बात 1952 की है , तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में कांग्रेस द्वारा आयोजित एक चुनाव अभियान के तहत होने वाले कार्यक्रम में आने वाले थे. नेहरू जी के आगमन पर युवा कवि मोहम्मद शफी खान जिन्होंने 1945 में हज़रत वारसी की मज़ार पर अपना नाम बेकल वारसी रख लिया था ने मंच से ओज भरी लेकिन सुरीली आवाज़ में अपनी कविता " किसान भारत का " सुनाई जिसे सुन कर नेहरू जी बहुत प्रसन्न हुए और कहा की ये तो हमारा उत्साही शायर है।
बस तब से लोग उन्हें "बेकल उत्साही" कहने लगे। आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उन्हीं "बेकल उत्साही" साहब, जिसे सुनने के लिए दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद हर शायरी प्रेमी हमेशा तत्पर रहता है ,की ग़ज़लों की किताब " लफ़्ज़ों की घटायें " का जिक्र करेंगे।
उत्तर प्रदेश के गोंडा जनपद के गाँव गोरमवाँपुर में 1928 में उनका जन्म हुआ। उन्हें नाम दिया गया ‘लोदी मुहम्मद सफी खाँ’। पिता ज़मींदार थे और शेरी-नाशिस्तों के शौकीन, घर पर शाइरों का आना जाना रहता था, उन्ही को देख देख के लिखने की ललक बढ़ी. पहले नात मजलिस का दौर शुरू हुआ फिर गीत नज़्म ग़ज़ल लिखीं आरम्भ गीतों से ही हुआ. बाद में वे दोहे रुबाई कतए और ग़ज़लें भी कहने लगे।
सन 1976 में भारत सरकार द्वारा साहित्य के क्षेत्र में उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए "पद्मश्री" से सम्मानित किया गया। वे 1989 से 1992 तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे। इस दौरान उन्होने अवध प्रदेश की समस्याओं और मुद्दों को गंभीरता के साथ संसद में उठाया. संसद की कई समितियों के भी वे मेम्बर रहे. उस दौर में जब दक्षिण में हिन्दी विरोधी लहर चल रही थी बेकल जी ने दक्षिण में घूम घूम कर अवधी और हिन्दी कवि सम्मेलन किए और वहां के लोगों को अपनी बात समझाने की भरसक कोशिश की.
बेकल साहब की रोमांटिक ग़ज़लों को बहुत से गायकों ने अपना स्वर दिया है। उनकी ग़ज़लें लोगों की जुबाँ पे चढ़ कर बहुत मक़बूल हुईं। जयपुर के प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक अहमद हुसैन मोहम्मद हुसैन बंधुओं के वो चहेते शायर रहे।ग़ज़ल प्रेमियों ने उनकी इस ग़ज़ल को उनकी आवाज़ में जरूर सुन कर गुनगुनाया होगा :
बेकल साहब की लगभग दो दर्ज़न किताबें शाया हो चुकी हैं लेकिन ऐसी किताब जिसमें सिर्फ उनकी ग़ज़लें ही संकलित हों "लफ़्ज़ों की घटायें" ही है। उनकी ग़ज़लों की किताबें न होने के पीछे एक कारण है , बेकल साहब का कहना है कि वो मूलरूप से ग़ज़लकार नहीं हैं , गीत उनकी पहली पसंद था, है और रहेगा। इस किताब में भी उनकी सिर्फ 87 ग़ज़लें ही हैं जिन्हें सुरेश कुमार जी ने संकलित किया है। किताब के प्रकाशक हैं "डायमंड बुक्स पब्लिकेशनस" जिनकी किताबें आपको सरलता से किसी भी किताबों की दुकान से मिल सकती हैं।
अगर आपको अपने निकटवर्ती पुस्तक विक्रेता के पास ये किताब न मिले तो आप डायमंड बुक्स वालों को 011 -511611861 -865 पर फोन करें या sales@diamondpublication.com पर मेल करें। किताब को ओन लाइन मंगवाने के लिए डायमंड बुक्स की वेब साइट www.diamondpocketbooks.com पर जा कर आर्डर दें।
चलते चलते आइये उनकी एक बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें और हाँ अगर आपने उन्हें पूरे मंच और श्रोताओं को अपनी मधुर आवाज़ से अपनी गिरफ्त में लेते नहीं देखा सुना तो समझिए आपने बहुत कुछ खोया है। आपके लिए उनके दो विडिओ क्लिप भी हैं ,क्लिक करें उन्हें देखें, सुनें और भरपूर आनंद लें।
बस तब से लोग उन्हें "बेकल उत्साही" कहने लगे। आज किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उन्हीं "बेकल उत्साही" साहब, जिसे सुनने के लिए दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद हर शायरी प्रेमी हमेशा तत्पर रहता है ,की ग़ज़लों की किताब " लफ़्ज़ों की घटायें " का जिक्र करेंगे।
जो मेरा है वो तेरा भी अफ़साना हुआ तो
माहौल का अंदाज़ ही बेगाना हुआ तो
तुम क़त्ल से बचने का जतन खूब करो हो
क़ातिल का अगर लहज़ा शरीफ़ाना हुआ तो
काबे की जियारत का सफर कर तो रहे हो
रस्ते में कहीं कोई सनमख़ाना हुआ तो
सनमख़ाना = मूर्ती गृह
दिन भी क्या जो फूल की मानिंद खिल कर सूख जाय
रात वो क्या जो चटानो की तरह भारी न हो
सुनते आये हैं यही हम 'मीर' से 'इकबाल' तक
वो ग़ज़ल क्या जिसको सुनकर कैफ़ियत तारी न हो
इस सफर पर सबको जाना ही है बेकल एक दिन
हो नहीं सकता तेरी हो और मेरी बारी न हो
बेकल साहब शायद अकेले ऐसे शायर कवि हैं जिन्हें दो अलग याने मुशायरों और कवि सम्मलेन के मंचों से बहुत आदर और सम्मान के साथ सुना जाता है. उन्होंने ग़ज़ल में कविता का और कविता में ग़ज़ल का प्रभाव पैदा किया है। लकदक कुरता और अलीगढ़ी पायजामा सर पर ऊंची मखमली टोपी काली दाढ़ी में निचले होंट के पास से झरने की तरह गिरती उनकी एक सफ़ेद लट वाली छवि, देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है, रही सही कसर उनकी तरन्नुम में पढ़ी अनूठी रचनाएँ पूरी कर देती हैं। वो मुशायरों, कवि सम्मेलनों की आबरू हैं।श्रोता उन्हें ही सुनने की लगातार बारबार फरमाइश करते हैं।
कोई मस्जिद, गुरूद्वारे न शिवाले होंगे
सिर्फ तू होगा तेरे चाहने वाले होंगे
ऐब चेहरों का छुपा लेना हुनर था जिनका
सोचिये कितने वो आईने निराले होंगे
बेच दे अपनी जबाँ, अपनी अना, अपना ज़मीर
फिर तेरे हाथ में सोने के निवाले होंगे
तुम को तो मील के पत्थर पे भरोसा है मगर
मेरी मंज़िल तो मेरे पाँव के छाले होंगे
हिंदुस्तानी तहज़ीब में रची बसी और खास तौर पर अवध के आंचलिक परिवेश में ढली उनकी शायरी भाषा की सरलता के कारण उर्दू शायरी में अपना अलग मुकाम रखती है। गाँव और गाँव वासियों के सुख दुःख जिस तरह से बेकल साहब की शायरी में प्रगट हुए हैं उस तरह से उर्दू शायरी में पहले कभी देखे सुने नहीं गए। उस्ताद चाहे उनकी शायरी पर नाक भों सिकोड़ें लेकिन पाठकों और श्रोताओं ने उनकी शायरी को खूब पसंद किया है। उनकी लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है की उनके द्वारा शायरी में किये गए आंचलिक भाषा के प्रयोग बहुत सफल हुए हैं।
अब तो गेहूं न धान बोते हैं
अपनी किस्मत किसान बोते हैं
गाँव की खेतियाँ उजाड़ के हम
शहर जाकर मकान बोते हैं
लोग चुनते हैं गीत के अल्फ़ाज़
हम ग़ज़ल की ज़बान बोते हैं
अब हरम में नमाज़ उगे न उगे
हम फ़ज़ा में अज़ान बोते हैं
पल दो पल को सावन की शहज़ादी उतरी थी
मेरे खेत की मिटटी कितनी सौंधी लगती है
बरसों बाद बिदेस से अपने गाँव में लौटा हूँ
अब मुखिया की लाल हवेली छोटी लगती है
बीच सड़क इक लाश पड़ी थी और ये लिक्खा था
भूख में ज़हरीली रोटी भी मीठी लगती है
सादगी सिंगार हो गयी
आइनों की मार हो गयी
आँख ही थी ज़ख्म की दवा
आँख ही कटार हो गयी
चाँद नाव में उत्तर पड़ा
अब नदी अपार हो गयी
दोस्तों का कारवां तो है
दोस्ती गुबार हो गयी
जब से हम तबाह हो गये
तुम जहाँपनाह हो गये
हुस्न पर निखार आ गया
आईने सियाह हो गये
आँधियों की कुछ खता नहीं
हम ही गर्दे राह हो गये
दुश्मनों को चिट्ठियां लिखो
दोस्त ख़ैरख़्वाह हो गये
चलते चलते आइये उनकी एक बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल के ये शेर पढ़ें और हाँ अगर आपने उन्हें पूरे मंच और श्रोताओं को अपनी मधुर आवाज़ से अपनी गिरफ्त में लेते नहीं देखा सुना तो समझिए आपने बहुत कुछ खोया है। आपके लिए उनके दो विडिओ क्लिप भी हैं ,क्लिक करें उन्हें देखें, सुनें और भरपूर आनंद लें।
जुल्फ बिखरा के निकले वो घर से
देखो बादल कहाँ आज बरसे
ज़िन्दगी वो संभल ना सकेगी
गिर गयी जो तुम्हारी नज़र से
मैं हर इक हाल में आपका हूँ
आप देखें मुझे जिस नज़र से
फिर हुई
धड़कने तेज़ दिल की
फिर वो
गुज़रे हैं शायद इधर से
*****
इस सफर पर सबको जाना ही है बेकल एक दिन
ReplyDeleteहो नहीं सकता तेरी हो और मेरी बारी न हो
वाह!
As always, enriching and profound!!
shaandar
ReplyDeleteBech DE apani jaban, apani ana,apana jameer,
ReplyDeleteFir tere hath me sone ke niwale honge.
Wah,Hamesha ki tarah layaway peshkash.
Lajawab!
ReplyDeleteहुसैन ब्रदर्स की गायी बेक़ल जी के ये गजलें जब भी सुनें मंत्रमुग्ध करती हैं। लाज़वाब शायर, लाज़वाब पोस्ट।
ReplyDeleteअब लिंक सुनते हैं, गजल कहने ,सुनने और पढ़ने वालों के लिए बहुत लाभदायक और सुखद होती हैं आपकी ये पोस्टस जिनमें आप किसी नामचीन शायर का जिक़्र करते हैं, व साथ में लिंक्स होते हैं ।
सुन्दर व सार्थक रचना ..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
bahut khoob.. aanand aa gaya.. Sadhuwaad neeraj Uncle..
ReplyDeleteVery nice
ReplyDelete