तअल्लुक़ की नई इक रस्म अब ईजाद करना है
न उसको भूलना है और न उसको याद करना है
ज़बाने कट गईं तो क्या, सलामत उँगलियाँ तो हैं
दरो-दीवार पे' लिख दो तुम्हें फ़रियाद करना है
बना कर एक घर दिल की ज़मीं पर उसकी यादों का
कभी आबाद करना है कभी बर्बाद करना है
तक़ाज़ा वक़्त का ये है न पीछे मुड़ के देखें हम
सो हमको वक़्त के इस फ़ैसले पर साद करना है
साद =सही निशाना लगाना
बनारस के पुस्तक मेले में राजपाल पब्लिकेशन के स्टॉल पर जब अचानक इस किताब पर नज़र पड़ी तो उठा लिया और इसके आख़री फ्लैप पर लिखी इस इबारत को पढ़ कर इस किताब को खरीदने में एक लम्हा भी ज़ाया नहीं किया ,लिखा था कि "ये शायद पाकिस्तानी और हिन्दुस्तानी औरत का मुश्तर्का अल्मिया (एक जैसी ट्रेजिडी) है कि औरत का कोई घर नहीं होता। वो हमेशा चार रिश्तों की मुहताज रहती है बाप, भाई, शौहर और बेटा। " वैसे ये बात सिर्फ हिंदुस्तान या पाकिस्तान की औरतों की ही नहीं है बल्कि ये सच्चाई कमोबेश पूरी दुनिया की औरतों पर लागू होती है .
कैसा अजीब दुःख है कि देखा न रात भर
आँखों ने कोई ख़्वाब भी, सोने के बावजूद
उगने लगी है फिर से अंधेरों की एक फ़स्ल
तारों को इस ज़मीन पर बोने के बावजूद
खूं से लिखा हुआ है कोई नाम आज भी
क़ातिल की आस्तीन पे' धोने के बावजूद
अहसास की कमी है कि इंतिहाए- कर्ब
आँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद
इंतिहाए- कर्ब =वेदना की चरम अवस्था
'आँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद' जैसा मिसरा किसी शायर के लिए कहना मुश्किल काम है, ऐसे मिसरे कोई शायरा ही कह सकती है। स्त्री के दुःख को पुरुष समझ तो सकता है लेकिन उसे सही ढंग से शायद बयाँ नहीं कर सकता। किताबों की दुनिया में आज जिस किताब की बात होगी वो है "पांचवी हिजरत" जिसकी शायरा हैं पाकिस्तानी मशहूर शायरा "हुमैरा राहत" साहिबा। हिंदी के पाठकों के शायद ये नाम बहुत जाना पहचाना न हो क्यों की हिंदी में छपने वाली ये उनकी पहली किताब है।
रहे-दीवानगी से डर न जाये
तुम्हारा इश्क मुझ में मर न जाये
खुदा के बाद जो है आस मेरी
वही इक शख़्स तन्हा कर न जाये
कभी ऐसा भी कोई मु'जिज़ा हो
कि ये महताब अपने घर न जाये
मु'जिज़ा=चमत्कार
1959 में जन्मी हुमैरा राहत करांची में रहती हैं, घर-बार वाली ख़ातून शायरा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं। अदब की दुनिया में उनका रिश्ता शायरी के साथ साथ अफ़सानानिगारी से भी है और पाकिस्तान के अदबी हल्क़ों में अलग से पहचानी जाती हैं। इस किताब की भूमिका का आग़ाज़ वो जिस अंदाज़ से करती हैं वो बेहद दिलकश है उन्होंने लिखा है " ज़िन्दगी क्या है ! लम्ह-ऐ-अज़ल से लम्ह-ऐ-अबद तक ( पैदा होने से लेकर मरने तक का क्षण ) आँख की पुतली में जमी हुई हैरत ! पहले होने की फिर न होने की। इसी हैरत के आस-पास इश्क का कारखाना है। मगर इश्क ने भी हैरत की कोख़ से जनम लिया है , इश्क का अपना एक जहान -ऐ- हैरत है. मैंने जब अपने अंदर झाँका तो उसी जहान -ऐ-हैरत में मेरी शायरी भटक रही थी सो इसी शायरी का हाथ थाम कर मैं आपकी दुनिया में चली आयी हूँ।"
हरेक ख़्वाब की ता'बीर थोड़ी होती है
मुहब्बतों की ये तक़दीर थोड़ी होती है
सफ़र ये करते हैं इक दिल से दूसरे दिल तक
दुखों के पांवों में ज़ंजीर थोड़ी होती है
दुआ को हाथ उठाओ तो ध्यांन में रखना
हरेक लफ़्ज़ में तासीर थोड़ी होती है
हुमैरा साहिबा जब सार्क सम्मेलन में भाग लेने सन 2011 में पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल के साथ आगरा तशरीफ़ लायी तो उनकी मुलाकात दिल्ली के मशहूर शायर आलोचक और अनुवादक जनाब सुरेश सलिल साहब से हुई। सुरेश जी ने जब उन्हें एक महफ़िल में अपनी ग़ज़लें और नज़्में सुनाते सुना तो सोचा कि क्यों न इनकी ग़ज़लों और नज़्मों का हिंदी अनुवाद कर उसे एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचाया जाय। बात हुई लेकिन अंजाम तक न पहुंची। एक लम्बे अर्से के बाद फिर से ये बात जनाब नूर ज़हीर के माध्यम से उठाई गयी ,सुरेश जी दुबारा हुमैरा साहिबा से मिले जिसका नतीजा "पांचवीं हिजरत" की शक्ल में मंज़र-ऐ-आम पर दिखाई दिया.
बारिश के कतरे के दुःख से नावाकिफ़ हो
तुम हँसते चेहरे के दुःख से नावाकिफ़ हो
साथ किसी के रह कर के जो तनहा कटता है
तुम ऐसे लम्हे के दुःख से नावाकिफ़ हो
इक लम्हे में किर्ची -किर्ची जो हो जाये
तुम उस आईने के दुःख से नावाकिफ़ हो
मुहब्बत के कई कई शेड्स आपको उनकी शायरी में दिखाई देते हैं हुमैरा कहती हैं "इश्क और मोहब्बत में मामूली सा फर्क है -मुहब्बत इब्तिदा है और इश्क इन्तहा , मुहब्बत रसाई (पहुँच, प्रवेश) है और इश्क नारसाई (पहुँच से परे), मुहब्बत दुआ है और इश्क इबादत ,मुहब्बत तलब है और इश्क हैरत। बहुत सारे रंग हैं इश्क के मगर जब आँखें उन रंगों में इम्तियाज़ पर क़ादिर (चुनने पर आमादा ) हो जाती हैं तो एक ही रंग बन जाता है -आंसुओं का रंग , तिश्नगी और आबलापाई का रंग।"
हिसारे-ज़ात से बाहर निकलना चाहती हूँ मैं
अब हर हुक्म से इंकार करना चाहती हूँ
हिसारे-ज़ात =ख़ुदी के दायरे से
ज़मीं पर घर की बुनियादें बहुत कमज़ोर ठहरीं
मैं अब पानी पे' घर तामीर करना चाहती हूँ
किसी हरफ़े-सताइश की तलब दिल में नहीं है
मैं खुद अपने लिए सजना-सँवरना चाहती हूँ
हरफ़े-सताइश की तलब =किसी से सराहना पाने की इच्छा
हुमैरा राहत की शायरी की तीन किताबें मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं इन्हीं सब किताबों में से चुनिंदा 46 ग़ज़लें और 37 नज़्में सुरेश सलिल जी ने हिंदी में लिप्यांतर कर इस संग्रह में संकलित की हैं। किताब को राजपाल एंड सन्ज ने प्रकाशित किया है। सभी रचनाएँ अपने अलग रंग और लहज़े के कारण पढ़ने योग्य हैं। उनके कुछ शेर देर तक ज़ेहन में घूमते रहते हैं।
है चलन कितना अजब ये कि मिरे अहद में लोग
बीज बोते नहीं मिटटी में , समर मांगते हैं
समर=फल
इस क़दर घर को उजड़ते हुए देखा है कि अब
घर की ख़्वाइश नहीं रखते हैं खंडहर मांगते हैं
संगदिल धूप में उम्मीद है बारिश की हमें
और साहिल पे' बना रेत का घर मांगते हैं
हुमैरा साहिबा ने शायरी के अलावा उपन्यास और कहानियां भी लिखी है लेकिन नज़्मों की और उनका झुकाव ज्यादा है। इस किताब में संग्रहित नज़्में कमाल की हैं कुछ तो बिलकुल नयी हैं जो इस किताब के अलावा अभी तक और कहीं प्रकाशित नहीं हुई। उनका कहना है कि" नज़्म अफ़साने से ज़्यादा क़रीब होती है ,वही पहली लाइन चौका देने वाली ,एहसास की नज़ाकत, ज़ज़्बात का इज़हार और फिर आखिर में एक अबूझ अपरिभाषित सी प्यास का रह जाना। नज़्म कभी मुकम्मल नहीं होती और अफ़साना भी हमेशा अधूरा ही रहता है शायद यही वजह है कि नज़्म लिखने में मुझे ज्यादा लुत्फ़ आता है " आईये पहले उनकी कुछ एक छोटी -छोटी नज़्मों का लुत्फ़ लें :
1. तेरा नाम
बारिशों के मौसम में
छत पे' बैठ के तन्हा
नन्ही नन्ही बूंदों से
तेरा नाम लिखती हूँ
2. काश
मेरे मालिक
बहुत रहमो-करम
मुझ पर किये तूने
मैं तेरा शुक्र अदा करते नहीं थकती
मगर, बस एक छोटी सी शिकायत है
कि मेरी ज़िन्दगी में
इतने सारे ' काश'
क्यों रक्खे
3. सवाल
मुहब्बत आशना लम्हे (प्रेम पूर्ण क्षण )
छिपाये इक अजब सा कर्ब (वेदना )
लहज़े में मुझी से पूछते हैं
ये अगर हर ख़्वाब की किस्मत में
मर जाना ही लिखा है
तो आँखें देखती क्यों हैं
ये तो मैंने बता ही दिया है कि अगर आपको किताब चाहिए तो राजपाल एंड सन्ज दिल्ली से संपर्क करें , उनकी एक साइट भी है जी पर जा कर आप ऑन लाइन किताब मंगवा सकते हैं अगर वहां से नहीं तो अमेजन पर भी ये किताब उपलब्ध है , वैसे है तो myshopbazzar और universalbooksellers पर भी , आप जहाँ से चाहें मंगवा लें , पढ़ें और फिर फेसबुक पर हुमैरा जी के पेज पर जा कर बधाई भी दे आएं। आपकी सुविधा के लिए मैं ऑन लाइन मंगवाने के लिए तीन लिंक दे रहा हूँ आपको इनपर क्लिक करके ऑर्डर ही करना है बस।
https://www.myshopbazzar.com/ panchvin-hijrat-humaira-rahat. html
https://www.amazon.in/ Panchavi-Hijarat-Hindi-Humera- Rahat-ebook/dp/B01MT9N3UF?_ encoding=UTF8&%2AVersion%2A=1& %2Aentries%2A=0&portal-device- attributes=desktop
आखिर में जैसा कि हमेशा करता आया हूँ आपको उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाता चलता हूँ , शेर नहीं इस बार चलिए एक नज़्म पढ़वाता हूँ उम्मीद है पसंद आएगी :
क्या मोहब्बत एक पल है
मैं दिल से पूछती हूँ
क्या मोहब्बत को भुलाना
इस कदर आसान होता है
"चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों "
बस इस मिसरे की ऊँगली थाम कर
बरसों पुराना साथ पल में तोड़ देते हैं
मोहब्बत एक लम्हा तो नहीं
जो ज़िन्दगी में आये
और वापस चला जाय
मोहब्बत उम्र है
और उम्र जां के साथ जाती है
मोहब्बत आईना कब है
मोहब्बत अक्स है
जब आईना गिर कर ज़मीन पर
टूट जाता है
तो अपने अक्स को टूटे हुए टुकड़ों में भी
महफूज़ रखता है
तो फिर मुमकिन नहीं कि
अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
कोई ये कह दे कि
चलो अब लौट जाते हैं.....
वही इक शख़्स तन्हा कर न जाये
कभी ऐसा भी कोई मु'जिज़ा हो
कि ये महताब अपने घर न जाये
मु'जिज़ा=चमत्कार
1959 में जन्मी हुमैरा राहत करांची में रहती हैं, घर-बार वाली ख़ातून शायरा हैं और स्कूल में पढ़ाती हैं। अदब की दुनिया में उनका रिश्ता शायरी के साथ साथ अफ़सानानिगारी से भी है और पाकिस्तान के अदबी हल्क़ों में अलग से पहचानी जाती हैं। इस किताब की भूमिका का आग़ाज़ वो जिस अंदाज़ से करती हैं वो बेहद दिलकश है उन्होंने लिखा है " ज़िन्दगी क्या है ! लम्ह-ऐ-अज़ल से लम्ह-ऐ-अबद तक ( पैदा होने से लेकर मरने तक का क्षण ) आँख की पुतली में जमी हुई हैरत ! पहले होने की फिर न होने की। इसी हैरत के आस-पास इश्क का कारखाना है। मगर इश्क ने भी हैरत की कोख़ से जनम लिया है , इश्क का अपना एक जहान -ऐ- हैरत है. मैंने जब अपने अंदर झाँका तो उसी जहान -ऐ-हैरत में मेरी शायरी भटक रही थी सो इसी शायरी का हाथ थाम कर मैं आपकी दुनिया में चली आयी हूँ।"
हरेक ख़्वाब की ता'बीर थोड़ी होती है
मुहब्बतों की ये तक़दीर थोड़ी होती है
सफ़र ये करते हैं इक दिल से दूसरे दिल तक
दुखों के पांवों में ज़ंजीर थोड़ी होती है
दुआ को हाथ उठाओ तो ध्यांन में रखना
हरेक लफ़्ज़ में तासीर थोड़ी होती है
हुमैरा साहिबा जब सार्क सम्मेलन में भाग लेने सन 2011 में पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल के साथ आगरा तशरीफ़ लायी तो उनकी मुलाकात दिल्ली के मशहूर शायर आलोचक और अनुवादक जनाब सुरेश सलिल साहब से हुई। सुरेश जी ने जब उन्हें एक महफ़िल में अपनी ग़ज़लें और नज़्में सुनाते सुना तो सोचा कि क्यों न इनकी ग़ज़लों और नज़्मों का हिंदी अनुवाद कर उसे एक बड़े पाठक वर्ग तक पहुँचाया जाय। बात हुई लेकिन अंजाम तक न पहुंची। एक लम्बे अर्से के बाद फिर से ये बात जनाब नूर ज़हीर के माध्यम से उठाई गयी ,सुरेश जी दुबारा हुमैरा साहिबा से मिले जिसका नतीजा "पांचवीं हिजरत" की शक्ल में मंज़र-ऐ-आम पर दिखाई दिया.
बारिश के कतरे के दुःख से नावाकिफ़ हो
तुम हँसते चेहरे के दुःख से नावाकिफ़ हो
साथ किसी के रह कर के जो तनहा कटता है
तुम ऐसे लम्हे के दुःख से नावाकिफ़ हो
इक लम्हे में किर्ची -किर्ची जो हो जाये
तुम उस आईने के दुःख से नावाकिफ़ हो
मुहब्बत के कई कई शेड्स आपको उनकी शायरी में दिखाई देते हैं हुमैरा कहती हैं "इश्क और मोहब्बत में मामूली सा फर्क है -मुहब्बत इब्तिदा है और इश्क इन्तहा , मुहब्बत रसाई (पहुँच, प्रवेश) है और इश्क नारसाई (पहुँच से परे), मुहब्बत दुआ है और इश्क इबादत ,मुहब्बत तलब है और इश्क हैरत। बहुत सारे रंग हैं इश्क के मगर जब आँखें उन रंगों में इम्तियाज़ पर क़ादिर (चुनने पर आमादा ) हो जाती हैं तो एक ही रंग बन जाता है -आंसुओं का रंग , तिश्नगी और आबलापाई का रंग।"
हिसारे-ज़ात से बाहर निकलना चाहती हूँ मैं
अब हर हुक्म से इंकार करना चाहती हूँ
हिसारे-ज़ात =ख़ुदी के दायरे से
ज़मीं पर घर की बुनियादें बहुत कमज़ोर ठहरीं
मैं अब पानी पे' घर तामीर करना चाहती हूँ
किसी हरफ़े-सताइश की तलब दिल में नहीं है
मैं खुद अपने लिए सजना-सँवरना चाहती हूँ
हरफ़े-सताइश की तलब =किसी से सराहना पाने की इच्छा
हुमैरा राहत की शायरी की तीन किताबें मंज़र-ऐ-आम पर आ चुकी हैं इन्हीं सब किताबों में से चुनिंदा 46 ग़ज़लें और 37 नज़्में सुरेश सलिल जी ने हिंदी में लिप्यांतर कर इस संग्रह में संकलित की हैं। किताब को राजपाल एंड सन्ज ने प्रकाशित किया है। सभी रचनाएँ अपने अलग रंग और लहज़े के कारण पढ़ने योग्य हैं। उनके कुछ शेर देर तक ज़ेहन में घूमते रहते हैं।
है चलन कितना अजब ये कि मिरे अहद में लोग
बीज बोते नहीं मिटटी में , समर मांगते हैं
समर=फल
इस क़दर घर को उजड़ते हुए देखा है कि अब
घर की ख़्वाइश नहीं रखते हैं खंडहर मांगते हैं
संगदिल धूप में उम्मीद है बारिश की हमें
और साहिल पे' बना रेत का घर मांगते हैं
हुमैरा साहिबा ने शायरी के अलावा उपन्यास और कहानियां भी लिखी है लेकिन नज़्मों की और उनका झुकाव ज्यादा है। इस किताब में संग्रहित नज़्में कमाल की हैं कुछ तो बिलकुल नयी हैं जो इस किताब के अलावा अभी तक और कहीं प्रकाशित नहीं हुई। उनका कहना है कि" नज़्म अफ़साने से ज़्यादा क़रीब होती है ,वही पहली लाइन चौका देने वाली ,एहसास की नज़ाकत, ज़ज़्बात का इज़हार और फिर आखिर में एक अबूझ अपरिभाषित सी प्यास का रह जाना। नज़्म कभी मुकम्मल नहीं होती और अफ़साना भी हमेशा अधूरा ही रहता है शायद यही वजह है कि नज़्म लिखने में मुझे ज्यादा लुत्फ़ आता है " आईये पहले उनकी कुछ एक छोटी -छोटी नज़्मों का लुत्फ़ लें :
1. तेरा नाम
बारिशों के मौसम में
छत पे' बैठ के तन्हा
नन्ही नन्ही बूंदों से
तेरा नाम लिखती हूँ
2. काश
मेरे मालिक
बहुत रहमो-करम
मुझ पर किये तूने
मैं तेरा शुक्र अदा करते नहीं थकती
मगर, बस एक छोटी सी शिकायत है
कि मेरी ज़िन्दगी में
इतने सारे ' काश'
क्यों रक्खे
3. सवाल
मुहब्बत आशना लम्हे (प्रेम पूर्ण क्षण )
छिपाये इक अजब सा कर्ब (वेदना )
लहज़े में मुझी से पूछते हैं
ये अगर हर ख़्वाब की किस्मत में
मर जाना ही लिखा है
तो आँखें देखती क्यों हैं
ये तो मैंने बता ही दिया है कि अगर आपको किताब चाहिए तो राजपाल एंड सन्ज दिल्ली से संपर्क करें , उनकी एक साइट भी है जी पर जा कर आप ऑन लाइन किताब मंगवा सकते हैं अगर वहां से नहीं तो अमेजन पर भी ये किताब उपलब्ध है , वैसे है तो myshopbazzar और universalbooksellers पर भी , आप जहाँ से चाहें मंगवा लें , पढ़ें और फिर फेसबुक पर हुमैरा जी के पेज पर जा कर बधाई भी दे आएं। आपकी सुविधा के लिए मैं ऑन लाइन मंगवाने के लिए तीन लिंक दे रहा हूँ आपको इनपर क्लिक करके ऑर्डर ही करना है बस।
https://www.myshopbazzar.com/
आखिर में जैसा कि हमेशा करता आया हूँ आपको उनकी एक ग़ज़ल के चंद शेर पढ़वाता चलता हूँ , शेर नहीं इस बार चलिए एक नज़्म पढ़वाता हूँ उम्मीद है पसंद आएगी :
क्या मोहब्बत एक पल है
मैं दिल से पूछती हूँ
क्या मोहब्बत को भुलाना
इस कदर आसान होता है
"चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों "
बस इस मिसरे की ऊँगली थाम कर
बरसों पुराना साथ पल में तोड़ देते हैं
मोहब्बत एक लम्हा तो नहीं
जो ज़िन्दगी में आये
और वापस चला जाय
मोहब्बत उम्र है
और उम्र जां के साथ जाती है
मोहब्बत आईना कब है
मोहब्बत अक्स है
जब आईना गिर कर ज़मीन पर
टूट जाता है
तो अपने अक्स को टूटे हुए टुकड़ों में भी
महफूज़ रखता है
तो फिर मुमकिन नहीं कि
अजनबियत का लबादा ओढ़ कर
कोई ये कह दे कि
चलो अब लौट जाते हैं.....
Waah..Bahut achchi peshkash
ReplyDeleteआँखों में अश्क ही नहीं रोने के बावजूद' जैसा मिसरा किसी शायर के लिए कहना मुश्किल काम है, ऐसे मिसरे कोई शायरा ही कह सकती है। स्त्री के दुःख को पुरुष समझ तो सकता है लेकिन उसे सही ढंग से शायद बयाँ नहीं कर सकता।,..... En panktio mai literature ka bahut bada sach likh diya hai smeekshak ne aur es sach KO es post ki unki mehmaan kitab aur shayra humer ji sabit kar rahi hain.. Behatreen kitab. Ye sher aur najam padh kar Ek baat jubaan par aa rahi hai,aur vo hai intelligent shayri. Pta nahi aesa kuch hota bhi hai ya nahi. Post ke liye Vegas shukriya neeraj ji..book padh li hai Apne to delhi bhej den.. 😛😛
ReplyDeleteज़िंदाबाद ज़िंदाबाद ज़िंदाबाद
ReplyDeleteक्या नगीने चुने हैं आपने। क्या कहने ।
बेहतरीन शायरी से परिचय करवाने के लिये शुक्रिया sir।
बूंदों से नाम लिखना...
कितनी प्यारी नज़्म।
ज़बाने कट गईं तो क्या, सलामत उँगलियाँ तो हैं
ReplyDeleteदरो-दीवार पे' लिख दो तुम्हें फ़रियाद करना है
वाह, क्या बात है।
बहुत अच्छी समीक्षा, हमेशा की तरह। बहुत अच्छी किताब लाए हैं आप। कमाल के अशआर निकाले हैं शाइरा ने। इनकी शाइरी में परम्परा की जड़ों के साथ जदीदियत है।
ReplyDeleteVery Nice !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteGreat readd
ReplyDelete