Monday, August 10, 2020

किताबों  की दुनिया -210

उसने पढ़ी नमाज़ तो मैंने शराब पी 
दोनों को, लुत्फ़ ये है बराबर नशा हुआ
***
ज़रूरत है न जल्दी है मुझे मरने की फिर भी 
मेरे अंदर बहुत कुछ चल रहा है ख़ुदकुशी सा
***
जादू-भरी जगह है बाज़ार,तुम न जाना 
इक बार हम गए थे बाज़ार हो के निकले
***
मैं शहर में किस शख़्स को जीने की दुआ दूं 
जीना भी तो सबके लिए अच्छा नहीं होता
***
मुसाफ़िर हो तो निकलो पांव में आंखें लगा कर 
किसी भी हमसफ़र से रास्ता क्यों मांगते हो
***
तभी वहीं मुझे उस की हंसी सुनाई पड़ी 
मैं उसकी याद में पलकेंं भिगोने वाला था
***
वो अक़्लमंद कभी जोश में नहीं आता 
गले तो लगता है, आग़ोश में नहीं आता
***
अब तो ये जिस्म भी जाता नज़र आता है मुझे 
इश्क़ अब छोड़ मिरि जान कि मैं हार गया
***
मैंने मकांँ को इतना सजाया कि एक दिन 
तंग आ के इस मकाँँ से मिरा घर निकल गया
***
दुहाई देने लगे सुब्ह से बदन के चराग़ 
हमें बुझाओ कि हम रात भर जले हैं बहुत

क्या उम्र रही होगी यही कोई 4 या 5 साल के बीच की। एक बच्चा नए कपड़े पहने, काँँधे पर छोटा सा बस्ता लटकाए अपने वालिद का हाथ पकड़े, डरता हुआ स्कूल जा रहा है। वालिद बार-बार समझा रहे हैं कि स्कूल बहुत अच्छी जगह है और वहां के उस्ताद फ़रिश्ते जैसे ख़ूबसूरत और नरम दिल हैं जिन्हें बच्चों से सिवा प्यार करने के और कुछ नहीं आता। बच्चा मुस्कुराते हुए फ़रिश्ते का तसव्वुर करने लगता हैै । स्कूल जा कर देेेखता है कि उस्ताद, फ़रिश्ता तो दूर की बात है शैतान से भी खौफ़नाक नजर आ रहे हैं. बच्चे की डरके मारे घिग्घी बँध गई।उसे पहली बार पता लगा कि हक़ीक़त की दुनिया ख़्वाबों की दुनिया से कितनी अलग होती है।
उस्ताद ने उस बच्चे को उस दीवार के पास बिठा दिया जिसमें एक बड़ी सी खिड़की थी। थोड़ी देर बाद बच्चे ने सामने देखा कि उस्ताद दरवाजे के बाहर खड़े किसी पर चिल्ला रहे थे, फिर उसने खिड़की की तरफ देखा और अगले ही पल बस्ते समेत बाहर कूद गया। घर जा नहीं सकता था लिहाज़ा स्कूल की छुट्टी के समय तक बाहर ही घूमता रहा।बाहर की दुनिया स्कूल की दुनिया से कितनी अलग थी, हवा से हिलते पेड़, फुदकते चहचहाते परिंदे, कितने ही रंगों में खिले फूल और उन पर नाचती तितलियां देखते-देखते कब सुबह से शाम हो गयी उसे पता ही नहीं चला।
ये सिलसिला महीनों चलता रहा।खेत, खलिहान और वीरान पगडंडियों पर चलते हुए इस बच्चे ने क़ुदरत से जो सीखा वो स्कूल की चारदीवारी में बंद बच्चे कभी नहीं सीख पाते

तुमको रोने से बहुत साफ़ हुई हैं आँखें  
जो भी अब सामने आएगा वो अच्छा होगा 

रोज़ ये सोच के सोता हूं कि इस रात के बाद 
अब अगर आँँख खुलेगी तो सवेरा होगा 

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँँखों में 
बस यही देखता रहता हूं कि अब क्या होगा

