मुंबई में बम ब्लास्ट अब कोई अनहोनी घटना नहीं है. इस शहर को न जाने कितने बम ब्लास्टों के हादसों से गुज़ारना पड़ा है. अभी हाल ही में तेरह जुलाई की शाम को भी बम ब्लास्ट हुआ जिसमें कई मासूम जानें गयीं. मुंबई इन सब वारदातों से बहुत आहत है लेकिन टूटी नहीं है. ये ही मुंबई की खासियत है. जिंदादिली कोई इस शहर से सीखे।
मुंबई ने मुझे खुद अपनी ज़बान में, जो उसी की तरह मस्त और बिंदास है, ये ग़ज़ल भेजी है जिसमें उसने आतंकवादियों को डराया धमकाया भी है और समझाया भी है. काश इसे कोई आतंकवादी पढ़े, समझे और गुणे.
मुझे क्या सोच कर तू यूं डराता है, बता ढक्कन,
डरूंगी मैं धमाकों से हुआ पागल है क्या ढक्कन
ऐ हलकट सुन, अगर है नाज़ ताक़त पर तुझे तो फिर,
हमेशा वार छुप छुप के ही क्यूँ तूने किया ढक्कन ?
बहुत लफड़े किये हैं अब लगेगी वाट वो तेरी
करेगा ज़िन्दगी भर फिर नहीं कोई खता ढक्कन
जला करता है क्यों तू आग में हरदम अदावत की
कभी तो प्यार के दरिया में भी डुबकी लगा ढक्कन
बड़ी ही रापचिक सी ज़िन्दगी रब ने अता की है
इसे बर्बाद करने पर भला तू क्यूँ तुला ढक्कन ?
किसी के काम आने के लिए ही जिंदगानी है
किसी की जान ले लो ये कहाँ तूने पढ़ा ढक्कन ?
लगा कलटी बदी की तू अँधेरी सर्द राहों से
नहीं कुछ हाथ आएगा अगर इन पर चला ढक्कन
(इस ग़ज़ल को लिखवाने के पीछे गुरुदेव पंकज सुबीर जी का बहुत बड़ा हाथ है)
Aam bol-chal ki mumbaiya bhasha ka kaise khubsoorat aur sanketik prayog kiya hai aapne ghazal me.Lajwaab...
ReplyDeleteटपोरिया भाषा में एक स्वच्छ सन्देश देती बेहतरीन पोस्ट|
ReplyDeleteकिसी के काम आने के लिए ही जिंदगानी है
ReplyDeleteकिसी की जान ले लो ये कहाँ तूने पढ़ा ढक्कन ?
इस गज़ल के लिये हर पंक्ति अपने आप में बेमिसाल ...अद्भुत शब्द संयोजन ..बधाई स्वीकार करें ..शुभकामनाएं ।
वाह क्या ज़ोरदार गज़ल है. एकदम रापचिक.
ReplyDeleteढक्कन shbad se pataa nahin kyun is mae gazal jaese baat nahin lagii
ReplyDeletepar subeer ji ko sahii lagaa haen to sahii naa honae kaa koi andesha hi nahin haen
क्या गज़ब ग़ज़ल है. वाह! वाह!
ReplyDeleteबोले तो झकास.
मुंबई की बात , मुंबई के ही अंदाज़ में लिखना.. वाह ये हुनर कोई आप से ही सीखे ..
ReplyDeleteवैसे , मेरी भावभीनी श्रदांजलि उन सभी को जिनकी जाने इस हादसे में गयी ..
मुंबई की जिंदादिली को सलाम..
आपको इस अच्छी सी प्यारी सी गज़ल के लिये सलाम.
विजय
इस साहसिक सोच को सलाम करता हूं।
ReplyDelete------
ब्लॉगसमीक्षा की 27वीं कड़ी!
क्या भारतीयों तक पहुँचेगी यह नई चेतना ?
शानदार ………यही है मुंबई की ज़िंदादिली
ReplyDeleteबड़ी ही रापचिक सी ज़िन्दगी रब ने अता की है
ReplyDeleteइसे बर्बाद करने पर भला तू क्यूँ तुला ढक्कन ?
बेहतरीन ....
बहुत ही झकास गजल लिखी है आपने ......
ReplyDeleteवाह ..
