जयपुर में एक "लोकायत प्रकाशन" है, जहाँ हिंदी की उन किताबों का ढेर है जिन पर मिटटी की परतें चढ़ी रहती हैं, वहां किताबें स्टील के रैक्स के अलावा फर्श पर भी बिखरी पड़ी रहती हैं. लोकायत की डबल दुकान पर एक साधारण सी टेबल के पीछे एक अति साधारण कुर्सी पर चश्मा लगाये बैठे उसके करता धर्ता शेखर जी हमेशा मुझे देखते ही मुस्कुरा कर कहते हैं " आईये सर फिरे नीरज जी"
उनका कहना सही है क्यूँ की आज के युग में कोई भी पढ़ा लिखा इंसान ऐसी साधारण सी दुकान पर किताबें ढूँढने और खरीदने नहीं जाता और अगर किताब हिंदी में हो तो मान के चलिए कि वो इंसान सर फिर ही होगा. किताबों की खोज के दौरान मैंने हर दुकान और बड़े बड़े माल में सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी भाषा की किताबों को ही बिकते देखा है.
लोकायत पर किताब की खोज करते और धूल फांकते हुए मेरी नज़र जिस किताब पर पढ़ी उसी का जिक्र हम आज अपनी किताबों की दुनिया की श्रृंखला में करने जा रहे हैं:
हम भी होशियार न थे प्यार भी पागल की तरह
बात फैली है तेरे आँख के काजल की तरह
चार सू सैले हवा* भी है संभलना भी है
ज़ीस्त भी है तेरे उड़ते हुए आँचल की तरह
चार सू सैले हवा:: चारों और हवा के झोंके
ज़ीस्त: ज़िन्दगी
रात सी रात है बरसात है तन्हाई है
कूकता है मेरे दिल में कोई कोयल की तरह
क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
आप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे
ज़िन्दगी है तो बहरेहाल गुज़र जायेगी
दिल को समझाया था कल आज भी समझायेंगे
सुबह फिर होगी कोई हादिसा याद आएगा
शाम फिर आएगी फिर शाम से घबराएंगे
कुछ रात ढले होती है आहट दरे दिल पर
कुछ फूल बिखर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
मत पूछ नकाबों से तू यारी है हमारी
हम चेहरों से डर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
घर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है
रात भर जाग कर काटे तो कोई मेरी तरह
खुद-ब-खुद समझेगा वो पिछला पहर क्या कुछ है
जैसे किस्मत की लकीरों पे हमें चलना है
कौन समझेगा तेरी रहगुज़र क्या कुछ है
ख्याल आते ही कल शब् तुझे भुलाने का
चिराग बुझ गया जैसे मेरे सिरहाने का
करीब से ये नज़ारे भले नहीं लगते
बहुत दिनों से इरादा है दूर जाने का
मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का
कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे
अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे
हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे
18 अगस्त 1985 की सुबह हैदराबाद के शाह अली बंद मोहल्ले के असर अस्पताल के कमरा न. 21 में शाज़ साहब ने हमेशा के लिए अपनी आँखें मींच लीं. हैदराबाद में शायरी के एक युग का अंत हो गया. उर्दू की शायरी जिसमें हिंदी का छायावाद, रहस्यवाद और प्रयोगवाद का हल्का हल्का रंग शाज़ साहब के ज़रिये अदब में एक ऐसी तस्वीर बना चूका था जिसकी कूची शाज़ साहब के हाथों में थी. उनके जाने से ये रंग बिखर गए उन्हीं रंगों को फिर से इस किताब में समटने की कोशिश की गयी है.
प्यासा हूँ रेगज़ार* में दरिया दिखाई दे
जो हाल पूछ ले वो मसीहा दिखाई दे
रेगज़ार: रेगिस्तान
पड़ती है सात रंगों की तेरे बदन पे धूप
जो रंग तू पहन ले वो गहरा दिखाई दे
क्या क्या हकीकतों पे है परदे पड़े हुए
तू है किसी का और किसी का दिखाई दे
इस किताब में ऐसे एक नहीं सैंकड़ों शेर हैं जिन्हें मैं यहाँ कोट करना चाहता हूँ...लेकिन ये मेरी मजबूरी है के मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा हूँ. ग़ज़लों के अलावा इस किताब में शाज़ साहब की कुछ चुनिन्दा नज्में भी पढने को मिलती हैं. शाज़ साहब के अपने दोस्त शायरों के साथ लिए गए फोटो इस किताब में चार चाँद लगा देते हैं. मेरी शायरी के सभी दीवानों से गुज़ारिश है कि आप अपनी अलमारी में इस किताब को जरूर शामिल करें. अगली किताब की खोज में निकलने से पहले मैं आपको ये शेर पढवा कर विदा लेता हूँ -
शिकन शिकन तेरी यादें हैं मेरे बिस्तर की
ग़ज़ल के शेर नहीं करवटें हैं शब् भर की
फिर आई रात मेरी सांस, रूकती जाती है
सरकती आती हैं दीवारें फिर मेरे घर की
निबाह करता हूँ दुनिया से इस तरह अय ''शाज़"
कि जैसे दोस्ती हो आस्तीन -ओ -खंज़र की
कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ReplyDeleteये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे
अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे
हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे
आपकी कल़म से यह परिचय और प्रस्तुति लाजवाब है ... बहुत - बहुत आभार इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए
आपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल मंगलवार ७/८/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है |
ReplyDeleteमैं खुद टिप्पणी में जाने कितने शेर कोट करना चाहती हूँ....सभी लाजवाब...
ReplyDeleteहर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
एक बेहतरीन पुस्तक से मिलवाने का शुक्रिया सर..(सरफिरे नहीं)
सादर
अनु
Comment received thro' e-mail from Mr.Vishal:-
ReplyDeleteनीरज अंकल नमस्ते। किताब ढूंढने की जद्दोजहद ने आज हमको भी हिलाकर रख दिया और लगा ऐसी किताबें ढूंढना कितना मुश्किल कार्य है। अल्ला तआला से दुआ है कि जहां भी जाएं आपके लिए हमेशा ही ऐसी ढेरों किताबें बुकशेल्फ में मिलें। शुक्रिया! साभार! साधुवाद!
क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
आप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे
जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
घर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है
प्यासा हूँ रेगज़ार में दरिया दिखाई दे
जो हाल पूछ ले वो मसीहा दिखाई दे
VISHAL
kuchh sher to bahut khoobsoorat lage...shukriya fir ek bar
ReplyDeleteगहरे भावों के शेर गहरा असर भी करते हैं, आज पढ़कर यही लगा। पढ़वाने का आभार।
ReplyDelete"क्या खबर थी कि तेरे बाद ये दिन आयेंगे
ReplyDeleteआप ही रूठेंगे हम आप ही मन जायेंगे !
ज़िन्दगी है तो बहरेहाल गुज़र जायेगी
दिल को समझाया था कल आज भी समझायेंगे..!"
~सभी शेर एक से बढ़ कर एक हैं!
आपके ब्लॉग में तो न जाने कितने ख़ज़ाने मिलते हैं! जब भी यहाँ आते हैं हम...बस गुम ही हो जाते हैं..! समझ ही नहीं आता...क्या पढ़ें...क्या बाद के लिए छोड़ें..!~
और उसपर ये 'मधुबाला' जी...अक्सर तो हम इन्हीं पर अटक जाते हैं..! :-) ये हमारी भी Favourite हैं...!
इस ज्ञान के भंडार को Share करने का बहुत बहुत आभार !!!
~सादर !
शुभकामनायें |
ReplyDeleteएक और लाजवाब तोहफ़ा।
ReplyDeleteक्या बात है, आपका ब्लाग तो खजाना है शायरी का। शाज तमकनत साहब की शायरी क्या खूब है। पढ़वाने के लिए आपका शुक्रिया। कभी आपको हम भी कुछ सुनाना चाहेंगे, अगर वक्त ने मौका दिया। बहरहाल आपके ब्लाग को देखकर मन खुश हो गया। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteपरियच के लिए धन्यवाद
ReplyDeleteहर बार एक नया हीरा मिलता है आपके खजाने में ।
ReplyDeleteएक से बढ कर एक शेर हैं किसे चुने किसे छोडें ।
शाज़ तमकनत साहब से मिलवाने का शुक्रिया ।
Bahut hi pyari post! Aak achchi kitabon ka milna bhi mushkil hai aur janab unko padhne wale ko dhoondhna aur bhi mushkil hai...aap jaise shayari ke premi log kam hi hain..aap na keval svaym uska anand lete hain balki hum jaise kitne hi pyaso ko achche shayaro se milate hain...
ReplyDeletehardik aabhar
sadar
Mukesh Tyagi
हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
ReplyDeleteहर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ
जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
घर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है
रात भर जाग कर काटे तो कोई मेरी तरह
खुद-ब-खुद समझेगा वो पिछला पहर क्या कुछ है
मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का
कमाल का अंदाज़ ए बयान है शाज़ साहब का
ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि आप के लिये चंद अश’आर छांटना कितना मुश्किल रहा होगा
मैं तो नि:शब्द हूँ भैया
बहुत बहुत शुक्रिया शाज़ साहब को पढ़वाने के लिये
जिस से बेज़ार रहे थे वही दर क्या कुछ है
ReplyDeleteघर की दूरी ने ये समझाया कि घर क्या कुछ है
मैं और कोई बहाना तलाश कर लूँगा
तू अपने सर न ले इल्ज़ाम दिल दुखाने का
कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे
अब एक दिन की जुदाई भी सह नहीं सकते
जुदा रहे हैं तो बरसों जुदा रहे तुमसे
हर एक शख्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूँ जहाँ फासला रहे तुमसे
निबाह करता हूँ दुनिया से इस तरह अय ''शाज़"
कि जैसे दोस्ती हो आस्तीन -ओ -खंज़र की
आप तो नीरज साहेब हमेशा से नायाब हिरा ढूंढकर लाते है .... और हम उस हीरे की कीमत आंक भी नहीं पाते है की आपका दुसरा हीरा हाजिर हो जाता है ...अब इन्हें सिरफिरा न कहेगे तो क्या ?? क्योकि कहने वाले ही नहीं जानते की जिनका सर फिरा होता है वो ही नायाब होते है .....शाज़ तमकनत" साहब. को पढना अपने आप में बहुत ही बढियां अनुभव रहा ..आपके द्वारा हमें भी नित नए शायरों को पढने का मौका मिलता है , आपका जितना धन्यवाद करे कम है ......
सच मुच .. आज तो आवाज़ चली आई ... बहुत ही कमाल की किताब, शेर और शायर शाज़ साहब .. और आपका अंदाज़ नगीने जड़ देता है किताब के साथ ... गज़ब की समीक्षा ...
ReplyDeleteन जाने कौन तजुर्बे छोड़ गया मेरी जानिब
ReplyDeleteफितरत मेरी संभल जाये यही नीयत रही होगी -Anurag.
कल 08/08/2012 को आपकी किसी एक पोस्ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.
ReplyDeleteआपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
'' भूल-भुलैया देखी है ''
एक अच्छी पुस्तक से परिचित कराने के लिए हार्दिक आभार...
ReplyDeleteजिसने भी समाज को कोई नायाब तोहफा दिया है उसे लोग पहले सरफिरा कहते होंगे। तोहफा पा कर तो बस एक ही शब्द निकलता है लब से...आभार।
ReplyDelete:) aap to dhoondh dhoondh kar kitabein le aate hain hum aapke shabdon me yaha padh lete hai....
ReplyDeleteComment received on e-mail:
ReplyDeleteनीरज जी
क्या खज़ाना लेकर आते हैं आप भी! हर शेर ने बस झंझोड़ के रख दिया!
अब मैं वाणी प्रकाशन को ढूंढ़, किताब को खोज लाने की कोशिश करती हूँ - फिर मजे से पढूंगी और आपको दुआएं doongi .
Sarv
पड़ती है सात रंगों की तेरे बदन पे धूप
ReplyDeleteजो रंग तू पहन ले वो गहरा दिखाई दे
बहुत खूब लगा ये शेर..शाज़ साहब की शायरी का झरोखा दिखाने के लिए धन्यवाद !
Is sundar kitaab se parichay karaane ka shukriya.
ReplyDelete............
कितनी बदल रही है हिन्दी !
परिचय कराने के लिये आप को धन्यवाद...
ReplyDeleteक्या बात है नीरज जी.
ReplyDeleteआप हैं कि बस कमाल कर दिखाते है.
ऎसी खोज और खोजने वाले ऐसे ज़ुनून को सलाम....
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अच्छी पुस्तक से परिचित कराने के लिए आभार...
ReplyDeleteजन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें
आदरणीय नीरज जी,
ReplyDeleteशाज़ तमकनत साहब के शे'री मजमुए आवाज़ चली आती है से रूशनास करवाने और खूबसूरत अशआर पढ़वाने के लिए आपका सादर आभार.
"हर सुबह तुझे जी से भुलाने का है वादा
हर शाम मुकर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ"
क्या कहने...
"क्या क्या हकीकतों पे है परदे पड़े हुए
तू है किसी का और किसी का दिखाई दे"
जवाब नहीं.....वाह वाह
दिली मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं.
सादर,
सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
जुहू, मुंबई-49.
बहुत-बहुत धन्यवाद एक और खूबसूरत किताब और लेखक से परिचय करवाने के लिए...कभी-कभी आपसे जलन होती है कि आप कहां से ये सुंदर-सुंदर किताबें खोज कर उनका अध्ययन करने का सौभाग्य प्राप्त कर लेते हैं..बहरहाल कई श़ेर बेहद उम्दा है...एक बार पुनः आपका शुक्रिया!!!!
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