Monday, June 7, 2021

किताबों की दुनिया - 233


भारतीय रेलवे को अपने उस मुलाज़िम पर गर्व होना चाहिए जो ऐसा शायर है जिसने उर्दू अदब को अपनी ग़ज़लों से मालामाल किया है और जिसकी ग़ज़लें दुनिया भर के ग़ज़ल गायक आज भी गाते हैं। भारतीय रेलवे का तो पता नहीं लेकिन हर वो शख़्स जो इनके संपर्क में आया इसे आज भी अपने जीवन की बड़ी उप्लब्धी मानता है और इस बात पर गर्व करता है । शायर तो बहुत हुए हैं लेकिन ऐसा शायर जो सबको अपना सा लगता हो और जिसकी बातें याद करते ही लोगों का दिल भर आए, बहुत कम हुए हैं।

मैं शायर तो नहीं हूँ अलबत्ता कभी तुकबंदी किया करता था ,अब वो भी छोड़ दी है, खैर! तो कभी एक शेर हुआ था कि:
समझना तब हक़ीक़त में ये दुनिया जीत ली तूने
कि तेरे बाद जब घर में तुझे बच्चे तलाशेंगे

लोगों के पास आपकी मौजूदगी में आपको तलाशने और आपसे मुहब्बत करने के सैंकड़ों कारण हो सकते हैं लेकिन आपके दुनिया से जाने के बाद अगर लोगों को आपकी कमी महसूस हो तो समझिए कि जिंदगी का मक़सद पूरा हुआ। हमारे आज के शायर को इस दुनिया ए फ़ानी से जाने के बाद उनके बच्चे ही नहीं सभी अहबाब आज भी उतनी ही शिद्दत से अपनी यादों के गलियारों में तलाशते हैं जितनी शिद्दत से उनका साथ पाने को उन्हें यहाँ वहां उनकी मौजूदगी में तलाशा करते थे। ऐसा इसलिए है क्योंकि 'अच्छे लोगों को ढूँढना मुश्किल होता है, छोड़ना और भी मुश्किल और भूल जाना नामुमकिन।'

ये बुअद भी निगाहे-मोहब्बत पर बार है 
इतने करीब आओ कि तुम भी नज़र न आओ
बुअद: दूरी, बार : बोझ
*
तुम्हारी याद कितनी दिलनशीं है 
मैं अपने आपको भूला हुआ हूं 

मुझे अपने सिवा सब की ख़बर है 
मैं खुद को छोड़ कर सब से मिला हूं 

जिसे आना हो मेरे साथ आए 
मैं अपनी रोशनी में चल पड़ा हूं
*
ऐ जुर्मे आगही कोई ज़िन्दाँ तलाश कर 
खाते रहेंगे राह में पत्थर कहाँ तलक
जुर्मे-आगही: ज्ञान का जुर्म, जिन्दाँ: क़ैदखाना
*
अब जिंदगी न जाने करे हमसे क्या सुलूक 
जब तक तुम्हारा साथ रहा जी में जी रहा
*
दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है 
हम भी पागल हो जाएंगे ऐसा लगता है 

कितने दिनों के प्यासे होंगे यारों सोचो तो 
शबनम का क़तरा भी जिन को दरिया लगता है 

दुनिया भर की यादें हमसे मिलने आती हैं 
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है

आंखों को भी ले डूबा ये दिल का पागलपन 
आते जाते जो मिलता है तुम सा लगता है

हमारे आज के शायर की जिस किताब को आपके लिए लाया हूँ उसमें मुझे दो बहुत बड़ी खराबियां नज़र आईं । वैसे खराबियां नहीं कहना चाहिए लेकिन जब तक मुझे कोई दूसरा लफ़्ज नहीं मिलता इसी से काम चलाना पड़ेगा। पहली खराबी तो ये कि लगभग 230 पेज की इस एक किताब को पढ़ने में मुझे इतना वक्त लगा जितना दूसरी 230 किताबें पढ़ने में नहीं लगा होगा। कारण -इस किताब का हर शेर मुझे ठिठकने को और फिर फिर पढ़ने को मजबूर करता, आगे बढ़ने ही नहीं देता किसी तरह आगे बढ़ भी जाता तो पिछले शेर की कशिश मुझे वापस खींच लेती। ये किताब ऐसी बुरी आदत की तरह मुझे लगी जो छूटे नहीं छूटती। इस किताब का अपना नशा है और नशा तो बुरा माना गया है लेकिन जिन्हें इस नशे की लत शराब की लत की तरह लगती है वही कहते हैं ' लुत्फ़े मय तुमसे क्या कहूँ जाहिद, हाय कमबख्त़ तूने पी ही नहीं'। 
इस किताब को जितनी बार पढ़ने को हाथ में लिया हमेशा लगा कि पहली बार पढ़ रहा हूँ।। ये पहली नज़र के प्यार जैसी नहीं है जो दूसरी नज़र में बासी हो जाता है। हर चीज दूसरी नज़र में बासी हो जाती है और जो नहीं होती उसी के लिए शायर 'विज्ञान व्रत' साहब का शेर है कि ' तुमसे जितनी बार मिला हूँ, पहली पहली बार मिला हूँ' । 

दूसरी खराबी इस किताब की ये है कि ये किताब अब बाज़ार में उपलब्ध नहीं है। क्यों नहीं है ये मुझे नहीं पता, बस इतना पता है कि उपलब्ध नहीं है। इसे मैं सबसे बड़ी खराबी मानता हूँ। हिंदी में इतने शायरों की किताबें आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे शायर हैं जिनकी किताबें उपलब्ध होनी चाहिएं लेकिन नहीं हैं। इसे मैं उन बेहतरीन शायरों की बदकिस्मती कहूँ जिन्हें हिंदी पाठकों का विशाल संसार नहीं मिला या हिंदी पाठकों की जिन्हें उन बेहतरीन शायरों का क़लाम पढ़ने को नहीं मिल रहा ।