ReplyDeleteलाजवाब क़ाफिया...
ReplyDeleteशानदार ग़ज़ल.....
वोव ! एक दम मस्त ग़ज़ल है .
ReplyDeleteइसे तो किसी आतंकवादी को पढना ही चाहिए .
बोले तो भाई लोग भी पढ़ सकते हैं क्या ?
मुंबई ने अपने ही अंदाज़ में अपनी बात कही है ... बहुत अच्छी गज़ल
ReplyDeletekhoobsurat gazal... mumbai kee dhadhkan hai ye dhakkan !
ReplyDeleteग़ज़ल का ये स्टाइल बोले तो सचमुच रापचिक है भिडू
ReplyDeleteमैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी ने आज तक इस भाषा में ग़ज़ल कहने की बात भी शायद ही सोची हो।
ReplyDeleteबधाईयॉं मुकम्मल ग़ज़ल के लिये।
जला करता है क्यों तू आग में हरदम अदावत की
ReplyDeleteकभी तो प्यार के दरिया में भी डुबकी लगा ढक्कन...
.. बहुत अच्छी गज़ल...
ढक्कन की मीनिंग
Deleteजला करता है क्यों तू आग में हरदम अदावत की
ReplyDeleteकभी तो प्यार के दरिया में भी डुबकी लगा ढक्कन
स्थानीय भाषा के शब्दों ने आपके इस नए प्रयोग को असीमित ऊंचाई दी है। शे’रों के अर्थ इसकी गुणवता में चार चांद लगा रहे हैं।
आप के जज्बे, कविता के भाव एवं मुंबई के लोगों के धैर्य को नमन ..
ReplyDeleteमगर दुःख होता है नपुंसक सरकार पर जो इस जज्बे की बार बार परीक्षा ले रही है.
एक प्रश्न ये भी है की क्या ये जज्बा अब मुंबई की मज़बूरी बनता जा रहा है ????
ऐSSSSSSSSS, नीरज भाई की बात सुन,
ReplyDeleteबोले तोSSSSS, समझ में आया ढक्कन।
गजल के मीटर और पैमाने हमें नही समझ आते पर एक एक शब्द सब कुछ इतनी खूबसूरती से बयान कर रहा है कि सुंदरतम के अलावा कुछ कह ही नही सकते, बहुत लाजवाब गजल, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
वाह,बेहतरीन प्रस्तुति,.धन्यवाद.
ReplyDeleteबोत मस्त गज़ल लिखेला है बाप!! अपुन का दिमाग बोले तो एकदम फुलटू हिल गेला है!! वो साला छुपकर पीठ-पीछे हमला करता है... और खुद को भाई बोलता है..अरे हमारा जैसा टपोरी भी वो लोग का माफिक हलकट गिरी नहीं कर सकता है!! बीडू आज तुमारा इस गज़ल पर अपुन भी तुमको एक सैल्यूट मारता है.. जय हिंद!!
ReplyDeleteनीरज जी, ग़ज़ल बहुत अच्छी है
ReplyDeleteऔर आप अपनी जगह सही हैं....
लेकिन...
नसीहत! सादगी देखो, कि दहशतगर्द लोगों को?
शराफ़त की ज़बां से उन पे कब लग पाएगा ढक्कन?
:) :) :)
भाईजी नीरज जी
ReplyDeleteचरण स्पर्श !
वाह वाह वाह ! छा गए जी …
पहले तो इस शे'र के लिए दिली दाद
जला करता है क्यों तू आग में हरदम अदावत की
कभी तो प्यार के दरिया में भी डुबकी लगा ढक्कन
… और फिर इस शे'र के लिए भी ख़ास मुबारकबाद !
किसी के काम आने के लिए ही जिंदगानी है
किसी की जान ले लो ये कहाँ तूने पढ़ा ढक्कन ?
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इस संबोधन ग़ज़ल में संबोधन 'ढक्कन' की जगह कुछ और भी किया जा सकता था … मसलन 'घोंचू' 'पिद्दी' 'कायर' 'ज़ालिम' या फिर 'कुत्ते' या 'सूअर'
…लेकिन ढक्कन ढक्कन ही है … :))
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चलते चलते
एक शे'र अपुन का भी पेलदूं क्या गुरू ?
