(ये पोस्ट भाई 'मनोज मित्तल , इरशाद खान सिकंदर और गोविन्द गौतम के सहयोग के बिना संभव नहीं थी )
जिसे भी देखो हमारी तरफ ही देखता है
इसी ख्याल ने दुश्वार कर दिया हमको
***
अजब सुरूर है खुद को गले लगाते हुए
ये मेरे साये मिरे बाजूओं में आते हुए
***
मेरे लिए तो मेरे अश्क काफी होते हैं
सितारे तोड़ने जाता हूं बस्तियों के लिए
***
किसी भी हाल में उससे जुदा नहीं होना
बिगाड़ता हूं तबीयत अगर संभलती है
***
गेंद के आगे पीछे भागता रहता हूं
रोज मेरा मैदान बड़ा हो जाता है
***
सबसे लड़ लेता हूं अंदर-अंदर
जिसको जी चाहे हरा देता हूं
***
काश आवाज़ को तस्वीर किया जा सकता
एक ही लय में हुए झील का पानी और मैं
***
मुस्कुराओ मियां आदमी की तरह
इतनी शिद्दत भी क्या आंख हंसने लगे
***
सुनो यह शोर अच्छा लग रहा है
किसी मकतब में छुट्टी हो रही है
मकतब: पाठशाला
***
अब नई तरकीब सोची जाएगी
इन लबों से मुस्कुराए जा चुके
***
ख़सारे जितने हुए हैं वो जागने से हुए
सो हर तरफ़ से सदा है कि जा के सो जाओ
ख़सारे: घाटा
***
वो ये कहते हैं सदा हो तो तुम्हारे जैसी
इसका मतलब तो यही है कि पुकारे जाओ
अब एक दिसंबर की रात है तो ठण्ड तो होगी ही, वक्त भी तो देखो रात के ग्यारह बजे हैं और मैं पुरानी दिल्ली के चितली कबर चौक में चाय की दुकान ढूंढ रहा हूँ .मुझे किसी ने बताया था कि मियां अगर दिल्ली के शायरों से मिलना है तो पुरानी दिल्ली चले जाओ वहां जामा मस्जिद के पास चितली कबर चौक में किसी चाय की दुकान में आपको महफ़िल जमी मिलेगी। मैं चल पड़ा। यहाँ चौक के आसपास खूब दुकानें हैं और अच्छी ख़ासी भीड़ भी। किसी से पूछा कि जनाब वो चाय की दुकान कहाँ है जहाँ देर रात शायरों की महफ़िल जमती है? तो एक ने इशारा कर के बताया उधर। जब उधर थोड़ा बढ़ा ही था कि सामने की दुकान पे लगे बोर्ड पर नज़र गयी "सुलेमान टी स्टाल". ये एक छोटा सा रेस्टॉरेंट था जिसमें कुल जमा छै टेबल थीं और हर टेबल पर चार लोगों के आमने सामने बैठने की कुर्सियां रखी थी। रेस्टॉरेंट खाली था, सिवा एक कोने को छोड़ कर जहाँ पांच छै लोग बैठे बतिया रहे थे चाय के खाली गिलास सबके सामने पड़े थे. मैं उनके पास गया और बोला क्या आप लोग शायर हैं? मैं आप लोगों से मिलने आया हूँ. सब मुझे हैरत से देखने लगे.उनमें से जो सबसे बुजुर्ग थे उन्होंने मुझे बैठने का इशारा किया और कहा देखो बरखुरदार मैं इक़बाल फ़िरदौसी हूँ, मेरा हारमोनियम के पार्ट्स बनाने का काम है , ये मुनीर हमदम है और इ-बुक्स पब्लिश करता है, ये जावेद मुंशी है 'सियासी तक़दीर' अखबार का जनर्लिस्ट है, ये जावेद नियाज़ी है इसका रबर का व्यापार है और फिर एक लम्बे बालों वाले शख्स की ओर देख कर बोले ये जनाब इंटीरियर डिज़ायनर हैं और इनका नाम ---तभी उस शख्स ने बात बीच में काटते हुए कहा 'छोडो भी इक़बाल साहब नाम में क्या रखा है इनके लिए पहले चाय मंगवा लें " ये कह कर उन शख्स ने अपने लम्बे बालों पे हाथ फेरा सामने रखे 'हावड़ा बीड़ी' के पैकेट से बीड़ी निकाली, सुलगायी और गहरा कश लेकर ढेर सा धुआं फ़िज़ा में बिखराते हुए हाथ से किसी को चाय लाने का इशारा किया । इक़बाल साहब ने लम्बे बालों वाले सज्जन के हाथ से बीड़ी छीन कर ऐश ट्रे में मसलते हुए कहा 'बस भी करें, आप इन दिनों बीड़ी ज्यादा नहीं पीने लगे ? दुनिया से भले बग़ावत करो लेकिन डाक्टर की सलाह से नहीं।'लम्बे बालों शख्स ने मुस्कुराते हुए फिर से बीड़ी सुलगाई गहरा कश लिया और बोले ' मुझे क्या होना है'
हर सदी को इक नया ग़मशनास चाहिए
मोम का बना हुआ धूप में खिला हुआ
रोशनी दिखाई दे चाप तो सुनाई दे
इक किवाड़ आदतन रखता हूं खुला हुआ
आज कल की ज़िंदगी जी सको तो बात है
जैसे क़तरा ओस का घास पर टिका हुआ
मैंने शर्मिंदा होते हुए उन सबसे कहा 'मुआफ कीजिये, मैंने आप लोगों को डिस्टर्ब किया दरअसल मुझे किसी ने बताया था कि यहाँ रोज रात दिल्ली के शायर आपस में मिलते हैं आपस में सुनते सुनाते हैं तो मैं उन्हें ढूंढने चला आया । आप लोग अपनी गुफ़्तगू जारी रखिये मैं चलता हूँ। इक़बाल साहब हाथ पकड़ कर मुझे बिठाते हुए बोले 'बैठो मियां अब आ गए तो चाय पी कर चले जाना ,ठण्ड में मज़ा आएगा'। मैं जावेद साहब की बगल में बैठ गया वो मेरे कंधे पे हाथ रख कर बोले ' जिस किसी ने आपको यहाँ के बारे में बताया है उस बन्दे को दुआ देता हूँ कि किसी ने तो शायरों के लिए एक श्रोता भेजने की इनायत की' उनकी इस बात पर सब ने जोर का ठहाका लगाया। 'दरअसल हम सब लोग अलग अलग काम करके अपने पेट की ख़ुराक का इंतज़ाम करते हैं लेकिन हम सब के पेट के अलावा ये कमबख़्त दिमाग़ भी ख़ुराक मांगता है ,इसलिए यहाँ इकठ्ठा होते हैं। तुम ने सही सुना 'हम शायरी भी करते हैं और यहाँ एक दूसरे को सुनते सुनाते हैं '.मुनीर साहब बोले और अपनी एक नज़्म सुनाने लगे. इसी बीच चाय आ गयी। काली कड़क मीठी। चाय ने जादू सा कर दिया सब पर और सभी बारी बारी से अपनी शायरी सुनाने लगे। मैंने झूम झूम कर दाद देते हुए कहा सुभानअल्लाह क्या शायरी है। इक़बाल साहब ये सुन कर बोले जनाब शायरी क्या है इनसे सुनें और फिर बीड़ी पीते शख्स से बोले 'रऊफ' साहब अता हो. तब मुझे पता लगा कि ये मेरे सामने बैठा शख़्स उर्दू का मशहूर शायर 'रऊफ रज़ा है'. रऊफ साहब ने बीड़ी का एक जोर का कश लिया और बोले सुनो मियां शायरी क्या है :
ये जानता हूं कि अगली सीढ़ी पे चांद होगा
मैं एक सीढ़ी उतर रहा हूं, ये शायरी है
ख़ुदा से मिलने की आरजू थी वो बंदगी थी
ख़ुदा को महसूस कर रहा हूं, ये शायरी है
शरीर बच्चे ने आंसुओं की जुबां पकड़ ली
मैं उसके लहजे से डर रहा हूं, ये शायरी है
वो कह रहे हैं बुलंद लहजे में बात कीजे
मैं हार तस्लीम कर रहा हूं, ये शायरी है
वाह वाह के शोर से रेस्ट्रोरेंट की दीवारें हिलने लगीं। ये दौर रात दो बजे तक चलता रहा। मेरा तो दिन बन गया या कहूं रात गुलज़ार हो गयी । अब तक मैंने सबके मोबाईल नंबर ले लिए थे और उन सब ने मेरा। वक्ते रुख़सत मैंने कहा किसी को कहीं छोड़ना हो तो मैं छोड़ देता हूँ वहां कोने में मेरा स्कूटर खड़ा है। इकबाल साहब बोले 'आप रऊफ मियां को गली मेम साहब तक छोड़ दें'. रऊफ साहब ने मना कर दिया बोले 'बीस मिनट का ही तो रास्ता है बस दो बीड़ी पीते पीते कट जाएगा'. मैं चला जाऊंगा . मुझे क्या पता था वो वाकई चले जायेंगे। वो चले गए। सुबह 9 बजे इक़बाल साहब का फोन आया रुंधे गले से बोले 'मियां, रऊफ हमें छोड़ कर चला गया ' मैं समझा नहीं बोला 'कहाँ ? कहाँ चले गए ?' जवाब में इक़बाल साहब के सिसकने की आवाज़ आयी। 'कैसे कब ?' मैंने पूछा। 'सुबह 8 बजे मैसिव हार्ट अटैक आया संभल ही नहीं पाये , सुबह अच्छे से उठे थे चाय बनाई पी फिर सुबह फ़ज्र की नमाज़ घर में ही पढ़ी जबकि रोज पास की मस्जिद 'सय्यद रिफाई' में जाया करते थे. बेग़म ने पूछा क्या हुआ ख़ैरियत तो है आज आप ने नमाज घर में पढ़ी तो मुस्कुराते हुए बोले 'मुझे क्या होना है? मैं अभी हम दोनों के लिए फिर से चाय बना कर लाता हूँ , चाय बनी उन्होंने पी या नहीं, ये तो पता नहीं बस उसके थोड़ी देर बाद ही उन्हें अटैक आया और वो इस दुनिया को छोड़ गए।' ये सुनकर मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं क्या कहूँ.
भीड़ है जश्ने हुनर जारी है
कुछ न कहने में समझदारी है
हम वही उम्र गुजारेंगे जहां
सांस लेने में भी दुश्वारी है
कुछ नहीं कुछ नहीं कुछ भी तो नहीं
बस कहीं और की तैयारी है
हम सब कहीं ओर चलने की तैयारी में ही तो ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं कुछ समय से पहले निकल लेते हैं कुछ इंतजार में रहते हैं लेकिन किस ओर चलने की तैयारी है ये पता अभी तक नहीं लग पाया. जो गया उसने कभी किसी को बताया ही नहीं कि वो किधर गया। ये दार्शनिक बातें कोई नयी तो है नहीं फिर क्यों न इन्हें यहीं छोड़ वापस रऊफ साहब की ओर लौटें ? रऊफ रज़ा साहब के इन्तेकाल के बाद ऐवाने ग़ालिब में उनकी याद में एक प्रोग्राम हुआ जिसमें 'फ़रहत एहसास, साहब ने कहा " मौत ने अपना काम कर दिया अब ज़िन्दगी को अपना काम करने दीजिये --रऊफ की मौत का जो मुझे दुःख है वो ये कि उन्हें भरी बहार में उठाया गया। इस वक्त वो अपनी शायरी के उरूज़ पर थे --खूब ग़ज़लें कह रहे थे--"
हाथों में नब्ज़े वक्त है आंखों में आसमान
लेकिन ये मेरे पांव से लिपटी हुई जमीन
मेरी कलंदरी मेरे बच्चों में आ गई
गुलज़ार हो गई मेरी सींंची हुई जमीन
फिर यह हुआ कि चूल्हा जलाने में जल गई
दोनों के काग़ज़ात में लिखी हुई जमीन
चलिए बात शुरू से शुरु की जाए. रऊफ़ रज़ा का जन्म सन 1954 में अमरोहा में हुआ था। उनका पैतृक मकान अमरोहा के बड़ी बेगम सरा में था।परिवार 1955 के आसपास दिल्ली आ गया और वही का होकर रह गया।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसा करीमिया में हुई उसके बाद रऊफ़ रज़ा ने अलीगढ़ से अदीब फाज़िल और अदीब कामिल के इम्तिहान पास किए। इसके कुछ साल बाद उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम.ऐ. की डिग्री हासिल की। इसके आगे भी वो पढ़ना चाहते थे लेकिन हालात माकूल नहीं बन पाए तो नहीं पढ़ पाये.
ये आंखें बंद किए किस तरफ पड़े हो तुम
इसी तरफ़ से तो सैलाब की निकासी है
यक़ींं के जोश में अपना क़सीदा लिख डाला
मैं खुदशनासी को समझा ख़ुदाशनासी है
खुदशनासी:खुद को पहचानना ,ख़ुदाशनासी: ईश्वर को पहचानना
इन्हीं दिनों तेरी क़दआवरी के चर्चे हैं
इन्हीं दिनों तेरे चेहरे पर बदहवासी है
क़दआवरी: ऊंचाई
उनकी शायरी के सफ़र की शुरुआत 1975 के आसपास शुरू हुई और उन्होंने अपना नाम रज़ा अमरोहवी रखा लेकिन इसी नाम के एक शायर के अमरोहा में होने की जानकारी मिलने के बाद उन्होंने अपना क़लमी नाम रऊफ़ रज़ा कर लिया।शायरी के सफ़र की शुरुआत में उन्होंने एक वरिष्ठ शायर और अरूज़ के जानकार जनाब इफ्तेख़ार अल्वी से परामर्श लिया लेकिन यह सिलसिला अधिक दिन नहीं चल पाया।70 के दशक में नए शायरों ने किताबों को पढ़ना और नए विचारों को अपनी गजलों में जगह दे रहे शायरों का अनुसरण करना शुरू कर दिया और इसे उस्ताद शागिर्द की परंपरा पर तरजीह दी। इस अमल से शायरी का एक नया रूप निखरता चला गया और रऊफ़ रज़ा की शायरी भी इसी रौशनी में परवान चढ़ी।
उनकी शुरुआती शायरी रिवायती रही लेकिन जल्द ही वह जदीद ग़ज़ल की तरफ मुड़ गए।
प्यासा है तो प्यास दिखा
तू कोई पैग़ंबर है
मैं कैसे मर सकता हूं
कितना कर्जा़ मुझ पर है
अच्छी है बारिश लेकिन
छत पर एक कबूतर है
रऊफ़ साहब की 1980 में शादी हुई, पहले सब कुछ ठीक चला और फिर धीरे-धीरे घर की माली हालत बद से बदतर होती चली गई। काम मिलना बंद हो गया। फाकाकशी की नौबत आ गई ।1988 में उनके एक दोस्त ने उन्हें अपने परिचित के यहां उड़ीसा में मार्बल चिप्स बनाने वाली कंपनी में सुपरवाइजर की पोस्ट पर लगवा दिया। आप ही बताएं जो इंसान संगमरमर के पत्थरों से ताजमहल तामीर करने की कुव्वत रखता हो उसे संगमरमर को चूरा करने के काम पर लगा दिया जाए तो कैसा लगेगा ? लिहाजा दिल ने बगा़वत करनी शुरू कर दी। दिल के साथ यही समस्या है, कभी दुनिया तो कभी दिमाग उसे दबाने में लगे रहते हैं।उसे अपनी करने ही नहीं देते। जिनका दिल दबा रह जाता है वो लोग घुटन के अंधेरों में खो जाते हैं लेकिन जिनका दिल अंगड़ाई लेकर बगावत कर देता है वो दुनिया और दिमाग की कैद तोड़कर ऐसा करिश्मा करते हैं कि दांतों तले उंगलियां दबानी पड़ती हैंं
तो हुआ यूं कि हज़रत 3 साल बाद दिल की सुनकर याने1991 में उड़ीसा की लगी लगाई नौकरी छोड़ वापस दिल्ली लौट आए और फिर से इंटीरियर डेकोरेशन का काम शुरू कर दिया, जो चल निकला। यूं समझें घने कोहरे के बाद धूप निकलने लगी
हाय वह शख़्स जो मायूस मेरे घर से गया
अपनी तनहाइयां रखने के लिए आया था
***
मैं जी उठा, मैं मर गया दोबारा जी उठा
ये सारी वारदात ज़रा देर की है बस
***
मेहरबानो! मेरी आवाज ज़रा धीमी है
मैं बहुत चीख़ने वालों में उठा बैठा हूं
***
काम ही काम है बस काम ही काम
कुछ तो बर्बादी-ए-लम्हात करो
***
कुछ नया करके गुज़ारी जाए
वरना ये उम्र गुजारी हुई है
1997 में उन्हें जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा और इसके बाद डिप्रेशन ने भी उन्हें घेर लिया। लेकिन इन मुश्किल हालात में भी उन्होंने कई अच्छे शेर कहे।उनकी ग़ज़लों, आजाद और मुअर्रा नज़्मों और कुछ हाइकु का पहला संकलन 'दस्तकें मेरी' 1999 में प्रकाशित हुआ। 2007 में सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद रज़ा की सीमित दुनिया को नया विस्तार मिला और उनके सुस्त हो रहे शायर को एक नई ऊर्जा मिली और लोगों ने उन्हें हाथों हाथ लिया। 2012 में अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी कर लेने के बाद रज़ा का पूरा ध्यान शायरी पर केंद्रित हो गया और उनकी शायरी बेहतरीन होती चली गई।
यूं भी हो जाए कि बरता हुआ रास्ता न मिले
कोई शब लौट के घर जाना जरूरी हो जाए
***
अब यह पथराई हुई आंखें लिए फिरते रहो
मैंने कब तुमसे कहा था मुझे इतना देखो
***
काश आवाज को तस्वीर किया जा सकता
एक ही लय में हुए झील का पानी और मैं
***
तोड़ा गया हूं ऐसा कि जुड़ता नहीं हूं मैं
बस और देखभाल की हसरत नहीं मुझे
***
मैं भी मक़तल से निकल जाने को तैयार नहीं
वो भी अच्छा कोई क़ातिल नहीं देता है मुझे
सब कुछ सही चल रहा था, शायरी अपने उत्कर्ष की ओर सफ़र कर रही थी और वो माने बैैैठेे थे कि अब 'मुुझे क्या होना है' तभी वो मनहूस रात आई जिसका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं .
उनके देहावसान के बाद दो हजार अट्ठारह में उनका एक अन्य संकलन "यह शायरी है" प्रकाशित हुआ।
हिंदी में पहली बार नौजवान शायर 'इरशाद खान सिकंदर ' साहब द्वारा उनकी ग़जलों के लिप्यांतरण को तुफैल चतुर्वेदी जी ने संपादित किया और राजपाल ने प्रकाशित किया। इस किताब का पहला भाग आप पिछली पोस्ट में पढ़ ही चुके हैं।
आखरी में उनकी एक ग़जल के ये अशआर भी पढ़वाता चलता हूँ
रौनक़े-शहर तो बस मुँँह की तका करती है
वो उजाला किए रहती है कहानी मेरी
जो़र इस बात पे था इश्क का क्या हासिल है
वो हंसी छूटी कि आंखे हुई पानी मेरी
तुम चले आओगे इंकार का सामान लिए
आखिरी मोड़ से गुज़रेगी कहानी मेरी
बहुत उम्दा लिखा भाई,ज़िंदाबाद बने रहिये, सजे रहिये
ReplyDeleteहौंसला अफ़जाई का तहे दिल से शुक्रिया तुफैल साहब 🙏
Deleteशानदार,जबरदस्त,झिंदाबाद.आपके लेखन में लगाव है, प्यार है, प्रेरणा है .बहोत बढिया सर जी.
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया
Deleteबहुत ख़ूबसूरत मज़मून
ReplyDeleteशुक्रिया मनोज भाई
Deleteमज़ा आ गया..
ReplyDeleteक्या ख़ूबसूरत तब्सिरा किया है आपने.
रऊफ़ रज़ा साहब कमाल के शाइर थे..दिल्ली की कई मुलाक़ातें याद आ गईं..
उनके दो शे'र याद आ रहे हैं..
दीवानों को दे तस्बीह,
चांद सितारे रुलते देख.
दूर बहुत था तेरा घर,
आ गए हिलते डुलते देख.
बहुत बधाई आपको.
शुक्रिया बकुल...खुश रहें
Deleteबेहतरीन समीक्षा सर
ReplyDeleteवाह
वाह
लाजवाब
शुक्रिया जी
Deleteलाजवाब
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील जी
Deleteवो कह रहे हैं बुलंद लहजे में बात कीजे
ReplyDeleteमैं हार तस्लीम कर रहा हूं, ये शायरी है
यह लहजा ही बताता है कि उनकी शाइरी सबसे अलग थी
धन्यवाद आशिष भाई
Deleteजिस क़दर उम्दा अशआर का गुलदस्ता पेश किया गया है उसी क़दर हसीं अंदाज़ में तहरीर के गुंचे खिलाए गए हैं।
ReplyDeleteदिलचस्प और काबिल ए तारीफ़
शुक्रिया आज़म भाई
Deleteकमाल के शायर थे रऊफ़ साहब...बहुत जल्दी चले गए ।
ReplyDeleteशुक्रिया विकास जी
DeleteWaaaaah, zabardast
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
Deleteआपकी इस पोस्ट ने झकझोर के रख दिया है। उफ़्फ़ ये अंदाज़े बयां। यूँ लगा कि हक़ीक़तन कुछ मंज़र आंखों के सामने से गुज़र रहे हैं जो अफ़साना होने को बेताब हैं। रज़ा साहब की रूह भी यह पढ़कर उन चाय गोष्ठियों में उतरना चाह रही होगी।
ReplyDeleteशुक्रिया तिलक भाई...
ReplyDeleteअब यह पथराई हुई आंखें लिए फिरते रहो
ReplyDeleteमैंने कब तुमसे कहा था मुझे इतना देखो
तुम चले आओगे इंकार का सामान लिए
आखिरी मोड़ से गुज़रेगी कहानी मेरी
पढ़ गया रउफ़ रज़ा की दास्तान आपकी शाइरी के हवाले से
अंदाज़ तो दिलचस्प है ही आपका
शाइरों को खोजने निकले और वे मिल गए तो निकालने का बहाना
साधुवाद अमे के पक्के हैं आप 10: 05 अ.म नहीं भूलते
धन्यवाद रमेश जी...हौंसला बढ़ाते रहें...🙏
Deleteरऊफ़ साहब रऊफ़ साहब थे । तुफ़ैल दादा के घर पर पहली मुलाकात हुई थी । उनका एक और शेर याद आ रहा है
ReplyDeleteसारा मिज़ाज नूर था, सारा ख़याल नूर ।
और इसके बावजूद शरारे उगल गया ।।
रऊफ़ साहब ने बड़ी बहरों पर भी बड़े ही चुस्त शेर कहे हैं ।
आपका ब्लॉग और भी समृद्ध हुआ । जय श्री कृष्ण भैया ।
शुक्रिया नवीन भाई...🙏
Deleteपूरा पढ़ा ! आप पारस हैं !! जिसे छू लें वो सोना बनेगा ही !!!🍂🌾🌷
ReplyDeleteविज्ञान व्रत
विज्ञान व्रत जी और नीरज गोस्वामी जी दोनों ही पारस जैसे अमूल्य हैं।
Deleteवाह।
*किसी भी हाल में उससे जुदा नहीं होना*
ReplyDelete*बिगाड़ता हूँ तबीयत अगर सँभलती है*
वाह ।
आप जो काम कर रहे हैं नीरज भाई , मैं अगर इस मुल्क का सुल्तान होता तो अभी तक आपको पद्मश्री तो ज़रूर मिल गयी होती ।
अल्लाह आपके इस जज़्बे और फ़राक़दिली को हमेशा सलामत रखे , आमीन ।
लोकेश कुमार सिंह'साहिल'
लाजवाब पोस्ट
ReplyDeleteरऊफ़ रज़ा साहब और उनकी शायरी के बारे में बहुत खूब लिखा आपने 🙏🌹♥️
जगजीत क़ाफिर
लुधियाना
Rauf Raza sb. se mere zaati marasim rahe, unki shaayirika main bhi mddaah hun, aap ne waaqayi haq ada kar diya, filhaal to main yehi kah sakta hun, waah......waah........!!!!!
ReplyDeleteAqeel Nomani
जनाब रऊफ़ रज़ा की शाइरी से आप के ब्लॉग द्वारा परिचित हुआ। अमरोहा की धरती ने कई बाकमाल शु'अरा को जन्म दिया है। वाक़ई आजकल क़िरदार के गिरावट के दौर में ग़ैरमतलबी और अच्छे शाइरी के उस्तादों की भी कमी होने लगी है इसलिए उन्होंने अच्छा किया कि अपनी राह ख़ुद तलाशी और शाइरी में मौलिक बने रहे। यक़ीनन उन के अश्आर मुतास्सिर करते हैं। शे'रों में जिद्दत लाने के नाम पर बाज़ शु'अरा ऊल-जलूल प्रयोग वाले शे'र भी कहने लग जाते देखे हैं मगर रऊफ़ रज़ा ऐसे शाइरों में शुमार नहीं किए जा सकते। उन के शे'रों में नयापन और ताज़गी तो है मगर बेहूदगी नहीं।
ReplyDeleteआप के ज़ौके-नज़र को सलाम करता हूँ कि शाइरी के समुन्दर में गहरा गोता मार कर गौहर तलाश लाते हैं।
शुक्रिया नीरज भाई !
Anil Anwar
Jodhpur
बहुत अच्छा लेख है...रऊफ़ साहब बहुत कमाल के शायर थे
ReplyDeleteविकास राज़
एक बेहद उम्दा मज़मून आपने क़लम किया है। ऐसे मज़मून को लिखने के लिए यक़ीनन बड़ी मेहनत से गुज़रना पड़ा होगा। कुछ अशआर शायद टाइपिंग मिस्टेक की वजह से बेबह्र हो गए हैं जिन को अगर ठीक कर दिया जाए तो एक बड़ा शायर हर्फ़ आने से बच जाएगा। आप न जिस शिद्दत से मज़मून लिखा है वो क़ाबिले क़द्र है। मैं इसके लिए आपको बहुत मुबारकबाद पेश करता हूँ। ख़ुदा रऊफ़ रज़ा मरहूम की मग़फ़िरत फ़रमाये। आमीन
ReplyDeleteShoshan bhai aapne jo typing mistakes batayi hain unhen theek karta hoon...Meri galtiyon par batane ke liye aapka behad shukriya...
Deleteरऊफ़ रज़ा ! ..
ReplyDeleteयह नाम दरिया की नकधुन्नी करती लहरों की तरह बार-बार आ-आ कर छू रहा है. जा रहा है,आ रहा है. इस नाम और इसकी कलम से निकली शायरी.. उफ्फ ! परीक्षा ले रही है, कि पत्थर की तरह भीगते रहो,और बने रहो !!
नीरज भाई, जिस आत्मीयता और लगन से शब्द पर शब्द जोड़ते और बढ़ाते हुए रज़ा साहब की व उनकी शाइरी की चर्चा की है, इसे शाइर के कमालेेेे कलम पर कृतज्ञा-अभिव्यक्ति कहते हैं.
आपके साथ रज़ा साहब से मिलने का मौका मिला. आभार.
सिकन्दर भाई की कोशिशों और आदरणीय तुफ़ैल साहब की बारीक़ी पर दिल आर्द्र है. मेरा आभार प्रेषित है.
शुभातिशुभ
सौरभ
सौरभ भाई आप जैसे गुणी पाठक के कमेंट से लिखने का हौंसला बढ़ता है...स्नेह बनाए रखें.
Deleteवाह, बहुत खूब
ReplyDeleteवाह। भाई नीरज जी। बहुत उम्दा और जिंदादिल तरीके से आपने चाय की दुकान पर रऊफ रजा साब और अन्य कवियों की महफ़िल का वर्णन किया कि पूरा दृश्य हमारी आंखों के सामने चित्रित हो गया।
ReplyDeleteसचमुच शानदार मुलाकात। बाकी जिंदगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है है। फिर काहे का शिकवा या शिकायत।
ओम सपरा
दिल्ली
9818180932
Special metropolitan magistrate, delhi
retd
उम्दा अशआर...शायर और उनकी शायरी पर आपने लिखा भी बेहतरीन...धन्यवाद
ReplyDeleteशायरी तो ख़ूब है ही रऊफ़ साहब से मुलाकात की मंज़र कशी क्या ही कहने नीरज जी ये आपका ही हिस्सा है
ReplyDeleteमुस्कुराओ मियां आदमी की तरह
इतनी शिद्दत भी क्या आंख हंसने लगे
बहुत ही खूबसूरत बयान बधाई वाह वाह
शानदार काम है आपका
ReplyDelete