आम, लीची सी रसीली, गर्मियों की वो दुपहरी
और शहतूतों से मीठी, गर्मियों की वो दुपहरी
फालसे, आलू बुखारों की तरह खट्टी-ओ-मीठी
यार की बातों सी प्यारी, गर्मियों की वो दुपहरी
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के पेड़ नीचे
साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी
कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों में
प्यार के थे गीत गाती, गर्मियों की वो दुपहरी
बिन तेरे उफ़! किस कदर थी जानलेवा यार लम्बी
और सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी
सर्दियों में भी पसीना याद कर आता है 'नीरज'
तन जलाती चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
bahut badhiya ghazal,,khas taur par ye sher!!
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
ये पंक्तियां मन को छूती हुई जैसे कोई तपती दुपहरी में ठंडी हवा का झौंका ... उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए आभार ।
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
bahut khoob sir
maja aa gaya
thanks
http://drivingwithpen.blogspot.in/
बढ़िया..
ReplyDeleteउत्कृष्ट प्रस्तुति
ReplyDeleteगर्मी की सड़ी दोपहरी पर लिखी उत्कृष्ट रचना....
ReplyDelete:-)
भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमोहर के पेड़ नीचे
साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी
बहुत सुंदर......................
अनु
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
सुंदर प्रस्तुति,,,,,
RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी ..
वाह नीरज जी .. इस लाजवाब गज़ल का आनंद बार बार पढ़ने के बाद और भी बढ़ता जाता है ... ये शेर तो बहुत ही खास ... दिल में सीधे उतर जाता है ..
वाह वाह शानदार गज़ल हर शेर खूबसूरत
ReplyDeleteजाने कहाँ गए वो दिन....शानदार गज़ल.
ReplyDeleteपिछले साल भी पढ़ी थी, इस बार पढ़कर थोड़ा और सुकूँ मिला..
ReplyDeleteKAVITA KEE SUNDARTAA USKAA CHITRAMAYEE HONA HAI . HAR SHER MEIN
ReplyDeleteSAJEEV CHITRAN HAI . SEEDHE - SAADE
SHABDON MEIN RACHEE - BASEE GAZAL
KE LIYE AAPKO BADHAAEE .
बहुत बढ़िया सर!
ReplyDeleteसादर
गर्मियों की धूप में आपके जैसी मुस्कराती, गुनगुनाती, खिलखिलाती ये ग़ज़ल एयर कंडीशनर का अहसासस दे रही है।
ReplyDeleteबिन तेरे उफ़! किस कदर थी जानलेवा यार लम्बी
ReplyDeleteऔर सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी
गर्मी में रोमांस पर यादों की ठिठुरती सुन्दर रचना
भाई वाह
बहुत सुंदर बिम्ब प्रयोग और सुंदर भाव से भरी ....गर्मियों की वो दुपहरी ....
ReplyDeleteComment received on mail:-
ReplyDeleteNeeraj ji
Namaskar
Garmio ki dopahar ke sari khusbuye samte apki gajal mili aachi lagi...purani dopahrio ki yaad aa gyi.
Neeraj ji apne blog par hum hindi main kis tarha likh sakte hai.kya aap btayenge plz .mujhe jyada knowedge nahi ha blogging ki.
Regards
Parul singh
☺ सुंदर
ReplyDeleteबहुत प्यारी लगी हर पंक्तिय... ऊपर में गर्मी का लुत्फ़ और नीचे के दो उफ़ गर्मी... उम्दा रचना
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDeleteComment received on mail:-
ReplyDeleteneeraj ji
namasey,
gud poem to welcome this summer,
congrats,
-om sapra, delhi-9
Aapko padhna ek alaghee anubhav hota hai!
ReplyDeleteपंक्तियां मन को छूती हुई ... उत्कृष्ट प्रस्तुति आभार ।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.
ReplyDeleteभूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के पेड़ नीचे
साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी
कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों में
प्यार के थे गीत गाती, गर्मियों की वो दुपहरी
खोपोली इतना अच्छा लग रहा है अभी, इसलिए खोपोली यात्रा की तैयारी शुरू:-)
कल 31/05/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
नमस्कार नीरज जी,
ReplyDeleteयादों का एक झोंका अपने साथ बहा कर उन बीती सुनहरी गर्मियों की दुपहरी की तरफ खींच के ले जा रहा है.
"फालसे, आलू बुखारों की तरह खट्टी......." वाह
"थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ........", बहुत खूबसूरत बिम्ब बाँधा है.
"कूकती कोयल के स्वर से गूँजती अमराइयों में......", लाजवाब
पिछली तरही के इस खूबसूरत दस्तावेज़ ने आज फिर से कमाल कर दिया.
ati uttam
ReplyDeleteथे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी... वाह!
आदरणीय नीरज सर पूरी गजल बहुत खुबसूरत है....
सादर बधाई स्वीकारें.
"बिन तेरे उफ़! किस कदर थी जानलेवा यार लम्बी
ReplyDeleteऔर सन्नाटे में डूबी, गर्मियों की वो दुपहरी
सर्दियों में भी पसीना याद कर आता है 'नीरज'
तन जलाती चिलचिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी"....
याद आता हैं वो बचपन सुहाना ..!
वो आमो की अमराई वो गुलमोहर का जमाना ...!
क्या बात हैं ?आपकी कविता में वो गर्मी की झुलसान कम हवा का झौका ज्यादा हैं नीरज साहेब !
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
ठंढा ठंढा कूल कूल सा एहसास...
वर्ना गर्मी और गजलः(
बहुत ही सुन्दर और बेहतरीन रचना...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत, गर्मियों को तरो-ताज़ा बनाती रचना ! Thanks for sharing !!!
ReplyDeleteतरबूज़ और खरबूजे की यारी,
उनकी ऊँटों की सवारी..!
पेड पे चढ़, दादी से छुपकर..
कच्ची अमियों की वो चोरी,
भूल नहीं सकता कभी दिल.....
गर्मियों की वो दुपहरी..... :))
"थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी"
बहुत खूब लिखा है सर..
आभार!!
वाह बेहद खुबसूरत।
ReplyDeleteवैसे तो हर पन्क्ति उत्कृ्ष्ठ है ...फिर भी
ReplyDelete"थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी"
खास तौर पर मन को छू जाने वाली है
दिलकश प्रस्तुति सर
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
बहुत अच्छी गज़ल है। लेकिन ये शेर तो कमाल का है।हर शेर इतने खूबसूरत तरीके से बुना है कि दिल वाह वाह कर उठता है। शुभकामनायें।
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
वास्तव में पूरी ग़ज़ल की जान है यह शेर ...बहुत सुन्दर नीरज जी ..
बहुत ही सुन्दर अहसासों से सराबोर रचना ...बधाई !!!
abhi aap ki company ke bagal goojar raha achha lagata ye sochakar ke jiska mai blog padhata hoon wo yahi kaam karate hai
ReplyDeleteआपकी गज़ल ने खोले खुशबुओं के वो पिटारे
ReplyDeleteहो गई मन मोहनी सी गर्मियों की ये दुपहरी ।
थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
ReplyDeleteतो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी
आपकी गजले पता नहीं कहाँ कहाँ ले जाती है .. बड़ा अरमान रहेंगा मैं आपकी तरह नहीं लिख सकता ..
Msg received on mail:--
ReplyDeleteआदरणीय नीरज जी,
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है वाह...वाह..
"थे पिता बरगद सरीखे और शीतल सी हवा माँ
तो लगा करती थी ठंडी, गर्मियों की वो दुपहरी"
जवाब नहीं.....वाह वाह
"भूलना मुमकिन नहीं है, गुलमुहर के पेड़ नीचे
साथ हमने जो गुजारी, गर्मियों की वो दुपहरी"
क्या कहने...
खूबसूरत अशआर पढ़वाने के लिए आपका सादर आभार.
दिली मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं.
सादर,
सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
जुहू, मुंबई-49.