बस्स्सऽऽ एकठू …
अपुन के सामने बिल्कुल 'ज तेरी टें ही बोलेगी
जहन्नुम जा ! तेरे अब्बा से पहले पूछ आ ढक्कन
आदाब अर्ज़ है ! शुक्रिया शुक्रिया !!
मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओ के साथ
-राजेन्द्र स्वर्णकार
पांचवां-छठा कमेंट होता मेरा … पर हाय रे बिजली ! चार घंटे से अब आई …
ReplyDeleteसमसामयिक घटना पर अपनी बात कहने का एक यह भी अंदाज है।
ReplyDeleteबहुत सही..उनकी ही भाषा में समझा दिया...
ReplyDeleteशुक्र है ये मेरे मक्खन-ढक्कन वाला ढक्कन नहीं है...
ReplyDeleteनीरज जी, धमाकों की तारीख सही कर लीजिए- तेरह जुलाई...
जय हिंद...
वाह जी वाह कमाल का ढक्कन है आपका ये अंदाज़ ये भी मन को बहुत भाये,आतंकवाद पर जिस तरह आपने अपनी पेशकश रखी वो किसी ढक्कन मैं कैद नहीं हो सकती एक बार फिर से वाह !!!!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल जिसमें शब्दों का सुन्दर चयन रहा! सुन्दर सन्देश देती हुई लाजवाब पोस्ट!
ReplyDeleteमुम्बइया भाषा की अदभुत मिसाल है ये ग़ज़ल। साथ ही यह एक सजग और संवेदनशील नागरिक की चिंता को भी सार्थक तरीके से सामने लाती है।
ReplyDeleteMsg received from Yogendra Mudgil Ji:-
ReplyDeletewahwa.....behtreen andaaz hai bhai ji.....
नीरज भाई ! बहुत खूब!
ReplyDeleteमुम्बइया जबान में क्या कमाल किया है भिड़ू..मजा आ गया
मजा इस बात का भी कि इसमें कमाल के शिल्प के अलावे अशयार की लयबंदी ग़ज़ब की है...
यूं तो आपकी कलम मुकम्मल और वजनदार है..बधाइयां! बधाइयां!! बधाइयां!!
सारी गजल कांटें की है...
बड़ी ही रापचिक सी ज़िन्दगी रब ने अता की है
ReplyDeleteइसे बर्बाद करने पर भला तू क्यूँ तुला ढक्कन ?
इतनी बड़ी बात को इतने लाजवाब ढ़ंग से कह जाने का रुतबा तो हमारे प्रिय नीरज जी को ही हासिल है। बहुत ही बेहतरीन रचना नीरज जी। और प्यारी मिष्टी की तस्वीरें हमेशा की तरह सुखद होती हैं। क़ाबुलीवाला की मिनी की याद आ जाती है। उसके प्यारे से चेहरे का, आपकी हर रचना के पर्दे से झांकना ही अपने आप में एक बहुत ख़ूबसूरत रचना लगता है।
मुंबई की भावनाएं, मुंबई की ज़बानी, मुंबई की भाषा में, भई वाह.........
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 11 - 08 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDeleteनयी पुरानी हल चल में आज- समंदर इतना खारा क्यों है -
Msg received on e-mail:-
ReplyDeleteनीरज अंकल, सादर नमस्कार।
इस मुंबई हमले को लेकर आज दिल से दूसरी बार दुखी हुआ हूं कि नीरज अंकल जैसे नेकदिल इंसान के शहर मुंबई में ऐसी कायराना हरकत अमन के दुश्मनों ने की है।
ऐसे लोगों को धिक्कारती बहुत अच्छी ग़ज़ल है। ईश्वर मुंबईवासियों का हौसला और बुलंद करे। ताकि ऐसे कायरों को मुंह चिढ़ाकर फिर उठ खड़े हों। साथ ही मृतकों के परिजनों के प्रति अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
का पाढ़ पढ़ा कहां तूने ढक्कन....
Rgds
Vishal Mishra
Sr. Sub editor
Webdunia.com
खूब टाईट किया है ढक्कन को, आंटे [threads] ही मार डाले. अच्छा हुआ निकम्मा कर दिया बुजदिल को.
