नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी
नहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना
नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया
नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया
और अब
मैं इन सबके लिए तैयार हूँ
मरने मारने पर
कितनी सच्ची और अच्छी नज़्म है ये। मैंने जब से पढ़ी है तब से दिमाग में घूम रही है। काश इस नज़्म और इसमें छुपी सच्चाई को यदि हम सभी समझ लें, मान लें तो सोचिये दुनिया में कितना अमन चैन कायम हो जाय। इतनी छोटी और मूलभूत सच्चाई को नकारने के कारण ही आदि काल से नर संहार हो रहा है और शायद आगे भी होता रहेगा । ऐसी अनेकों बेजोड़ नज़्मों के रचयिता जनाब " फ़ज़ल ताबिश " साहब हमारी "किताबों की दुनिया " श्रृंखला के अगले शायर हैं जिनकी किताब " रौशनी किस जगह से काली है " की चर्चा हम आज करेंगे।
शहर दर शहर हाथ उगते हैं
कुछ तो है जो हर इक सवाली है
'मीर' का दिल कहाँ से लाओगे
खून की बूँद तो बचा ली है
जिस्म में भी उतर के देख लिया
हाथ खाली था अब भी खाली है
रेशा रेशा उधेड़ कर देखो
रौशनी किस जगह से काली है
5 अगस्त 1933 में जन्में ताबिश साहब, भोपाल की हिन्दी उर्दू दुनिया के महत्वपूर्ण सेतु थे। 1969 में उर्दू में एम ए करने के बाद वे लेक्चरर हो गए। 1980 से 1991 तक मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी के सचिव रहे और अगस्त 1993 में मध्य प्रदेश शिक्षा विभाग से पेंशन पा कर रिटायर हुए और 10 नवंबर 1995 को दुनिया-ए-फ़ानी से रुख्सत हो गए।आपने शायरी, कहानियाँ, अनुवाद, नाटक और एक अधूरा आत्मकथात्मक उपन्यास (" वो आदमी " , जो बाद में राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया ) याने साहित्य की हर विधा में लिखा है।
बरगद ने अपने बाल न कटवाए उम्र भर
हर चन्द उसकी उम्र कटी आदमी के साथ
दीवारें होंठ बन्द किये घूरती रहीं
दरवाज़े दिल लगाते रहे हर किसी के साथ
'ताबिश' किसी उम्मीद पे सर रख के सो रहो
सड़कें भी सो रही हैं थकी चाँदनी के साथ
जनाब "फज़ल ताबिश" साहब किसी एक खास विचारधारा के साथ नहीं थे ,वो ज़िन्दगी के साथ जुड़े थे, वो पहले से ही बने बनाये हुए रास्तों से कतरा कर निकल जाते थे, उनकी शायरी ज़िन्दगी से लिए गए तजुर्बों की देन है। वो उर्दू जबाँ के बाँके शायर थे इसीलिए उनकी शायरी अपने समकालीन शायरों की भीड़ से अलग एक ख़ास मुकाम हासिल किये हुए है।
सिवाय प्यार के कोई भी हुनर नहीं सीखा
बहुत न सीखना हमको कमाल रास आया
शराब पी के भी हम बेखबर गुज़र न सके
हमारे पाँव के नीचे कोई नहीं कुचला
सितमगरों को सितम से नहीं मिली फुरसत
सितमगरों ने ख़ुशी का मज़ा नहीं चक्खा
फ़जल़ ताबिश मूल रूप से ऊर्दू के आदमी होने के बावजूद हिन्दी साहित्य-जगत के लिए कोई अपरिचित नाम नहीं है। उनके दो नाटक-‘डरा हुआ आदमी’ और ‘अखाड़े के बाहर से’ पुस्तकालय में, वाणी प्रकाशन, दिल्ली से लगभग 25 वर्ष पूर्व हिन्दी में ही मंचित भी हुए थे। वह ऊर्दू के उन गिनती के नाटककारों में से थे , जिसके नाटक मंचित भी हो सके और उन्होंने ब.व. कारंत और अलखनन्दन जैसे प्रतिष्ठित निर्देशकों के साथ काम किया। इसी प्रकार फिल्मों में उन्होंने मणि कौल की मुक्तिबोध-साहित्य पर आधारित फिल्म अनीता देसाई के अग्रेजी उपन्यास, ‘इन कस्टडी’ पर बनी फ़िल्म ‘मुहाफ़िज’ के संयोजक-सहायक की चुनौतिपूर्ण ज़िम्मेदारी अपने सिर ली।
न कर शुमार के हर शै गिनी नहीं जाती
ये ज़िन्दगी है हिसाबों से जी नहीं जाती
सुलगते दिन में थी बाहर, बदन में शब को रही
बिछड़ के मुझसे बस इक तीरगी नहीं जाती
नक़ाब डाल दो जलते उदास सूरज पर
अँधेरे जिस्म में क्यों रौशनी नहीं जाती
मचलते पानी में ऊँचाई की तलाश फ़िज़ूल
पहाड़ पर तो कोई भी नदी नहीं जाती
किताब के फ्लैप पर लिखी बात कि "
ताबिश साहब की ग़ज़लों में एक मासूम उदासी है, मगर बेरुखी नहीं है। उमड़ता हुआ ख्वाब, एक चुभता हुआ शीशा है जो दिल में ज़ज़्ब होता है , एक टहलती हुई हवा का झौंका जो खुद को दुलार लेता है। फज़ल साहब की शायरी की पच्चीकारी शब्दों में नहीं दिखती मगर संवेदना के स्तर पर बहुत बारीक दिखती है " किताब पढ़ने के बाद एक दम सही लगती है।
रिश्ता खाज़ियाया हुआ कुत्ता है
एक कोने में पटक रक्खा है
रात को ख्वाब बहुत देखें हैं
आज ग़म कल से जरा हल्का है
मैं उसे यूँ ही बचा देता हूँ
वो निशाने पे खिंचा बैठा है
यूँ तो ताबिश साहब का लिक्खा हिंदी पाठकों के लिए अख़बारों रिसालों में छपता रहा है लेकिन मुकम्मल तौर पर उनकी बहुत सारी ग़ज़लें पहली बार हिंदी में एक ही जगह इस किताब " रौशनी किस जगह से काली है " में शाया हुई हैं , इस किताब का उर्दू से देवनागरी में लिप्यान्तरण "अंजलिका चतुर्वेदी ने किया है और जिसे "भारतीय ज्ञानपीठ " ने प्रकाशित किया है। लगभग 100 पृष्ठों की इस किताब में उनकी ग़ज़लों के अलावा कुछ प्रसिद्ध नज़्में और चुनिंदा अशआर भी शामिल किये गए हैं।
सूरज ऊंचा होकर मेरे आँगन में भी आया है
पहले नीचा था तो ऊंचे मीनारों पर बैठा था
माज़ी की नीली छतरी पर यादों अंगारे थे
ख़्वाहिश के पीले पत्तों पर गिरने का डर बैठा था
दिल ने घंटों की धड़कन लम्हों में पूरी कर डाली
वैसे अन्जानी लड़की ने बस का टाइम पूछा था
मणिकौल की फिल्म " सतह से उठता आदमी " कुमार साहनी फिल्म "ख्याल गाथा " में अभिनय कर चुके ताबिश साहब को 1962 में मिनिस्ट्री ऑफ साइंटिफिक रिसर्च एंड कल्चरल अफेयर्स ने उन्हें "बिना उन्वान" उर्दू ड्रामा पर पहला पुरस्कार अता किया था । उनकी प्रतिभा विलक्षण थी तभी तो मर्चेंट आइवरी की फिल्म "मुहाफ़िज़" के लिए उन्होंने लोकेशन ऑर्गेनाइजर की हैसियत से काम किया और स्क्रिप्ट लेखन में सहायता की।
इक दिन ऐसा भी हो सूरज से पहले जागूँ
दिन शरमाते देखें हैं इक शब शरमाती देखूँ
रेलिंग से लटकी औरत बच्चा भी तो थामे है
पैसेंजर कुछ भी सोचें मैं उस से बच्चा ले लूँ
जिस गुड़िया के दबने से सीटी बजने लगती है
'ताबिश' उसके क़दमों में क्यों न अपना सर रख दूँ
उर्दू -हिंदी शायरी में इस तरह की कहन और शेर बहुत मुश्किल से मिलते हैं। ताबिश साहब ने अपनी ज़मीन खुद तलाश की है और कामयाब शेर कहें हैं। अपनी ज़िन्दगी पढ़ने पढ़ाने में खर्च करने वाला ही ऐसे अनूठे शेर कह सकता है। जैसी कि कहावत है, कुछ लोग अपनी ज़ात में एक अंजुमन होते हैं, और यह कहावत फ़जल ताबिश से ज्यादा किसी दूसरे पर लागू नहीं होती। सुबह के तड़केदम से रात देर तक उनकी व्यस्तता, और उस व्यस्तता के प्रति उनकी चाह एक अजूबा थी, और उसी के साथ-साथ उनका दम-ख़म सड़कों पर पैदल चलना ज़्यादा पसन्द करते थे जब किसी काम की जल्दी हो। अगर मुहब्बत और मुरव्वत उनका ख़ामीर था तो उनके सफ़ाई और बेबाकी से अपनी बात कहने में अभी आड़े नहीं आ सका और किसी से मतभेद या अपने दिल की बात वह बहुत खुलकर सामने रखते थे।– इस तरह कि उसमें दोस्ताना बेतकल्लुफ़ी क़ायम रह सके।
चाँद, सूरज, बाग़, सड़कें और सितारे
कल तलक मेरे लिए क्या क्या नहीं था
हो न हो मुझमें कमी सी आ गयी है
मैं तो बचपन में भी यूँ रोया नहीं था
वो तो हम खुद थे जो उसको दोस्त समझे
वो किसी को दोस्त बतलाता नहीं था
किताब प्राप्ति के लिए जैसा ऊपर बताया है आपको ज्ञानपीठ से संपर्क करना पड़ेगा संपर्क के लिए आप या तो 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली जायें या उन्हें 011-24698417 पर फोन करें या 9350536020 मोबाइल पर काॅल करें या उनकी वेब साइट www.jnanpith.net पर सीधे ऑन लाइन आर्डर करें। कुछ भी करें बस ये किताब मँगवा कर पढ़ें।
मैं किस किस की आवाज़ पर दौड़ता
मुझे चौ तरफ से पुकारा गया
वहाँ जख्म पर बात ही कब हुई
फ़क़त आँसुओं को शुमारा गया
हवस थी उसे मेरी हर चीज़ की
मगर मुझसे सब कुछ न हारा गया
पोस्ट कुछ लम्बी होती जा रही है और आज के दौर में किसके पास इतनी फुरसत है की अपना समय शायरी की किताब की चर्चा पढ़ने में लगाये , फिर भी कुछ ऐसे शौदाई हैं जिनकी वजह से ये श्रृंखला अब तक दम नहीं तोड़ पायी है। जब तक शेरो शायरी और ग़ज़लों का जूनून लोगों के दिल में मौजूद है तभी तक इस श्रृंखला को चलाये रखने में आनंद है। आईये चलते चलते उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर पढ़ते हैं :-
कैसे दरवाज़े पे दस्तक सुनें खामोश रहें
इससे बेहतर है कि लाइट ही बुझा दी जाए
यूँ नहीं होता कि हर बात ही चिल्ला के कहें
यह भी कब होता है हर बार जुबाँ सी जाए
गालियां सुनते हुए उम्र हुई है 'ताबिश'
अब बुरे काम करें और दुआ ली जाए
बेहद सुन्दर!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया शानदार ! परन्तु आप ये न कहें की टाइम नहीं है जिसको लगन होगी वो पढ़ेगा ही
ReplyDeleteगालियां सुनते हुए उम्र हुई है 'ताबिश'
ReplyDeleteअब बुरे काम करें और दुआ ली जाए
बेहतरीन शएर से रुबरू कराने के लिये शुक्रिया....
आप हर बार इतने उम्दा शाइर को चुन के लाते हैं कि शाइरी का कौन सा आशिक़ आपकी पोस्ट पढ़ने अपने को रोक सकता है ? अौर जो आशिक़ नहीं है उस बेचारे के पास समय हो तो भी क्या करेगा ?
ReplyDeleteधन्यवाद। आप लिखते भी हैं और सूचित भी करते हैं। सबसे अहम् बात है की किताब मंगवाने का तरीका भी बताते हैं। अब हम जैसे लोग जो बाजार जा कर तलाश नहीं कर सकते वक़्त की कमी से उनके लिए तो आप बस चराग हैं राह का।
ReplyDeleteReceived on mail :-
ReplyDeleteज़िन्दगी की सच्चाइयों, गहराइयों और तवानाइयों से ओत प्रोत शायरी का खूबसूरत इंतिखाब नीरज भाई!
और आप का वही दिलकश अंदाज़े पेशकश !
मुबारकबाद !
Alam Khursheed
Received on fb :-
ReplyDeleteवाह वाह ..............बहुत अच्छी किताब .........उम्दा शायरी .....हर शेर कमाल का है ............आपको हार्दिक धन्यवाद ...इस नेक काम के लिए ........अगली पोस्ट का इंतज़ार अभी से है
Pramod Kumar
Received on fb :-
ReplyDeleteसाहब पढ़ भी आये और किताब का ऑर्डर भी कर आये। जिंदाबाद
सुधाकर मिश्र
नहीं चुनी मैंने वो ज़मीन जो वतन ठहरी
ReplyDeleteनहीं चुना मैंने वो घर जो खानदान बना
नहीं चुना मैंने वो मजहब जो मुझे बख्शा गया
नहीं चुनी मैंने वो ज़बान जिसमें माँ ने बोलना सिखाया
और अब
मैं इन सबके लिए तैयार हूँ
मरने मारने पर
बेमिसाल सादगी और सच्चाई
बहुत ख़ूब नीरज साहब, सफ़र ज़ारी रहे
ReplyDeleteशानदार ........ ये श्रंखला इसी तरह चलती रहे ...👍👍👍👍
ReplyDeletevery informative ..... thanks !
ReplyDeleteफ़ज़ल ताबिश जी की किताब " रौशनी किस जगह से काली है " की सार्थक प्रस्तुतीकरण हेतु आभार
ReplyDeleteReceived on e-mail :-
ReplyDeleteज़िन्दगी की सच्चाइयों, गहराइयों और तवानाइयों से ओत प्रोत शायरी का खूबसूरत इंतिखाब नीरज भाई!
और आप का वही दिलकश अंदाज़े पेशकश !
मुबारकबाद !
Alam Khursheed