बहराइच उत्तर प्रदेश के एक मुस्लिम परिवार में 25 दिसंबर 1952 (या 1950? क्योंकि रेख़्ता की हिंदी साइट पर और किताब के फ्लैप पर 1950 है) जन्मे इस बच्चे का नाम रखा गया था 'फ़रहततुल्लाह खां' जो आज उर्दू शायरी की दुनिया में 'फ़रहत एहसास' के नाम से जाना जाता है। घर का माहौल मज़हबी जरूर था लेकिन उसमें कट्टरपन नहीं था। जवानी में मुस्लिम लीगी रहे उनके वालिद अपने सभी बच्चों को रामलीला दिखाने ले जाते थे। आज के दौर में इस बात पर शायद किसी को यकीन ना आए लेकिन हक़ीक़त यही है कि मज़हब को लेकर आम लोगों के दिलों में तब इतनी कटुता नहीं थी जितनी कि आज है । आज हम 'फ़रहत एहसास' की देवनागरी में छपी किताब 'क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा' की बात किताबों की दुनिया श्रृंखला की इस कड़ी में करेंगे। सबसे पहले बता दूं कि किताब का टाइटल मीर तक़ी मीर साहब के मशहूर शेर ' मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो , क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया' (क़श्का़ खींचा अर्थात तिलक किया) से लिया गया है, और इस शेर की झलक पूरी किताब में नज़र आती है।


तुम अपने जिस्म के कुछ तो चराग़ गुल कर दो 
मैं, रौशनी हो ज़ियादा तो सो नहीं सकता
***
 मैं तो आया हूंँ लिबासों की ख़रीदारी को 
और बाज़ार ये कहता है कि नंगा हो जाऊं
***
कभी नीचा रहा सर और कभी छोटे रहे पांव 
मैं भी हर बार कहांँ अपने बराबर निकला
***
छाँव पहले से भी बहुत कम है 
पेड़ जब से घने हुए हैं बहुत
***
छिड़कनी पड़ती है खुद पर किसी बदन की आग 
मैं अपनी आग में जब भी दहकने लगता हूं
***
चादर पे इक भी दाग़ नहीं क्या अज़ाब है 
इक उम्र हो गई है कि हैंं जस के तस पड़े 
अज़ाब :मुसीबत
***
यह सांसे मिल्कियत तो मौत की हैं 
मुझे लगता है चोरी कर रहा हूं
***
जिन्हें चेहरा बदलना हो बदल लें 
मैं अब पर्दा उठाने जा रहा हूं
***
कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़याल आया 
तेरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में
***
और दुश्वार बना सकते हैं दुश्वार को हम 
लेकिन आसान को आसान नहीं कर सकते

चलिए बात वहीं से शुरू करते हैं जहां छोड़ी थी फ़रहतुल्लाह खाँँ अब उम्र के उस दौर में हैं जब क़ुदरत बिना मज़हब, रंग, देश देखे इंसान की आंखों पर ऐसा चश्मा लगा देती है जिससे उसे सब कुछ गुलाबी दिखाई देने लगता है। फ़रहत साहब लिखते हैं कि "बात नौ-बालगी (किशोरावस्था) से कुछ पहले की उम्र के लड़के की है जो पहली बार एक लड़की के चेहरे पर खून की दमकती ख़ुश्बू की चकाचौंध से हैरत और हसरत ज़दा है। ये हुस्न के एक मक्तब (स्कूल) की तरह खुलने, जिस्म के दिल बनकर धड़कने और इश्क़ की पैदाइश का लम्हा था." ये चश्मा किसी के चेहरे से नून तेल लकड़ी के चक्कर में जल्द ही उतर जाता है तो कोई इसे फ़ितरतन उतार फेंकता है। फ़रहत साहब पर ये चश्मा अब तक चढ़ा हुआ है तभी उनके ढेरों अशआर आज भी गुलाबी रंग में रंगे मिलते हैं। 
अपनी शायरी के आगाज़ के सिलसिले में वो लिखते हैं कि " घर में शायरी का माहौल दूर दूर तक नहीं था ।शायरी मेरे बाहर कहीं नहीं थी, जो भी थी अंदर ही रही होगी जो एक दिन अचानक एक झमाके से ज़ाहिर हुई। 1967 की गर्मियों में, जब मेरा दूसरा बाकायदा इश्क़ चल रहा था, यूँ ही बैठे बैठे दो बराबर के मिसरे ज़हन में कौंधे।ये अहसास कि मुझ में कुछ बज रहा है जो लफ़्ज़ों में ढाला जा सकता है मेरे लिए एक ऐसा इन्किशाफ़ (प्रगट होना) था जिसका सिलसिला आज तक जारी है।

