"बीकानेर" - जिसका नाम लोकप्रिय बनाने में "बीकानेरवाला" के नाम से जगह जगह खुले रेस्टॉरेंट ने अहम् भूमिका निभाई है , राजस्थान का पाकिस्तान की सीमा से लगा एक अलमस्त शहर है। लगभग 8-10 लाख की जनसँख्या वाले बीकानेर शहर को आप शायद इसके स्वादिष्ट रसगुल्ले और चटपटी भुजिया सेव के कारण जानते होंगे लेकिन ये नहीं जानते होंगे कि इसके लगभग 500 साल पुराने इतिहास में एक बार भी साम्प्रदायिक दंगा फ़साद होने की वारदात दर्ज नहीं है। यहाँ के लोग गंगा-जमुनी तहज़ीब की सिर्फ बात ही नहीं करते बल्कि इसे जीते हैं और बड़ी बेफिक्री से अपना जीवन यापन करते हैं । हमारे आज के शायर इसी बीकानेर के निवासी है और गंगा जमुनी तहज़ीब को अपने अशआर में बहुत ख़ूबसूरती से पिरोते हैं :
एक जुलाई 1963 को बीकानेर में जन्में ,जनाब 'ज़ाकिर अदीब" साहब जिनकी किताब "मैं अभी कहाँ बोला" की बात आज हम करेंगे, का नाम मैंने पहले नहीं सुना था। ये किताब मुझे जयपुर के प्रसिद्ध शायर जनाब 'लोकेश साहिल' साहब की निजी लाइब्रेरी में दिखाई दी। एक-आध पृष्ठ पलटने और कुछ अशआर पढ़ने के बाद ही मुझे लगा कि ये किताब मुझे पूरी पढ़नी चाहिए क्यों की इसमें हिंदी के शब्दों का उर्दू के साथ प्रयोग और गहरे भावों को सरलता से अशआरों में ढालने का हुनर अद्भुत लगा।
मैंने या हो सकता है आपने भी ज़ाकिर भाई का कलाम या नाम न सुना पढ़ा हो लेकिन अपने शहर बीकानेर में उनकी मौजूदगी के बिना किसी नसिश्त या मुशायरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अहमद अली खां जो राजस्थान उर्दू अकादमी के संस्थापक सदस्य हैं लिखते हैं कि "ज़ाकिर के निकट अलफ़ाज़ की जोड़-तोड़ या क़ाफ़िया पैमाई का नाम शायरी नहीं है, शायरी को वो अहसासो-ज़ज़्बात की भरपूर तर्जुमानी का बेहतरीन ज़रीआ समझता है, इसके शेरों में इस किस्म के अलफ़ाज़ जा-ब-जा मिलते हैं जो अलामत का काम और मा'नी की लहरें पैदा करते हैं "
"तुम्हारे घर के अँधेरे हमारे घर के चिराग " मिसरा अपने आप में कौमी एकता का जबरदस्त सन्देश देता है , जिस तरह इक बेहद अहम् बात को बिना लफ़्फ़ाज़ी के बहुत सरलता से 'ज़ाकिर' साहब ने बयां किया है वो बेजोड़ है।इस बात को कहने में हमारे हुक्मरां घंटो भाषण देते हुए भी असरदार ढंग से अवाम को नहीं कह पाते उसी बात को एक अच्छी शायरी एक मिसरे में कह देती है। ज़ाकिर साहब की शायरी की इस किताब में मुझे में ऐसे कई मिसरे पढ़ने में आये हैं जो सीधे दिल में उतर जाते हैं। भले ही ज़ाकिर भाई आज सोशल मिडिया के जरुरत से ज्यादा प्रचलित दौर में शामिल नहीं हैं क्यूंकि वो फेसबुक या ट्वीटर से कोसों दूर हैं लेकिन फिर भी उनकी शायरी की पहुँच दूर दूर तक है। फूल की खुशबू अपने चाहने वालों तक पहुँचने के लिए फेसबुक व्हाट्स ऐप या टवीटर की मोहताज़ नहीं होती।
ज़ाकिर भाई ने क़लम के वक़ार का खूब ख़्याल रखा है तभी डा. मोहम्मद हुसैन, जो राजस्थान उर्दू अकादमी के सदस्य हैं उनके बारे में कहते हैं कि "ज़ाकिर बुनियादी तौर पर एक प्रतिरोधी शायर हैं ये प्रतिरोध राजनितिक और सामाजिक स्तर पर की जाने वाली नाइंसाफियों के ख़िलाफ़ अधिक तीव्र है। वो ज़ात के खोल में बंद नहीं हैं बल्कि समाज के दुःख दर्द से सरोकार रखते हैं। ज़ाकिर अगरचे अपनी प्रतिक्रिया को तुरंत अभिव्यक्त करते हैं फिर भी उन्हें शिकायत है कि " मैं अभी कहाँ बोला ", इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनके सीने में कैसे-कैसे तूफ़ान अंगड़ाई ले रहे होंगे, जिन्हें वो दबाये बैठे हैं।
ज़ाकिर भाई को शायरी विरासत में मिली है उनके वालिद जनाब 'रफ़ीक अहमद रफ़ीक साहब बहुत मकबूल शायर थे। जहाँ घुट्टी में मिली शायरी की बदौलत उन्होंने 18 -19 साल की उम्र से ही शेर कहने शुरू कर दिए वहीँ उन्हें जनाब दीन मोहम्मद 'मस्तान' बीकानेरी ,जनाब अहमद अली खां 'मंसूर चुरूवी और जनाब 'शमीम' बीकानेरी साहब जैसे उस्ताद मिले जिन्होंने उन्हें अपने रास्ते से कभी भटकने नहीं दिया, उनकी शायरी में जो लफ्ज़ बरतने का सलीका, नए विचारों को अपने शेरों का हिस्सा बनाने का हुनर, परम्परा का ख़्याल और नए रुझान की झलक दिखाई देती है वो इन्हीं उस्तादों की बदौलत है।
ज़ाकिर साहब के इसी हुनर का एहतराम करते हुए बीकानेर जिला प्रशासन ने उन्हें 2002 के स्वतंत्रता दिवस पर सम्मानित किया और 2011 के गणत्रंत्र दिवस पर नगर निगम बीकानेर ने उन्हें सम्मानित किया। ज़ाकिर साहब राजस्थान उर्दू अकादमी के सदस्य हैं , मस्तान अकेडमी बीकानेर के संस्थापक सदस्य हैं , कमेटी बज़्मे-मुसलमा, बीकानेर के कन्वीनर और समवेत बीकानेर संयुक्त सचिव हैं। माध्यमिक शिक्षा निदेशालय राज. बीकानेर में कार्यरत ज़ाकिर भाई बीकानेर की साहित्यिक विधियों की जान हैं. अपनी भावनाओं और एहसास को सच्चाई और ईमानदारी के साथ शेरों में ढाल कर लोगों तक पहुँचाने में सतत प्रयत्नशील रहते हैं।
" मैं अभी कहाँ बोला " किताब कामेश्वर प्रकाशन बीकानेर ने प्रकाशित की है जिसे आप उनके तेलीवाड़ा चौक ,बीकानेर -334005 पर लिख कर मंगवा सकते हैं या फिर इसे मंगवाने का तरीका ज़ाकिर साहब को उनके फोन न 09461012509 पर बधाई देते हुए पूछ सकते हैं। दिलकश कवर में हार्ड बाउंड वाली इस 80 पृष्ठों वाली किताब में ज़ाकिर साहब की लगभग 65 ग़ज़लें शामिल हैं। अगली किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वा देता हूँ :
वो जिनके जलने से हरसू धुआँ-धुआं हो जाय
चिराग़ ऐसे जहाँ भी जलें, बुझा देना
तुम्हें लगे कि यहाँ शान्ति हो गई क़ायम
तो क्या हुआ कोई अफ़वाह फिर उड़ा देना
ज़रूरत आपको जब भी पड़े उजाले की
मैं कह रहा हूँ मेरा आशियाँ जला देना
जिन्हें समझ ही नहीं इम्तिहान लेने की
'अदीब' उनको कोई इम्तिहान क्या देना
मुझको अना परस्त वो कहते हैं तो कहें
क्यों सरफिरों के सामने सर को झुकाऊं मैं
ले जा रहे हैं इसलिए मुन्सिफ़ के सामने
मेरी खता नहीं है मगर मान जाऊं मैं
पहलू में मेरे दिल है ये अहसास है मुझे
तुम चाहते हो क्यों इसे पत्थर बनाऊं मैं
उसे न घेर सकेंगे अँधेरे ग़ुरबत के
हैं प्रज्वलित किसी घर में अगर हुनर के चिराग़
हमें भरोसा है इक रोज़ दूर कर देंगे
तुम्हारे घर के अँधेरे हमारे घर के चिराग
ये आरज़ू है कि ताज़िन्दगी रहें रोशन
मेरी दुआओं की देहलीज़ पर असर के चिराग
ज़माना याद रखेगा उसे हमेशा 'अदीब'
वतन की राह में जिसने जलाये सर के चिराग
इक्क्सीसवीं सदी का बहुत शोर था मगर
इसमें किसी के चेहरे पे कुछ ताज़गी रही ?
कांधों से सर गया अरे जाना ही था उसे
दस्तार बच गई यही ख़ुशक़िस्मती रही
जुगनू थे तेरी याद के हमराह इस क़दर
जैसे सफ़र में साथ कोई रौशनी रही
रक्खूँ न क्यों ख़्याल क़लम के वक़ार का
अब तक मेरे क़लम से मेरी ज़िन्दगी रही
जमीं निगल नहीं सकती हमें किसी सूरत
हमारे सर पे अभी आसमान बाक़ी है
उड़ान भरने नहीं दे रहा है अब मौसम
परों में वरना अभी तक उड़ान बाक़ी है
खुलेंगे राज़ कई और इस अदालत में
मियां अभी तो हमारा बयान बाक़ी है
अमीरे- शहर की नींदें उचाटता है "अदीब"
अभी जो शहर में मेरा मकान बाक़ी है
बच्चे नहीं थे घर में तो खामोश था ये घर
लेकिन वो आये घर में तो घर बोलने लगा
हमदर्द अपना जान लिया उसको दोस्तो
कोई मेरे ख़िलाफ़ अगर बोलने लगा
पतझड़ का दौर था तो वो गुमसुम खड़ा रहा
फूटी जो कोपलें तो शजर बोलने लगा
मैं फन के रास्ते पे था चुपचाप अग्रसर
फिर यूँ हुआ कि मेरा हुनर बोलने लगा
अभी से किसलिए हंगामा हो गया बरपा
हिले न लब ही मेरे मैं अभी कहाँ बोला
जब अपने चेहरे को देखा है उसने हैरत से
तब आईना जो बज़ाहिर है बेज़बाँ, बोला
अमीरे-शहर की अपनी ज़बान क्या थी ''अदीब"
वो जब भी बोला किसी ग़ैर की ज़बां बोला
इक दूजे के दुश्मन हैं
साया-सहरा, पानी-आग
सावन की ऋतु आते ही
हो जाता है पानी आग
सब्र के छींटे पड़ते ही
हो गयी पानी पानी आग
आपकी कलम से और एक शायर का अद्भुत परिचय एवम् बीकानेर की तहज़ीब से रूबरू होकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteबीकानेर के बारे में तो बहुत ही अदभुत बात बताई आपने, बहुत सुंदर.
ReplyDeleteरामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
शुक्रिया नीरज जी...
ReplyDeleteलाजवाब शायरी,लाजवाब शायरी, लाजवाब शहर से रूबरू कराने के लिए।
BAHUT KHUB NEERAJ JI
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteख़ूबसूरत कलाम को ख़ूबसूरत अन्दाज़ में प्रस्तुत करने के लिए आपको और साहिबे कलाम को हार्दिक बधाई🌹❤️🙏🏵🏵🏵
ReplyDeleteतुम्हें लगे कि यहाँ शान्ति हो गई क़ायम
ReplyDeleteतो क्या हुआ कोई अफ़वाह फिर उड़ा देना
ज़रूरत आपको जब भी पड़े उजाले की
मैं कह रहा हूँ मेरा आशियाँ जला देना
लाजवाब शायरी ......ये काम आप ही कर सकते हैं
शायरों के बारे में आप बहोत बढ़िया जानकारी पोस्ट करते हैं। शायरी का आला मकाम आप जैसे लोगों की बदौलत कायम है। इसमे कतई शक़ नहीं।
ReplyDeleteसादर नमन
आज का पहला ही शेर मेरे एक पुराने शेर से टकरा गया, अच्छा लगा। मेरा शेर था:
ReplyDeleteचिराग जिनको है आदत धुआं उगलने की
तुम्हीं बताओ कि क्यों न बुझा दीये जाएं।
इसीमें एक शेर और था
ये आग अब नहीं फ़ैलेगी देश में लोगों
बुझाये आएंगे हम, वो हवा दिये जाएं।
बेहद ख़ूबसूरत पेशकश और शुक्रिया ऐसे शायर को साझा करने के लिए
ReplyDeleteजिन्हें समझ ही नहीं इम्तिहान लेने की
'अदीब' उनको कोई इम्तिहान क्या देना
गज़ब के शेर ... जाकिर साहब की कलम का जादू दिख रहा है ,....
ReplyDeleteऔर आपकी पारखी नज़र चार चान लगा रही है ...