महरूम करके सांवली मिट्टी के लम्स से
खुश-रंग पत्थरों में उगाया गया मुझे
महरूम: वंचित, लम्स: स्पर्श
किस किस के घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे
मैं भी तो इक सवाल था, हल ढूंढते मेरा
ये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे
ऐसे अशआर पढ़ कर अचानक मुंह से कोई बोल नहीं फूटते, हैरत से आँखें फटी रह जाती हैं और दिल एक लम्हे के लिए धड़कना बंद कर देता है. हकीकत तो ये है कि ऐसे कुंदन से अशआर यूँ ही कागज़ पर नहीं उतरते इस के लिए शायर को उम्र भर सोने की तरह तपना पड़ता है. इस तपे हुए सोने जैसे शायर का नाम है "निश्तर खानकाही" जिनकी किताब "मेरे लहू की आग" का जिक्र आज हम यहाँ करने जा रहे हैं. "निश्तर खानकाही" के नाम से शायद हिंदी के पाठक बहुत अधिक परिचित न हों क्यूँ की निश्तर साहब उन शायरों की श्रेणी में आते हैं जो अपना ढोल पीटे बिना शायरी किया करते थे.
सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है
जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है
'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है
'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
ज़र्बें :चोटें
घायल मन की पीड़ समझ कर उसे अपने अशआरों में ढालने वाले इस शायर ने अपने जन्म के बारे में एक जगह लिखा है: " 'कोई रिकार्ड नहीं है, लेकिन मौखिक रूप में जो कुछ मुझे बताया गया है, उसके अनुसार 1930 के निकलते जाड़ों में किसी दिन मेरा जन्म हुआ था, जहानाबाद नाम के गाँव में, जहाँ मेरे वालिद सैयद मौहम्मद हुसैन की छोटी-सी जमींदारी थी". पाठकों की सूचना के लिए बता दूं के जहानाबाद उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर जनपद का एक गाँव है. बिजनोर में जीवन के अधिकांश वर्ष गुज़ारने के बाद 7 मार्च 2006 को खानकाही साहब ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
बस सफ़र, पैहम सफ़र, दायम, मुसलसल, बे क़याम
चलते रहिये, चलते रहिये, फासला मत पूछिए
पैहम: निरंतर, दायम: हमेशा, मुसलसल: लगातार, बे-क़याम: बिना रुके
ज़िन्दगी का रूप यकसां, तजरुबे सबके अलग
इस समर का भूल कर भी जायका मत पूछिए
यकसां: एक जैसा, समर: फल
क्या खबर है कौन किस अंदाज़, किस आलम में हो
दोस्तों से उनके मस्कन का पता मत पूछिए
मस्कन: घर
कौन अब रक्खेगा मुझको अपनी तस्बीहों में याद
कौन अब रातों को जीने की दुआ देगा मुझे
तस्बीहों: माला
भीग जाएगी पसीने से जो पेशानी मेरी
कौन अपने नर्म आँचल की हवा देगा मुझे
कौन अब पूछेगा मुझसे मेरी माज़ूरी का हाल
कौन बीमारी में जिद करके दवा देगा मुझे
माज़ूरी: लाचारी
मेरे लहू की आग ही झुलसा गयी मुझे
देखा जो आईना तो हंसी आ गयी मुझे
मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे
तेरी नज़र भी दे न सकी ज़िन्दगी का फ़न
मरने का खेल सहल था, सिखला गयी मुझे
सहल: आसान
निश्तर साहब ने लगभग दस वर्ष की उम्र से ही लेखन आरम्भ कर दिया था. इतनी छोटी उम्र में लेखन शुरू करने के हिसाब से हमारे पास उनके द्वारा रचे साहित्य का बहुत बड़ा ज़खीरा होना चाहिए था, लेकिन नहीं है. इसके पीछे दो कारण हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं की कोई प्रति अपने पास नहीं रखी। आकाशवाणी से प्रकाशित होने वाली अथवा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली रचनाओं- रूपकों, कहानियों, लेखों, नज़्मों अथवा ग़ज़लों की प्राय: कोई प्रति उनके पास नहीं रही। दूसरा कारण तो और भी कष्टप्रद है। उन्हीं के शब्दों में- 'उस्तादों की तलाश से निराश होकर जब मैंने अभ्यास और पुस्तकों को अपना गुरु माना तो हर साल रचनाओं का एक बड़ा संग्रह तैयार हो जाता, किंतु मैं हर साल स्वयं उसे आग लगा देता। यह सिलसिला लगभग बीस वर्ष तक चलता रहा। हर पांडुलिपि पाँच सौ से सात सौ पृष्ठों तक की होती थी।' .ग़ज़लकार निश्तर जी के इस कथन से ही कल्पना की जा सकती है कि यदि उनके द्वारा रचित साहित्य का व्यवस्थित रूप से प्रकाशन होता तो साहित्य-जगत् को आज उनका विपुल साहित्य पढ़ने को उपलब्ध होता।
