गर्दने खिदमत में हाज़िर हैं हमारी लीजिये
भोंतरे ही ठीक हैं, चाकू न पैने कीजिये
दाना-पानी तक को ये पिंजरा नहीं खोला गया
जब से मैंने कह दिया है -मेरे डैने दीजिये
हम हुए सुकरात सारे दोस्तों के बीच में
'एक प्याला और' कोई कह रहा था लीजिये
आपको चेहरे नहीं बिखरी मिलेंगी बोटियाँ
आदमी को आदमी के सामने तो कीजिये
जब कभी भी हिंदी ग़ज़ल की बात होती है तो सिर्फ एक नाम सबसे पहले हमारे ज़ेहन में आता है और वो है -दुष्यंत कुमार का जबकि उनकी तरह ही कानपुर का एक युवा शायर ऐसी ही धारदार तल्ख़ ग़ज़लें हिंदी में निरंतर कह रहा था। दुष्यंत उस उस वक्त हिंदी की लोकप्रिय पत्रिका 'सरिता' में छपने के साथ साथ अपनी चुटीली भाषा के कारण, जो उनसे पहले हिंदी ग़ज़लों में बहुत कम या न के बराबर नज़र आयी थी , चर्चित हो गए । आज हम किताबों की दुनिया में हिंदी ग़ज़ल के एक उसी तरह के बागी तेवरों वाले सशक्त हस्ताक्षर 'विजय किशोर मानव' की ग़ज़लों की किताब "आँखें खोलो " की बात करेंगे जिसे किताब घर प्रकाशन वालों ने सन 2005 में प्रकाशित किया था।
कुनबों के दरबार हमारी बस्ती में
उनके ही अखबार हमारी बस्ती में
आज राजधानी जाने की जल्दी में
मिलता हर फनकार हमारी बस्ती में
सुनें हवा की या आँखों की फ़िक्र करें
तिनके हैं लाचार हमारी बस्ती में
घास फूस के घर अलाव दरवाज़े पर
आंधी के आसार हमारी बस्ती में
रवायती और रोमांटिक शायरी जिसमें गुलशन फूल खुशबू तितली झील नदी पहाड़ समंदर दिल चाँद सितारे रात नींद ख़्वाब जैसे मखमली लफ़्ज़ों का भरपूर इस्तेमाल होता है से किनारा करते हुए विजय किशोर जी ने अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी और समाज की तल्ख़ हकीकतों पर सीधे चोट करते हुए खुरदरे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल किया और लाजवाब शायरी की। उनकी शायरी हमारे समाज का आईना हैं।
बारूद, नक़ाबें , सलीब, माचिसें तमाम
क्या क्या जमा किये हैं हमारे शहर में लोग
पांवों पे पेट, पीठ पर निशान पाँव के
कंधे पर घर लिए हैं हमारे शहर में लोग
इंसान गुमशुदा है फरेबों के ठिकाने
फिर होंठ क्यों सिये हैं हमारे शहर में लोग
जनाब शेर जंग गर्ग ने किताब के फ्लैप पर लिखा है कि "आँखें खोलो की ग़ज़लों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि मानव ने ग़ज़ल की प्रचलित बहरों के साथ साथ नए अंदाज़ एवं नए रंग में भी कई ग़ज़लें कही हैं। इस लिहाज़ से उन्होंने ग़ज़ल को भी घिसे-पिटे ढांचे से एक हद तक बाहर निकाला है। उनकी ग़ज़लों में ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो उनके भाषाई बांकपन, गहन संवेदनशीलता एवं सहज कथन कौशल को उजागर करती है।"
बेड़ी न हथकड़ी है, दिखती नहीं सलाखें
हर मोड़ पर जेलें हैं हम किस शहर में हैं
सच कह के चूर होते आईने खौफ में हैं
हर हाथ में ढेले हैं हम किस शहर में हैं
ये कौन से जलवे हैं ये कैसा उजाला है
सब आग से खेले हैं हम किस शहर में हैं
9 अक्टूबर 1950 को कानपूर के रामकृष्ण नगर मुहल्ले में जन्में विजय जी ने भौतिकी रसायन शास्त्र और गणित विषयों से स्नातक की डिग्री हासिल की और प्रिंट मिडिया से जुड़ गए और लगभग 25 वर्षों तक हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप की प्रसिद्ध पत्रिका कादम्बिनी के एग्जीक्यूटिव एडिटर रहे। उनका लेखन इस दौरान सतत चलता रहा। अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर उन्होंने गीत ग़ज़ल कहानी तथा समीक्षा जैसी विधाओं पर दक्षता हासिल की जिसके फलस्वरूप उनकी हर विधा की रचनाओं का देश की लगभग सभी छोटी बड़ी पत्र -पत्रिकाओं में लगभग तीन दशकों से अब तक प्रकाशन होता आ रहा है।
युग का सच बारूदी गंधें
खुशबू के फव्वारे झूठे
सब के मुंह पर पूंछ लगी है
इंकलाब के नारे झूठे
अब सच्चे लगते बाज़ीगर
गाँधी गौतम सारे झूठे
नौकरी के झमेले से मुक्त हो कर विजय जी ने अपनी प्रतिभा का झंडा एस्ट्रोलॉजी के क्षेत्र में गाड़ दिया। मैंने किताबों की दुनिया की श्रृंखला के लिए कम से कम 200 -300 शायरों के बारे में तो पढ़ा ही होगा लेकिन मेरी नज़र में ऐसा कोई शायर नहीं गुज़रा जिसने शायरी के अलावा इंसान की बीमारी, नौकरी, शिक्षा , पारिवारिक समस्याओं ,व्यापार या रिश्तों के सुधार के लिए भविष्यवाणियां की हों और उनसे निबटने के रास्ते सुझाये हों। विजय जी ने हिंदी साहित्य के अध्ययन के अलावा वेदों पुराने और रहस्यमय विज्ञान का गहन अध्ययन किया और ज्योतिष विज्ञान में महारत हासिल कर ली।
बगुले चलें यहाँ हंसो की चाल सुना तुमने
लोहे की तलवार काठ की ढाल सुना तुमने
दांव-पेच के दाम बढे कौड़ी में दीन-धरम
लोग कि जैसे धेले में हर माल सुना तुमने
बेशुमार फुटपाथ घूम आये अपने चूल्हे
कारिंदों के महल बनें हर साल सुना तुमने
"आँखे खोलो" ग़ज़ल संग्रह की भूमिका में विजय जी का हिंदी ग़ज़ल पर लिखा आलेख भी पढ़ने लायक है। उन्होंने बहुत सारगर्भित ढंग से हिंदी ग़ज़ल की यात्रा की विवेचना की है।अपनी ग़ज़लों के बारे में उनका कहना है कि " मेरी ग़ज़लें हिंदी की हैं। इस अर्थ में भी कि इनमें मैट्रिक छंद का अनुशासन है, पूरी रवानी है काफियों का निर्वाह हिंदी गीतों की तर्ज़ पर है और इन ग़ज़लों में विषय वस्तु के अनेक प्रयोग हैं।
बौने हुए विराट हमारे गाँव में
बगुले हैं सम्राट हमारे गाँव में
घर घर लगे धर्म कांटे लेकिन
नकली सारे बाँट हमारे गाँव में
मुखिया का कुरता है रेशम का
भीड़ पहनती टाट हमारे गाँव में
आपको ऐसी अनेक अलग मिज़ाज़ की ढेरों ग़ज़लें इस संग्रह में पढ़ने को मिलेंगी , इस किताब को पढ़ने के लिए आपको किताब घर प्रकाशन को उनके अंसारी रोड दरियागंज वाले पते पर लिखना पड़ेगा या फिर उन्हें उनके फोन न (+91) 11-23271844 पर पूछना पड़ेगा , आप किताब घर वालों को पर ईमेल करके भी जानकारी प्राप्त कर सकते हैं ,सबसे बढ़िया तो ये है कि आप विजय जी को उनके मोबाईल न. 098107 43193 पर संपर्क इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए पहले बधाई दें और फिर किताब प्राप्ति का रास्ता पूछें। चलते चलते उनकी एक और ग़ज़ल के चंद शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :
कब से ये शोर है शहर भर में
हो रही भोर है शहर भर में
सलाम, सजदे हाँ हुज़ूरी का
आज भी जोर है शहर भर में
एक मादा है कोई भी औरत
मर्द हर ओर है शहर भर में
A different kind of poetry and expressions.
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-08-2017) को "सभ्यता पर ज़ुल्म ढाती है सुरा" (चर्चा अंक 2704) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक बहुत महत्त्वपूर्ण शायर खोज कर लाये हैं आप। दुष्यंत के समकालीन इस ग़ज़लकार का नाम बहुत कम सुनने में आया है, जबकि बहुत अच्छा लिखा है इन्होने उस दौर की बात की जाय तो।
ReplyDeleteसमीक्षा भी अच्छी हुई है...आप साधुवाद के पात्र हैं
जिन्दावाद
ReplyDeleteएक बेहतरीन शायर की चर्चा है
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ReplyDeleteदुष्यंत ने हिंदी गजल की जो परिपाटी शुरू की उसने ग़ज़ल के बने बनाये पुराने नियमो को तोडा इसलिए ही उन्होंने अपने शेर में लिखा
ReplyDeleteमैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
और दुष्यंत के ये शेर तो शायद ही भारत का कोई आंदोलन रहा हो जिसमे ना सुनाये गये हो
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
दुष्यंत व्यवस्था पे चोट करने वाले कवि शायर थे गर उन्होंने कभी प्रेम पे कोई कविता या ग़ज़ल लिखी तो उसमे भी वो व्यवस्था से लड़ते ही नज़र आये
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
अब गर आप उनके सामानांतर का कोई शायर खोज लाये तो उसमे कोई बात तो जरुर होंगी
दाना-पानी तक को ये पिंजरा नहीं खोला गया
जब से मैंने कह दिया है -मेरे डैने दीजिये
इस शेर में छिपी हुई बेबसी का अंदाजा लगाना आसान नहीं है; ये वर्तमान हालातों पे तंज़ कसता है
कुनबों के दरबार हमारी बस्ती में
उनके ही अखबार हमारी बस्ती में
आज राजधानी जाने की जल्दी में
मिलता हर फनकार हमारी बस्ती में
हमारे राजनैतिक वंशवाद और उनके तले फलने फूलने वाले चाटुकारों का वर्णन करते ये दो शेर
मुखिया का कुरता है रेशम का
भीड़ पहनती टाट हमारे गाँव में
अब इस शेर के बारे में क्या कहा जाए; लाखो करोडो के घोटाले करने वाले नेताओ और भूख से मरती जनता के बारे बहुत कम शब्दों में जिस तरह लिख दिया गया है वो वास्तव में इन्हें दुष्यंत के समकालीन और उनके बराबर का ही शायर घोषित करता है
आप का एक बार फिर से धन्यवाद
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसाधुवाद आपको
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