ख़ुदा ख़ामोश बंदे बोलते हैं 
बड़े चुप होंं तो बच्चे बोलते हैं 

सुनो सरगोशियाँ कुछ कह रही हैं 
ज़बाँ-बंदी में ऐसे बोलते हैं 

मोहब्बत कैसे छत पर जाए छुपकर 
क़दम रखते ही ज़ीने बोलते हैं 

हम इंसानों को आता है बस इक शोर 
तरन्नुम में परिंदे बोलते हैं

सभी मज़हब के दोस्तों से दोस्ती निभाते, कबीर, सूर, तुलसी, रसखान और जायसी पढ़ते हुए उनकी रूह क़लन्दर सूफ़ियों वाली हो गई। इस किताब को पढ़ते वक्त आपको कबीर की याद ना आए ऐसा हो ही नहीं सकता। ये क़लन्दरी शायद उन्हें अपनी मां के नाना के भाई से भी मिली हो सकती है जो वाकई क़लन्दर थे और साल में एक बार ऊंट पर सवार अपने पीछे ढोल ताशे बजाते मुरीदोंं का मजमा लिए बहराइच आया करते थे।
 ये क़लन्दरी ही है जो उन्हें बाज़ार तक आने से रोकती  है। वो लिखते हैं कि "गाहे-बगाहे मुशायरे में मजबूरन या अपनी सी महफ़िल हो तो ब-रज़ा-ओ-रग़्बत( अपनी मर्जी से )शरीक हो जाता हूं। बेशतर( अधिकतर) एक फ़र्ज़ ए किफ़ाया (दूसरों की ओर से अदा किए जाने वाला कर्तव्य) की अदायगी के लिए ।" उनके नज़दीकी लोगों में आप बजाए उनकी हम उम्र के वो नौजवान ज्यादा देखेंगे जिनकी ज़िन्दगी शायरी के इर्दगिर्द घूमती है।
हैरत की बात है कि आज के इस दौर में 'थोथा चना बाजे घणा' कहावत को चरितार्थ करते हुए जहाँ लोग अपने आपको प्रमोट करने और स्वगान में जी जान से लगे हुए हैं वहीं ये बच्चा जो अच्छा खासा बड़ा हो चुका है हमेशा उस खिड़की की तलाश में रहता है जिससे कूद कर वो फिर से अपनी मस्ती की दुनिया में जा सके।यही कारण है कि बेहतरीन शायर होने के बावज़ूद आप सोशल मीडिया पर इंटरव्यू तो छोड़िए उनके शायरी पेश करते हुए अधिक वीडियो नहीं देख पाएंगे।