खैर! जो किताब मेरे सामने है उसका नाम है 'पत्थर हवा में फेंके' और शायर हैं मरहूम जनाब 'क़ैसर-उल-जाफ़री' साहब। इस क़िताब में क़ैसर साहब की पिछली चार किताबों (रंग-ए-हिना -1964 , संग-आशना -1977, दश्ते- बेतमन्ना-1988 और हर्फ़े-तसलीम-1955 ) का निचोड़ है। इस किताब को हिंदी बुक सेन्टर, नई दिल्ली ने 1995 में प्रकाशित किया था। इस किताब का इज़रा मुंबई के 'नेहरू सेंटर' वर्ली में हुआ था।उस मौके पर प्रकाशित एक पैमफ्लेट में जनाब शाहिद लतीफ़ साहब का ये कोट जाफ़री साहब की शायरी को मुकम्मल तौर पर बयाँ कर देता है। उन्होंने जाफ़री साहब के लिए लिखा कि 'He loves beauty and he beautifies love '


बादल हवा के दोश पे उड़ते फिरें मगर 
प्यासी ज़मीं कहे तो ठहर जाना चाहिए 
दोश: कंधे

दिन ढल गया तो मौत है इक जश्ने बेबसी 
सूरज चमक रहा हो तो मर जाना चाहिए
*
सामने हो मगर हाथ आते नहीं 
तुम हमारे लिए आसमां हो गए
*
जी लिए, जितने दिनों उनकी निगाहों में रहे 
अब ये जीना तो बुजुर्गों की दुआ लगता है
*
अब दिन के उजाले में हमें कौन पुकारे 
चमके थे कभी रात में जुगनू की तरह हम
*
बुझे भी तो धुआं गूंजेगा बरसों 
हवा के सामने जल कर तो देखो
*
संगबारी के तमाशे में सभी थे शामिल 
मैंने पत्थर न उठाया तो गुनहगार लगा
*
जी चाहता है फिर कोई कमसिन करे सलाम 
बरसो गुज़र गए हैं किसी को दुआ दिए
*
ख्वाबों के हार गूंथने बैठी थी जिंदगी 
कम पड़ गए जो फूल तो कांटे पिरो लिए
*
मेरी आंखों का हासिल थे वो लम्हे 
मैं जितनी देर तुम को देख पाया

उत्तरप्रदेश के इलाहबाद की चाइल तहसील में दो गाँव ऐसे हैं जिन्हें एक पतली सी पगडण्डी अलग करती है। एक गाँव का नाम है 'नज़रगंज' और दूसरे का 'बड़ा गाँव'। इसी नज़रगंज में सैय्यदों के खानदान में क़ाज़ी सैय्यद सग़ीर अहमद और इशरत बेग़म के यहाँ 14 सितम्बर 1928 को जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया 'क़ाज़ी सैय्यद ज़ुबैर अहमद'। सैय्यदों के खानदान के लोग दोनों गाँवों में बसे हुए हैं। इन्हें पढ़े लिखे लोगों का ख़ानदान माना जाता है। ज़नाब जुबेर अहमद अभी छोटे ही थे कि उनके सर से माँ का साया उठ गया। उनके चाचा मौलाना अख़्तर साहब जो बड़े गाँव में रहते थे को ज़ुबैर अहमद साहब से बहुत लगाव था। उनकी अपनी कोई औलाद नहीं थी लिहाज़ा ज़ुबैर साहब उन्हें अपना ही बेटा लगते। वो उसे अरबी फ़ारसी और उर्दू की तालीम देने लगे। 

ज़ुबैर अहमद साहब को उर्दू ज़बान से मुहब्बत सी हो गयी। नज़रगंज में एक तालाब था जिसके किनारे वो अपने दोस्त आलम इलाहबादी के साथ अक्सर जा कर घंटो बैठे रहते। ऐसे ही किसी चाँदनी रात में दोनों दोस्त बैठे बतिया रहे थे कि ज़ुबैर साहब ने अचानक एक मिसरा कहा तभी एक मिसरा आलम ने कह दिया। दोनों दोस्त अपने इस पहले शेर कहने की क़ामयाबी पर देर तक खुश होते रहे। आलम एक हादसे में उसी तालाब में डूब गया जिसका अफ़सोस ज़ुबैर साहब को ताउम्र रहा। इसी बीच ज़ुबैर साहब के अब्बा नज़रगंज़ हमेशा के लिए छोड़ कर इलाहबाद आ कर बस गए। इलाहबाद में वालिद की सरपरस्ती में ज़ुबैर साहब का तालीमी दौर शुरू हुआ। बिलकुल तनहा और उदास। सबसे पहले उन्होंने फ़ानी बदायूनी की शायरी पढ़ी। पहली मुकम्मल ग़ज़ल एक दिन गर्मियों की सूनी दोपहरी में सहन में फैले पीपल के पेड़ तले अचानक हुई और कुछ ही देर में जेहन से उतर भी गयी। उसके बाद ज़ुबैर साहब पर एक कैफ़ियत सी तारी हो गयी और वो कभी हल्के या गहरे शेर कहने लगे। उन्हें ज़िन्दगी में कभी किसी उस्ताद से इस्लाह लेने की जरुरत ही महसूस नहीं हुई। ग़ज़ल का उरूज़ जाने बगैर उन्होंने कभी एक मिसरा भी बेबहर नहीं कहा। अगर आप शायरी के तालिबे इल्म हैं और ग़ज़ल कहना सीख रहे हैं तो उरूज़ की बाक़ायदा तालीम लें क्यूंकि ऊपर वाला हर किसी पर मेहरबान नहीं होता। इन्हीं ज़ुबैर अहमद साहब  को बाद में दुनिया ने 'क़ैसर उल जाफ़री' के नाम से जाना। 