दस्तकों पे दोस्तों के भी खुलते नहीं हैं दर
हर वक्त इक अजीब सी दहशत घरों में है
क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है
अच्छे दिनों की आस में दीवारो-दर हैं चुप
सड़कों पे कहकहें हैं, हकीक़त घरों में है
निश्तर साहब के लिए किसी भी विधा में लिखना सामान्य-सी बात थी , किंतु उनके व्यक्तित्व का एक प्रभावशाली पक्ष ये था कि उनकी दृष्टि सदैव आदमी और उसके भीतर के आदमी, समाज और उसके भीतर के समाज पर टिकी रहती थी , जो यथार्थ को कला के सुंदर रूप में प्रस्तुत करती है. निश्तर ख़ानक़ाही के नाम की साहित्यिक रूप में व्याख्या कर डा. मीना अग्रवाल लिखती हैं- 'नश्तर या निश्तर का अर्थ है चीर-फाड़ करने का यंत्र। साहित्य में चीर-फाड़ शब्दों के स्तर पर भी होती है। निश्तर साहब की शायरी भी एक ऐसा ही नश्तर है कि पाठक के दिल में स्वयं बिंध जाता है। उनकी शायरी हृदय को छूने वाली है।'
अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ
बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता
मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ
खुदा हाफिज़ कहने से पहले चलिए पढ़ते हैं निश्तर साहब की एक अलग ही रंग में कही ग़ज़ल के चंद शेर जिसे अंदाज़ा हो जाता है के वो किस पाए के शायर थे और अपनी बात किस ख़ूबसूरती से कहने में माहिर थे :
रात एक पिक्चर में, शाम एक होटल में, बस यही बसीले थे
मेज़ की किनारे पर, चाय की पियाली में, उसके होंट रक्खे थे
मैंने तुमको रक्खा था, बक्स में सदाओं के, तह-ब-तह हिफाज़त से
रात मेरे घर में तुम इक महीन फीते पर गीत बनके उभरे थे
दस्तखत नहीं बाकी, बस हरूफ टाइप के, कागजों में जिंदा हैं
याद भी नहीं आता, प्यार के ये ख़त जाने, किसने किसको लिक्खे थे
ek behtareen shayar se parichay karaane kaa bahut bahut shukriya
ReplyDeleteक्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है
अच्छे दिनों की आस में दीवारो-दर हैं चुप
सड़कों पे कहकहें हैं, हकीक़त घरों में है
bahut hee umdaa kalaam !!
ap is tarah jo adab ki khidmat kar rahe hain ye bhi ibadat hai
"मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
ReplyDeleteउठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे"
निश्तर साहब का जवाब नहीं | वाह ! नीरज जी , मैं आपके ब्लॉग में काफी दिनों से डेरा डाले हुए हूँ.|
लाजबाब शेरों का खजाना है , जो आपने अजीम शायरों से चुनकर यहाँ रखा हुआ है |
क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
ReplyDeleteक्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है
इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आभार ।
hamesha ki tarah laajavaab shayar ko le aaye hain ..aap .
ReplyDeleteधीरे धीरे आकर्षण बढ़ रहा है।
ReplyDeleteउफ्फ ... गज़ब की शायरी है निश्तर साहब की ... एक एक शेर कई कई बार पढ़ा है और अगर आप कहें की कोई एक शेर कोट करू तो मेरे बस में नहीं होगा आज ... बेहतरीन शायर के कलाम से मिलवाया है आज आपने नीरज जी ... जादुई करिश्मा हैं उकने शेर सभी ..
ReplyDeleteAapkee 'Kitabon kee duniya' ek alag duniya me le jaatee hai!
ReplyDeleteसारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
ReplyDeleteपानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है
जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है
'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है
'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
गज़ब गज़ब गज़ब्……………जितनी तारीफ़ की जाये कम है …………नीरज जी हम आपके शुक्रगुजार हैं कि आप इतने नये नये शायरो और उनके कलामो से हमे अनुगृहित करते हैं।
Msg received on mail from Sh.Digambar Naswa:
ReplyDeleteउफ्फ ... गज़ब की शायरी है निश्तर साहब की ... एक एक शेर कई कई बार पढ़ा है और अगर आप कहें की कोई एक शेर कोट करू तो मेरे बस में नहीं होगा आज ... बेहतरीन शायर के कलाम से मिलवाया है आज आपने नीरज जी ... जादुई करिश्मा हैं उकने शेर सभी ..
Comment received on mail from Vandna Ji:-
ReplyDeleteसारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
पानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है
जलते दिए की लौ ही जाने उसकी आँखें जानें क्या?
कैसी कैसी झेल के बिपता , काजल बनना पड़ता है
'मीर' कोई था 'मीरा' कोई, लेकिन उनकी बात अलग
इश्क न करना, इश्क में प्यारे पागल बनना पड़ता है
'निश्तर' साहब! हमसे पूछो, हमने जर्बें झेली हैं
घायल मन की पीड़ समझने घायल बनना पड़ता है
गज़ब गज़ब गज़ब्……………जितनी तारीफ़ की जाये कम है …………नीरज जी हम आपके शुक्रगुजार हैं कि आप इतने नये नये शायरो और उनके कलामो से हमे अनुगृहित करते हैं।
EK AUR UMDAA SHAYAR KEE GAZLON SE
ReplyDeletePARICHAY KARWAA KAR AAPNE LAJAWAAB
KIYAA HAI . AAPKEE PRASTUTI
SRAHNIY HEE , ULLEKHNIY BHEE HAI .
मैं भी तो इक सवाल था, हल ढूंढते मेरा
ReplyDeleteये क्या कि चुटकियों में उड़ाया गया मुझे
भीग जाएगी पसीने से जो पेशानी मेरी
कौन अपने नर्म आँचल की हवा देगा मुझे
मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे
क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
क्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है
क्या कहूँ........दिल को छू लेने वाली शायरी है नश्तर साहब कि एक एक शेर जैसे मोती है.....और लफ्ज़ नहीं बचे हैं आपका बहुत शुक्रिया.......और उनकी कही ये बात दिल को बहुत गहरे तक छू गयी -
अपने जीवन में मेरे लिए सबसे बड़ा अभिशाप मेरा संवेदनशील होना रहा है। संवेदनशील न होता, केवल भावुक होता तो हालात अथवा अपने-परायों के व्यवहार की प्रतिक्रिया में चीख़ सकता था, शोर मचा सकता था, विद्रोह कर सकता था। किंतु मैं ऐसा नहीं कर सका, क्योंकि संवेदनशील आदमी की प्रवृत्ति ही चुपचाप महसूस करना और देर तक घुलते रहना होती है। वह भडक़ता नहीं धीरे-धीरे सुलगता है और अंतत: स्वयं अपनी ही आग में जल-बुझकर राख हो जाता है।"
अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ReplyDeleteऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ
बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता
मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ
वाह ..लाजबाब
हर लफ़्ज उम्दा !
ReplyDeleteएक शायर ही नहीं विचारक के रूप में भी मैं उन्हें देख रहा हूं... अफ़सोस मुझे उन नज्मो के लिए है जो आग के सुपुर्द हो गईं... अफसोसजनक है यह ...
ReplyDeleteनिश्तर साहब का एक एक शेर गहरे डूब कर निकाले हुए मोती के सामान हैं.... वाह शब्द की इतनी बार आवृति हुई कि बताना मुमकिन नहीं...
ReplyDeleteबेहद आभार आदरणीय नीरज सर बेशकीमती शायर से मुलाक़ात करवाने के लिए....
सादर...
निश्तर खानकाही साहब का नाम तो सभी शायरों को अच्छी तरह मालूम है और शायरी में उनका स्थान भी। बड़े अदब से उनका नाम लिया जाता है और एंसा क्यूँ है का जवाब हैं ये अशआर जो आपने प्रस्तुत किये हैं।
ReplyDeleteआभार इन नगीनों के लिये।
इनसे बिल्कुल ही परिचय नहीं था। जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteजानकारी भरी पोस्ट।
सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteकई कई बार पढ़ी यह पोस्ट और अब आपके द्वारा दिए गए ब्लॉग के पते पर चलते हैं!