तुम जो तलवार लिए फिरते हो दुनिया के ख़िलाफ़  
काश ऐसा हो कि आप अपने मुक़ाबिल हो जाओ
***
बहुत मिठास भी बे-ज़ाइक़ा सी होने लगी 
वो खुश-मिज़ाज किसी बात पे ख़फ़ा भी तो हो
***
कुछ मर गए कि उनको पहुंचना न था कहीं
और कुछ कहीं पहुंचने की जल्दी में मर गए
***
हज़ार भेष बदल लें मगर रहेंगे वही 
जो कह रहे हैं नया आईना बनाया जाए
***
तेरे गुलाब में कांटे बहुत ज़ियादा हैं 
तुझे न भूलने देगा तेरा गुलाब मुझे
***
इसे बच्चों के हाथों से उठाओ 
ये दुनिया इस क़दर भारी नहीं है
***
मेरी बदसूरती मुकम्मल कर 
मेरे पहलू में आ हसीन मेरे
***
किनारे को बचाऊँ तो नदी जाती है मुझसे 
नदी को थामता हूँँ तो किनारा जा रहा है
***
मैं तो समझा था कि हम दोनों अकेले हैं मगर 
उसको छूते ही हमारे बीच ख़्वाहिश आ गई
***
छोटा-मोटा तो नुकसान उठाया कर 
कोई दिन तो दफ़्तर देर से जाया कर
***
सुनकर अक्सर दुनिया वालों की चीखें 
दूध उतर आता है मेरे सीने में

फ़रहत साहब मुहब्बत के शायर हैं. इंसान की इंसान से मुहब्बत के। लोग कहते हैं कि उनकी शायरी में जिस्म को बहुत अहमियत दी गई है. जयपुर में प्रभा खेतान फाऊंडेशन और रेख़्ता की ओर से आयोजित 2018 में 'लफ्ज़' ऋँखला के पहले प्रोग्राम में प्रसिद्ध शायर और कवि लोकेश कुमार सिंह 'साहिल' साहब से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि "जिस्म के रास्ते बड़ी दुश्वारियां पैदा कर दी गई हैं। जिस्म को जीन्स के साथ जोड़ दिया गया है। रूह एक कंडीशन है, जो अजर- अमर है। मगर इंसान को जीन्स से जोड़ दिया है। वो मेटाफ़र बन गया है। शायरी में शायर रूह का मेटाफ़र के रूप में इस्तेमाल करने लगा है। जब हम किसी से मुहब्बत करते हैं, पहली दफ़ा उसके जिस्म से इश्क़ करते हैं। फिर आगे जाकर हमारी संवेदनाएं उनसे जुड़ती हैं। और फिर इंसान अपनी मुहब्बत को अपने तरीक़े से इंटरप्रेट करता है।"

तुम्हें उससे मोहब्बत है तो हिम्मत क्यों नहीं करते 
किसी दिन उसके दर पर रक़्स ए वहशत क्यों नहीं करते 
रक़्स ए वहशत: दीवानगी में किया जाने वाला नृत्य 

इलाज अपना कराते फिर रहे हो जाने किस-किस से 
मोहब्बत करके देखो ना मोहब्बत क्यों नहीं करते 

मेरे दिल की तबाही की शिकायत पर कहा उसने 
तुम अपने घर की चीजों की हिफ़ाज़त क्यों नहीं करते 

कभी अल्लाह मियां पूछेंगे तब उनको बताएंगे 
किसी को क्यों बताएं हम इबादत क्यों नहीं करते