कितने भी घनेरे हों तेरी जुल्फ़ के साये 
एक रात में सदियों की थकन कम नहीं होती
*
या रब ! ख़ता मुआफ़ कि इस बेबसी के साथ 
जीना, तेरा मज़ाक़ उड़ाना लगा मुझे
*
लोग क़िस्तों में मुझे क़त्ल करेंगे शायद 
सबसे पहले मेरी आवाज पे तलवार गिरी
*
हम अपनी ज़िंदगी को कहां तक संभालते 
इस क़ीमती किताब का क़ाग़ज़ ख़राब था
*
दुआ करो, मेरी ख़ुशबू पे तबसिरा न करो 
कि एक रात में खिलना भी था, बिखरना भी 

तुम इतनी देर लगाया करो न आने में 
कि भूल जाए कोई इंतज़ार करना भी 

मेरे ग़ुरुर ने चारागरी क़ुबूल न की 
तेरी निगाह को आता था ज़ख़्म भरना भी
*
घर लौट के रोएंगे मां-बाप अकेले में 
मिट्टी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में
*
चीख़ता फिरता हूं ख़ुद अपने बदन के अंदर 
मुझ से बढ़कर कोई सहारा हो तो घर से निकलूं
*
बादे सबा हूं, छू के गुजर जाऊंगा तुझे
मैं चांदनी नहीं कि तेरी छत पर सो सकूं

ज़नाब क़ाज़ी सैय्यद ज़ुबैर अहमद जाफ़री के क़ैसर उल जाफ़री बनने तक का सफर बहुत लम्बा और मुश्किल भरा रहा। इस्लामिया मजीदिया कालेज इलाहबाद में पढाई के दौरान शायरी का नशा परवान चढ़ा। साहिर, हफ़ीज़ जालंधरी और जोश मलीहाबादी के अलावा नून मीम राशिद और मीराजी पर भी दिल आगया। अपने शायर दोस्त इब्ने सफ़ी के साथ मिल कर उन्होंने कॉलेज के मुशायरों में धूम मचा दी। सब कुछ ठीक चल रहा था कि मुल्क़ को तक़्सीम का ज़हर पीना पड़ा। इसी बीच पिता बीमार हो गए और क़ैसर साहब जो मेट्रिक और इंटरमीडिएट में फर्स्ट डिवीजन से पास हुए थे को अपनी पढाई बीच ही में छोड़ देनी पड़ी।एक होनहार बच्चे के आगे पढ़ने और कुछ बड़ा बनने के ख़्वाब, ख़्वाब ही रह गए। घर खर्च चलाने के लिए इलाहबाद से निकलने वाले 'नया अखबार' के दफ़्तर में मन मार कर छै महीने नौकरी की । इसी बीच उनकी शादी मुंबई के एक लेदर मर्चेंट की एकलौती बेटी से हो गयी । इलाहबाद में जब उनका मन नहीं लगा तो वो 1948 में मुंबई क़िस्मत आज़माने आ गए।

मुंबई के शुरू के दो चार साल उन्होंने फुटकर प्राइवेट नौकरियाँ कीं फिर वेस्टर्न रेलवे के कमर्शियल विभाग में नौकरी करने लगे और 1986 याने रिटायर होने तक करते रहे। मुंबई आ कर उनकी मुलाक़ात तरक़्क़ी पसंद शायरों से हुई और उनकी सोहबत से ही उनकी शायरी को परवाज़ मिली। क़ैसर साहब किसी बने बनाये ढर्रे पर नहीं चले उन्होंने अपने मिज़ाज़ से शायरी की जो बहुत पसंद  की गयी। वो मुशायरों और ग़ज़ल गायकों के चहेते शायर बन गए। उन्होंने कुछ फ़िल्मी गीत भी लिखे लेकिन फ़िल्मी दुनिया उन्हें रास नहीं आयी। मुंबई के लोकप्रिय शायर देवमणी पांडे जी ने अपनी एक ब्लॉग पोस्ट में लिखा है कि 'क़ैसर उल जाफ़री मुहब्बतों के शायर हैं। उन्होंने अपनी शायरी में कभी मीनाकारी से काम नहीं लिया। अपनी शख्सियत के अनुरूप उन्होंने सीधे-सादे अल्फ़ाज़ में मुहब्बत के मंज़र पेश किये इसलिए उनकी शायरी बड़ी जल्दी पढ़ने सुनने वालों के साथ अपना जज़्बाती रिश्ता कायम कर लेती है। 

इसी पोस्ट में देवमणी जी क़ैसर साहब का एक दिलचस्प किस्सा भी बयाँ करते हैं जिससे उनकी सादगी और मिज़ाज़ का पता चलता है। वो बतातें कि कैसे एक दिन क़ैसर साहब अपने भतीजे रूमी जाफ़री को जो बाद में हिट फ़िल्मों के मशहूर लेखक हुए को किसी निर्माता से मिलवाने ये कह कर ले गए कि बरखुरदार उनका घर बस दस मिनट के फासले पे ही है और क़रीब एक घंटे से ज़्यादा देर तक बस दस मिनट, बस दस मिनट कहते हुए उन्हें पैदल ही रस्ते में गाजर खिलाते हुए ले गए। आख़िर मंज़िल पर पहुँच कर थके हारे रूमी जी से मुस्कुराते हुए बोले देखा बरखुरदार गाजर से शरीर को एनर्जी मिली और दस मिनट पैदल चलने से सेहत भी बन गयी। "इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा ---

आंखों में अब चुभन ना रही इंतज़ार की 
रातों को जागने का सबब ख़त्म हो गया
*
कभी-कभी तेरी पलकों पर झिलमिलाऊं मैं 
तू इंतिज़ार करे और भूल जाऊं मैं 

