दूर से इक परछाईं देखी अपने से मिलती-जुलती
पास से अपने चेहरे में भी और कोई चेहरा देखा
सोना लेने जब निकले तो हर-हर ढेर में मिटटी थी
जब मिटटी की खोज में निकले सोना ही सोना देखा
रात वही फिर बात हुई ना हम को नींद नहीं आयी
अपनी रूह के सन्नाटे से शोर सा इक उठता देखा
हिंदी पाठकों ने नासिर काज़मी और इब्ने इंशा का नाम जरूर सुना होगा जिन्होंने ग़ज़ल को ऐसी लय दी जिसे नई ग़ज़ल का नाम दिया जाता है लेकिन शायद अधिकांश ने जनाब
खलीलुर्रहमान आज़मी साहब का नाम नहीं सुना होगा जिनका नाम भी उन दोनों शायरों के साथ ही लिया जाता है। आज़मी साहब को सन 1950 के बाद लिखी जाने वाली ग़ज़ल का इमाम कहा जाता है। आज हम उनकी किताब "
ज़ंज़ीर आंसुओं की " की बात करेंगे जिसे सन 2010 में वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया था।
न जाने किसकी हमें उम्र भर तलाश रही
जिसे करीब से देखा वो दूसरा निकला
हमें तो रास न आयी किसी की महफ़िल भी
कोई खुदा कोई हमसायए-खुदा निकला
हमसायए-खुदा=खुदा का पड़ौसी
हमारे पास से गुज़री थी एक परछाईं
पुकारा हमने तो सदियों का फासला निकला
खलीलुर्रहमान आज़मी 9 अगस्त 1927 को जिला आज़मगढ़ के एक गाँव सीधा सुल्तानपुर के एक मध्यमवर्गीय परिवार में पैदा हुए। उनके पिता मोहम्मद शफ़ी बहुत धार्मिक प्रवृति के इंसान थे। प्रारम्भिक शिक्षा शिब्ली नेशनल हाई स्कूल से हासिल करने के बाद वह 1945 में अलीगढ आये ,1948 में बी.ऐ और उर्दू में एम् ऐ की तालीम, प्रथम स्थान प्राप्त कर,अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हासिल की। सन 1953 से वो अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बतौर लेक्चरर पढ़ाते रहे। सन 1957 में उन्होंने "उर्दू में तरक्की पसंद अदबी तहरीक " विषय पर, जो उर्दू में आज भी बेहतरीन दस्तावेज माना जाता है, पी एच.डी की डिग्री पायी। जून 1978 को ब्लड कैंसर से लम्बी लड़ाई लड़ते हुए वो दुनिया-ऐ-फ़ानी से कूच फ़रमा गए।
हाँ तू कहे तो जान की परवा नहीं मुझे
यूँ ज़िन्दगी से मुझको मोहब्बत जरूर है
अपना जो बस चले तो तुझे तुझसे मांग लें
पर क्या करें की इश्क की फितरत ग़यूर है
ग़यूर :स्वाभिमान
आरिज़ पे तेरे मेरी मोहब्बत की सुर्खियां
मेरी जबीं पे तेरी वफ़ा का गुरूर है
अपने स्कूली दिनों से आज़मी साहब ने शायरी शुरू कर दी। उनकी लिखी रचनाएँ तब की बच्चों की प्रसिद्ध पत्रिका "पयामि तालीम "में छपती रहीं। उन्हें गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर सामान रूप से अधिकार प्राप्त था. उर्दू साहित्य की परम्परागत लेखन शैली में उन्होंने आधुनिकता के पुट का समावेश किया। प्रगतिशील आंदोलन से वो जीवन पर्यन्त जुड़े रहे। वो प्रगतिशील लेखक संघ के सेक्रेटरी भी रहे।
हर खारों-ख़स से वज़अ निभाते रहे हैं हम
यूँ ज़िन्दगी की आग जलाते रहे हैं हम
इस की तो दाद देगा हमारा कोई रक़ीब
जब संग उठा, तो सर भी उठाते रहे हैं हम
ता दिल पे ज़ख़्म और न कोई नया लगे
अपनों से अपना हाल छिपाते रहे हैं हम
आलोचकों का विचार है कि खलीलुर्रहमान आज़मी एक ऐसे प्रगतिशील शायर थे जिन्होंने प्रगतिशीलता और आधुनिकता के दरमियान पुल का काम किया। उनकी शायरी के दो संग्रह "कागज़ी पैरहन (1955 )और "नया अहद नामा (1966 ) उनके जीवन काल में प्रकाशित हुए जबकि "ज़िन्दगी-ऐ-ज़िन्दगी" 1983 में उनके देहावसान के बाद। यूँ उनकी अनेक विषयों पर दर्जनों किताबें हैं और वो सभी उर्दू साहित्य की धरोहर हैं। प्रोफ़ेसर शहरयार ने उनकी कुलियात "आसमां-ऐ-आसमां" नाम से प्रकाशित करवाई।
तमाम यादें महक रहीं हैं हर एक गुंचा खिला हुआ है
ज़माना बीता मगर गुमां है कि आज ही वो जुदा हुआ है
कुछ और रुसवा करो अभी मुझको ता कोई पर्दा रह न जाए
मुझे मोहब्बत नहीं जुनूँ है जुनूँ का कब हक़ अदा हुआ है
वफ़ा में बरबाद होके भी आज ज़िंदा रहने की सोचते हैं
नए ज़माने में अहले-दिल का भी हौसला कुछ बढ़ा हुआ है
सन 1978 में ग़ालिब सम्मान से सम्मानित खलीलुर्रहमान साहब की ये किताब हिंदी में छपी उनकी पहली किताब है जिसे शहरयार और महताब हैदर नक़वी साहब ने सम्पादित किया है। इस किताब में आज़मी साहब की लगभग 40 ग़ज़लें और इतनी ही नज़्में आदि शामिल हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप जैसा मैं पहले बता चूका हूँ ,आप दिल्ली के "वाणी प्रकाशन " से संपर्क कर सकते हैं
चलते चलते आईये उनकी ग़ज़लों के कुछ शेर आपको पढ़वाता हूँ :-
तेरे न हो सके तो किसी के न हो सके
ये कारोबारे-शौक़ मुक़र्रर न हो सका
***
यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं
ज़िन्दगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैंने
***
क्या जाने दिल में कब से है अपने बसा हुआ
ऐसा नगर कि जिसमें कोई रास्ता न जाए
***
हमने खुद अपने आप ज़माने की सैर की
हमने क़ुबूल की न किसी रहनुमा की शर्त
***
कहेगा दिल तो मैं पत्थर के पाँव चूमूंगा
ज़माना लाख करे आके संगसार मुझे
***
ज़ंज़ीर आंसुओं की कहाँ टूट कर गिरी
वो इन्तहाए-ग़म का सुकूँ कौन ले गया
***
उम्र भर मसरूफ हैं मरने की तैय्यारी में लोग
एक दिन के जश्न का होता है कितना एहतमाम
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (17-10-2017) को भावानुवाद (पाब्लो नेरुदा की नोबल प्राइज प्राप्त कविता); चर्चा मंच 2760 पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 18 अक्टूबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteअपना जो बस चले तो तुझे तुझसे मांग लें
ReplyDeleteपर क्या करें की इश्क की फितरत ग़यूर है
इस शायरी के लिए कोई भी दाद छोटी ही रह जानी है। कमाल के शायर और अशआरों से रूबरू कराने वाले शायर कम जिंदादिल इन्सान नीरज जी के इस शौक़-ए-जुनूँ के लिए कोई भी मिशाल फीकी ही रह जानी है।
ये शेर आज हमारे साथ हो लिए हैं आजम़ी साहब के।
तमाम यादें महक रहीं हैं हर एक गुंचा खिला हुआ है
ज़माना बीता मगर गुमां है कि आज ही वो जुदा हुआ है
कुछ और रुसवा करो अभी मुझको ता कोई पर्दा रह न जाए
मुझे मोहब्बत नहीं जुनूँ है जुनूँ का कब हक़ अदा हुआ है
Thx for sharing
ReplyDeleteThx for sharing
ReplyDeleteइस बार फिर आप ने एक बेहतरीन शायर और आलोचक फ़नकार का इन्तिखाब किया है नीरज भाई !
ReplyDeleteऔर बड़ी मेहनत के साथ दिल के क़लम से इनका परिचय अपने नए पाठकों से कराया है. आप की मेहनत और लगन को देख कर दिल से आप के लिए ढेरों दुआएं निकलती हैं .
Thanks neeraj ji
ReplyDeleteek aala darze ke shayar aur shayri se rubru karvane ke liye
यूँ तो मरने के लिए ज़हर सभी पीते हैं
ReplyDeleteज़िन्दगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैंने
behad sundar
उम्र भर मसरूफ हैं मरने की तैय्यारी में लोग
एक दिन के जश्न का होता है कितना एहतमाम
bhaee vaah
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शेर
ReplyDeleteProfessor Khalilur Rehman Azmi sahib Urdu me bahoot ahem shair aur Naqaad Janey jatey hein. Shayeri mein un
ReplyDeleteke ustad Shad Arfi sahib hein.