जगह : शंघाई का आरामदार होटल
समय : सुबह के छै बजे हैं
समस्या: फोन पर अलार्म की घंटी बज रही है अब तो उठना पड़ेगा. शरीर कह रहा है यार रेस्ट करने दे लेकिन दिमाग कहता है प्यारे रेस्ट किया तो साढ़े आठ बजे की ट्रेन जिस से “यीवू” जाना है छूट जायेगी. आखिर शरीर ने हार मान ली और दिमाग जीत गया.
अगला कदम: अपने साथ के दोनों अधिकारियों को उठाना जो ये जिम्मेवारी रात में मुझ पर डाल कर दूसरे कमरे में सोने चले गए थे. उनके कमरे में फोन किया घंटी बजी उधर से सिंह साहब की भारी सी आवाज़ आई
सिंह: हेल्लो...
मैं: गुड मार्निंग हो गयी है सिंह साहब अब आप उठ जाओ और गुप्ता जी (दूसरे अधिकारी) को भी जगा दो.
सिंह: गुड मार्निंग सर...सर चीन में सुबह जल्दी नहीं हो गयी ? हैं? ईस्ट में येही स्यापा है..सुबह जल्दी हो जाती है...अभी अभी तो सोये थे सर...खैर...ओऐ गुप्ते उठ जा यार सर का फोन आ गया है, सुबह हो गयी है
गुप्ता : ओह शिट
जगह: टैक्सी की पिछली सीट
समय : सुबह के सात बजे हैं
समस्या: गुप्ता जी जो आगे बैठे हैं के खर्राटों से ड्राइवर और सिंह साहब जो पीछे बैठे हैं के खर्राटों से मैं, परेशान हो रहे हैं.
मैं: सिंह साहब जागो भाई बाहर देखो शंघाई शहर और इसकी बिल्डिगें...कितनी सुन्दर हैं...
सिंह: (बिना आँखें खोलें) ओ छड्डो जी हमने कौनसा यहाँ रहना है...
मैं : फिर भी देख लो...इण्डिया जा कर क्या बताओगे शंघाई के बारे में...
सिंह: (आँखें बंद किये हुए) ओ छड्डो जी इण्डिया में किसे फुर्सत है शंघाई के बारे में जानने की...लोग अपने बारे में जान लें ये ही बहुत है ( सिंह साहब आँख बंद कर के जो भी बात करते हैं बहुत काम की करते हैं)
मैं अपने मोबाइल से रास्ते की फोटो खींचने लगा ताकि अगर कोई इण्डिया वापस जाने पर पूछे की शंघाई कैसा है तो कमसे कम बता तो सकूँ के ऐसा है.
जगह: उसी टैक्सी की पिछली सीट
समय: सुबह के पौने आठ बजे हैं
समस्या : सिंह साहब करवट लेना चाहते हैं लेकिन जगह की कमी से कसमसा रहे हैं. गर्दन बार बार लटक रही है. गुप्ता जी खिडकी से सर टिका कर जिस आराम से सो रहे हैं वो आराम सिंह साहब को नहीं मिल रहा.
परेशानी के आलम में उठ जाते हैं. आँखें मलते हैं और जोर की उबासी लेते हुए कहते हैं
सिंह: हम कहाँ हैं सर?
मैं : सड़क पर
गुप्ता: (झटका खा कर उठते हुए) ओ शिट
सिंह: ओ छड्डो गुप्ता जी क्या शिट शिट लगा रखी है सुबह सुबह. सर मेरी यीवू जाने की बड़ी तमन्ना थी, सभी कहते थे अगर चीन जाओ तो यीवू जरूर जाना. सर हिन्दुस्तान का शायद ही कोई व्यापारी हो जो यीवू के नाम से परिचित न हो.
मैं: क्यूँ?
सिंह: क्यूँ की सर वो चीन में घरेलु सामान खरीदने की थोक की सबसे बड़ी मंडी है, साबुन तेल बनियान से लेकर फ्रिज, टी.वी. खिलौने, बल्ब, नकली आभूषण, बिजली का सामान, हैंडी क्राफ्ट के आइटम, कपडे वगैरह की कोई चालीस हज़ार से ऊपर दुकाने हैं वहाँ. हिन्दुस्तान में आने वाला अधिकतर चीनी सामान यहीं से खरीदा जाता है सर. वक्त मिला तो अपने लिए बहुत सारा सामान लूँगा सर.
मैं : सिंह साहब वक्त आपको नहीं मिलेगा क्यूँ के हम एक स्टील फेक्ट्री देखने जा रहे हैं जहाँ तीन घंटे लगेंगे और हमारी वापसी की ट्रेन की टिकटें पहले से ही लेकर वहाँ रखी हुई हैं. हमें जाना है काम करना है और वापस आना है बस.