समुंदरों में पहुंचकर फ़रेब मत देना 
अगर कहो तो किनारे पे डूब जाऊं मैं 

तू मुझसे बात ना कर इतने रख रखाव के साथ 
तेरे क़रीब पहुंच कर न लौट आऊं मैं
*
मुट्ठी बंद किए बैठा हूं कोई देख न ले 
चांद पकड़ने घर से निकला जुगनू हाथ लगे
*
लम्हा लम्हा घर उजड़ा है मुश्किल से एहसास हुआ 
पत्थर आए बरसों पहले शीशे टूटे बरसों बाद
*
घर में तू भी तो नहीं जो कोई बर्तन टूटे 
ये जो कमरे में अभी शोर हुआ था, क्या था

तुम तो कहते थे ख़ुदा तुमसे ख़फा है क़ैसर
डूबते वक़्त जो एक हाथ बढ़ा था, क्या था
*
ज़रा सी देर चमकने को रात काफ़ी है 
ये दिन फ़ुज़ूल बने जुगनूओं की राय में
*
दिल ने बहुत कहा कि अकेले सफ़र करो !
मैं कारवां के साथ चला और भटक गया

क़ैसर साहब की शख़्सियत और उनकी शायरी पर जो उनके दोस्त और बेपनाह चाहने वाले उदयपुर निवासी देश के मशहूर शायर और गायक जनाब प्रेम भंडारी साहब ने कहा है उसे पढ़ने के बाद क़ैसर साहब पर और कुछ कहने की गुंजाइश कम ही रहती है। प्रेम जी और क़ैसर साहब का लगभग 25 बरस का साथ रहा इन 25 बरसों में वो एक दूसरे से कई बार मिले। प्रेम जी लिखते हैं कि ' क़ैसर साहब का क़लाम उतनी ही सादगी लिए होता था जितनी सादा उनकी शख़्सियत थी। उनकी सादगी के किस्से बयां करने बैठें तो शायद एक किताब भी कम पड़े। बेफ़िकराना मिज़ाज ,खुलूस ,सादगी और बेलौस मोहब्बत उनके क़िरदार की खूबियां थीं।  इतने सालों में उनको सादा एक सफ़ेद कुर्ते और पाजामे में ही देखा कुर्ते पर अक्सर वो एक जैकेट पहना करते थे। मैंने उनके शेरों को मैंने सिर्फ़ याद करके गाया ही नहीं बल्कि अपनी ज़िन्दगी में उतारने और अमल करने की भी पूरी पूरी कोशिश की है। मैं अपनी ज़िन्दगी में कई शायर और अदीबों से बहुत नज़दीकी तौर पर मिला हूँ इसलिए मैं खुल के कह सकता हूँ कि उनके जैसा सादा दिल, ज़मीन से जुड़े रहने वाला, सबको बेलौस मुहब्बत लुटाने वाला रहम दिल इंसान मैंने नहीं देखा। 

मेरा एक प्रोग्राम मुंबई में था जिसमें क़ैसर साहब भी मौजूद थे। श्रोताओं ने मुझसे पंकज उधास  जी द्वारा गायी क़ैसर साहब की मशहूर ग़ज़ल 'दीवारों से मिल कर रोना अच्छा लगता है --'गाने की फ़रमाईश की मैंने श्रोताओं से कुछ वक़्त माँगा। इंटरवल में मैंने क़ैसर साहब से कहा कि अगर उस ग़ज़ल में कुछ शेर ऐसे हों जिसे पंकज उधास जी ने न  गाया हो तो बताएं मैं वो गाऊँगा। क़ैसर साहब मुस्कुराये पास पड़ा एक कागज़ का टुकड़ा उठाया उस पर कुछ लिखा और बोले लीजिये ये पढ़ कर सुना दीजिये , आप उनकी हाज़िर जवाबी देखिये कि एक मिनट से भी कम समय में मुझे जो शेर लिख के दिए वो क्या कमाल थे :

तन्हाई में बैठ के रोना अच्छा लगता है 
कोई आँसू पोंछ रहा है ऐसा लगता है    

आईने से आँख मिलाते डर सा लगता है 
सारा चेहरा टूट गया हो ऐसा लगता है 

हम भी पागल हो कर 'क़ैसर' देखेंगे इक दिन 
दीवारों से मिल कर रोना कैसा लगता है 

आप देखें कि कैसे उन्होंने अपनी ग़ज़ल के मतले को मक़्ता बना कर पेश किया। मैंने जब ये शेर गा कर सुनाये तो पूरे हॉल में श्रोताओं ने खड़े हो कर तालियाँ बजायीं।  ये तालियां मेरी गायकी के लिए नहीं क़ैसर साहब की दिलकश शायरी के लिए थीं।' 

मिट्टी की देख-रेख से चूल्हे की आग तक 
सूखे हुए शजर की कहानी तवील है 

पल भर में ज़ख़्म, कोशिशे-दरमां तमाम उम्र 
क़ातिल से, चारागर की कहानी तवील है
*
पागल हो कर देख लिया है 
पागलपन है पागल होना !!
*
हमको क्या रोकोगे लोगो ! हम ऐसे दीवाने हैं 
पैरों में ज़ंजीर पड़े तो, रक़्स करें झनकारों पर
*
वो रोज़ रोज़ जो बिछड़े तो कौन याद करे 
वो एक रोज़ न आए तो याद आए बहुत
*
ख़्वाब पलकों में पिरोते रहिए 
रात होती नहीं सोने के लिए
*
देखने जाओ तो ज़ख़्मों से बदन छलनी है 
ढूंढने जाओ तो खंजर न दिखाई देगा
*
हाथ बौनों के तो पहुंचेंगे न शाख़ों के क़रीब 
चंद फूलों के लिए, पेड़ों को काटा जाएगा
*
कोई सबब, न बहाना, कभी-कभी यूं ही 
किसी को मुझसे शिकायत रही, किसी से मुझे
*
तुमको एहसान जताना है तो हम जाते हैं 
हमसे दो बूंद को दरिया न कहा जाएगा