ReplyDeleteबम्बईया लहजे में तपोडियो से निपटने का मज़ा कुछ और ही है.
mansoor ali hashmi
बहुत सुन्दर सारगर्भित रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति , आभार
ReplyDeleteरक्षाबंधन एवं स्वाधीनता दिवस के पावन पर्वों की हार्दिक मंगल कामनाएं.
हमारी शांति, हमारा विकास और हमारी सुरक्षा आपस में एक दूसरे पर शक करने में नहीं है बल्कि एक दूसरे पर विश्वास करने में है।
ReplyDeleteराखी का त्यौहार भाई के प्रति बहन के इसी विश्वास को दर्शाता है।
भाई को भी अपनी बहन पर विश्वास होता है कि वह भी अपने भाई के विश्वास को भंग करने वाला कोई काम नहीं करेगी।
यह विश्वास ही हमारी पूंजी है।
यही विश्वास इंसान को इंसान से और इंसान को ख़ुदा से, ईश्वर से जोड़ता है।
जो तोड़ता है वह शैतान है। यही उसकी पहचान है। त्यौहारों के रूप को विकृत करना भी इसी का काम है। शैतान दिमाग़ लोग त्यौहारों को आडंबर में इसीलिए बदल देते हैं ताकि सभी लोग आपस में ढंग से जुड़ न पाएं क्योंकि जिस दिन ऐसा हो जाएगा, उसी दिन ज़मीन से शैतानियत का राज ख़त्म हो जाएगा।
इसी शैतान से बहनों को ख़तरा होता है और ये राक्षस और शैतान अपने विचार और कर्म से होते हैं लेकिन शक्ल-सूरत से इंसान ही होते हैं।
राखी का त्यौहार हमें याद दिलाता है कि हमारे दरम्यान ऐसे शैतान भी मौजूद हैं जिनसे हमारी बहनों की मर्यादा को ख़तरा है।
बहनों के लिए एक सुरक्षित समाज का निर्माण ही हम सब भाईयों की असल ज़िम्मेदारी है, हम सभी भाईयों की, हम चाहे किसी भी वर्ग से क्यों न हों ?
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा हमें यही याद दिलाता है।
रक्षाबंधन के पर्व पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं...
देखिये
हुमायूं और रानी कर्मावती का क़िस्सा और राखी का मर्म
बहुत खूब ... नीरज जी आपने अपने मुम्बैया अंजाद से इन ढक्कनों को समझाने की करारी कोशिश की है ... मज़ा आ गया इस ग़ज़ल को पढ़ के ... स्थापित शायर समाज के प्रति संवेदनशील होता है ये बात आपने सार्थक कर दी ... बहुत बहुत बधाई ...
ReplyDelete.
ReplyDelete~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~
आदरणीय नीरज गोस्वामी जी भाईसाहब को जन्मदिवस की हार्दिक बधाइयां और
मंगलकामनाएं !
सादर
-राजेन्द्र स्वर्णकार
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बहुत अच्छा लिखा है आपने समझता क्यों नहीं ढक्कन।
ReplyDeleteउलझा है जमाने से बुराई में सुलझता क्यों नहीं ढक्कन।
...गुरू के आशीष ने अच्छी गज़ल लिखाई आपसे। बहुत बधाई।
...जन्म दिन की बधाई भी स्वीकार करें। जुग जुग जीयें..तब तक..जब तक यह आतंकवाद समाप्त न हो जाय धरती से।
मुंबई की ज़िंदादिली को सलाम!
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है .
............
आप को जन्मदिवस की हार्दिक बधाईयाँ!
जन्मदिवस की हार्दिक बधाईयाँ.
ReplyDeleteबहुत लाजवाब गजल प्रस्तुति के लिये धन्यवाद.
ReplyDeleteआपको जन्मदिवस की हार्दिक मंगलकामनाएं!
Neeraj Ji,
ReplyDeleteWah janab! kya khoob kaha hai.
--usha rajesh Sharma
नीरज जी,
ReplyDeleteजन्मदिन की बहुत-बहुत बधाई,
आपका ई-मेल या फोन नंबर मेरे पास होता तो उस बधाई देता...
एक कविता लिखने की कोशिश की है...समय मिले तो इस लिंक पर देखिएगा...
http://www.deshnama.com/2011/08/blog-post_13.html
जय हिंद...
अर्थपूर्ण पंक्तियाँ ,लाजवाब गजल |
ReplyDelete