गुप्ता: ओ शिट
जगह: शंघाई स्टेशन
समय: सवा आठ बजे सुबह
आखिर शंघाई रेलवे स्टेशन आ ही गया जिसका हमें बेताबी से इन्तेज़ार था. स्टेशन के नाम अंग्रेजी और चीनी भाषा में लिखे हुए थे .सीधे टिकट काउंटर पर गए ट्रेन की टिकटें लीं और स्टेशन के भीतर दाखिल हुए. अंदर घुसते ही आँखें चकाचौंध हो गयीं. दोनों अधिकारियों की नींद भक् से उड़ गयी. चमचमाता फर्श और गज़ब की सफाई देख कर हम लोग हैरान रह गए
सिंह: ये स्टेशन है सर?
मैं : हाँ भाई है तो स्टेशन ही
गुप्ता: ओ शिट (उनका मुंह खुला का खुला रह गया)
सिंह: सर यूँ सफाई तो हमने दिल्ली कलकत्ते के मेट्रो स्टेशन पर भी देखी है लेकिन यहाँ तो छड्डो जी.
मैं: सिंह साहब अभी दस मिनट हैं चलो कुछ खा लें.
सिंह: छड्डो जी, सर यहाँ कुछ खाने को मिल ही नहीं रहा. खाने पीने की दुकाने बाहर हैं सर , यहाँ तो सिर्फ केंटकी फ्रायड चिकन की दुकान है.
मैं : इसके पास फ्रेंच फ्राइअज़ जरूर मिलती होंगी. सिंह साहब जरा पता करो न.
सिंह: सर यहाँ सिर्फ फ्रायड चिकन ही मिल रहा है.
मैं: सिर्फ चिकन?
सिंह: हाँ जी
गुप्ता: ओ शिट
जगह: चमचमाती रेल का डिब्बा
समय : सुबह के साढ़े आठ बजे हैं
मैं : गडडी तो कमाल की सोनी (सुन्दर ) है नहीं?
सिंह: ओ छड्डो जी सोनी तो हमारी दिल्ली की मेट्रो भी है.
मैं: मैंने देखि नहीं सुना ही है लेकिन यहाँ देखें हर डब्बे के बाहर एक केयर टेकर खड़ा है जो आने वालों का सर झुका झुका कर स्वागत कर रहा है.
सिंह: सर ये तो है और देखो यहाँ कोई किसी को धक्का मुक्का भी नहीं मार रहा. सब बड़े आराम से अपने अपने डब्बे में चढ़ रहे हैं.
मैं: इस तरह चुपचाप एक कतार में डब्बे में चढ़ना कितना अच्छा लग रहा है न सिंह साहब.
सिंह: ओ छड्डो जी जब तक ट्रेन में धक्के मुक्के न हों, रेल पेल न हो, डब्बे के अंदर-बाहर छोड़ने वालों की भीड़ न हो बाय बाय करती ट्सुवे टपकाती माताएं बहने बीवियां न हों, हाकर्स की चिल्ल पों न हो तब तक ट्रेन में सफर का मजा ही क्या है सर. हम कोई मेट्रो ट्रेन में सफर थोड़ी कर रहे हैं सर ये तो लॉन्ग डिस्टेंस ट्रेन है सर और हमारा सफर तीन सौ की.मी. का है. लेकिन स्टेशन देख कर लगता ही नहीं के स्टेशन है “ ये क्या जगह है दोस्तों ये कौनसा दयार है...हद्दे निगाह तक जहाँ दिखता नहीं गुबार है...”
गुप्ता: ओ शिट
जगह: ट्रेन का डब्बा
समय: सुबह के आठ बज कर पैंतीस मिनट
हम क्या कर रहे हैं? : हम सीट के सामने लगे बड़े से डिस्प्ले इलेक्ट्रोनिक बोर्ड को देख रहे हैं.
क्यूँ? क्यूँ की उसपर अगले स्टेशन का नाम और ट्रेन की स्पीड बारी बारी से दिखाई जा रही है
अचानक सिंह साहब का मुंह आश्चर्य से खुल गया
मैं : क्या हुआ सिंह साहब?
सिंह: देखो तो सर ट्रेन की स्पीड पांच मिनट से कम समय में ही तीन सौ छत्तीस की.मी. प्रति घंटा दिखाई दे रही है
गुप्ता : ओ शिट
जगह: ट्रेन का डब्बा
समय : सुबह के दस बजे हैं
मैं : लगता है हम साढ़े दस बजे तक यीवू पहुँच जायेंगे.
सिंह: ओ छड्डो जी हमको तीन सौ की.मी. जाना है सर...दो घंटे में कैसे पहुंचेंगे?
मैं: क्यूँ नहीं पहुंचेंगे? ट्रेन की स्पीड देखी है?
सिंह: ओ छड्डो जी आप भी कहाँ चीनियों पर भरोसा कर रहे हैं...ये डिस्प्ले बोर्ड दिखावे का है सर, चीनी माल जैसा है...असलियत कभी नहीं बताएगा...आप आराम से दो घंटे सौ लो सर हम बारह एक बजे तक पहुंचेंगे...
