घर तो हमारा शोलों के नरग़े में आ गया
लेकिन तमाम शहर उजाले में आ गया
नरग़े = घेरे
यह भी रहा है कूच-ए-जानां में अपना रंग
आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया
कूच-ए-जानां=महबूब की गली , दरीचे =खिड़की
कुछ देर तक तो उस से मेरी गुफ़्तगू रही
फिर यह हुआ कि वह मेरे लहजे में आ गया
"आहट हुई तो चाँद दरीचे में आ गया " जैसा शायरी का ये बेपनाह हुस्न बरसों ग़ज़ल के पाँव दबाने और उस्तादों की जूतियाँ उठाने के बाद भी किसी किसी को ही मयस्सर होता है। उर्दू शायरी को परवान चढाने में दिल्ली और लखनऊ के बाद रामपुर का नाम आता है। दरअसल दिल्ली और लखनऊ से उजड़े शायर रामपुर में आ बसे और उन्होंने दिल्ली वालों की दिल और लखनऊ वालों की शराब में डूबी ग़ज़ल को मर्दाना लहजे और बांकपन से परिचय करवाया। दाग देहलवी और अमीर मीनाई की ही अगली कड़ी हैं रामपुर के हमारे आज के शायर।
हम तो पैरों में समझते थे मगर
आप के ज़ेहन में कांटे निकले
जितना पथराव अंधेरों का हुआ
मेरे लहजे से उजाले निकले
लोग संजीदा समझते थे जिन्हें
वह भी बच्चों के खिलोने निकले
क्या ज़माना है कि अपने घर से
प्यार को लोग तरसते निकले
15 अप्रेल 1946 को रामपुर के पठान सफ़दर अली खां के यहाँ जिस बच्चे का जन्म हुआ उसका नाम रखा गया अज़हर अली खां। बच्चे के वालिद और दादा तो शायरी नहीं करते थे लेकिन परदादा मौलाना नियाज़ अली खां बेहतरीन शायर थे जिनके उस्ताद मौलवी अब्दुल क़ादिर खां रामपुर के बड़े उस्ताद शायर जनाब अमीर मीनाई साहब के शागिर्द थे. बचपन से ही शायरी की और उनका झुकाव शायद अपने परदादा के गुणों का खून में आ जाने की वज़ह हो गया और उन्होंने मात्र 12 साल की उम्र में ही रामपुर के ख्याति नाम शायर जनाब महशर इनायती साहब को अपना उस्ताद मान लिया। उन से बाकायदा तालीम हासिल शुरू कर दी की और अपना नाम भी अज़हर अली खां से '
अज़हर इनायती' रख लिया और अब इसी नाम से विख्यात हैं। आज हम रामपुर रज़ा लाइब्रेरी द्वारा प्रकाशित किताब "
अज़हर इनायती और ग़ज़ल " की बात करेंगे।
होती हैं रोज़ रोज़ कहाँ ऐसी बारिशें
आओ कि सर से पाँव तलक भीग जायें हम
उकता गया है साथ के इन कहकहों से दिल
कुछ रोज़ को बिछड़ के अब आंसूं बहायें हम
कब तक फुजूल लोगों पे हम तजर्बे करें
काग़ज के ये जहाज़ कहाँ तक उड़ायें हम
अज़हर साहब ने बी.ऐ. एल.एल. बी. करने के बाद कुछ साल रामपुर में बाकायदा वकालत की लेकिन एक शायर का दिल कानूनी दांवपेच में भला कब तक रमता सो उसे जल्द ही छोड़ छाड़ के पूरी तरह शायरी के समंदर में उतर गए।
अज़हर साहब के बारे में जानकारी मुझे सबसे पहले दिल्ली के मेरे मित्र और शायरी के सच्चे दीवाने जनाब प्रमोद कुमार जी से मिली। उनके कहे को मैं कभी हलके में नहीं लेता इसलिए अज़हर साहब को जब मैंने इंटरनेट पे खोजा, पढ़ा और सुना तो लगा कि मैं कितना बदनसीब था जो अब तक इनसे दूर रहा। उनकी ग़ज़लों की किताबों की तलाश शुरू की तो हाथ कुछ लगा ही नहीं क्यूंकि मेरी जहाँ तक जानकारी है ,हिंदी में उनका कलाम शायद अभी तक शाया नहीं हुआ है। अगर हुआ भी है तो मुझे उसका पता नहीं चल पाया है।
ख़बर एक घर के जलने की है लेकिन
बचा बस्ती में घर कोई नहीं है
कहीं जाएँ किसी भी वक्त आएँ
बड़ों का दिल में डर कोई नहीं है
मुझे खुद टूट कर वो चाहता है
मेरा इसमें हुनर कोई नहीं है
अज़हर साहब का कलाम पढ़ने की मेरी हसरत आखिर कार जयपुर के नामवर शायर जनाब 'मनोज कुमार मित्तल 'कैफ़' साहब के घर पर एक मुलाकात के दौरान पूरी हुई जहाँ उनकी अलमारी में ढेरों किताबों में पड़ी ये किताब बिलकुल अलग से नज़र आ रही थी। अपने ढीठ पने का पक्का सबूत देते हुए मैंने ये किताब उनकी अलमारी से उठा ली और घर ले आया। और तब से ये किताब है और मैं हूँ।
कोई मौसम ऐसा आये
उसको अपने साथ जो लाये
हाल है दिल का जुगनू जैसा
जलता जाये , बुझता जाये
आज भी दिल पर बोझ बहुत है
आज भी शायद नींद न आये
बीते लम्हें कुछ ऐसे हैं
ख़ुशबू जैसे हाथ न आये
डा बृजेन्द्र अवस्थी साहब इस किताब की एक भूमिका में लिखते हैं कि "
अज़हर ज़िन्दगी को बहुत क़रीब से देखते हैं और उसकी अदाओं और समस्याओं को अपनी ग़ज़ल के दिल में बहुत सरल और अनूठी भाषा के माध्यम से उतार देते हैं। वह सच्चे शायर हैं इसलिए उनकी शायरी दिल-ओ -दिमाग़ पर गहरा असर डालती है और उनके शेरों की छाप देर तक बनी रहती है. उन्होंने अपने अंदाज़ और फूलों जैसे कोमल लहजे से ग़ज़ल को एक नयी दिशा दी है। मशहूर शायर जनाब अहमद नदीम कासमी साहब लिखते हैं कि अज़हर इनायती की ग़ज़ल सहरा में नख्लिस्तान की हैसियत रखती है ,उनका लहजा सरासर जदीद और नया है लेकिन वो अपनी रोशन रिवायत और धरती से पूरी तरह जुड़े हैं।
इस रास्ते में जब कोई साया न पायेगा
ये आखरी दरख़्त बहुत याद आयेगा
तख़्लीक़ और शिकस्त का देखेंगे लोग फ़न
दरिया हुबाब सतह पे जब तक बनायेगा
तख़्लीक़ और शिकस्त = बनना और मिटना , हुबाब =बुलबुला
तारीफ़ कर रहा है अभी तक जो आदमी
उठा तो मेरे ऐब हज़ारों गिनायेगा
अज़हर इनायती साहब की शायरी समझने के लिए हमें सबसे पहले उन्हें समझना होगा।जिसतरह वो निहायत सलीकेदार और बेहद उम्दा कपडे पहनते हैं ठीक वैसी ही वो शायरी भी करते हैं। अपने बारे में उन्होंने लिखा है कि "
मैं ग़ज़ल को टूट कर चाहता हूँ लेकिन अपने अहद, अपनी नस्ल और अपनी ज़िन्दगी की सच्चाइयों को सादा ज़बान और पुर-तासीर लहजे में ढाल कर सच्ची ग़ज़ल की पैकर तराशी की कोशिश करता हूँ। ज़िन्दगी की वादियों में माज़ी के दिलचस्प और यादगार मनाज़िर को हैरत और हसरत से मुड़ कर देखता जरूर हूँ लेकिन रुकने के लिए नहीं उफ़क़ के उस पार रोशनियों की तरफ़ बढ़ने के लिए।"
क्या जाने उन पे कितने गुज़रना हैं हादसे
शाखों पे खिल रहे हैं जो गुंचे नये नये
उन आंसुओं को देख के ग़म भी तड़प उठा
दामन की आरजू में जो पलकों पे रह गये
सदियों से चल रहा है ये इन्सां इसी तरह
लेकिन हुनूज़ कम नहीं मंज़िल से फ़ासले
यूँ तो इस किताब में अज़हर साहब की शान में उनके बहुत से दोस्तों और चाहने वालों ने लिखा है मैं उन सब का जिक्र यहाँ नहीं करूँगा क्यूंकि दोस्त और चाहने वाले अक्सर थोड़ा अतिरेक से काम लेते हैं ( मैं भी लेता हूँ ) लेकिन मेरी नज़र में आज उर्दू के बहुत बड़े स्कॉलर जनाब गोपी चंद नारंग साहब के उनके वास्ते लिखे लफ्ज़ बहुत मानी रखते हैं , वो लिखते हैं कि "
अज़हर इनायती अपनी आवाज़, अपनी अदा और अपनी तर्जीहात रखते हैं। हर चंद कि इस ज़माने में जब फ़िज़ा में हर तरह ज़हर है, तहज़ीबी एहसास को आवाज़ देना बक़ौल किसी के "काग़ज़ के सिपाही काट कर लश्कर बनाना" है, ताहम शायर को हक़ बात कहना और आवाज़ दिए जाना है।
बिलाशुबा अज़हर इनायती बहैसियत एक मुनफ़रिद अदाशनास शायर के हम सब की तवज्जो और मुहब्बत का हक़ रखते हैं।"
लहू जो बह गया वो भी सजा के रखना था
जो तेग़-ओ-तीर अजायब घरों में रखे हैं
हमें उड़ान में क्या हो रुतों का अंदेशा
ज़माने भर के तो मौसम परों में रखे हैं
हमें जुनून नहीं बाहरी उजालों का
हमारे चाँद हमारे घरों में रखे हैं
इस किताब का पहला भाग शायर को समर्पित है जिसमें उनके दोस्तों और चाहने वालों ने उनके बारे में लिखा है इसमें सबसे दिलचस्प लेख उनकी शरीके-हयात मोहतरमा सूफ़िया अज़हर साहिबा का है जिसमें उन्होंने अज़हर साहब की बहुत सी खूबियां गिनायीं है जो बहुत निजी हैं दूसरे भाग में अज़हर साहब की लगभग 175 चुनिंदा ग़ज़लें ,मुक्तलिफ़ अशआर आदि हैं. किताब में उनके बहुत से रंगीन फोटो भी हैं जिनमें वो एवार्ड लेते हुए, मुशायरा पढ़ते हुए और यार दोस्तों के साथ बेतकल्लुफ़ अंदाज़ में बैठे दिखाई देते हैं। अज़हर इनायती को पूरी तरह से जानने में ये किताब आपकी मदद करती है।
कुछ और तजरबे अपने बढ़ा के देखते हैं
उसे भी जिल्ल-ऐ-इलाही बना के देखते हैं
गुलाम अब न हवेली से आएंगे लेकिन
हुज़ूर आज भी ताली बजा के देखते हैं
इसी तरह हो मगर हल तो हो मसाइल का
किसी मज़ार पे चादर चढ़ा के देखते हैं
अमेरिका, क़तर, दुबई, अबूधाबी , शारजाह, मस्क़त, पाकिस्तान आदि देशों में एक बार नहीं अनेकों बार अपनी शायरी से सुनने वालों के दिल में राज करने वाले अज़हर साहब को ढेरों अवार्ड मिले हैं जिनमें पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी के हाथों मिला मौलाना मु. अली जौहर अवार्ड , बंगाल उर्दू अकेडमी अवार्ड , उत्तर प्रदेश उर्दू अकेडमी अवार्ड ,निशान-ऐ-बलदिया अवार्ड कराची, ग़ालिब इंस्टिट्यूट दिल्ली से मिला मेहशर इनायती अवार्ड विशेष हैं।
इस किताब की प्राप्ति के लिए आप रामपुर रज़ा लाइब्रेरी , रामपुर -244901 को लिखें या अज़हर साहब को उनके मोबाईल न. 9412541108 पर बधाई देते हुए संपर्क करें। कुछ भी करें और किताब मंगवाएं क्यूंकि ये किताब आपको निराश नहीं करेगी।
चलते चलते अज़हर साहब की एक नाज़ुक सी ग़ज़ल चंद शेर आपके हवाले कर निकलता हूँ किसी नयी किताब की तलाश में :
गुड़ियाँ जवान क्या हुई मेरे पड़ौस की
आँचल में जुगनुओं को छुपाता नहीं कोई
जब से बता दिया है नजूमी ने मेरा नाम
अपनी हथेलियों को दिखता नहीं कोई
नजूमी =ज्योतिषी
देखा है जब से खुद को मुझे देखते हुए
आईना सामने से हटाता नहीं कोई
अज़हर यहाँ है मेरे घर का अकेलापन
सूरज अगर न हो तो जगाता नहीं कोई
Bahut khoob
ReplyDeleteअति सुंदर, कितने प्रभावी ढंग से आपने लिखा है नीरज भाई, बधाई।
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (12-12-2017) को जानवर पैदा कर ; चर्चामंच 2815 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Bahut baRhiya Iikha ,bhaiya Azhar Sb. waqai bahut achchhe shayar haiN aur aap me to chaar chaand laga doye
ReplyDeleteलाजवाब एहसास का इज़हार किया है आपने नीरज जी, ज़नाब अज़हर साहब की शायरी के मुत्तलक ।
ReplyDeleteआपने किताब के नाम का ज़िक़्र नहीं किया, इनको मैंने टी वी पी सुना हुआ है, इनके अंदाज़ ए बयाँ से मुत्तासिर हुए बग़ैर नहीं रह सका था । आप का शुक्रिया आपने डिटेल्स फ़राहम कीं । बहुत अच्छा लगा । अब इन्हें सुनने के लिए यू ट्यूब की सेवाएं भी लूँगा । एक बार फिर धन्यवाद ।
bahut khub kya baat hai
ReplyDeleteइस रास्ते में जब कोई साया न पायेगा
ReplyDeleteये आखरी दरख़्त बहुत याद आयेगा
यह अकेला शेर कई किताबों पर भारी है।
अभी कुछ दिन पहले ही इसी शेर के ज़रिए मोहतरम अज़हर इनायती साहब से परिचय हुआ और आज आपने इस किताब से कई शेर पढवा दिए। वाकई बेहतरीन कलाम है। बात कहने का सलीका तो कमाल का है।
आपका भी जवाब नहीं भाईसाहब। आप सही मायनों में ग़ज़ल के चाहने वाले हैं। इतनी किताबों और इतने ग़ज़लकारों से रूबरू करवाना आसान काम नहीं है। आपके इसे एहसान का कोई बदल देने के हम काबिल नहीं हैं....बहुत शुक्रिया।
आदरणीय नीरज जी
ReplyDeleteआदाब
मोहतरम अज़हर साहब का दरख़्त वाला शेर बहुत मशहूर है।
आपने बेहतरीन लेख के ज़रिये विस्तार से तआरुफ़ कराया।
बहूत शुक्रिया
कुछ और तजरबे अपने बढ़ा के देखते हैं
ReplyDeleteउसे भी जिल्ल-ऐ-इलाही बना के देखते हैं
विस्तार से इस अजीम शख्शियत के बारे में लिखने के लिए शुक्रिया
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ReplyDeleteBhai Aap ko mubarakbad,Azhar bhai ki shairi pe aap ne badi saf goi se tabsira kiya he.
ReplyDeleteBahut shukriya Neeraj ji azhar inayti saheb ka kalaam kya hi khoobsoorat tasweer naqsh karta Hai Hume unhen tarnnum mein sun,ne ka moqa bhi barha Mila bas bansuri Hai Kya kahna aur apka taarruf karane ka andaaz khoob waaaaaah waaaaaah ek baar phir shukriya
ReplyDeleteमुझे खुद टूट कर वो चाहता है
ReplyDeleteमेरा इसमें हुनर कोई नहीं है
कुछ और तजरबे अपने बढ़ा के देखते हैं
उसे भी जिल्ल-ऐ-इलाही बना के देखते हैं
उन आंसुओं को देख के ग़म भी तड़प उठा
दामन की आरजू में जो पलकों पे रह गये
बाकमाल शायरी, वाह वाह वाह।