मेरे जयपुर के एक अज़ीज़ मित्र हैं जो गायक हैं रंगकर्मी हैं और शायरी के प्रेमी हैं नाम है 'गुरमिंदर सिंह 'रोमी' । यारों के यार हैं हमेशा मुस्कुराते हुए मदद को तैयार। करोड़ों में एक।  उन्होंने एक बार मुझे क़ैसर साहब का शेर और उनसे अपनी मुलाक़ात का किस्सा सुनाया तो मैंने कहा दुःख की बात है रोमी भाई कि क़ैसर साहब की कोई किताब हिंदी में नहीं है तो वो तपाक से बोले कैसे नहीं है ? मैंने देखी है और तुरंत उदयपुर में अपने मित्र प्रेम भंडारी जी को फोन मिला कर कहा कि प्रेम जी आपके पास जो क़ैसर साहब की किताब है वो जयपुर नीरज जी को भेज दें और देखिये साहब कि प्रेम जी ने तीसरे ही दिन वो किताब जिसे क़ैसर साहब ने अपने हाथ से लिख कर प्रेम जी को भेंट दी थी तुरंत मुझे भेज दी। आज की पोस्ट रोमी जी और प्रेम जी के सहयोग के बिना संभव नहीं थी। प्रेम जी ने ही मुझे क़ैसर साहब के होनहार बड़े साहबज़ादे जनाब इरफ़ान जाफ़री जिन्होंने अपने अब्बू की विरासत को सँभाला हुआ है और बेहतरीन शायरी करते हैं का मोबाईल नंबर भी दिया। 

रोमी जी क़ैसर साहब के बहुत बड़े फैन हैं और उन्हें उनके कई शेर जबानी याद हैं जिसे वो गाहे- बगाहे अपनी गुफ़्तगू की माला में मोतियों सा पिरोते हैं। रोमी जी क़ैसर साहब से दो बार मिले हैं एक बार मुंबई में और दूसरी बार उदयपुर में और इन दोनों मुलाक़ात के ख़ुशग़वार लम्हे उनकी यादों में हमेशा जगमगाते रहते हैं।मुंबई में क़ैसर साहब का प्रेम भंडारी जी से मिलने आना और लगभग पाँच सात घंटों तक अपनी शायरी से नवाज़ना उन्हें खूब याद है। रोमी जी कहते हैं कि इस पूरी मुलाक़ात के दौरान उन्होंने ये एहसास कभी नहीं होने दिया कि वो इस देश के इतने नामी गरामी शायर हैं। रोमी जी की तुकबंदियों को भी उन्होंने दिल से दाद दी और उनकी ग़ज़ल की कमियों की और इस तरह समझाया जैसे कोई बाप अपने बेटे को समझाता है। वो एक ऑटो रिक्शा में मिलने आये थे।ऑटो रिक्शा का ड्राइवर उनके परिवार के सदस्य जैसा ही था जो उन्हें हमेशा वहां ले जाता जहाँ उन्होंने जाना होता था और जब तक वो किसी नशिस्त या मुशायरे से फ्री नहीं होते वहीँ उनके लिए खड़ा रहता। क़ैसर साहब भी उसका पूरा ध्यान रखते और जो खुद खाते वही उसको भी खिलाते। ये छोटी छोटी बातें बतलाती हैं कि वो कितने सरल इंसान थे। 

यूं उम्र हमने काटी दीवाना जैसे कोई 
पत्थर हवा में फेंके पानी पे नाम लिक्खे

ऐ कातिबे मुकद्दर सदके तेरे क़लम के 
दो दिन की ज़िंदगी में सदियों के काम लिक्खे
*
तेरे क़रीब से गुज़रूं तुझे न पहचानूं 
मेरी नज़र भी कभी इंतिक़ाम ले ले तो
*
मेरे पुरखों ने दी थी मुझको एक उजड़ी हुई दुनिया 
मेरे बच्चों ने मुझ पर भी यही इल्ज़ाम रक्खा है
*
रेशम के लिबास आए, पहना गए उरियानी 
इंसान फरिश्ता था, इंजीर के पत्तों तक
उरियानी: नग्नता
*
अगर अंदर की थोड़ी रोशनी बाहर न आ जाती
 मैं अपने आप से टकरा गया होता अंधेरे में
*
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे 
मैं एक शाम चुरा लूं अगर बुरा न लगे

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो 
कि आसपास की लहरों को भी पता न लगे
*
रस्ते भर रो रो के पूछा हमसे पांव के छालों ने 
बस्ती कितनी दूर बसा ली, दिल में बसने वालों ने

बर्बादी का मेला देखो क़ैसर अपनी आंखों से 
मेरे घर को छोड़ दिया है, बस्ती फूंकने वालों ने

इरफ़ान जाफ़री साहब बताते हैं कि हम सभी भाई बहनों ने कभी अब्बूजी को उदास या दुखी नहीं देखा। कभी उनकी आँख में आंसू नहीं देखे, कभी किसी चीज का मलाल करते नहीं देखा कभी किसी की शिकायत या किसी से गिला करते नहीं देखा। जो है, जैसा है, जितना है उसी में उन्हें खुश देखा वो बहुत Pure Soul थे। बड़े खूबसूरत इंसान थे। एक आदर्श पति और जिम्मेदार पिता। उनका एक शेर :
जहन के सारे दरीचों पे जमीं है पतझड़ 
इक तेरा नाम महकता है गुलाबों की तरह 
सुनाते हुए इरफ़ान साहब भरे गले से बताते हैं कि अब्बू जी की यादें अब हमारे दरमियाँ गुलाबों की तरह महकती हैं। 