मैं: लेकिन ट्रेन देखो न दौड़े जा रही है...रस्ते के स्टेशन पर रूकती है और फिर तीन मिनट बाद तीन सौ की स्पीड पकड़ लेती है...
सिंह: ओ छड्डो जी...तीन सौ की स्पीड...आप देखो ये ग्लास पानी का भरा हुआ इसमें भरा पानी कोई हिल रहा है ? आप लोगों को देखो सब आराम से बैठे हैं किसी की गर्दन हिल रही है ? और तो और आप अपने आप को देखो सर आपके पेट में कोई गुड गुड हो रही है...
मैं: नहीं
सिंह: फिर कैसे कह रहे हो आप के ट्रेन तीन सौ की.मी. की स्पीड दे दौड रही है...आप भी न सर बहुत भोले हो...
जगह: यीवू स्टेशन
समय: सुबह के साढ़े दस बजे हैं
मैं: गुप्ता जी उठो यीवू स्टेशन आ गया...
सिंह: ओ हाँ सच्ची ओए डिस्प्ले बोर्ड पर भी यीवू ही दिखा रहा है...उठ ओए गुप्ते यीवू आ गया यार
गुप्ता: ओ शिट
जगह: यीवू में हमारे कष्टमर द्वारा भेजी हुई औडी कार की पिछली सीट
समय : सुबह के पौने ग्यारह बजे हैं
सिंह: सर अभी तक यकीन नहीं हो रहा के हम दो घंटों में तीन सौ की.मी. आ गए हैं.
मैं: सच्ची बात है, मैंने जापान की शिनकानसेन और यूरोप की ट्रेनों में भी यात्रायें की हैं लेकिन इस ट्रेन की तो बात ही अलग है. काश ऐसी ट्रेन अपने भारत में भी चलनी शुरू हो जाए.
सिंह: ओ छड्डो जी भारत में कहाँ से शुरू होगी ? आपको पता है ऐसी ट्रेन की योजना कोई पन्द्रह साल पहले भारत में बन कर ठन्डे बस्ते में पड़ी हुई है वर्ना हम चीन से इस मामले में कोसों आगे होते. हमारे नेता सिर्फ बातें करते हैं सर काम नहीं करते.
मैं: हम्मम्मम
सिंह: अगर ऐसा हो जाता तो हरनाम कौर अपने मायके हर हफ्ते संडे वाले दिन जा सकती थी और मैं हर हफ्ते संडे को मौज मनाता. महीने में सर जी चार दिन कम से कम ऐश करने के मिल जाते. अपनी तो लाइफ बन जाती. बुरा हो देश के हुक्मरानों का जो हर काम को लटका के बैठ जाते हैं.
मैं: कहाँ है भाभी जी का मायका?
सिंह: लुधियाना में है सर. दिल्ली से सुबह छै बैठती दो घंटे में आठ बजे लुधियाना, और अपनी सुबह छै बजे से ही बल्ले बल्ले शुरू हो जाती.
मैं: ये तो कुछ नहीं सिंह साहब बीजिंग से शंघाई वाली ट्रेन तो पांच सौ की.मी. प्रति घंटे की स्पीड से चलती है.
सिंह: क्या बात कर रहे हैं सर?
मैं: सच कह रहा हूँ
सिंह: फिर तो गुप्ते की बीवी भी हर हफ्ते कानपुर जा सकती थी, इसकी भी मौज हो जाती, हर हफ्ते अपने पसंद कि अंडे की बुर्जी खाता जो अब बीवी के डर से छै महीने में एक बार ही खा पाता है, बिचारे को रोज लौकी और तुरई ही खानी पड़ती है.
मैं: मुझे नहीं लगता ऐसी ट्रेन अपने देश में आने वाले दस सालों में चल पाएगी. याने गुप्ता जी हर हफ्ते भुर्जी खाने के लिए अभी लंबा इन्तेज़ार करना पडेगा.
गुप्ता: ओ शिट
जगह: यीवू ट्रेन स्टेशन
समय : शाम के पांच बजे
हम क्या कर रहे हैं? : ट्रेन का इन्तेज़ार.
ट्रेन का समय: शाम के छै बजे
साथ में कौन है : चाऊ एन ली – हमारा कष्टमर
मैं: चाऊ आप के देश में ऐसी प्रगति कैसे संभव हुई?
चाऊ: देखिये हमारे यहाँ सरकार का विरोध नहीं होता है. जो सरकार चाहती है वोही होता है.
मैं: मतलब?
चाऊ: मतलब ये के अगर सरकार चाहती है के फास्ट ट्रेन चलानी है तो वो हर कीमत पर चलेगी ही...फिर चाहे उसके रास्ते में आपका घर आये दुकान आये या खेत आये...सब हटा दिया जाता है...जो टारगेट दिया जाता है उस टारगेट से पहले ट्रेन चलती है...देरी करने पर सजा मिलती है...आपके यहाँ ऐसा नहीं है?