आभार!
निश्तर खानकाही साहेब को पढ़कर आनन्द आ गया...आपका साधुवाद एक से बढ़कर एक बेहतरीन शायरों से परिचय कराने का.
ReplyDeletebahut bahut shukriya is azeem shayar se humein milwane ke liye. Ghazal suni behtareen par kiski aawaaz hai ye nahin bitaya aapne?
ReplyDeleteआपकी किताबों की दुनियां नीरज भाई अद्भुत और बहुत सुखद है |आप ऐसे ही यह महफिल सजाते रहिये वक्त के साथ गुनगुनाते रहिये |आभार
ReplyDeleteबढिया खजाना,
ReplyDeleteशुक्रिया एक और शायर से परिचय के लिए।
ReplyDeleteखानक़ाही जी से परिचय का आभार। आवाज़ की खनक तो पीनाज़ मसानी की लगती है मगर अन्दाज़ फ़र्क है इसलिये ठीक से नहीं कह सकता। आप ही बत दीजिये।
ReplyDeleteSmart Indian - स्मार्ट इंडियन has left a new comment on your post "किताबों की दुनिया - 63":
ReplyDeleteखानक़ाही जी से परिचय का आभार। आवाज़ की खनक तो पीनाज़ मसानी की लगती है मगर अन्दाज़ फ़र्क है इसलिये ठीक से नहीं कह सकता। आप ही बत दीजिये।
सच में रचना की हर पंक्ति मन को जैसे छू गई है !
ReplyDeleteएक संवेदनशील व्यक्तित्व से परिचय कराने का
आभार ! आवाज पहचान नहीं पाई ....पर बहुत सुंदर लगी !
अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ReplyDeleteऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ
बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
बहुत ही सुन्दर शायरियां और एक उम्दा लेखक से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद...
शुक्रिया .....ये तार्रुफ़ जारी रहेगे
ReplyDeleteकिस किस को पढाएँगे भाई! खुशी होती है और दुःख भी कि जब आज के युग में हर शख्स खुद की पब्लिसिटी करता फिर रहा है, यह नीरज गोस्वामी साहब किस मिट्टी के बने हैं जो हमेशा दूसरों का ही परचम बुलंद करते नज़र आते हैं.
ReplyDeleteभाई, आपकी अजमतों को सलाम!
आदरणीय नीरज साहब,
ReplyDeleteजनाब निश्तर खानकाही साहब से परिचय कराने
और उनके चुनिन्दा अशआर पढवाने का बहुत बहुत शुक्रिया..
आपसे गुज़ारिश करूंगा के इस शे'र पर ख़ास तवज्जो दीजियेगा और अमल की कोशिश भी कीजियेगा कि यह श्रंखला भी इसी तरह अनवरत रूप से चलती रहे....
बस सफ़र,पैहम सफ़र,दायम,मुसलसल, बे क़याम
चलते रहिये,चलते रहिये,फासला मत पूछिए
यकीनन माँ के अलावा कोइ नहीं....
कौन अब रक्खेगा मुझको अपनी तस्बीहों में याद
कौन अब रातों को जीने की दुआ देगा मुझे
बहुत खूबसूरत शे'र...
बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
अगली पोस्ट के लिए शुभकामनाएं.
सादर,
सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
मैं सोच रही थी कि इसी बहाने आप कित्ती अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ लेते हैं..
ReplyDeleteसर्वत एम० has left a new comment on your post "किताबों की दुनिया - 63":
ReplyDeleteकिस किस को पढाएँगे भाई! खुशी होती है और दुःख भी कि जब आज के युग में हर शख्स खुद की पब्लिसिटी करता फिर रहा है, यह नीरज गोस्वामी साहब किस मिट्टी के बने हैं जो हमेशा दूसरों का ही परचम बुलंद करते नज़र आते हैं.
भाई, आपकी अजमतों को सलाम!
एक बार फिर शुक्रिया बेहतरीन शायर और उनकी शायरी से रुबरु कराने के लिए..... ये सिलसिला चलता रहे...
ReplyDeleteआकर्षण
क्या फिर कहीं पे कोई बड़ा हादिसा हुआ
ReplyDeleteक्यूँ आज इतनी भीड़ इबादत घरों में है.........
......सुन्दर प्रस्तुति!
प्रभावशाली प्रस्तुति
ReplyDeleteआपके माध्यम से निश्तर जी से परिचय हुआ. आपका कराया हुआ तआर्रुफ़ दिल में बस गया. बहुत खूब नीरज जी.
ReplyDeleteनीरज जी ,
ReplyDeleteकई बार पढ़ा ..बहुत ही उम्दा शायर से आपने परिचय कराया.....बहुत शुक्रिया और बहुत बधाई आपको साहित्य को विस्तृत करने के लिए
मुदिता has left a new comment on your post "किताबों की दुनिया - 63":
ReplyDeleteनीरज जी ,
कई बार पढ़ा ..बहुत ही उम्दा शायर से आपने परिचय कराया.....बहुत शुक्रिया और बहुत बधाई आपको साहित्य को विस्तृत करने के लिए
मुदिता
एक बार फिर इतनी प्यारी हस्ती से रूबरू कराने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया .....
ReplyDeleteआह:
किस किस के घर का नूर थी मेरे लहू की आग
जब बुझ गया तो फिर से जलाया गया मुझे
खुश रहिये!
सारे जग की प्यास बुझाना, इतना आसाँ काम है क्या?
ReplyDeleteपानी को भी भाप में ढलकर बादल बनना पड़ता है
........बहुत ही उम्दा !!!
ज़िन्दगी का रूप यकसां, तजरुबे सबके अलग
ReplyDeleteइस समर का भूल कर भी जायका मत पूछिए
....एक बेहतरीन शायर से परिचय करवाने के लिये आभार..उत्कृष्ट प्रस्तुति...
नीरज भाई
ReplyDeleteनिश्तर साहब की बहुत उम्दा और मेआरी
शाइरी से रु ब रु करवाने के लिए
शुक्रिया कुबूल कीजिये
अशार का तिलिस्म
भुलाए न भूलेगा ... वाह !
निश्तर खानकाही जी की क़लम का जवाब नहीं.
ReplyDeleteउनकी किताब के बारे में जानकर अच्छा लगा.
MAi appki zindgi bahr abhari rahoongi...bahut hi accha likha hai apne..bahut bahut shukriya Neeraj Sahab.Shagoofa Amber
ReplyDeleteआपकी "किताबों की दुनिया" का मैं हरदम इंतजार में रहता हूँ
ReplyDeleteआपका ये kolm तो बहुत ही शानदार हैं
अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ
बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
मैय्यत को अब उठाके ठिकाने लगाइए
मौके के सब गवाह हुए क़ातिलों के साथ
आपका मेरे ब्लॉग पर हार्दिक अभिन्दन हैं नीरज जी
please join my blog
http://rohitasghorela.blogspot.com
BAHUT-BAHUT SUNDAR PRASTUTI...
ReplyDeleteACHCHHE SHAYAR KI ACHCHHI SHAYRI PADHNE KO MILI....AABHAR
मेरे लहू की आग ही झुलसा गयी मुझे
ReplyDeleteदेखा जो आईना तो हंसी आ गयी मुझे
मैं जैसे एक सबक था कभी का पढ़ा हुआ
उठ्ठी जो वो निगाह तो दोहरा गयी मुझे
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नाम सुना था मगर परिचय नहीं था...
बहुत ही बढ़िया और बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteGyan Darpan
Matrimonial Site
Neeraj Sahab..ek deepak ko apne phir se jala diya..bahut aabhar aapka..sabhi ko dhanyawad bhi blog ko pasnd krne ke lye..ap sabhi log or kalam padhne ke lye http://nishtar-khanqahi.blogspot.com/ par padh sakte hai...meri koshish hai Papa ke or kalam apke samne laau..jo urdu mai parkashit hui..Shagoofa Amber
ReplyDeleteComment received from Sh.Om Prakash Sapra Ji, Delhi:-
ReplyDeleteesp neeraj ji
namatey
shri nishtar ji ke bare mein aap ka article achha laga, dhanyawad., especially these line are beautiful :-
अब फर्श हैं हमारे छतें दूसरों की हैं
ऐसा अज़ाब पहले कहाँ था घरों के साथ
बिस्तर है पास पास मगर कुर्बतें नहीं
हम घर में रह रहे हैं अजब फासलों के साथ
कुर्बतें: निकटता
Om Prakash