इसी प्रोग्राम में उन्होंने अपने और आज के दौर की शायरी और उर्दू ज़बान के बारे में बहुत दिलचस्प बातें की जिसे पढ़ कर आप उनकी सोच को और अधिक समझने में शायद कामयाब हो जाए:
"मेरे अंदर शायरी हर वक्त चलती रहती है। वो मुसलसल है। मेरे लिए ख़ुद को इंटरप्रेट करने का तरीका है। वो सारे एलीमेंट्स जिनसे मेरा जिस्म बना है, वो किसी बनी-बनाई शक्ल में नहीं जाते हैं। जिस्म का बहुत बड़ा समुद्र है, जिसे हम मौसिकी के चाक पर रखकर चलाते हैं।
देश की आजादी के 20-25 सालों बाद उर्दू ज़ुबान के साथ ज़्यादती शुरू हुई। खासकर इसलिए क्योंकि उस जमाने के शायर मुशायरों में चिल्ला-चिल्ला कर, चेहरा बिगाड़ कर शायरी करने लगे। जैसे सब्ज़ी बेचने वाले चिल्ला कर सब्ज़ियां बेचता है। एक दौर वो भी आया जब भाषा का बड़े पैमाने पर कॉमर्शियलाइजेशन हुआ। डिमांड हुई तो सप्लाई होने लगी। भाषा का स्वरूप बदलकर उसे तोड़-मरोड़कर पेश किया। मानो एक तरह का मुस्लिम अफ़ेयर शुरू हो गया हो। मगर पिछले 10 सालों में माहौल बदला है। अब पढ़े-लिखे आईआईटीयिन उर्दू ज़ुबां के साथ जुड़ रहे हैं।'

न होता मैं तो यह दुख भी ना होता 
यही तो सारा रोना है कि मैं हूँँ 

चलाता फिर रहा हूं हल जमींं में
कहीं इक बीज बोना है कि मैं हू्ँँ 

ये मेरा जिस्म ही क्या मेरी हद है 
ये मिट्टी का खिलौना है कि मैं हूँँ

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से शिक्षा प्राप्त फ़रहत एहसास साहब की इस किताब पर जनाब 'मुजीब क़ासमी' साहब ने यूँ लिखा है " 
फ़रहत एहसास के फिक्र-ओ-ख्याल के जाविये को क़ैद नहीं किया जा सकता. अगर उनके यहां रिंदो सर मस्ती है तो इश्क़-ओ-मोहब्बत का इज़हार भी. अगर उनके यहां शिव की शक्ति है तो पार्वती का हुस्न भी, उनके यहां बयान का जमाल है तो मौजू का जलाल भी.
इस संग्रह में हयात और कायनात के मसले, समाजी भ्रम, तशद्दुद-जुल्म, हुस्न-दिलकशी की अक्कासी है. पाठकों के लिए यह मुफ़ीद शेरी मजमूआ है।"
फ़रहत एहसास साहब और उनकी इस किताब पर जिसमें उनके 2500 से ज्यादा चुनिंदा अशआर हैं, एक पोस्ट में कैद नहीं किया जा सकता। 
जनाब संजीव सर्राफ़ द्वारा  "रेख़्ता.ओआरजी" को दुनिया में उर्दू ज़बान की सबसे बड़ी वेबसाइट बनाने के सपने को साकार करने के पीछे 'फ़रहत अहसास' साहब और उनकी रहनुमाई में काम कर रही पूरी टीम का कमाल है ।  
ये किताब रेख़्ता बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है जिसे खुद संजीव सर्राफ साहब ने सालिम सलीम की मदद से संकलित किया है. इस किताब को आप अमेजन और रेख़्ता की वेबसाइट से खरीद सकते हैं।

पहले दरिया से सहरा हो जाता हूं 
रोते-रोते फिर दरिया हो जाता हूं 

तनहाई में इक महफ़िल सी रहती है 
महफ़िल में जाकर तन्हा हो जाता हूं

जिस्म पे जादू कर देती है वह आग़ोश 
मैं धीरे-धीरे बच्चा हो जाता हूँँ

फ़रहत साहब की शायरी पर बात खत्म करने के लिए उनके इस शेर का सहारा ले रहा हूँ जिसमें उन्होंने अपने और अपनी शायरी को यूँ जा़हिर किया है:

फ़रहत एहसास हूं बाकी रहूं फ़रहत एहसास 
तर्ज़ ए ग़ालिब, सुख़न ए मीर नहीं चाहता मैं


45 comments:

  1. फ़रहत एहसास साहस अद्भुत शाइर भी हैं और अपनी तरह के वाहिद फ़र्द भी.

    इस वक़्त की एक पूरी नस्ल उनसे फ़ैज़याब भी हो रही है और इस्तिफ़ादा भी कर रही है.

    बेहतरीन आलेख के लिए आपको मुबारक.

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  2. आप अपना दिल सामनेवाले के हाथ में रखते है.आपको परमेश्वर बहुतही आरोग्यदायी साथ दे .

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    1. बहुत शुक्रिया... अपना नाम कमेंट के नीचे जरूर दिया करें

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    2. बेहतरीन आलेख

      फ़रहत अहसास साहेब जेनविन पोएट है इसमे कोई शक नही

      और आप अदब के सच्चे खिदमतगार

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  3. फरहत अहसास साहब की शायरी उस स्तर पर है जहाँ हर शेर इतना पुख्ता हो जाता है कि पढ़ने वाला ठहर जाए। ऐसे में पूरा संकलन पढ़कर चुनिंदा अश'आर के साथ ऐसी लाजवाब समीक्षा प्रस्तुत करना वंदनीय है।

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  4. बेहतरीन शाइरी, खूबसूरत और दिल को छूने वाले अशआर, जो पाठकों के भीतर सहजता के साथ उतरते जाते हैं। उम्दा प्रस्तुति। धन्यवाद।

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  5. बहुत सुन्दर समीक्षा जो केवल एक सहृदय पाठक ही कर सकता है , बड़े भाई प्रभुजी आपको दीर्घायु करें जिससे कि आप साहित्य की अनवरत सेवा कर सकें, जब सरबत का भला होगा तो मैं तो सहज शामिल हो ही जाऊँगा 🙏

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  6. बहुत शानदार इंतिख़ाब । क्या बात है ।

    तसव्वुफ़ पर शेर कहना हर शायर के लिए कसौटी के समान होता है । ये वह जगह है जहाँ शायर का अर्जितोपार्जित ज्ञान परिलक्षित होता है । इस कारण से आपसे मेरा निवेदन है कि फ़रहत साहब के इस शेर को इंतिख़ाब में ज़ुरूर शामिल करें

    मैं जब कभी उससे पूछता हूँ
    कि यार मरहम कहाँ है मेरा
    तो वक़्त कहता है मुस्कुराकर
    जनाब तैयार हो रहा है

    नीरज भाई आपके इस अनहद श्रम को पुनः पुनः प्रणाम । सादर सप्रेम जय श्री कृष्ण ।

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    1. जी भाई शुक्रिया... मैं ढूंढता हूँ इस शेर को.

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  7. क्या अच्छे शेर चुने आपने सर। बहुत उम्दा आर्टिकल। फ़रहत साहब की हमारे बीच मौजूदगी भर से हमारा वक़्त थोड़ा बेहतर हो गया है।

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    1. शुक्रिया स्वप्निल... तुम किसी बहाने ब्लॉग पर आए तो ...आते रहो

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  8. नीरज गोस्वामी जी,
    आपका ब्लॉग पढ़ा। आपने फरहत एहसास की किताब - कश्का खींचा दैर में बैठा - , जिसमें कि 2500 से ज्यादा शेर संकलित हैं, से हमें अवगत करवाया। बहुत-बहुत शुक्रिया। मुझे सभी शेर एक से बढ़कर एक लगे। फरहत एहसास को पढ़कर लगता है कि एक बड़ा शायर वाकई बहुत गहरा सोचता है। उनके जो शेर मुझे बहुत पसंद आए -
    वो अक्लमंद कभी जोश में नहीं आता
    गले तो लगता है आगोश में नहीं आता
    *
    कहानी खत्म हुई तब मुझे ख्याल आया
    तेरे सिवा भी तो किरदार थे कहानी में
    *
    तेरे गुलाब में कांटे बहुत जियादा हैं
    तुझे न भूलने देगा तेरा गुलाब मुझे