सिंह: ओ छड्डो जी हमारे यहाँ तो कोई स्कीम आई नहीं कि छुट भैय्ये नेता ही विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनका मुंह बंद करो तो विरोधी नेता अनशन पर बैठ जाते हैं और अगर खुदा न खास्ता उन्हें भी दे दा कर शांत कर भी दिया तो ठेकेदार और अफसर मिल कर उस कि ऐसी दुर्गत करते हैं के स्कीम फ़ाइल में ही दम तोड़ देती है.
मैं: याने आपके देश के नेता भ्रष्ट नहीं हैं?
चाऊ: भ्रष्ट हैं भ्रष्ट क्यूँ नहीं हैं लेकिन वो आटे में नमक मिलाते हैं आपके यहाँ कि तरह नमक में आटा नहीं.
मैं: हमारी इच्छा है के आप ट्रेन को बैक ग्राउंड में रख कर हम तीनों कि एक फोटो लें ताकि हम इस पल को याद रख सकें.
चाऊ: जरूर जरूर...गुप्ता जी जरा मुस्कुराइए
गुप्ता: ओ शिट
जगह: शंघाई रेलवे स्टेशन
समय : शाम के आठ बजे
सिंह: सरजी कुछ वि कहो शंघाई रेलवे स्टेशन दा जवाब नहीं. लगता है जैसे एयरपोर्ट पर आ गए हों. रात को तो ये कमाल का खूबसूरत लग रहा है.
मैं: सबसे बड़ी बात है के आठ बजे यहाँ कोई भीड़ भाड़ भी नहीं है...चीनी सात बजे से पहले घर चले जाते हैं और साढ़े सात बजे तक खाना खा लेते हैं.
सिंह: चाऊ बता रहा था सर के खाने के बाद उनके यहाँ पीने का बड़ा रिवाज़ है.
मैं: हाँ खाने के बाद पीना बड़ा अजीब सा लगता है. हमारे यहाँ उल्टा है पहले पीते हैं फिर खाते हैं.
सिंह: चाऊ ने बताया उनके यहाँ हर गाँव शहर में ड्रिंकिंग बार बने हुए हैं, जहाँ रात नौ बजे से सुबह तीन चार बजे तक वो लोग सप्ताह अंत में पीते रहते हैं.
मैं: कमाल है
सिंह: सर मुझे उनकी प्रगति का राज़ समझ में आ गया है.
मैं: क्या?
सिंह: सिंपल सर, पहले खाना बाद में पीना.
गुप्ता : ओ शिट
जगह: वो ही कल वाली- दिल्ली दरबार
समय : रात के नौ बजे हैं
हम क्या कर रहे हैं? : खाने का आर्डर दे कर गप्पें मार रहे हैं
सिंह: सर आपने एक बात नोट की ?
मैं: क्या?
सिंह: सर तीन सौ की.मी. के लंबे रास्ते में हमें खिडके बाहर एक भी जानवर या परिंदा नज़र नहीं आया...ये अजीब बात हैं न सर?
मैं: सही कह रहो आप..लगता है चीनी सभी जानवरों और परिंदों को एक जगह कैद करके रखते हों.
सिंह: किसलिए?
मैं: खाने के लिए. चीनी हर चलती हिलती डुलती चीज़ को खा जाते हैं यहाँ तक के कीड़े मकौड़े भी, तो जानवर और परिंदे तो उनके लिए बहुत खास चीज़ हैं.
सिंह: कीड़े खाते हैं?
मैं: बहुत शौक से...यहाँ की एक मशहूर कहावत भी है
सिंह: क्या?
मैं: कीड़े कि माँ कब तक खैर मनाएगी
सिंह: देखो कीड़े कि डिश
गुप्ता: ओ शिट
जगह: शंघाई एयर पोर्ट
समय: सुबह के आठ बजे
हम क्या कर रहे हैं: अगले पड़ाव कि तैय्यारी
हम कहाँ जायेगे : चेंदू (जिसे सिंह साहब चेंगडू कहते हैं) रुकते हुए नानजिंग शहर
क्यूँ?; काम है भाई कष्टमर से मिलना है
सिंह: सर वो बच्ची देख रहे हैं ?
मैं: कौनसी?
सिंह: वो सर आपके पीछे अपनी माँ के साथ हँसती हुई चीनी बच्ची
मैं: बहुत प्यारी है एक फोटो ले लूं?
सिंह: ओ छड्डो जी सारे बच्चे प्यारे होते हैं
मैं: सच है लेकिन ये बहुत प्यारी है
सिंह: छड्डो सर जाने दो उसकी माँ साथ है...