सन 2005 की बात है , इरफ़ान साहब चाहते थे कि इस साल अब्बू जी की 77 वीं सालगिरह का जश्न बहुत धूमधाम से मनाया जाय। क़ैसर साहब से मशवरा किया तो वो बहुत खुश हुए। सभी रिश्तेदारों और दोस्तों से एक साथ मिलने का मौका जो मिलने वाला था। दो महीने पहले से तैयारियां शुरू हो गयीं तभी अचानक रायपुर से उर्दू अकेडमी की सेकेट्री 'उस्मा अख्तर' साहिबा  का फ़ोन इरफ़ान साहब के पास आया उन्होंने बताया कि सालाना होने वाले प्रतिष्ठित 'चक्रधर समारोह' के मुशायरे में हम क़ैसर साहब को बुलाना चाहते हैं। मुशायरा शायद 14 या 15 सितम्बर को था। इरफ़ान साहब ने बताया कि हम लोग अब्बूजी के योमे पैदाइशी का जश्न मनाने जा रहे हैं इसलिए इस बार आप उन्हें रहने दें। 'अख्तर साहिबा तुरंत बोलीं 'क़ैसर साहब क्या सिर्फ़ आपके ही अब्बू हैं ?आप फ़िक्र न करें हम यहाँ रायपुर में उनका जश्न धूम धाम से मनाएंगे और इस मौके पर उनका सम्मान भी करेंगे। अख़्तर साहिबा की ये बात सुन कर इरफ़ान साहब मना नहीं कर पाए और क़ैसर साहब को रायपुर भेज दिया।  

इरफ़ान साहब ने ,जो क़ैसर साहब से कुछ मिनट के फासले पर ही रहते थे, एक नियम बना रखा था। नियम के अनुसार जब भी क़ैसर साहब मुंबई के बाहर किसी मुशायरे से वापस घर आते तो इरफ़ान साहब उनके पास उस रात गपशप करने और चाय पीने जरूर जाते।16 सितम्बर को क़ैसर साहब जब रायपुर से वापस आए तो क़ायदे से इरफ़ान साहब को मिलने आना था लेकिन उस दिन अजीब सी थकान होने से उन्होंने सोचा कि आज नहीं कल मिलने जाऊंगा और बिस्तर पर लेट गए लेकिन थोड़ी ही देर के बाद उन्हें लगा कि नहीं जो नियम इतने बरसों से नहीं टूटा उसे आज भी नहीं टूटना चाहिए। ये सोच कर वो उठे और अब्बूजी से मिलने चले गए। हमेशा की तरह क़ैसर साहब ने चाय बनाई मुशायरे और वहां हुए उनके सम्मान के बारे में ढेरों बातें की। बातों बातों में क़ैसर साहब ने ये भी बताया कि कल सुबह वो अपने प्रकाशक के पास अपनी आगामी किताब 'अगर दरिया मिला होता' का मसौदा लेकर जाएंगे और शाम को चित्रकार स्नेह तुली की पहली ग़ज़लों की किताब का इज़रा जो अँधेरी के कामत क्लब में है वहाँ वो मुख्य अतिथि की हैसियत से जाएंगे। रात क़रीब साढ़े ग्यारह बजे इरफ़ान भाई वापस अपने घर लौट आये।     

शिकवा गिला नहीं है वो हमसे करें न बात 
लेकिन सवाल ये है, कोई बात भी तो हो
*
हवा में मेरी अना भीगती रही वरना 
मैं आशियाने में बरसात काट सकता था
*
दरो दीवार हैं मैं हूं मेरी तन्हाई है 
चांदनी रात से पूछो मेरा घर कैसा लगा
*
मिलेगी राख न तुमको हमारे चेहरे पर 
बदन में रह के सुलगना बड़ा हुनर है मियां
*
सांस लेता हूं तो ज़ंजीर ख़नक उठती है 
उम्र जैसे किसी बेनाम सज़ा में गुज़री

दूसरे दिन रोज़ाना की तरह इरफ़ान साहब तैयार हुए और अपने आफिस के लिए निकल गए जो मुम्ब्रा, जहाँ वो रहते थे, से डेढ़-दो घंटे की दूरी पर था। सुबह के लगभग सवा दस बजे इरफ़ान साहब के पास उनके छोटे भाई का फोन आया कि अब्बूजी का एक्सीडेंट हो गया है। फ़ौरन उन्हें  ठाणे डॉ. जोशी के हस्पताल में ले जाया गया। इरफ़ान साहब जब हॉस्पिटल पहुंचे तो उन्होंने देखा कि क़ैसर साहब के बदन पर गहरी चोट का कोई निशान नहीं था अलबत्ता वो बेहोशी की हालत में थे। लोगों ने बताया की अपने घर की गली से जब क़ैसर साहब मुख्य सड़क पर आये तो एक तेज गति से आती जीप ने उन्हें टक्कर मार कर गिरा दिया। शाम सीटी स्केन की रिपोर्ट से पता चला की उनके ब्रेन में क्लॉट है। 17 सितम्बर की उस मनहूस सुबह से 5 अक्टूबर की शाम तक ज़िन्दगी और मौत की जंग में मौत की फ़तह हुई। पहले रमज़ान के चाँद के नजर आने के दस मिनट बाद क़ैसर साहब इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़सत हुए। 
इरफ़ान साहब ने घर जा कर सब भाई बहनों को इकठ्ठा किया और कहा कि हम सब बच्चों ने अपने माँ-बाप के साथ और हमारे माँ-बाप ने हम सब के साथ चालीस पैंतालीस साल का वक्त बहुत हँसी-ख़ुशी से बिताया है और ये बात अब हमें ता-उम्र याद रखनी है। 

ठाणे में उन्हें बेपनाह चाहने वाले हज़ारों लोग हैं। वो गली जिसमें वो रहते थे, ख़तम हो कर मेन सड़क से मिलती है उसके सामने कब्रिस्तान है जहाँ क़ैसर साहब को सुपुर्दे-ख़ाक किया गया। बाद में ठाणे म्यूनिसपल्टी ने उस गली का नाम 'क़ैसर उल जाफ़री मार्ग' रखा है। अपने देश में गलियों, सरकारी दफ्तरों, स्कूलों, कॉलेजों, स्टेडियमों, लाइब्रेरियों, भवनों के नाम साहित्यकारों पर कम ही रखे जाते हैं क्यूंकि इनपर ज्यादातर नेताओं का कब्ज़ा रहता है ऐसे में क़ैसर साहब के नाम पर गली का नाम रखा जाना अच्छा संकेत है। 


आखिर में क़ैसर साहब के प्रेमियों को ये बता देता हूँ कि 'पत्थर हवा में फेंके' भले ही बाज़ार में नहीं मिलेगी लेकिन उनकी शायरी का कलेक्शन देवनागरी में 'डाइनामिक बुक्स मेरठ' ने 9 किताबों के सेट में निकाला है। आप 121-2644766 /4026111 पर संपर्क करके मंगवा सकते हैं। क़ैसर साहब के बारे में अधिक जानकारी  इरफ़ान साहब से उनके मोबाईल न. 9987792355 पर संपर्क कर ले सकते हैं।  .       

सिला मेरे जुनूं का, और दुनिया 
बहुत सोचा तो एक पत्थर उठाया
*
किस तरह समो लूं मैं तुम्हें अपनी ग़ज़ल में 
जब शेर पढ़े कोई तो काग़ज़ से छनो लो तुम
*
किसने कहा था राह से हटकर सफ़र करो 
हमने ख़ुद अपने पांव में कांटे चुभो लिए
*
कैसे बाक़ी रात कटेगी 
सुब्ह समझ कर शमा बुझा दी
*
ज़िंदगी है तुम्हारी गली तो नहीं 
छोड़ देंगे अगर छोड़ देना पड़ा



31 comments:

  1. हमेशा की तरह बेहतरीन शायर की बेहतरीन शाइरी से रू ब रू करवाया। दिल से शुक्रिया। आपकी मेहनत को सलाम नीरज जी।

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  2. लाजवाब शख्सियत पर शानदार मज़मून
    ज़िंदाबाद नीरज जी

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  3. विजेन्द्र भाई बहुत शुक्रिया

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  4. कैसर साहब की शख्स़ियत और शायरी से रूबरू कराने के लिए शुक्रिया भाई नीरज। वे उम्दा शायर होने के साथ-साथ बहुत प्यार इंसान भी थे। उनकी यादों को सलाम।
    देवमणि पांडेय, मुम्बई

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    1. धन्यवाद देवमणि भाई आपका भी आभार जो महत्वपूर्ण जानकारी आपके ब्लॉग से हासिल हुई...🙏🌹🙏

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  5. नीरज जी आपने पूरे व्यक्तित्व को उकेर के रख दिया...इतने गहन शोध और अनसुने उम्दा अशआर को साझा करने के लिये हृदय से धन्यवाद...किताबों गज़लों के साथ ऐसी कमेंट्री ज़रूरी लगती है...नहीं तो हम जैसे उसकी आत्मा से जुड़ नहीं पाते...बहुत बहुत बधाइयाँ...👏👏👏

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    1. धन्यवाद वाणभट्ट भाई...आभारी हूँ

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  6. नीरज जी शायरी की दुनियां की एड़ी महान शख्सीयतों के जीवन की जानकारी हम तक पहुंचाने के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद । आपकी क़लम में ऐसा जादू व रवानगी है कि मन करता है पढ़ते ही जाएं , चित्रपट की कहानी की तरह चलचित्र आंखों के सामने होता है । इतनी रोचक व दिलचस्प जानकारी के लिए आपको बहुत शुभकामनाएं व साधुवाद
    अरुन शर्मा -(usa)

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    1. धन्यवाद अरूण जी...स्नेह बनाए रखें..

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  7. वाह भाई साहब !बरसों की मुराद पूरी हुई ।कानपुर पोस्टिंग के दौरान क़रीब 20 वर्ष पूर्व शिवाला में ये पुस्तक देखी थी कुछ पुस्तकें पहले ही खरीद चुका था अतः इसे खरीदने का मामला मुल्तवी कर दिया।दुर्भाग्यवश दुबारा फिर ये कहीं नहीं दिखी।आज इतने वर्षों बाद 'स्वर्गीय क़ैसर उल जाफ़री साहब द्वारा रचित वही किताब 'पत्थर हवा में फेंके' आपकी सार्थक, अन्वेषी और पारिवारिक टिप्पणियों के साथ एक जगह मिल गई ।कितने ही शानदार शेरों का चयन आपने किया है।परंतु जब मेरे जैसे पाठक की उन्हें समग्रता से पढ़ लेने को ललक बढ़ गई है तो आपके लिए शेरों को चुनना और उससे ज़ियादा उन्हें छोड़ना कितना दुष्कर रहा होगा सहज ही समझा जा सकता है।जितना सहज क़ैसर साहब का क़लाम है उससे कुछ कम सहज और आत्मीय आपका बयान और उनके ऊपर दिया गया वक्तव्य भी नहीं।जो रस निष्पत्ति के स्थायी भाव जैसा बार-बार उल्लेखित करना ग़ैर ज़रूरी और अवांतर ही मालूम होता है।टिप्पणियों को कई कई बार पढूंगा।
    सादर

    अखिलेश तिवारी
    जयपुर

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  8. Superb presentation of a great shayar
    Enjoyed reading

    Mukund Agarwal
    Jaipur

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  9. अरविन्द कुमार शुक्ल, सतना, मध्य प्रदेशJune 8, 2021 at 10:43 AM

    बेहतरीन
    मज़ा आ गया।
    धन्यवाद!

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  10. वआआह वआआह क्या ही खूबसूरत तब्सिरा किया है नीरज जी , क़ैसर उल जाफरी साहब मेरे भी पसंदीदा शोअरा में से एक है ,

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    1. बहुत शुक्रिया बिस्मिल भाई...

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  11. बात 80 के दशक की है। सपरिवार गुवाहाटी जाने के लिये ग्वालियर से निकले ही थे कि एक कुछ शेर कोच के दूसरे सिरे से कान में गूँजने लगे। कुछ देर में एक सूरदास जब हमारे कूपे के पास पहुंचा तो पिताजी ने उससे वही ग़ज़ल फिर से सुनने को कहा और उसके बाद फिर से वही ग़ज़ल एक बार और सुनी। वह ग़ज़ल थी "दीवारों से मिलकर रोना अच्छा लगता है, हम भी हो जाएंगे पागल, ऐसा लगता है"। कुछ ऐसी कशिश थी उस आवाज़ और ग़ज़ल में कि आज तक वो ग़ज़ल उसी आवाज़ में आज भी अक्सर कानों में गूंजती है। ऐसी खूबसूरत ग़ज़ल कहने वाले शायर से आज का परिचय आपकी कलम के माध्यम से हुआ।
    आभार और बधाई के पात्र हैं आप।
    रही बात पुस्तक के अनुपलब्ध होने की तो किसी तरह प्रकाशन अनुमति की व्यवस्था आप करा दें, प्रकाशन दायित्व मैं स्वीकार करता हूँ।

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    1. तिलक भाई आपकी प्रकाशन के दायित्व की बात से दिल बाग बाग हो गया...त्वाडा जवाब नहीं...🌹

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  12. वाह भाई नीरज भाई
    मान गए -तुस्सी ग्रेट हो
    इतना शिद्दत से इतनी मुहब्बत से कारफरमाई को अंजाम देते हो कि —वाह
    खुदा आप की क़लम को और आप को सेहतयाब रखे-
    🙏🙏

    आनंद पाठक

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  13. दिल की गहराई और जज़्बे की सच्चाई के साथ लिखा हुआ लेख है ये नीरज भाई, क़ैसर उल जाफ़री साहब से कई मुलाक़ातें रहीं बहुत नर्म मिज़ाज इंसान और बेहतरीन शाइर थे मरहूम , आपके इंतिख़ाब में कई ऐसे शेर शामिल हैं जो मुझे भी बहुत पसन्द हैं इनके अलावा उनके ये अशआर भी मुझे अच्छे लगते हैं.....
    मैं आइना हूं दिखाऊंगा दाग़ चेहरे के
    जिसे ख़राब लगे सामने से हट जाए
    ***
    ऐसा रोए थे हम जैसे मर जाएंगे
    अब वो सब हादसे दास्तां हो गए
    ***
    Aqeel Nomani

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  14. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (०९ -०६-२०२१) को 'लिप्सा जो अमरत्व की'(चर्चा अंक -४०९१ ) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  15. वाह वाह । कलम से क्या मंज़र खेंचा है आपने । तारीफ के लिए लफ्ज़ गरीब जान पड रहे हैं । मुझ जैसे हक़ीर नाचीज़ का ज़िक्र ज़रूरी नहीं था इतनी उम्दा बातचीत में । एक फ़िल्म की तरह आपने सब मंज़र आंखों में रख दिये, मुझे तो उन को देखना तक नही पड़ा, खूब बखुद आंखों में उतर गए और पलकों तक आ गये ।

    वाह वाह वाह । क्या बात ।🙏🙏
    गुरमिंदर सिंह पुरी 'रोमी'
    जयपुर

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  16. नीरज जी आप के अंदाज़ को तो कुछ कहना सूरज को दीपक दिखाने जैसा है |बहुत ही ख़ूबसूरत अशआर पढ़ने को मिले आपने सही कहा ऐसे अशआर के जादू से बच निकल कर आगे बढ़ना शायरी के दीवानों के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है ज़िन्दाबाद वाह वाह क्या कहना लेख के लिए हार्दिक बधाई
    मोनी गोपाल 'तपिश'

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    1. मोनी भाईसाहब बहुत बहुत शुक्रिया आपका...

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  17. बेहतरीन समीक्षा और उस पर आपकी कलम संग आपको सुनना।
    जय हो जिंदाबाद।
    🙏🌹👍

    विजय मिश्र दानिश
    जयपुर

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  18. नीरज जी ...वाह बहुत ही सुलझा हुआ आलेख है जिसे पढ़कर आनन्द आ गया। बहुत बहुत बधाई

    आर.पी.घायल
    पटना

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  19. Neeraj Ji,
    Sadar Pranam!
    Bahut mushkil se padh saka ye post magar bahut
    maza aaya. Maazee ki tamaam yaaden taza ho gayeen.
    Irfaan Bhai se to barson se mulaaqaat hai. Aapka
    bahut bahut aabhar is behtreen intkhaab ke liye ...
    Satish Shukla 'Raqeeb'
    Juhu, Mumbai

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  20. क्या कहने सर...... उम्दा शायरी को जिस कशिश और इन्तहाई ख़ूबसूरती से पेश किया है..... लाजवाब हूँ..... आपके क़लम की रोशनाई की बख़्शीश अहले सुख़न की समाअतों को यूँ ही सुर्खरू करती रहे.... आमीन

    ऐ एफ नज़र
    🌹🌹🙏🌹🌹

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे