माली चाहे कितना भी चौकन्ना हो
फूल और तितली में रिश्ता हो जाता है
गुलशन गुलशन हो जाने की ख़्वाहिश में
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है
अब लगता है ठीक कहा है ग़ालिब ने
बढ़ते बढ़ते दर्द दवा हो जाता है
घर के बाहिरी कोने में एक कमरा है जिसे मैंने अपना ऑफिस बनाया हुआ है , मिलने जुलने वाले वहीँ आते हैं, बैठते हैं, गप्पें मारते हैं, चाय पीते हैं और चले जाते हैं। एक दिन एक सज्जन आये तब मैं किसी किताब पर लिख रहा था, वो बैठे बैठे मुझे देखते रहे फिर अचानक बोले "नीरज जी आपको मिलता क्या है ? " मैंने चौंकते हुए पूछा "किस से क्या मिलता है ?" वो बोले "ये ही किताब के बारे में लिखने से " , मैंने कहा "आनंद" .अब चौंकने की बारी उनकी थी बोले "आनंद ? कैसे ? इसे पढता भी है कोई ". मैंने कहा भाई आनंद मुझे लिखने से मिलता है किसी के पढ़ने या न पढ़ने से नहीं। इसे यूँ समझें जैसे कोई शार्क के साथ तैरने में आनंद लेता है कोई ऊंची जगह से बंगी जम्पिंग करने में तो कोई पैराशूट पहन कर कूदने में , शार्क के साथ तैरने वाले या बंगी जम्पिंग करने वाले या पैराशूट के साथ कूदने वाले लोग दर्शकों के मोहताज़ नहीं होते। वो ये काम सिर्फ अपने आनंद के लिए करते हैं, बस वैसे मैं भी करता हूँ. मुझे लगता है , जरूरी नहीं कि जो मुझे लगे वो सही ही हो ,कि ये बात सभी क्रिएटिव काम करने वालों पर लागू होती है जिनमें शायर भी शामिल हैं. शायर, शायरी अपने आनंद के लिए करते हैं।जो शायर, शायरी आनंद पाने के लिए करता है उसे मकबूलियत अपने आप मिल जाती है। अच्छे शायर कभी पाठक को ध्यान में रख कर ग़ज़ल नहीं कहते ऐसा काम सिर्फ मज़मेबाज़ करते हैं।“
गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
यही तो सोच कर घबरा रहा हूँ
ये नादानी नहीं तो और क्या है 'दानिश'
समझना था जिसे, समझा रहा हूँ
ग़ज़ल के जानकार तो मक्ते में शायर का नाम पढ़ कर ये पहचान ही गए होंगे कि हमारे आज के शायर हैं 'दानिश' साहब। जी हाँ बिलकुल सही पहचाना ,आज हम शायर '
मदन मोहन मिश्र 'दानिश' साहब की ग़ज़लों की किताब '
आस्मां फ़ुर्सत में है " का जिक्र करेंगे जिसे 2018 में मंजुल पब्लिशिंग हॉउस भोपाल ने प्रकाशित किया था। 'दानिश' साहब के लिए शायरी आनंद प्राप्त करने का जरिया है। अगर किसी दिन कोई मनचाहा शेर शायर के ज़ेहन में आ जाये तो समझिये कि उस का दिन बन जाता है और कहीं पूरी ग़ज़ल ही कागज़ पर उतर जाए तो फिर जो ख़ुशी मिलती है उसकी तुलना उस माँ की ख़ुशी से की जा सकती है जिसने प्रसव पीड़ा के बाद अपने बच्चे का पहली बार मुंह देखा हो। मुझे यकीन है कि 'दानिश' भाई भी इस तरह की ख़ुशी से जरूर रूबरू हुए होंगे।
मेरे चुप रहने पे हंगामा है क्यूँ
ख़ामशी भी मुद्दआ होती है क्या
दिल में गर अफ़सोस ही न हो तो फिर
जुर्म की कोई सज़ा होती है क्या
इंतिहा साँसों की होती हो तो हो
ज़िन्दगी की इंतिहा होती है क्या
खूबसूरत शख़्सियत के मालिक "दानिश" का जन्म 8 सितम्बर 1961 को उत्तर प्रदेश के ज़िला बलिया के रामगढ़ गाँव में हुआ था। ये इत्तेफ़ाक़ ही है कि इसी गाँव में हिंदी के मूर्धन्य विद्वान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का भी जन्म हुआ था।उनका गाँव छोटा था लेकिन उसके एकमात्र प्राइमरी स्कूल, की लाइब्रेरी बहुत बड़ी थी। हिंदी के लगभग सभी श्रेष्ठ साहित्यकारों की पुस्तकें वहां बहुतयात में थीं। दानिश जी को पढ़ने की रूचि वहीँ से पड़ी। छंद और काव्य के रस का चस्का उन्हें अपने पूज्यनीय दादा जी की सोहबत से लगा जो हर शाम घर के आँगन में गाँव के बच्चों से रामायण की चौपाइयां गवाया करते थे। चूँकि आस पड़ौस में बहुत से मुस्लिम परिवार भी थे लिहाज़ा उर्दू शेरो शायरी के दौर भी चलते, इसके चलते मदन जी का शायरी से परिचय भी बचपन में ही हो गया।
मैं अपनी गूँज को महसूस करना चाहता हूँ
उतर के मुझमें ,मुझे जोर से पुकारे कोई
अब आरज़ू है वो हर शय में जगमगाने लगे
बस एक चेहरे में कब तक उसे निहारे कोई
है दुःख तो कह लो किसी पेड़ से परिंदे से
अब आदमी का भरोसा नहीं है प्यारे कोई
वो ज़िन्दगी ही क्या जो सीधी सपाट राह पर चले। 'दानिश' साहब की ज़िन्दगी भी पेचो ख़म से भरपूर रास्तों पर चली। हालात ऐसे हुए कि उन्हें दसवीं के बाद अपनी पढाई दूरस्त पाठ्यकर्मो याने कॉरेस्पोंडेंस के माध्यम से जारी रखनी पड़ी। ज़िन्दगी की मुश्किलों को उन्होंने सहजता से लिया और उस पर पार पाते चले गए। झुझारू प्रवति के मदन जी ने ज़िन्दगी की तल्खियों पर आंसू नहीं बहाये बल्कि उसे ख़ूबसूरती से अपनी शायरी में ढालने का हुनर सीख लिया। अपनी शुरूआती परवरिश के बारे में वो लिखते हैं कि "
उस दौर में ज़िन्दगी इस क़दर सहमी हुई और खामोश नहीं थी। वो सबकी हमजोली हुआ करती थी.....रोज़ रोज़ की तमाम मुश्किलों और चुनौतियों के बावजूद भी हँसती-खिलखिलाती, अल्हड़ और अलमस्त। बाग़-बगीचे खेत-खलियान दरिया-झरने हम सब के थे। रिश्ते-नाते इंसानों के थे जातियों और मज़हबों के नहीं। बहुत थोड़े में भी खुश रहने की न जाने कितनी वजहें थीं।" ये ही कारण है कि हमें उनकी शायरी में ज़िन्दगी के सभी रंग दिखाई देते हैं।
मुहब्बतों में नए क़र्ज़ चढ़ते रहते हैं
मगर ये किसने कहा है कभी हिसाब करो
तुम्हें ये दुनिया कभी फूल तो नहीं देगी
मिलें हैं कांटें तो काँटों को ही गुलाब करो
कई सदायें ठिकाना तलाश करती हुईं
फ़िज़ा में गूँज रही हैं उन्हें किताब करो
'दानिश' साहब की शायरी पर उर्दू के कद्दावर शायर जनाब निदा फ़ाज़ली साहब ने लिखा था कि "
दानिश आज के शायर हैं। आज की ज़िन्दगी से उनका ग़ज़ल का रिश्ता है। जो जिया है उसे ग़ज़ल में दर्शाया है। उन्होंने अपने लिए जिस भाषा का इंतख़ाब किया है वो सड़क पर चलती भी है ,वक़्त के साथ बदलती भी है , चाँद के साथ ढलती भी है-सूरज के साथ निकलती भी है। ये वो भाषा है जो घर की बोली में खनकती है,गली-चौराहों में महकती है, परिंदों की उड़ानों में चहकती है ,दरख़्तों की शाखों में लहकती है और अपने एकांत में अपने ग़म के साथ सिसकती भी है। " उनके इस ग़ज़ल संग्रह को पढ़ते वक्त आप अपने आप को निदा साहब से शत- प्रतिशत सहमत पाएंगे।
मसअला तो इश्क का है ,ज़िंदगानी का नहीं
यूँ समझिये प्यास का शिकवा है ,पानी का नहीं
क्या सितम है वक़्त का, इस दौर का हर आदमी
है तो इक किरदार पर अपनी कहानी का नहीं
अनसुना करने से पहले सोच लो तुम एक बार
ख़ामशी का शोर है ये बेजुबानी का नहीं
वक़्त को क्या हो गया है, क्यों सुनाता है हमें
जंगली फूलों का किस्सा, रातरानी का नहीं
दानिश साहब की ज़िन्दगी में सुकून की घड़ियाँ तब दाखिल हुईं जब उन्हें सन 1992 में उन्हें ऑल इण्डिया रेडियो में स्थाई नौकरी मिल गयी। ऑल इंडिया रेडियों की नौकरी में आने के बाद वो शायरी में पूरी तरह डूब गए। नतीज़तन सन 2005 में उनकी ग़ज़लों की पहली किताब "
अगर" मेधा बुक्स द्वारा प्रकाशित हो कर मंज़र-ऐ-आम पर आयी और बहुत चर्चित हुई। 'अगर' के बाद एक लम्बा वक्फ़ा बीत गया और अब 13 सालों बाद उनकी शायरी की दूसरी किताब '
आसमां फुर्सत में है ' आयी है । इस किताब में दानिश साहब की 83 ग़ज़लें और 9 नज़्में संगृहित हैं। किताब पेपरबैक में और बहुत ख़ूबसूरती से प्रकाशित की गयी है। अधिकतर ग़ज़लें बहुत आसान ज़बान में कही गयी हैं जिनके शेर पढ़ते पढ़ते याद होते जाते हैं। आसान ज़बान में ज़िन्दगी के तजुर्बों को बयां करना एक बेहद मुश्किल हुनर है जो बहुत मेहनत से हासिल होता है।
कोई ये लाख कहे मेरे बनाने से मिला
हर नया रंग ज़माने को पुराने से मिला
उसकी तक़दीर अंधेरों ने लिखी थी शायद
वो उजाला जो चिरागों को बुझाने से मिला
फ़िक्र हर बार ख़मोशी से मिली है मुझको
और ज़माना ये मुझे शोर मचाने से मिला
और लोगों से मुलाकात कहाँ मुमकिन थी
वो तो ख़ुद से भी मिला है तो बहाने से मिला
सरल भाषा के छोटे छोटे मिसरों में ज़िन्दगी के रंग भरने का हुनर हर किसी को नहीं आता,हर कोई 'देखन में छोटे लगें घाव करें गंभीर" वाली कला को नहीं साध पाता उसके लिए बहुत प्रयत्न करने पड़ते हैं। दानिश साहब ने इस असाधारण कला पर सफलता से हाथ आज़माये हैं। ।छोटी बहर के उस्ताद शायर मरहूम जनाब मुहम्मद अल्वी साहब ने उनके बारे में लिखा था कि "
दानिश की शायरी पर दिल से वाह निकलती है , उनकी शायरी और मेरी शायरी के लफ़्ज़ों के स्टाइल में कोई फ़र्क नज़र नहीं आता। उनकी शायरी सोचने समझने और कुछ हासिल करने की तहरीक देती है। मैं उनकी शायरी से बहुत मुतास्सिर हूँ ". अल्वी साहब के दानिश साहब की शायरी को लेकर कहे ये लफ्ज़ किसी भी शायर को मिले बड़े से बड़े अवार्ड से ज्यादा महत्व रखते हैं।
वो भी मेरे ही जैसा है
हँसते-हँसते रो पड़ता है
लिख लो हथेली पर चाहो तो
इतना सा तो नाम पता है
जिस को बाँट नहीं सकते हम
उस ग़म को पीना पड़ता है
तुम तो चाहे जब आ जाते
वक्त बता कर सितम किया है
'वक्त बता कर सितम किया है " जैसा मिसरा बताता है कि दानिश किस पाए के शायर हैं। आप इस मिसरे पर घंटों सर धुन सकते हैं ,ऐसा कमाल इस किताब में जगह जगह बिखरा पड़ा है। आप अगर शायरी के प्रेमी हैं तो इस किताब की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप को बार बार ठिठकना पड़ेगा। कभी कोई मिसरा तो कभी कोई शेर आपकी बांह पकड़ के अपने पास बिठा लेगा और आप चाह कर भी नहीं उठ पाएंगे। मदन मोहन 'दानिश' साहब ने शायरी नहीं की, जादू किया है। जादू भी ऐसा जो सर चढ़ कर बोलता है। जनाब सचिन चौधरी इस किताब में लिखते हैं कि "
दानिश की शायरी ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ रंगों से सजा हुआ एक ऐसा कोलाज़ है जिसमें हर आदमी को अपना रंग नज़र आता है। यही वजह है कि दानिश की शायरी की खुशबू मुल्क की सरहदों से होती हुई दुनिया के तमाम मुल्कों में फ़ैल चुकी है।अमेरिका, पकिस्तान, दुबई, शारजाह, दोहा, क़तर कर आबूधाबी जैसे कई मुल्कों, कई शहरों के अदबी मुशायरों में दानिश की शिरकत इसकी मिसाल है "
रंगे दुनिया कितना गहरा हो गया
आदमी का रंग फीका हो गया
रात क्या होती है हमसे पूछिए
आप तो सोए , सवेरा हो गया
डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गयी
बस यहीं मज़बूर दरिया हो गया
दानिश साहब को मध्यप्रदेश उर्दू अकेडमी , जयपुर के भगवत शरण चतुर्वेदी स्मृति और राष्ट्रीय अनामिका साहित्य परिषद् जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड्स से नवाज़ा जा चुका है। उनकी ग़ज़लें अंतरजाल की लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यिक साइट पर मौजूद हैं। देश के पत्र- पत्रिकाओं में भी वो निरंतर छपते रहते हैं। आप इस किताब को अमेज़न से तो ऑन लाइन मंगवा ही सकते हैं यदि ऐसा न करना चाहें तो मंजुल पब्लिशिंग हॉउस को 'सेकंड फ्लोर, उषा प्रीत काम्प्लेक्स ,42 मालवीय नगर भोपाल-462003 "के पते पर लिख सकते हैं। मंजुल की साइट
www. manjulindia.com से भी इसे मंगवाया जा सकता है। मेरा तो आपसे ये ही अनुरोध है कि आप 'मदन मोहन दानिश साहब को, जो ग्वालियर में "ऑल इण्डिया रेडियो" के प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव के पद पर कार्यरत हैं, उनके मोबाईल न.
09425114435 पर संपर्क कर उन्हें इन खूबसूरत अशआरों के लिए भरपूर बधाई दें।
मंदिर-मस्जिद गिरिजाघर और गुरुद्वारा
लफ्ज़ कई हैं , एक मआनी हम दोनों
ज्ञानी-ध्यानी, चतुर-सियानी दुनिया में
जीते हैं अपनी नादानी हम दोनों
तू सावन की शोख घटा, मैं प्यासा बन
चल करते हैं कुछ मनमानी हम दोनों
अब जिस शायर के लिए उस्ताद शायर जनाब " शीन काफ़ निज़ाम" ये लिखते हों कि "
मदन मोहन दानिश का शुमार हमारे उन शायरों में होता है , जो आपबीती को जगबीती बनाना जानते हैं। यही सबब है कि उनकी शायरी पढ़ने वालों को अच्छी लगती है और सुनने वालों को भी पसंद आती है।" उसके बारे में और क्या लिखा जा सकता है ? अगली किताब की तलाश पर निकलने से पहले आईये पढ़ते हैं दानिश साहब की उस ग़ज़ल के कुछ शेर जिसने उन्हें बुलंदियों पर पहुंचा दिया और हर कहीं लोग उनसे ये ग़ज़ल बार बार सुनने की फरमाइश करते नहीं थकते :
ये कहाँ की रीत है ,जागे कोई सोए कोई
रात सबकी है तो सबको नींद आनी चाहिए
क्यों जरूरी है किसी के पीछे-पीछे हम चलें
जब सफर अपना है तो अपनी रवानी चाहिए
कौन पहचानेगा दानिश अब तुझे किरदार से
बेमुरव्वत वक़्त को ताज़ा निशानी चाहिए
प्रणाम sir
ReplyDeleteयह दूसरी ऐसी किताब है जो आपकी समीक्षा से पहले पढ़ चुका हूँ। लेकिन मज़े की बात यह है कि मैं पहली बार पढ़ कर संतुष्ट नहीं हूँ। यह शायरी पढ़ कर बार बार पढ़ो।
हमारे बचपन में नाहन के नुक्कड़ों पर गर्मियों में मीठे पानी की छबीलें लगती थीं। हमारा झुंड (जिसमे मौहल्ले के वो बच्चे जो छुट्टियों में कहीं नहीं जाते थे) इन छबीलों का पानी खत्म होने तक बार बार जाता और शर्बत नुमा पानी पीता। तब हममें हाइजिनिकता नहीं थी। शर्बत का पानी कहां से आया, हमने कभी नहीं सोचा, न हम कभी बीमार पड़े।
आदरणीय मदन मोहन दानिश साहब की शायरी भी उन छबीलों की तरह है। कितनी भी बार पढ़ें, आपका मन नहीं भरता
सादर
अच्छी किताब पर अच्छा तब्सरा
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया दानिश भाई की ग़ज़लों पर इतना खूबसूरत लिखने के लिए. इनसे कुछ साल पहले कुछ मुलाकातें भी रहीं और मुशायरों में सूना भी.. आपने हर्फ़-हर्फ़ सच लिखा ...अहा... अब आरज़ू है वो हर शय में जगमगाने लगे/बस एक चेहरे में कब तक उसे निहारे कोई .. और ...क्या सितम है वक़्त का, इस दौर का हर आदमी/है तो इक किरदार पर अपनी कहानी का नहीं... आप तो नीरज भी इन बेशकीमती शेरों को यूँ ही चुन कर अंडरलाइन करते रहें.. इनके आशिक आपकी समीक्षा में अपने मन की 'वाह' ढूंढ कर खुश होते रहेंगे ...