मैं: तो क्या हुआ मैं उसकी माँ से परमिशन ले लूँगा
सिंह: आपकी मर्ज़ी सर
मैं उस बच्ची कि तरफ जाता हूँ वो भागती है
मैं: मैडम क्या मैं आपकी बच्ची कि तस्वीर ले सकता हूँ?
मैडम: क्यूँ?
मैं: यूँ ही मेरी भी एक ऐसी ग्रांड डाटर है उसे दिखाऊंगा.
मैडम चीनी भाषा में: चुन चान चीन लीं मी
बच्ची विक्टरी साइन बनाकर पोज देती है
जगह : चेंदू जाने वाले हवाई जहाज कि सीट
समय : सुबह के दस बजे हैं
हम क्या कर रहे हैं? : हवाई जहाज़ के उड़ने का इन्तेज़ार
सिंह: सर बच्ची ने विक्ट्री साइन बनाते हुए फोटो क्यूँ खिंचवाई
मैं: लगता है ये विक्टरी साइन इन के दिलो दिमाग में कूट कूट कर भर दिया गया है तभी तो देखो न एशियाड में इन्होने ने थोक के भाव में पदक जीत कर अपने देश कि झोली भर दी है.
सिंह: सच्ची कह रहे हो सर, हम भी अपने बच्चों को अब विक्ट्री साइन बनाना सिखाएंगे.
मैं: लो अपनी अगली यात्रा शुरू हो गयी, विमान उड़ चला
सिंह: हा हा हा याने फ़ोकट कि दारु फिर मिलेगी सर
मैं: नहीं
सिंह: क्यूँ सर?
मैं क्यूँ के ये अंतर्राष्ट्रीय सेवा नहीं है डोमेस्टिक है और डोमेस्टिक सेवा में दारु नहीं मिलती
गुप्ता: ओ शिट
हम चेंदू होते हुए नानजिंग कि यात्रा वृतांत एक छोटे से ब्रेक के बाद फिर से शुरू करेंगे तब आप जरा द्रुत गति कि ट्रेन का आनंद लीजिए...कहीं जाईयेगा नहीं...हम बस यूँ गए और यूँ आये.
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समय : सुबह के छै बजे हैं
समस्या: फोन पर अलार्म की घंटी बज रही है अब तो उठना पड़ेगा. शरीर कह रहा है यार रेस्ट करने दे लेकिन दिमाग कहता है प्यारे रेस्ट किया तो साढ़े आठ बजे की ट्रेन जिस से “यीवू” जाना है छूट जायेगी. आखिर शरीर ने हार मान ली और दिमाग जीत गया.
अगला कदम: अपने साथ के दोनों अधिकारियों को उठाना जो ये जिम्मेवारी रात में मुझ पर डाल कर दूसरे कमरे में सोने चले गए थे. उनके कमरे में फोन किया घंटी बजी उधर से सिंह साहब की भारी सी आवाज़ आई
सिंह: हेल्लो...
मैं: गुड मार्निंग हो गयी है सिंह साहब अब आप उठ जाओ और गुप्ता जी (दूसरे अधिकारी) को भी जगा दो.
सिंह: गुड मार्निंग सर...सर चीन में सुबह जल्दी नहीं हो गयी ? हैं? ईस्ट में येही स्यापा है..सुबह जल्दी हो जाती है...अभी अभी तो सोये थे सर...खैर...ओऐ गुप्ते उठ जा यार सर का फोन आ गया है, सुबह हो गयी है
गुप्ता : ओह शिट
जगह: टैक्सी की पिछली सीट
समय : सुबह के सात बजे हैं
समस्या: गुप्ता जी जो आगे बैठे हैं के खर्राटों से ड्राइवर और सिंह साहब जो पीछे बैठे हैं के खर्राटों से मैं, परेशान हो रहे हैं.
मैं: सिंह साहब जागो भाई बाहर देखो शंघाई शहर और इसकी बिल्डिगें...कितनी सुन्दर हैं...
सिंह: (बिना आँखें खोलें) ओ छड्डो जी हमने कौनसा यहाँ रहना है...
मैं : फिर भी देख लो...इण्डिया जा कर क्या बताओगे शंघाई के बारे में...
सिंह: (आँखें बंद किये हुए) ओ छड्डो जी इण्डिया में किसे फुर्सत है शंघाई के बारे में जानने की...लोग अपने बारे में जान लें ये ही बहुत है ( सिंह साहब आँख बंद कर के जो भी बात करते हैं बहुत काम की करते हैं)
मैं अपने मोबाइल से रास्ते की फोटो खींचने लगा ताकि अगर कोई इण्डिया वापस जाने पर पूछे की शंघाई कैसा है तो कमसे कम बता तो सकूँ के ऐसा है.
जगह: उसी टैक्सी की पिछली सीट
समय: सुबह के पौने आठ बजे हैं
समस्या : सिंह साहब करवट लेना चाहते हैं लेकिन जगह की कमी से कसमसा रहे हैं. गर्दन बार बार लटक रही है. गुप्ता जी खिडकी से सर टिका कर जिस आराम से सो रहे हैं वो आराम सिंह साहब को नहीं मिल रहा.
