन से अपने मज़ार में
*
अक्सर हुआ है छल ये मेरे साथ दोस्तों 
खो जाए कोई भीड़ में जैसे पुकार कर  
*
हैं ग़म अपने मगर खुशियांँ परायी 
कहांँ तक ग़ैर का अहसान लोगे 
*
आपने दस्तकें सुनी होतीं 
आज मैं दर-ब-दर नहीं होता 
*
सबको पता था चार ही दिन की है ज़िंदगी 
लेकिन ये कब पता था, भुला देंगे एक दिन
*
कहांँ, पत्ते ! तुझे हासिल थीं ये आज़ादियांँ पहले 
गिरा है टूट कर तो अब हवाओं से निभाता जा
*
नाकामियों से दिल कभी छोटा नहीं करते 
सोचो कि कोई और बड़ा सोच रहा है
*
इसमें रीटेक हो नहीं सकते 
ज़िंदगी इक सजीव नाटक है 

एक सपना ही डाल दो आकर 
कब से ख़ाली नयन की गुल्लक है 

तेरे-मेरे नयन युगल ज्ञानी 
एक पुस्तक है, एक पाठक है

ग़ज़ल सीखने सिखाने की प्रक्रिया में विजय जी का मेलजोल बहुत से उस्ताद शायरों से हुआ जिनमें श्री सर्वेश चंदौसवी, मंगल नसीम, गोविंद गुलशन, कृष्णकुमार नाज़ ,अंबर खरबंदा, हरेराम समीप, ओमप्रकाश यति, कमलेश भट्ट कमल,अनमोल शुक्ल अनमोल, शेषधर तिवारी तथा द्विजेन्द्र द्विज विशेष उल्लेखनीय हैं। 'सर्वेश' जी जो हमें कोरोना काल में असमय छोड़कर चले गये बहुत बड़े लिख्खाड़ थे ,उनकी सं 2014 में 14 किताबें सं 2015 में 15 किताबें सं 2016 में 16 किताबें और सं 2017 में 17 किताबें प्रकाशित हुईं। ऐसा करिश्मा करने वाले वो दुनिया के अकेले शायर हैं इसी वजह से उनका नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड और लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में दर्ज़ है। उन्होंने ही विजय जी को शायरी की ऐसी बारीकियों से परिचय करवाया जो सिर्फ़ अनुभव से सीखी जा सकती हैं।सर्वेश जी और विजय जी की शायरी का अंदाज़ अलग है लेकिन सर्वेश जी के सानिध्य से विजय जी बहुत लाभान्वित हुए। सर्वेश जी की कमी को विजय जी बहुत शिद्दत से महसूस करते हैं। द्विज जी, जिन्होंने इस किताब के फ्लैप पर लिखा भी है, ने भी विजय जी की लेखन के दौरान आई मुश्किलों को आसान किया।

विजय जी की इस किताब के फ्लैप पर द्विजेन्द्र द्विज जी लिखते हैं कि 'जीवन के अनुभव जगत के रणक्षेत्र के कोने कोने में विशेष भूमिका में निरंतर कटिबद्ध इस विलक्षण धनुर्धर शाइर तीर का अपना ही अंदाज़ है। साधारण शब्द भी उनकी असाधारण काव्य प्रतिभा के स्पर्श से बिम्बों, प्रतीकों उपमाओं और रूपकों में परिवर्तित होकर सुधी पाठक पर अपना जादू जगाते हैं। विजय जी की ग़ज़लों में तमाम समकालीन विमर्शों और विषयों की विविधता का विस्तीर्ण आकाश है। ये ग़ज़लें हमारे क्रूर समय के विरुद्ध जागरण की ग़ज़लें हैं'।

हुई धरती हरी सावन में लेकिन 
वफ़ा पगडंडियों की देखिये तो 

सलाख़ें हैं मगर पल्ले खुले हैं 
शरारत खिड़कियों की देखिये तो
*
हम इधर बैठे हैं ख़ाली-ख़ाली 
और उधर तुम कि भरे बैठे हो
*
ख़ार को ख़ार कह न सकता था 
फूल को फूल कह के छूटा मैं 

अब है संभावनाएंँ मुट्ठी की 
आप हैं उंँगलियांँ, अंँगूठा मैं 

इश्क़ ने चख लिया तमन्नाओ! 
बख़्श दो हो गया हूंँ जूठा मैं
*
क्या वक़्त आ गया है कि मुद्दत हुई मगर 
फ़ुर्सत नहीं कि सोचिए, फ़ुर्सत कहां गयी
*
इसी यक़ीं पर ज़मीन है क़ायम 
आसमां भी है और वो भी है
सुनते हैं जहां क़त्ल किए जाते हैं इंसान 
क़ातिल ने वहांँ दैर-ओ-हरम ढूंँढ लिए हैं
*
तुम-सा ना हुआ और, न तुम-सा है कोई और 
किस-किस से इन्हीं बातों पर तक़रार करोगे

'विजय' जी मुशायरों के शायर नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि मुशायरों के शायर दोयम दर्ज़े के होते हैं, कभी मुशायरों में कमाल की शायरी सुनने को मिला करती थी ,अब भी मिलती है लेकिन बहुत कम। मुशायरों में सामईन की पसंद का ख़्याल रख कर शायरी करनी होती है और विजय जी शायद इससे बचना चाहते हैं। चाहे विजय जी मुशायरों के मंचों से दूर रहें हों लेकिन उन्होने दिल्ली में सं 2013 से आगामी कुछ वर्षों तक बहुत क़ामयाब कार्यक्रम करवाए जिनमें ग़ज़ल सीखने वालों ने अपनी ग़ज़लें दूसरों के साथ साझा कीं और एक दूसरे से सीखा। उनके इन प्रयासों की बहुत प्रशंसा हुई।

'रूपखेड़ा' जैसे पिछड़े गाँव में जन्में विजय जी, जहाँ आज भी घरों में बिजली नहीं आयी है, कई वर्ष दिल्ली जैसे महानगर में रह कर अपनी कलम का लोहा मनवा चुके हैं। सं 2013 से 2020 के दौरान ग़ज़ल के लगभग दस अलग साझा संकलनों में उनकी ग़ज़लें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनदिनों वो मैसूर में कार्यरत हैं। उनके घर का माहौल भी साहित्यिक है इसी के चलते उनकी पत्नी 'माधुरी' जी भी लेखन की और आकृष्ट हुईं। सं 2018 में उनका मुक्तकाव्य संग्रह 'उदगम से संगम तक' अयन प्रकाशन से प्रकाशित हो चुका है।

मृदुभाषी, सरल, सहज 'विजय कुमार स्वर्णकार' एक ऐसे ग़ज़लकार हैं जिनसे ग़ज़ल सीखने वालों की संख्या हज़ारों में है, जिनकी विशाल फैन फॉलोइंग देश और दुनिया के कई देशों फैली हुई है , जो आज भी खुद को ग़ज़ल का एक अदना सा विद्यार्थी मानते है और जिनमें छोटे बच्चे की तरह नया कुछ सीखने की ललक हमेशा बनी रहती है। ऐसे प्रतिभाशाली शायर से बात करने के लिए अधिक विचारिये नहीं , मोबाइल उठाइये और उन्हें 9958556141 पर फोन करके बधाई दीजिये।

इनको ठोकर न मारना कोई 
घर के बूढ़े-बड़े हैं दरवाज़े
*
आज ही तय कीजिए कल क्या कहेंगे क़ौम को 
हम अभी आज़ाद हैं या हम कभी आज़ाद थे
*
हुनर पे शम्स के, हैरत में आंखों वाले हैं 
लगी है आग कहांँ और कहांँ उजाले हैं
शम्स: सूरज
*
ए सर्द हवाओ! इसे चादर न समझना 
फ़ुटपाथ ने मुफ़लिस का बदन ओढ़ रखा है
*
कहने को तो कहते हो हमें पहले-सा अपना 
कहने में मगर पहले-सा उत्साह नहीं है


71 comments:

  1. बेहतरीन लिखा है,आभार सर्

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    1. बहुत बहुत आभार आपका
      नमन

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    2. बहुत आत्मीयता से लिखी हुई समीक्षा जो विजय साहब के जीवन के अनजान पहलुओं पर भी प्रकाश डालती है। मुझे गर्व है कि विजय साहब मुझे पहचानते हैं। सादर

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    3. गहन समीक्षा के लिए बहुत धन्यवाद सर
      आपकी इस समीक्षा ने शब्दभेदी को ऊँचाई प्रदान की🙏🙏

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  2. जिंदगी की तकलीफों को झेलकर ... उन संवेदनाओं को जीते हुए ...विजय कुमार स्वर्णकार जी ने एक अच्छा ग़ज़ल संग्रह लिखा है... उनके परिचय के लिए आप श्री का बहुत-बहुत शुक्रिया ... आर्डर करते हैं ।

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    1. शुक्रिया मोहन जी स्नेह बनाए रखें..

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    2. आभार आदरणीय

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  3. नीरज भाई बेहतरीन समीक्षक हैं। अभूतपूर्व समीक्षा के लिए आपको बधाई विजय भाई।

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    1. नमस्कार तिवारी जी...बहुत धन्यवाद आपका

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    2. आभार आदरणीय आशीर्वाद बनाए रखिये

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  4. बेहतरीन समीक्षा।
    समीक्षक व कवि दोनों को साधुवाद।

    जीवनी संघर्षमय हो तो सँवरती है ग़ज़ल।
    अनुभवों को व्यक्त करने से निखरती है ग़ज़ल।
    जूझ कर कठिनाइयों से जो सदा आगे बढ़े -
    वे कहें तो पाठकों से बात करती है ग़ज़ल।

    अनिल अनवर
    जोधपुर

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  5. आपके क़लम के जादू ने कमाल कर दिया है। सर उठा कर जीना और अन्य अज़ीम शाइरों की सही पहचान करवाना आपकी काव्यात्मक प्रकृति और मनमोहक शैली की सराहनीय उप्लब्धि है। जज़्बात के सौंदर्य और यथार्थ की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए शाइर विजय कुमार 'स्वर्णकार' को सलाम और हार्दिक शुभकामनाएँ !

    -कर्नल तिलक राज (सेवा निवृत्त चीफ़ पी.एम.जी.)
    जालंधर

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  6. बहुत ही बेहतरीन तरीके से शायर से रूबरू कराया है आपने।
    नमन नमन नमन आपको🙏🏼🙏🏼🙏🏼

    बनवारी मूँधड़ा

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  7. बहुत बहुत बढिया समालोचना!
    आप को बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद!!

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  8. आपका आलेख पढ़ना शुरू करते ही यह स्पष्ट हो गया कि आज के शायर का सान्निध्य ग़ज़ल के हुनरमंदों से रह है। हर शेर परिपक्वतापूर्ण है। आश्चर्य है कि पहले कभी इन्हें पढ़ने का अवसर नहीं मिला।
    आभार एक और नायाब शायर से मुलाकात कराने का।

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  9. लाजवाब समीक्षा। बधाई।

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  10. विजय कुमार स्वर्णकार जी और उनकी लाजवाब शाइरी के बारे में जानने और सीखने समझने का अवसर उपलब्ध कराती सुंदर समीक्षा हेतु बधाई!
    नमन

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    1. आदरणीय विजय जी के जीवन और लेखन के बारे में जानने का अवसर मिला.... साधुवाद।

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  11. किताबों की दुनिया:235
    "शब्दभेदी"शायर जनाब विजय कुमार स्वर्णकार।
    वाया ब्लाग" तुझको रखे राम तुझ को अल्लाह रक्खे,
    दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे। जिसके सरबरा मोहतरम आली जनाब नीरज गोस्वामी जी जैपुर वाले। नीरज जी के बारे में, ज़्यादा कुछ नहीं कहूंगा फिर मेरे से थोड़े से नाराज़ हो जातें हैं। सिर्फ लोऔत्से की दो पंक्तियां कह कर,फिर किताब पर और शायर पर बात करुंगा लोऔत्से कहते हैं
    " किसी का गहराई से प्रेम पाना ताकत देता है और किसी को गहराई से प्रेम करना साहस देता है"।
    जो शायर/शाइरा नीरज जी के ज़ेरे साया आ गया उसका बुलंदियों को छना सभाविक है।अब बात करते हैं शायर जनाब विजय कुमार स्वर्णकार जी की, एक बेहतरीन, दानिश्वर और मुफ़क़ि्क़राना तबियत का मालिक और एक मुकम्मल अदब आशना इंसान।अदब के प्रति इंतहाई फ़िक्रमंद शख़िसयत। जहां तक मुझे याद पिछले आठ साल से मैं विजय जी से रुहे शनास हूं। तीन दफा दिल्ली में मेरी मुलाकात हुई, उनमें से एक मुलाकात बहुत ही अहम है जिसका मैं ज़िक्र करना चाहूंगा बात 2017 की है, मोहतरमा ज्योति आज़ाद खत्री साहिबा का ग़ज़ल संग्रह"आज़ाद क़लम "का रस्मे इजरा था,जिसकी निक़ाबकुशाई मोहतरम आला जनाब, कप्तान सिंह सोलंकी साहिब, राज्यपाल हरियाणा जी के हाथों होनी थी और ख़ाकसार को वहां किताब पर पर्चा पढ़ना था। ये मेरा सौभाग्य था। प्रोग्राम समाप्त होने के बाद खाने पर पंहचे तब विजय और माधुरी,विजय जी की शरीके हयात दोनों मेरे पास आए और मेरे पांव छुए और मैं ने आशिर्वाद दिया बेटा तुम्हारी शायरी बहुत अच्छी है मैं इतना ही कह सकता हूं कि विजय ने त़ालिम के साथ साथ अपने माता-पिता से जो तरबियत पाई है ये उसी का नतीजा है। और अपने उस्ताद जनाब सर्वेश चंदौसवी के तवाफ़ का सिला है। विजय कुमार स्वर्णकार जी की शायरी पुख़्ता ही नहीं बल्कि उस्तादाना शायरी है।बहर की पकड़ मजबूत और लाजवाब है शायरी में रिवायत के साथ जदीयत का दामन भी बड़ा मजबूती से पकड़ा है। किताब का टाइटल और तस्वीर दोनों ही खूबसूरत हैं। विजय जी की इस काविश को सलाम करता हूं। खूब तरक्की करो। विजय ने कुछ ऐसे अश आर कहे हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं एक शेर बहरे हज़ज सालिम (मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन)
    "कहां पत्ते तुझे हासिल थीं ये आज़ादियां पहले
    गिरा है टूट कर तो अब हवाओं से निभाता जा"
    और एक शेर और देखिएगा
    गज़ब जनून है बाती में ढल के जलने का
    ये किस के खेत में उपजा कपास है लोगों।
    विजय बेशक सटेजी शायर नहीं है याद रखना,अकेडमिक शायर बहुत बड़ी बात होती है मैं ज़्यादा तफसील में नहीं जाऊंगा, इशारा ही काफी है
    एक बार फिर नीरज जी को और विजय जी को नमन।
    कोई लफ़्ज़ ग़लत इबारत हो गया हो तो मुआफ कर देना।

    ख़ाकसार
    सागर सियालकोटी लुधियाना
    Mobile 98768-65957

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  12. एक बार फिर से अपने निराले अंदाज़ में न केवल विजय कुमार जी की खूबियों से परिचय कराया बल्कि उनके उम्दा शेरों से भी रु-ब-रु कराया।
    आपका हार्दिक आभार।
    चंद्र मोहन गुप्त

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  13. जानने को तो विजय स्वर्णकार जी को हम पहले भी जानते थे लेकिन आपकी रोचक क़लम से और भ8 अच्छे से जान गए ...

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  14. संघर्ष को सलाम और शब्द को सम्मान

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  15. भीड़ में रहते हुए भी भीड़ से अलग दिखने का भरपूर प्रयास प्रदीप्त करते अशआर, तमाम ताज़गी से लबरेज़ मफ़हूम और पिता पुत्र के संघर्षों की सम्यक परिणिति स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है । आदरणीय द्विज साहब से इस विषय पर पहले भी बात हुई है । आदरणीय नीरज जी आपका यह ब्लॉग शायरी का डिस्कवरी चैनल बनता जा रहा है । अभिनन्दन । जय श्री कृष्ण ।

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    1. नवीन भाई बहुत बहुत धन्यवाद...🙏

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  16. विजय कुमार स्वर्णकार जी के बारे में द्विजेंद्र द्विज साहिब द्वारा ही पता चला। वह उन्हें अपना गुरू मानते हैं। उन्हें द्विज साहिब के लाइव प्रोग्राम में सुनने का मौका मिला। शायद एक आध गजल को गजलकार मुसाफिर साहिब ने गाया भी है। मैं खुद को अभी इस काबिल नहीं समझता कि किसी की रचना की समीक्षा या टिप्पणी कर सकूं। मैं नीरज साहिब से क्षमा चाहूंगा यदि मुझसे कुछ गलत लिखा गया हो। नीरज गोस्वमी जी द्वारा उनकी पुस्तक की समालोचना द्वारा उनके जीवन के बारे जाना। आदिवासी और बहुत ही पिछड़े गाँव रूपखेड़ा से पढ़ाई कर दिल्ली तक का सफर उनके संघर्षमय जीवन को दर्शाता है। ग्यारवीं कक्षा में प्राप्त अंकों के रिकार्ड़ का आज तक न टूट पाना उनकी योग्यता का प्रमाण है। हज़ार से ज्यादा गजलों में से 99 को चुनना कोई आसान कार्य नहीं रहा होगा । क्योंकि शायर कि हर रचना उसकी नायाब कृति होती
    है। मुझे भी उनकी किताब शब्दभेदी में से शे'र चुनना मुश्किल हो रहा है ।
    गजब जुनून है बाती में ढल के जलने का 
    ये किस के खेत में उपजा कपास है लोगो।
    *****
    उजाले बांँट दे और आग दायरे में रखे 
    उसूल ख़ास ये सूरज के पास है लोगो।
    *******
    सूरत बदल भी जाए तो सीरत न जाए है
    पत्थर नदी में गोल हुआ गल नहीं गया।
    ***
    ए सर्द हवाओ! इसे चादर न समझना
    फ़ुटपाथ ने मुफ़लिस का बदन ओढ़ रखा है।

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    1. विस्तार से दिए इस कमेंट के लिए आपका धन्यवाद... काश आपने अपना नाम भी दिया होता...

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    2. आप हैं, श्री मदनलाल सुमन काँगड़ा हिमाचल प्रदेश से। एक अभिन्न मित्र!

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    3. मदन लाल सुमन साहब का आभारी हूँ

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    4. नीरज साहब, कहीं प्रेषित करने में गलती हुई है। नौसिखिया जो ठहरा। द्विज साहिब ने मेरा परिचय करवा दिया, इसके लिए मैं उनका आभारी हूं।
      अब और बताने की जरूरत नहीं है फिर भी मैं मदन लाल सुमन आपका तह दिल से शुक्रगुजार हूं कि आपने इतनी लम्बी टिप्पणी पढ़ने के लिए समय निकाला। धन्यवाद। सादर प्रणाम।

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    5. भाई मदनलाल सुमन बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व दे स्वामी हैं।

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    6. आदरणीय मदन लाल जी आभार ।द्विज सर मेरे अग्रज हैं और गुरुसमान हैं ।

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  17. *प्यार ही प्यार हैं हम, हम पे भरोसा कीजे..."

    इस पोस्ट से जुड़ी दो विभूतियों आदरणीय भाई नीरज गोस्वामी जी और ग़ज़लगुरु प्रिय विजय कुमार स्वर्णकार जी के बारे यह बात मैं दावे के साथ इस लिए कह सकता हूँ क्योंकि ये दोनों विभूतियां ग़ज़ल विधा के अध्ययन, आस्वाद , परख, परिष्कार और अनुसंधान को तन मन धन से समर्पित हैं। स्वयं उत्कृष्ट रचनाकार होने के साथ साथ नये रचनाकारों को ग़ज़ल विधा के आकर्षक , किंतु संकरे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित और अनुशासित करने के लिए वर्षों से प्रयासरत हैं।
    अपने लेखन से उदास रूहों में जीने की आरज़ू भर देने की सकारात्मकता से ओतप्रोत आप दोनों विभूतियों को मेरा नमन!
    एक और अद्वित्तीय समीक्षा के लिए आपको हार्दिक बधाई , नीरज भाई साहिब। बधाई शब्दभेदी विजयकुमार स्वर्णकार साहिब को भी:
    "यही है शब्दभेदी की प्रतिज्ञा
    न अपने ध्येय से भटके न स्वर से"
    आपकी ग़ज़लें आपकी प्रतिज्ञा की कसौटी पर खरी उतरती हैं, पुनः बधाई💐


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    1. द्विज जी क्या कहूँ...धन्यवाद बहुत छोटा शब्द है न 😊

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  18. सब से पहले तो विजय जी को हार्दिक बधाई। उनकी शायरी के आगे नतमस्तक हूँ। आपकी समीक्षा की दाद देने के लिए तो शब्द ही नहीं। दोनों को दिल से बधाई।

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  19. https://youtu.be/XH2t-Z7kcAg

    सब से पहले श्री विजय कुमार स्वर्णकार'
    जी को बहुत बहुत मुबारकबाद ।
    शायद एक या दो दफा मैं इनसे मिल चुकी हूं
    बात नहीं हुई लेकिन बहुत संजीदा इंसान और बहुत अच्छे शायर हैं इतना जानती हूं माधुरी जी से वी 2 दफा मुलाकात हो चुकी है बहुत प्यारी इंसान हैं ।

    नीरज सर आप को तो कहूं ही क्या । इतनी शिद्दत से आप समीक्षा करते हैं। इतनी मेहनत इतनी लगन से आप अपने कार्य को अंजाम देते हो की मुझ जैसी को भी आपकी कलम ने सँवार दिया । इतने अच्छे इंसान हैं आप ।🙏

    अब बात करते हैं शायरी की
    विजय सर की शायरी अदभुत है।
    ऐसे ऐसे ख़्याल बांधे हैं जो हमारे रोज़मर्रा के जीवन के
    पल हैं । बहुत शेर हैं जो अपने लगते हैं साथ चलते हुए जैसे

    याद रख हम एक छाते के तले हैं 
    भूल जा रिमझिम है ऊपर या झड़ी है ।


    उजाले बांँट दे और आग दायरे में रखे 
    उसूल ख़ास ये सूरज के पास है लोगो

    हर कदम चार के बराबर है 
    जब से यह तेरी रहगुज़र आयी

    हंँसती है आसमान में बिजली ये सोचकर 
    ख़तरे में कोई और है सदमे में कोई और 


    क्या फ़िक्र है 👇

    गजब जुनून है बाती में ढल के जलने का 
    ये किस के खेत में उपजा कपास है लोगो

    सदी बदल गयी फिर भी दिखाई देती है
    इलाहाबाद के पथ पर वो तोड़ती पत्थर


    मौत को हक़ नहीं जल्दबाज़ी करे
    आदमी को अगर ज़िंदगी मार दे

    *आज ही तय कीजिए कल क्या कहेंगे क़ौम को 
    हम अभी आज़ाद हैं या हम कभी आज़ाद थे

    सूरत बदल भी जाए तो सीरत न जाए है 
    पत्थर नदी में गोल हुआ गल नहीं गया

    *
    तुम-सा ना हुआ और, न तुम-सा है कोई और 
    किस-किस से इन्हीं बातों पर तक़रार करोगे

    मैं तो अक्सर ख़ुद से बातें करती हूं👇 🙂

    बातें न ख़ुद से कीजिए होता है ये भरम 
    रहता है साथ आपके कमरे में कोई और

    अक्सर माला के मोती बिखरने की बात गाहे वगाहे की जाती है । लेकिन इस शेर में जो मंज़रकशी की है एक एक मानक सा टूट टूट कर बिखरना 👇 👇

    आ गया याद तेरा जाना, बिखरना मेरा 
    टूट कर जब किसी तस्बीह से धागा निकला

    अहा क्या शेर है । 👇
    इश्क़ ने चख लिया तमन्नाओ! 
    बख़्श दो हो गया हूंँ जूठा मैं

    विजय जी को साधुवाद ढेर बधाई मंगल कामनाएं
    कुछ विडियोज देखी हैं उनकी लेकिन अब लिंक से भी देखूंगी ।

    🙏🙏🙏🙏



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    1. बहुत शुक्रिया रश्मि जी

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    2. अक्सर और गाहे वगाहे में से कोई एक पढ़िएगा 😀🙏

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  20. नीरज जी , आपकी लेखनी में जादू है,एक बार पढ़ना शुरू करो तो खत्म किये बिना रहा नहीं जाता। विजय जी जैसे असाधारण ग़ज़लकार के जीवन पर इतनी विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराना बहुत रोमांचक है । विजय जी को मेरा नमन व शुभकामनाएं साथ में आपका बहुत बहुत धन्यवाद !आभार !साधुवाद 💐💐💐💐

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    1. जी बहुत धन्यवाद... लेकिन आपने अपना नाम नहीं लिखा...

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  21. आदरणीय नीरज सर
    आपकी अतुलनीय ऊर्जा ,लगन और लेखकीय क्षमता विस्मित करती है और आपकी सहजता विनम्रता और बड़प्पन अनुकरणीय है ।सतत साहित्यिक ध्येय को लेकर कार्यरत रहना और अपनी धरोहर और समकालीन ग़ज़लकारों को पाठकों से रूबरू करवाने का भागीरथी प्रयास अविस्मरणीय है ।आपके ब्लॉग में स्थान देकर पाना सम्मान की बात है ।आपकी समीक्षीय दृष्टि और प्रस्तुति निराली है ।पिताजी के जीवन संघर्ष और उपलब्धियों को आपने मान दिया उसके लिए आपका विशेष आभार आदरणीय
    प्रणाम

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  22. वाह वाह क्या कहना ज़िन्दाबाद नीरज जी बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़ ए बयां एक बार फिर ताज़ा मफ़हूम से लबरेज़ शायरी पढ़वाइ आपने
    गजब जुनून है बाती में ढल के जलने का
    ये किस के खेत में उपजा कपास है लोगो
    मोनी गोपाल 'तपिश'

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  23. Wah wah bhai sahab fir shandar aur atmiy batchit vijay kumar swarnkar aur unki kitab shabd bhedi par . Badhai apko.vilamb se dekh saka. Kshma

    Akhilesh Tiwari

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  24. वा$$$$ह ! हमेशा की तरह नायाब, सूचनात्मक, मज़हर, उद्बोधक, दिलचस्प और बहुत ही प्रेरक तहक़ीक़ के क्या कहने!

    जया गोस्वामी
    वरिष्ठ रचनाकार
    जयपुर

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  25. बेहतरीन अशआर और उससे भी शानदार मुक़द्दमा
    , वआआह वआआह वआआह ज़िन्दाबाद जनाब

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  26. क्या कहने बहुत ख़ूब

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  27. कया कहने बहुत
    ज़ाकिर अदीब बीकानेर

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  28. बहुत सुंदर जीवन एवं साहित्यिक परिचय सर। आदरणीय विजय सर की कुछ कक्षाएँ भी आपने सांझा कीं थी, बहुत बेहतरीन शिक्षक हैं सर।

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  29. वाह वाह क्या कहना ! ज़िन्दाबाद नीरज जी !

    आ गया याद तेरा जाना, बिखरना मेरा
    टूट कर जब किसी तस्बीह से धागा निकला

    क्या बात है !

    और कितना लाजवाब शे'र है ये । 👇

    इश्क़ ने चख लिया तमन्नाओ!
    बख़्श दो हो गया हूंँ जूठा मैं !

    ख़ूबसूरत अंदाज़ ए बयां | एक बार फिर ताज़ा मफ़हूम से लबरेज़ शायरी पढ़वाने का शुक्रिया |

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  30. वाह वाह वाह...
    शायर का और हर शे'र का बेहतरीन इंतख़ाब है सर आपका...

    तह-ए-दिल से शुक्रिया सर आपका इतना अच्छा वक़्त-दर-वक़्त पढ़वाने के लिए🙏🏻💐

    नकुल गोयल

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  31. Itna nashe me dekhkar
    Sharab ne bhi chhod diya mujhe
    ***
    ए सर्द हवाओ! इसे चादर न समझना
    फ़ुटपाथ ने मुफ़लिस का बदन ओढ़ रखा है।

    Sadhuwaad neeraj uncle.

    Aapka

    Vishal

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  32. Waaaaah waaaaah Neeraj Ji bahut khoob ek behtreen shayar aur unki shayari se parichay Karane ke liye Haardik aabhar... Aap ko aur Vijay Ji ko haardik badhai aur shubhkaamnaayen ... Raqeeb

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  33. आदरणीय विजय कुमार स्वर्णकार जी की किताब पर बहुत बढ़िया समीक्षा की है आपने सर जी, हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे