"बेताल के सवाल पर
विक्रम से लेकर अन्ना तक
सभी मौन हैं
कि जब सारा देश
भ्रष्टाचार के खिलाफ है
तब स्याला
भ्रष्टाचार करता कौन है?"
ये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से काइम है
ये ख़ुद के बल पे कभी चांदनी नहीं देते
गज़ब के तेवर लिए इस छोटी सी प्यारी सी शायरी की किताब " जन गण मन " के लेखक हैं ब्लॉग जगत के अति प्रिय, स्थापित युवा शायर जनाब "द्विजेन्द्र द्विज" साहब. द्विजेन्द्र जी किसी परिचय के मोहताज़ नहीं ,ब्लॉग जगत के ग़ज़ल प्रेमी इस नाम से बखूबी परिचित हैं. ब्लॉग पर उनकी सक्रियता अधिक नहीं रहती लेकिन वो जब भी अपनी ग़ज़लों से रूबरू होने का मौका देते हैं अपने पाठकों को चौंका देते हैं.
अँधेरे चंद लोगों का अगर मकसद नहीं होते
यहांके लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
फरेबों की कहानी है तुम्हारे मापदंडों में
वगरना हर जगह 'बौने' कभी 'अंगद' नहीं होते
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर घने बरगद नहीं होते
अगर इस देश में ही देश के दुश्मन नहीं होते
लुटेरा ले के बाहर से कभी लश्कर नहीं आता
जो खुद को बेचने की फितरतें हावी नहीं होतीं
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
अगर जुल्मों से लड़ने की कोई कोशिश रही होती
हमारे दर पे जुल्मों का कोई मंज़र नहीं आता
कटे थे कल जो यहाँ जंगलों की भाषा में
उगे हैं फिर वही तो चम्बलों की भाषा में
सवाल ज़िन्दगी के टालना नहीं अच्छा
दो टूक बात करो, फ़ैसलों की भाषा में
फ़रिश्ता है कहीं अब भी जो बात करता है
कड़कती धूप तले, पीपलों की भाषा में
हज़ार दर्द सहो, लाख सख्तियां झेलो
भरो न आह मगर, घायलों की भाषा में
द्विज जी चूँकि हिमाचल से हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में पहाड़ नदियाँ बादल झरने रूमानी अंदाज़ में नहीं बल्कि ज़िन्दगी की हकीकत बन कर कर उभरे हैं. इस संग्रह की संक्षिप्त सी भूमिका में मशहूर ग़ज़ल कार जनाब 'ज़हीर कुरैशी' जी ने क्या खूब लिखा है के " द्विज जी की ग़ज़लों में व्यक्त उनका पहाड़ हिमाचल तक सिमित नहीं है. जाती मज़हब रंग नस्लों और फिरकापरस्ती की सियासत के खिलाफ भी उनका ग़ज़लकार तन कर खड़ा है. पहाड़ की कठिन ज़िन्दगी में खून-पसीने से सींचे गए खेतों की उपज का बंटवारा ठीक-ठाक होने की चेतावनी भी उनके शेरों में है." आप खुद पढ़ें:
बंद अंधेरों के लिए ताज़ा हवा लिखते हैं हम
खिड़कियाँ हो हर तरफ ऐसी दुआ लिखते हैं हम
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ऐसी साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम
रौशनी का नाम दे कर आपने बाँटे हैं जो
उन अंधेरों को कुचलता हौसला लिखते हैं हम
अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री प्राप्त द्विज जी 'अनुप्रयुक्त विज्ञानं एवं मानविकी राजकीय पोलिटेक्निक', सुन्दर नगर , जिला मंडी में विभागाध्यक्ष के पद पर कार्य रत हैं , ग़ज़ल लेखन उनका शौक भी है और समाज में हो रही असंगतियों को देख मन के अन्दर उठते लावे को बाहर लाने का ज़रिया भी. उनकी ग़ज़लें आपसे दार्शनिक अंदाज़ में बातें नहीं करती बल्कि सीधे सपाट शब्दों में अपनी बात कहती हैं और अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं.
आपके अंदाज़, हमसे पूछिए तो मोम हैं
अपनी सुविधा के सभी सांचों में ढल जाते हैं आप
कुश्तियां, खेलों के चस्के आपके भी खूब हैं
शेर बकरी को पटकता है बहल जाते हैं आप
सिद्धियाँ मिलने पे जैसे मन्त्र साधक मस्त हों
शहर में होते हैं दंगे, फूल फल जाते हैं आप
"जन-गण-मन" गागर में सागर को चरितार्थ करती हुई छोटी सी किताब है जिसमें द्विज जी की लगभग साठ ग़ज़लें संगृहीत हैं. इसे आप श्री सतपाल ख्याल जी के ब्लॉग "आज की ग़ज़ल" या फिर स्वयं द्विज जी के ब्लॉग "द्विजेन्द्र ‘द्विज’" पर आन लाइन भी पढ़ सकते हैं. लेकिन साहब आन लाइन पढने में वो मज़ा नहीं आता जो मज़ा किताब को हाथ में उठाकर पढने में आता है. हालाँकि इस किताब को 'दुष्यंत-देवांश-प्रकाशन, अशोक लॉज, मारण्डा, हिमाचल प्रदेश द्वारा प्रकाशित किया गया है लेकिन इसे प्राप्त करने का आसान तरीका है द्विज जी को इस संग्रह के लिए उनके मोबाइल +919418465008 पर बात कर बधाई देते हुए उनसे किताब की प्राप्ति के लिए आग्रह करना।
मेरा सौभाग्य है के मैं पिछले पांच सालों से उनसे संपर्क में हूँ .ये संपर्क अभी तक आभासी है याने सिर्फ मोबाइल पर ही उनसे बात होती है लेकिन मुझे उनसे बात करके कभी लगा ही नहीं कि मैं इनसे अभी तक नहीं मिला हूँ. मैंने ग़ज़ल लेखन के क्षेत्र में उनसे बहुत कुछ सीखा है और सीख रहा हूँ. इस क्षेत्र में आदरणीय पंकज सुबीर जी और प्राण साहब के साथ साथ वो भी मेरे गुरु हैं. अपनी सोच में एक दम स्पष्ट और जीवन के प्रति सकारात्मक विचार रखने वाले इस शख्श की प्रशंशा के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं. मैं दुआ करता हूँ के वो इसी तरह अपनी शायरी से हमें हमारे जीवन में फैले अंधियारों से लड़ने की ताकत देते रहें.
रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के
दनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं
मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
सामने 'संभावनाएं' हैं
आदमी के रक्त में पलतीं
आज भी 'आदिम-प्रथाएं' हैं
ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं
बहुत-बहुत सुन्दर! द्विज जी की शायरी पाठकों से बतियाती है.
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक बढ़िया गजलें.
रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के
ReplyDeleteदनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं
मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
सामने 'संभावनाएं' हैं
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ...आभार
बेहतरीन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteआभार.
सादर.
वाह इतना सारा माल एक ही जगह ☺
ReplyDeleteये चाँद ख़ुद भी तो सूरज के दम से काइम है
ReplyDeleteये ख़ुद के बल पे कभी चांदनी नहीं देते... यूँ न रुसवा करो चाँद को , चाँदनी है तो उसी की - फिर एक कमाल व्याख्या
1. भ्रष्टाचार की जागरूकता में इतनी कवितायें लिखी जा रही हैं, पर यह अनाचार जाने का नाम नहीं लेता। :-(
ReplyDelete2. आपके ब्लॉग पर आने पर पता चलता है कि लोग वास्तव में कविता में कितना बढ़िया बढ़िया लिखते-प्रयोग करते हैं। धीरे धीरे ही सही, इस बहाने कविता की पुस्तकें घर में आ रही हैं!
bahut khoob ,
ReplyDeleteहमें नीलम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
me aa ki matra ka prayog choot gaya hai ...
हमें नीलाम करने कोई भी तस्कर नहीं आता
क्या कहूँ …………मौन कर दिया…………एक बार फिर आपका आभार इतने उम्दा शायर की शायरी से मिलवाने केलिये।
ReplyDeleteद्विज से मिलकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteमूक जब 'संवेदनाएं' हैं
ReplyDeleteसामने 'संभावनाएं' हैं
बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार|
बहुत खूब सभी शेर वज़नदार है ।
ReplyDeleteशायर-शायरी परिचय का एक और सुंदर आयाम. बहुत खूब.
ReplyDeleteद्विज जी के अशार और आपकी समीक्षा पढ़ना सुखद अनुभूति है. सादर आभार.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर |
ReplyDeleteबधाई ||
द्विज जी के व्यक्तित्व और कृतित्व से परिचय कराने के लिये आभार..
ReplyDeleteये मनोरंजन नहीं करतीं
ReplyDeleteक्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं ।
द्विजेन्द्र द्विज की गज़ल का ये शेर उनकी गजलों की बखूबी व्याख्या कर रहा है ऐसे उम्दा फनकार से मिलवाने का शुक्रिया । जब जाब आपके ब्लॉग पर आई हूँ एक सुखद अहसास हुआ है ।
आदमी को आदमी से दूर जिसने कर दिया
ReplyDeleteऐसी साजिश के लिए हर बद्दुआ लिखते हैं हम
बहुत खूब!
बहुत बहुत सुन्दर!
आभार!
मैं भ्रष्टाचारी हूं क्योंकि शिष्टाचार निभाने के लिए मुझे घूस देनी पडी :) द्विज जी की इस पुस्तक पर मैंने भी समीक्षा लिखी, किसी भ्रष्ट उद्देश्य से नहीं :)
ReplyDeleteशब्द तो दमदार चोट करते हैं, काश कोई इन्हें अपना भी ले..
ReplyDeleteद्विजेन्द्र भाई तो खदान हैं आज के समय की उम्दा ग़ज़लों के, लेकिन आपका प्रस्तुत करना सोने पर सुहागा।
ReplyDeleteद्विजेन्द्र जी की इस ग़ज़ल की किताब में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं, जैसा कि आपकी समीक्षा से पता चलता है।
ReplyDeleteMsg received from mail:-
ReplyDeleteNeeraj ji
namaskar
dwej ji ki gazalen achchi lagin
tanaks
yours
sajeevan
mo 09425043627>
itne achchhe shayar ki shayari se parichaya karaya bahut bahut babhar man prasan huaa kya gazlen hai bhavon se bhari
ReplyDeletebadhai
rachana
द्विज जी के काव्य संग्रह की जानकारी के लिए धन्यवाद..
ReplyDeletewah....kya baat hai.
ReplyDeleteये मनोरंजन नहीं करतीं
ReplyDeleteक्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं
इन्हें और पढ़ने की चाह जग गई...
भ्रस्टाचार कभी समाप्त नही हो सकता, क्योकि जो
ReplyDeleteलोग हल्ला कर रहे है वही भ्रष्टाचार में शामिल है,.
वाह!!!!!!क्या बात है बहुत अच्छी प्रस्तुति,
MY NEW POST ...कामयाबी...
द्विज जी,अपनी स्पष्ट सोच के लिए बधाई के पात्र हैं
ReplyDeleteरूबरू करने के लिए .....
आपका आभार!
आदरणीय नीरज भाई साहब
ReplyDeleteआपने मेरी शायरी का ज़िक्र करके उसे सचमुच मधुर बनाने का प्रयास किया है.
और क्या कहूँ ? बस आपके स्नेह के प्रति नतमस्तक हूँ.
यहाँ आकर टिप्पणी देने वाले मित्रों का भी हार्दिक आभार.
आदरणीय भाई चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद जी भी इस संकलन की समीक्षा कर चुके हैं .
sabhi ghazlen behtareen. bahut umda shayari...
ReplyDeleteरास्तों पर 'ठीक शब्दों' के
दनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं
मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
सामने 'संभावनाएं' हैं
आदमी के रक्त में पलतीं
आज भी 'आदिम-प्रथाएं' हैं
ये मनोरंजन नहीं करतीं
क्यूंकि ये ग़ज़लें 'व्यथाएं' हैं
saargarbhit aur sashakt rachnaaon ke liye Dvijendra ji ko badhai.
आदरणीय नीरज भाई साहब
ReplyDeleteआपने मेरी शायरी का ज़िक्र करके उसे सचमुच मधुर बनाने का प्रयास किया है.
और क्या कहूँ ? बस आपके स्नेह के प्रति नतमस्तक हूँ.
यहाँ आकर टिप्पणी देने वाले मित्रों का भी हार्दिक आभार.
आदरणीय भाई चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद जी भी इस संकलन की समीक्षा कर चुके हैं .
सबसे पहले देरी से आने की क्षमा .. फिर हठीला पुरूस्कार की बधाई ... ये तो होना ही था ...
ReplyDeleteऔर अब शुक्रिया द्विज जी की पुस्तक से परिचय करवाने का ... सक्के चाहेते गज़लकार की ये किताब लानी ही पढेगी ... देखिये कब नसीब होता है ...
रास्तों पर 'ठीक शब्दों' के
ReplyDeleteदनदनाती ' वर्जनाएं ' हैं
मूक जब 'संवेदनाएं' हैं
सामने 'संभावनाएं' हैं...........
sargarbhit panctiyan......
लाज़वाब करती बेहतरीन प्रस्तुति तारीफ के अनुरूप काबिले दाद भी दीद भी .
ReplyDeleteद्विजेन्द्र ‘द्विज’ जी को हमेशा ही पढ़ते आये हैं..आनन्द लेते आये हैं..आज उनकी पुस्तक के बारे में जानकर अच्छा लगा...शायद हासिल कर पायें तो अवश्य इच्छा रहेगी ....कि पढ़ पायें और मेरी खास लायब्रेरी का हिस्सा बने.
ReplyDeleteRespected Neeraj Ji,
ReplyDeleteWaah waah...bahut khoob
"चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा
सफ़र में हर जगह सुन्दर घने बरगद नहीं होते"
maza aa gaya...
Hardik aabhaar.
Satish Shukla 'Raqeeb'
सभी रचनाएं एक से बढकर एकहैं। आभार।
ReplyDelete------
..की-बोर्ड वाली औरतें।
hamesh ki tarah
ReplyDeleteLAJAWAAB
very very good
ReplyDeletebehtreen
ReplyDeletenice
ReplyDelete