परेशानी के आलम में उठ जाते हैं. आँखें मलते हैं और जोर की उबासी लेते हुए कहते हैं
सिंह: हम कहाँ हैं सर?
मैं : सड़क पर
गुप्ता: (झटका खा कर उठते हुए) ओ शिट
सिंह: ओ छड्डो गुप्ता जी क्या शिट शिट लगा रखी है सुबह सुबह. सर मेरी यीवू जाने की बड़ी तमन्ना थी, सभी कहते थे अगर चीन जाओ तो यीवू जरूर जाना. सर हिन्दुस्तान का शायद ही कोई व्यापारी हो जो यीवू के नाम से परिचित न हो.
मैं: क्यूँ?
सिंह: क्यूँ की सर वो चीन में घरेलु सामान खरीदने की थोक की सबसे बड़ी मंडी है, साबुन तेल बनियान से लेकर फ्रिज, टी.वी. खिलौने, बल्ब, नकली आभूषण, बिजली का सामान, हैंडी क्राफ्ट के आइटम, कपडे वगैरह की कोई चालीस हज़ार से ऊपर दुकाने हैं वहाँ. हिन्दुस्तान में आने वाला अधिकतर चीनी सामान यहीं से खरीदा जाता है सर. वक्त मिला तो अपने लिए बहुत सारा सामान लूँगा सर.
मैं : सिंह साहब वक्त आपको नहीं मिलेगा क्यूँ के हम एक स्टील फेक्ट्री देखने जा रहे हैं जहाँ तीन घंटे लगेंगे और हमारी वापसी की ट्रेन की टिकटें पहले से ही लेकर वहाँ रखी हुई हैं. हमें जाना है काम करना है और वापस आना है बस.
गुप्ता: ओ शिट
जगह: शंघाई स्टेशन
समय: सवा आठ बजे सुबह
आखिर शंघाई रेलवे स्टेशन आ ही गया जिसका हमें बेताबी से इन्तेज़ार था. स्टेशन के नाम अंग्रेजी और चीनी भाषा में लिखे हुए थे .सीधे टिकट काउंटर पर गए ट्रेन की टिकटें लीं और स्टेशन के भीतर दाखिल हुए. अंदर घुसते ही आँखें चकाचौंध हो गयीं. दोनों अधिकारियों की नींद भक् से उड़ गयी. चमचमाता फर्श और गज़ब की सफाई देख कर हम लोग हैरान रह गए
सिंह: ये स्टेशन है सर?
मैं : हाँ भाई है तो स्टेशन ही
गुप्ता: ओ शिट (उनका मुंह खुला का खुला रह गया)
सिंह: सर यूँ सफाई तो हमने दिल्ली कलकत्ते के मेट्रो स्टेशन पर भी देखी है लेकिन यहाँ तो छड्डो जी.
मैं: सिंह साहब अभी दस मिनट हैं चलो कुछ खा लें.
सिंह: छड्डो जी, सर यहाँ कुछ खाने को मिल ही नहीं रहा. खाने पीने की दुकाने बाहर हैं सर , यहाँ तो सिर्फ केंटकी फ्रायड चिकन की दुकान है.
मैं : इसके पास फ्रेंच फ्राइअज़ जरूर मिलती होंगी. सिंह साहब जरा पता करो न.
सिंह: सर यहाँ सिर्फ फ्रायड चिकन ही मिल रहा है.
मैं: सिर्फ चिकन?
सिंह: हाँ जी
गुप्ता: ओ शिट
जगह: चमचमाती रेल का डिब्बा
समय : सुबह के साढ़े आठ बजे हैं
मैं : गडडी तो कमाल की सोनी (सुन्दर ) है नहीं?
सिंह: ओ छड्डो जी सोनी तो हमारी दिल्ली की मेट्रो भी है.
मैं: मैंने देखि नहीं सुना ही है लेकिन यहाँ देखें हर डब्बे के बाहर एक केयर टेकर खड़ा है जो आने वालों का सर झुका झुका कर स्वागत कर रहा है.
सिंह: सर ये तो है और देखो यहाँ कोई किसी को धक्का मुक्का भी नहीं मार रहा. सब बड़े आराम से अपने अपने डब्बे में चढ़ रहे हैं.
मैं: इस तरह चुपचाप एक कतार में डब्बे में चढ़ना कितना अच्छा लग रहा है न सिंह साहब.
सिंह: ओ छड्डो जी जब तक ट्रेन में धक्के मुक्के न हों, रेल पेल न हो, डब्बे के अंदर-बाहर छोड़ने वालों की भीड़ न हो बाय बाय करती ट्सुवे टपकाती माताएं बहने बीवियां न हों, हाकर्स की चिल्ल पों न हो तब तक ट्रेन में सफर का मजा ही क्या है सर. हम कोई मेट्रो ट्रेन में सफर थोड़ी कर रहे हैं सर ये तो लॉन्ग डिस्टेंस ट्रेन है सर और हमारा सफर तीन सौ की.मी. का है. लेकिन स्टेशन देख कर लगता ही नहीं के स्टेशन है “ ये क्या जगह है दोस्तों ये कौनसा दयार है...हद्दे निगाह तक जहाँ दिखता नहीं गुबार है...”
गुप्ता: ओ शिट
जगह: ट्रेन का डब्बा
समय: सुबह के आठ बज कर पैंतीस मिनट
हम क्या कर रहे हैं? : हम सीट के सामने लगे बड़े से डिस्प्ले इलेक्ट्रोनिक बोर्ड को देख रहे हैं.
क्यूँ? क्यूँ की उसपर अगले स्टेशन का नाम और ट्रेन की स्पीड बारी बारी से दिखाई जा रही है
अचानक सिंह साहब का मुंह आश्चर्य से खुल गया
मैं : क्या हुआ सिंह साहब?
सिंह: देखो तो सर ट्रेन की स्पीड पांच मिनट से कम समय में ही तीन सौ छत्तीस की.मी. प्रति घंटा दिखाई दे रही है
गुप्ता : ओ शिट
जगह: ट्रेन का डब्बा
समय : सुबह के दस बजे हैं
मैं : लगता है हम साढ़े दस बजे तक यीवू पहुँच जायेंगे.
सिंह: ओ छड्डो जी हमको तीन सौ की.मी. जाना है सर...दो घंटे में कैसे पहुंचेंगे?
मैं: क्यूँ नहीं पहुंचेंगे? ट्रेन की स्पीड देखी है?
सिंह: ओ छड्डो जी आप भी कहाँ चीनियों पर भरोसा कर रहे हैं...ये डिस्प्ले बोर्ड दिखावे का है सर, चीनी माल जैसा है...असलियत कभी नहीं बताएगा...आप आराम से दो घंटे सौ लो सर हम बारह एक बजे तक पहुंचेंगे...
मैं: लेकिन ट्रेन देखो न दौड़े जा रही है...रस्ते के स्टेशन पर रूकती है और फिर तीन मिनट बाद तीन सौ की स्पीड पकड़ लेती है...
सिंह: ओ छड्डो जी...तीन सौ की स्पीड...आप देखो ये ग्लास पानी का भरा हुआ इसमें भरा पानी कोई हिल रहा है ? आप लोगों को देखो सब आराम से बैठे हैं किसी की गर्दन हिल रही है ? और तो और आप अपने आप को देखो सर आपके पेट में कोई गुड गुड हो रही है...
मैं: नहीं
सिंह: फिर कैसे कह रहे हो आप के ट्रेन तीन सौ की.मी. की स्पीड दे दौड रही है...आप भी न सर बहुत भोले हो...
जगह: यीवू स्टेशन
समय: सुबह के साढ़े दस बजे हैं
मैं: गुप्ता जी उठो यीवू स्टेशन आ गया...
सिंह: ओ हाँ सच्ची ओए डिस्प्ले बोर्ड पर भी यीवू ही दिखा रहा है...उठ ओए गुप्ते यीवू आ गया यार
गुप्ता: ओ शिट
जगह: यीवू में हमारे कष्टमर द्वारा भेजी हुई औडी कार की पिछली सीट
समय : सुबह के पौने ग्यारह बजे हैं
सिंह: सर अभी तक यकीन नहीं हो रहा के हम दो घंटों में तीन सौ की.मी. आ गए हैं.
मैं: सच्ची बात है, मैंने जापान की शिनकानसेन और यूरोप की ट्रेनों में भी यात्रायें की हैं लेकिन इस ट्रेन की तो बात ही अलग है. काश ऐसी ट्रेन अपने भारत में भी चलनी शुरू हो जाए.
सिंह: ओ छड्डो जी भारत में कहाँ से शुरू होगी ? आपको पता है ऐसी ट्रेन की योजना कोई पन्द्रह साल पहले भारत में बन कर ठन्डे बस्ते में पड़ी हुई है वर्ना हम चीन से इस मामले में कोसों आगे होते. हमारे नेता सिर्फ बातें करते हैं सर काम नहीं करते.
मैं: हम्मम्मम
सिंह: अगर ऐसा हो जाता तो हरनाम कौर अपने मायके हर हफ्ते संडे वाले दिन जा सकती थी और मैं हर हफ्ते संडे को मौज मनाता. महीने में सर जी चार दिन कम से कम ऐश करने के मिल जाते. अपनी तो लाइफ बन जाती. बुरा हो देश के हुक्मरानों का जो हर काम को लटका के बैठ जाते हैं.
मैं: कहाँ है भाभी जी का मायका?