    वाह वाह, क्या बात है! आपकी समीक्षा शैली के हम सच में कायल हो गए।

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    1. शुक्रिया नरेश भाई...स्नेह बनाए रखें

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  9. बहुत दिलकश समीक्षा। आप भी तो शब्दों के जादूगर हैं।

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  10. साधुवाद नीरज जी,
    फ़रहत भाई से इतनी बारीकी से परिचय करवाया कि लगा वो भी साथ ही बैठे हैं और एक के बाद एक शेर पढ़ रहे हैं।

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  11. बहुत बढ़िया लेख है। फरहत एहसास की शायरी से पढ़ने वाले के एहसास को फरहत मिलती है। एक दो जगह टाइपो एरर है। मसलन हैरत और हसरत ज़दा होना चाहिए मेरे खयाल से मगर जुदा हो गया है। मकतब के क के नीचे नूक्ता नहीं है मगर यहां है। और कई जगह नुकता चाहिए वहां नहीं है।
    जहां तक आप की समीक्षा की बात है तो वो हमेशा की तरह दिलचस्प और भरपूर है।
    और जहां तक फरहत साहिब की शायरी का सवाल है (यहां प्रस्तुत किए अशआर के हवाले से और संग्रह के नाम के लिहाज़ से) तो कुछ शेर यूनिवर्सल अपील वाले हैं यानी जिन्हें हम आफाक़ियत कह सकते हैं ।बहुत सारे शेर विशेष पाठक वर्ग को अपील करने वाले भी हैं यानी जिन्हें हम शऊरी तौर पर कहे जाने वाले शेर कह सकते हैं उन में आमद कम कम है आउर्द ज़ियाद है। मगर इस से इंकार नहीं की की एक साहिब ए तर्ज़ शायर हैं। आप ने क़लंदर सिफत होने की बात की है तो क़लंदर तर्क ए इस्लाम भी करता है और कश्का से परहेज़ भी करता है यानी ना मंदिर जाता है ना मस्जिद । कबीर को ही देख लीजिए। उनके लिए दैर ओ हरम दोनों एक समान थे।
    ख़ैर एक बार फिर आप को मुबरकबाद इतने अच्छे लेख के लिए और मुंफरिद तर्ज़ की शायरी के लिए मोहतरम फरहत एहसास साहिब को दाद और नेक ख्वाहिशात कि उनका मजमूआ मकबूल भी हो और कबूलियत भी हासिल करे

    मेरे के बोर्ड में कई शब्दों के नीचे जहां नुक्ता ज़रूरी है नहीं आ पाता इस के लिए क्षमा प्रार्थी हूं
    डॉक्टर आज़म

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    1. आज़म साहब शुक्रिया... टाइपिंग की गलतियों को कल सुधारने की कोशिश करूंगा

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  12. शायरी पर आपके लेख 'फरहत' बख़्श होते है। आज तो यह 'एहसास' दो गुना हो गया है।
    शायरों से तआर्रुफ कराने का आपका अंदाज़ दिल्चस्प है। अदब की इस मुख़्लिसाना ख़िदमत के लिये दिल से सलाम।
    "मोहब्बत कैसे छत पर जाए छुपकर
    क़दम रखते ही ज़ीने बोलते हैं "

    फरहत साहब के इस एहसास को अनगिनत लोगों ने जिया है.......मगर इज़हार करने का सलीका ! सद आफरीन फरहत एहसास साहब।

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  13. फरहत एहसास एक ऐसा नाम जिसे मैंने यूट्यूब पे कई बार सुना, ज्यादातर रेख्ता के कार्यकर्मों में पर जितने अश’आर उनसे सुने वो मुझे समझ नहीं आये शायद बहुत ज्यादा किलिष्ट भाषा की वजह से या फ़िर उर्दू की जानकारी कम होने की वज़ह से, फरहत एहसास की शायरी की कठिनता के बारे में आपने और मैंने विश्व पुस्तक मेले में बात की थी पर उस समय मुझे नहीं पता था की एक दिन आप ही फरहत एहसास साहब की ऐसी शायरी भी पढ़वा देंगे जो बहुत आसानी से समझ भी आ जायेगी और दिल को छू भी जायेगी शायद इसलिए ही कहते हैं हीरे की परख़ जौहरी को ही होती हैं और आप शायरी के ख़जाने से एक बढ़कर एक अनमोल नगीने खोज लेने वाले सच्चे जौहरी हैं

    आपको मेरा कोटि कोटि प्रणाम और सहृदय धन्यवाद

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    1. शुक्रिया अमित बाबू... कब से आपके कमेंट की इंतजार में था...एक बार फिर से शुक्रिया

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  14. अत्यंत सुरुचिपूर्ण और ज्ञानवर्धक आलेख ।
    बेहतरीन प्रस्तुति । हार्दिक आभार ।

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  15. फ़रहत एहसास वो शायर है, जिसको सुन-पढ़ कर वाहः वाहः को जी नहीं चाहता पर उनके शेर दिल-ओ-ज़हन में मंदिर की घंटी की तरह बज उठते हैं। आप को यूं "एहसास" होता है गोया ये आपके लिए ही और आपका ही है। अफ़सोस इस बात का होता है कि इतने अज़ीम शायर को पढ़ने वाले थोड़े कम हैं , शायद मार्केटिंग या ब्रांडिंग कम हुई या शायर मोहतरम वो शख़्स है जो अपना कलाम सुना कर भीड़ में गुम हो जाते हैं और भीड़ के कुछ लोग उनके कलाम में। उनकी गज़लों का एक रेन्डिशन इस ख़ादिम की जुबानी समाद फरमाइएगा :
    https://www.facebook.com/1104480255/posts/10223237384778639/

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  16. बहुत सटीक सुंदर दिलचस्प लिखा बहुत बधाई। वाह वाह वाह क्या कहना नीरज जी ज़िन्दाबाद।
    मोनी गोपाल तपिश।

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  17. आजकी समीक्षा उस शाइर के संग्रह की है जिसके साथ एक ऐसा क़ीमती समय आया था, जब हम थे, कुछ चार-पाँच अपने थे, पंदरह-पंदरह का अटा-पटा कमरा था,
    अपनी रौ में बेसाख़्ता बहते हुए फ़रहत एहसास थे और फ़रहत साहब की लगातार नदी-नदी होती शाइरी थी. तब के इलाहाबाद की वह अपनी-अपनी-सी शाम सचमुच थम-सी गयी थी. और.. जो शाइरी हो रही थी उसकी कलाओं का विस्तार निस्संदेह चमत्कारी था ! वे इकट्ठे सात-आठ घंटे हम ख़ुशनसीबों के जीवन के सबसे धनी लमहे हैं. आज भी.

    नीरज भाई, रूहानी-हक़ीक़ी शाइरी का वह निर्विरोध, बेजोड़, अलबत्त बहाव था. अध्यात्म की बारीक़ समझ और तदनुरूप नैसर्गिक अनुभूतियों को सटीक, समर्थ शब्दों में पिरो कर फ़रहत साहब हमें लगातार साधिकार समेट रहे थे, अवर्णनीय एहसासों की उफान में साफ़ डुबो डालने के लिए ! डूबने में भी मगर ऐसा अनिर्वचनीय आनंद ! ओह ! डूब कर बस मर जाना बाकी था. जिसका अफ़सोस हमें हमेशा-हमेशा बना रहेगा.

    आज आपकी सशक्त समीक्षा ने उन लमहों को हठात फिर से जिंदा कर दिया..

    शुभ-शुभ
    सौरभ

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  18. बहुत सुन्दर समीक्षात्मक आलेख। शुभकामनाएँ।

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  19. शुक्रिया अनुराधा जी

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे