हो रही है शाम से साकिन घड़ी की सुइयां
पाँव फैलाता है क्या एक एक पल फ़ुर्क़त की रात
साकिन : रुक जाना : फ़ुर्क़त : जुदाई
सर्द सर्द आहों से यूँ आंसू मिरे जमते गए
हो गया तामीर इक मोती-महल फ़ुर्क़त की रात
तामीर : तैयार
दर्द में डूबे हुए हैं शेर सारे ऐ 'वफ़ा'
किस क़ियामत की कही तूने ग़ज़ल फ़ुर्क़त रात
क्या मेहरबानियाँ थीं क्या मेहरबानियाँ हैं
वो भी कहानियां थीं ये भी कहानियां हैं
इक बार उसने मुझको देखा था मुस्कुराकर
इतनी सी है हकीकत बाक़ी कहानियां हैं
सुनता है कोई किसकी किसको सुनाये कोई
हर एक की ज़बां पर अपनी कहानियां हैं
कुछ बात है जो चुप हूँ मैं सब की सुन के वरना
याद ऐ 'वफ़ा' मुझे भी सब की कहानियां हैं
इन शेरों में आये तखल्लुस से आप इतना जो जान ही गए होंगे कि हम किसी 'वफ़ा' साहब की शायरी का जिक्र करने वाले हैं ,अब जब आप इतना जान गए हैं तो ये भी जान लें कि हमारे आज के बाकमाल शायर का पूरा नाम था "मेला राम 'वफ़ा' ". चौंक गए ? क्यूंकि हो सकता है आपने ये नाम पहले न सुना हो , सच बात तो ये है कि हमारी या हमारे बाद की पीढ़ी में से बहुत कम ने शायद ही ये नाम सुना हो. इस नाम और इस किताब से अगर जनाब राजेंद्र नाथ 'रहबर ' साहब मेरा तार्रुफ़ न करवाते तो मैं भी आपकी तरह उनकी शायरी से अनजान रहता। 'रहबर' साहब ने बड़ी मेहनत से वफ़ा साहब की ग़ज़लों को 'संगे-मील' किताब की शक्ल में दर्ज़ किया है।
नहीं,हाँ हाँ, नहीं आसां बसर करना शबे ग़म का
शबे-ग़म ऐ दिले नादां बसर मुश्किल से होती है
गुज़र जाती है राहत की तो सौ सौ उम्रें ब-आसानी
घडी भी इक मुसीबत की बसर मुश्किल से होती है
ये दर्दे इश्क है, ये जान ही के साथ जायेगा
दवा इस दर्द की ऐ चारागर मुश्किल से होती है
चारागर : चिकित्सक
महफ़िल में इधर और उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं
भागे चले जाते हैं उधर को तो खबर क्या
रुख लोग हवाओं का जिधर देख रहे हैं
शिकवा करें गैरों का तो किस मुंह से करें हम
बदली हुई यारों की नज़र देख रहे हैं
'
वफ़ा' साहब बड़े देश भक्त थे , देश प्रेम का ज़ज़्बा कूट कूट कर उनके दिल में भरा हुआ था , देश को गुलामी की ज़ंजीरों से आज़ाद कराने के लिए शायरी के बे-खौफ इस्तेमाल में उर्दू का काबिले जिक्र शायर यहाँ तक की 'जोश मलीहाबादी 'भी वफ़ा साहब का मुकाबला नहीं कर सकते। उन्हें एक बागियाना नज़्म लिखने के जुर्म में दो साल की कैद भी भुगतनी पड़ी। बानगी के तौर पर पढ़ें उसी नज़्म के कुछ अंश :-
ऐ फिरंगी कभी सोचा है ये दिल में तू ने
और ये सोच के कुछ तुझ को हया भी आई
तेरे क़दमों से लगी आई गुलामी ज़ालिम
साथ ही उसके गरीबी की बला भी आई
तेरी कल्चर में चमक तो है मगर इस में नज़र
कभी कुछ रोशनिये -सिद्को सफ़ा भी आई
सिद्को सफ़ा = सच्चाई
तेरी संगीने चमकने लगी सड़कों पे युंही
लब पे मज़लूमो के फरयाद ज़रा भी आई
1941 में वफ़ा साहब की देश भक्ति और सियासी नज़्मों का संग्रह 'सोज-ऐ-वतन ' के नाम से प्रकाशित किया गया। 1959 में उनकी अदबी ,सियासी,और रूहानी ग़ज़लों का संग्रह 'संग-ऐ-मील' के नाम से उर्दू में प्रकाशित हुआ। संगे मील प्रकाशित अपने कलाम को वफ़ा साहब ने चार भागों में बांटा था 1 .महसूसात 2 .सियसियात 3 . रूहानियत और 4 . ग़ज़लियात , किताब में उनकी ग़ज़लियात वाला भाग ही प्रकाशित किया गया है।
ये बात कि कहना है मुझे तुम से बहुत कुछ
इस बात से पैदा है कि मैं कुछ नहीं कहता
कहलाओ न कुछ ग़ैर की तारीफ़ में मुझसे
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता
कहने का तो अपने है 'वफ़ा' आप भी काइल
कहने को ये कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता
पंजाब सरकार से "राज कवि " का खिताब पाने वाले जनाब मेला राम 'वफ़ा' साहब 19 सितम्बर 1980 को इस दुनिया-ऐ -फानी को अलविदा कह गए और अपने पीछे शायरी की वो विरासत छोड़ गए जो आने वाली सदियों तक उनके नाम को ज़िंदा रखेगी। चलते चलते उनकी ग़ज़ल के ये चंद शेर और आपको पेश करता हूँ :
ग़मे- फ़िराक़, शदीद इस कदर न था पहले
दुआ है अब न मिले राहते-विसाल मुझे
ग़मे-फिराक : वियोग का दुःख , शदीद : तीव्र , राहते विसाल : मिलन का सुख
तिरी ख़ुशी हो अदू की ख़ुशी के ताबे क्यों
तिरी ख़ुशी का भी होने लगा मलाल मुझे
अदू :दुश्मन , ताबे : अधीन
कभी जो उसने इज़ाज़त सवाल की दी है
जवाब दे गयी है ताकत-ऐ-सवाल मुझे
Nice post
ReplyDeleteफिर से बेहतरीन गज़ल संग्रह. मेला राम वफ़ा जी को ढेरों बधाइयाँ
ReplyDeletebahut sundar sameeksha...
ReplyDeletebahut badhiya....
ReplyDeleteकिताबें तो आप अच्छी ढूंढ कर लाते ही हैं ।जानकारी का अंदाज भी बहुत रोचक होता है। एक और अच्छी किताब से परिचय कराने का धन्यवाद ।
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, मटर और पनीर - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteनहीं,हाँ हाँ, नहीं आसां बसर करना शबे ग़म का
ReplyDeleteशबे-ग़म ऐ दिले नादां बसर मुश्किल से होती है
गुज़र जाती है राहत की तो सौ सौ उम्रें ब-आसानी
घडी भी इक मुसीबत की बसर मुश्किल से होती है
बहुत सुंदर समीक्षा वफा साहब से परिचय कराने का बहुत शुक्रिया । आपके चुनिंदा शेरों को पढ कर मज़ा आता है।
उम्दा समीक्षा
ReplyDeleteNice book to read
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शेर
ReplyDeleteपंडित मेला राम ` वफ़ा ` की कुछ ग़ज़लें पढ़ कर मैं आनंदित हो गया हूँ। वे माने हुए
ReplyDeleteउस्ताद थे। उनके अनेक शागिर्द थे। १९५५ की बात है। जालंधर से निकलने वाले
उर्दू अखबारवीर भारत के वे एडिटर थे। उनसे दो बार मेरी मुलाक़ात हुई थी । दो ही
मुलाक़ातों में उनसे मैंने ग़ज़ल के बारे में बहुत कुछ सीखा था। शायरी में वे मोती
पिरोते थे। शेर को वे सच्चे मोतीयों के माला कहते थे। उनका जवाब नहीं। उनके दो
अशआर पढ़िए -
लिफाफे में पुर्जे मेरे ख़त के हैं
मेरे ख़त का आखिर जवाब आ गया
बड़ा बेदादगर वो माहजबीं है
मगर इतना नहीं जितना हसीं है
मेला राम वफ़ा साहब के बारे में बहुत ही दिलचस्प तरीके से बताया आपने। आप जिस तरह अदब की बेलौस खिदमत कर रहे हैं वो अपनी मिसाल आप है। सलाम कुबूल फरमाएं 🙏🌹❤️
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