ReplyDeleteआभार दानिशवरों की सफ़ से एक दानिश को हमारे रूबरू पेश करने का
ReplyDeleteजल्दी ही डिटेल में लिखूंगा
bahut khoob neeraj ji
ReplyDeleteआप ये मत सोचियेगा कोई नही पढता, मै पिछले लगभग 6 साल से आपकी पोस्ट मेरे मेल पर आती है पढ लेता हूं। मुझे भी आनंद आता है। भले ही आपको पता न पढता हो कि कौन कौन आपका लेख पढ रहा है।
ReplyDeleteएक ख़ूबसूरत शायर की शायरी की खूबियों पर आप ने बहुत खूबसूरती से रौशनी डाली है नीरज भाई!
ReplyDeleteसीधी सादी ज़बान में मदन मोहन दानिश के अशआर दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं.वह एक अच्छे शायर ही नहीं अच्छे इन्सान भी हैं. इस खूबसूरत परिचय के लिए मेरी तरफ़ से उन्हें और आप को हार्दिक बधाई!
वाह।कमाल के अशआर और कमाल का तब्सिरा
ReplyDeleteमदनमोहन दानिश इस दौर के बेहद मोतबर शायर और बहुत प्यारे दोस्त हैं। उनकी किताब पर आप का आकलन बहुत अच्छा लगा। दानिश साहब को इस नई किताब के लिए बहुत-बहुत बधाई-
ReplyDeleteतुम अपने आप पर एहसान क्यूं नहीं करते
किया है इश्क़ तो ऐलान क्यूं नहीं करते
- मदनमोहन दानिश
गुलशन गुलशन हो जाने की ख़्वाहिश में
ReplyDeleteधीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है
क्यों जरूरी है किसी के पीछे-पीछे हम चलें
जब सफर अपना है तो अपनी रवानी चाहिए
-बेहतरीन समीक्षा ...पुस्तक पढने को दिल हो आया....
हम तो आपको दस साल से पढ़ रहे हैं . एक और उम्दा किताब से मुकम्मल परिचय कराया आपने
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा पंक्तियों तैयार की हैं. बहुत ही अच्छे से एक्सप्लेन किया आपने.
ReplyDeleteख़ुबसूरत इन्तख़ाब
ReplyDeleteबहुत शानदार...
ReplyDeleteक्या ही आलातरीन अशआर हैं...
बहुत मुबारकबाद जनाब मदनमोहन दानिश साहब।
इतनी खूबसूरत शायरी का जिक्र किस खूबसूरती से किया है सर आपने। वाह, पढ़ते हुए लग रहा था। आपके ऑफिस में बैठे है और आपको सुन रहे है। बहुत सुंदर समीक्षा। दानिश जी की शायरी के तो क्या कहने,
ReplyDeleteकई सदायें ठिकाना तलाश करती हुईं
फ़िज़ा में गूँज रही हैं उन्हें किताब करो..... इस प्रक्रिया से तो हर लेखक,शायर गुजरता है। इसे शब्दों मे बाँध कमाल किया जानिए जी ने।
डूबने की ज़िद पे कश्ती आ गयी
बस यहीं मज़बूर दरिया हो गया
जो ये शेर लिख सकते है वो किस ऊँचे दर्जे के शायर है महसूस किया जा सकता है।
Apki lekhni ko Naman
ReplyDeleteशायरी की भाषा में शायरी की वकालत
ReplyDeleteआपकी लेखनी को प्रणाम
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत शेर और प्रभावी समीक्षा
ReplyDeleteक्या ही कमाल की समीक्षा है क्या ही पढ़ंत है...कमाल कमाल....बेहद ख़ूबसूरत
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