सिंह: लुधियाना में है सर. दिल्ली से सुबह छै बैठती दो घंटे में आठ बजे लुधियाना, और अपनी सुबह छै बजे से ही बल्ले बल्ले शुरू हो जाती.
मैं: ये तो कुछ नहीं सिंह साहब बीजिंग से शंघाई वाली ट्रेन तो पांच सौ की.मी. प्रति घंटे की स्पीड से चलती है.
सिंह: क्या बात कर रहे हैं सर?
मैं: सच कह रहा हूँ
सिंह: फिर तो गुप्ते की बीवी भी हर हफ्ते कानपुर जा सकती थी, इसकी भी मौज हो जाती, हर हफ्ते अपने पसंद कि अंडे की बुर्जी खाता जो अब बीवी के डर से छै महीने में एक बार ही खा पाता है, बिचारे को रोज लौकी और तुरई ही खानी पड़ती है.
मैं: मुझे नहीं लगता ऐसी ट्रेन अपने देश में आने वाले दस सालों में चल पाएगी. याने गुप्ता जी हर हफ्ते भुर्जी खाने के लिए अभी लंबा इन्तेज़ार करना पडेगा.
गुप्ता: ओ शिट
जगह: यीवू ट्रेन स्टेशन
समय : शाम के पांच बजे
हम क्या कर रहे हैं? : ट्रेन का इन्तेज़ार.
ट्रेन का समय: शाम के छै बजे
साथ में कौन है : चाऊ एन ली – हमारा कष्टमर
मैं: चाऊ आप के देश में ऐसी प्रगति कैसे संभव हुई?
चाऊ: देखिये हमारे यहाँ सरकार का विरोध नहीं होता है. जो सरकार चाहती है वोही होता है.
मैं: मतलब?
चाऊ: मतलब ये के अगर सरकार चाहती है के फास्ट ट्रेन चलानी है तो वो हर कीमत पर चलेगी ही...फिर चाहे उसके रास्ते में आपका घर आये दुकान आये या खेत आये...सब हटा दिया जाता है...जो टारगेट दिया जाता है उस टारगेट से पहले ट्रेन चलती है...देरी करने पर सजा मिलती है...आपके यहाँ ऐसा नहीं है?
सिंह: ओ छड्डो जी हमारे यहाँ तो कोई स्कीम आई नहीं कि छुट भैय्ये नेता ही विरोध में खड़े हो जाते हैं, उनका मुंह बंद करो तो विरोधी नेता अनशन पर बैठ जाते हैं और अगर खुदा न खास्ता उन्हें भी दे दा कर शांत कर भी दिया तो ठेकेदार और अफसर मिल कर उस कि ऐसी दुर्गत करते हैं के स्कीम फ़ाइल में ही दम तोड़ देती है.
मैं: याने आपके देश के नेता भ्रष्ट नहीं हैं?
चाऊ: भ्रष्ट हैं भ्रष्ट क्यूँ नहीं हैं लेकिन वो आटे में नमक मिलाते हैं आपके यहाँ कि तरह नमक में आटा नहीं.
मैं: हमारी इच्छा है के आप ट्रेन को बैक ग्राउंड में रख कर हम तीनों कि एक फोटो लें ताकि हम इस पल को याद रख सकें.
चाऊ: जरूर जरूर...गुप्ता जी जरा मुस्कुराइए
गुप्ता: ओ शिट
जगह: शंघाई रेलवे स्टेशन
समय : शाम के आठ बजे
सिंह: सरजी कुछ वि कहो शंघाई रेलवे स्टेशन दा जवाब नहीं. लगता है जैसे एयरपोर्ट पर आ गए हों. रात को तो ये कमाल का खूबसूरत लग रहा है.
मैं: सबसे बड़ी बात है के आठ बजे यहाँ कोई भीड़ भाड़ भी नहीं है...चीनी सात बजे से पहले घर चले जाते हैं और साढ़े सात बजे तक खाना खा लेते हैं.
सिंह: चाऊ बता रहा था सर के खाने के बाद उनके यहाँ पीने का बड़ा रिवाज़ है.
मैं: हाँ खाने के बाद पीना बड़ा अजीब सा लगता है. हमारे यहाँ उल्टा है पहले पीते हैं फिर खाते हैं.
सिंह: चाऊ ने बताया उनके यहाँ हर गाँव शहर में ड्रिंकिंग बार बने हुए हैं, जहाँ रात नौ बजे से सुबह तीन चार बजे तक वो लोग सप्ताह अंत में पीते रहते हैं.
मैं: कमाल है
सिंह: सर मुझे उनकी प्रगति का राज़ समझ में आ गया है.
मैं: क्या?
सिंह: सिंपल सर, पहले खाना बाद में पीना.
गुप्ता : ओ शिट
जगह: वो ही कल वाली- दिल्ली दरबार
समय : रात के नौ बजे हैं
हम क्या कर रहे हैं? : खाने का आर्डर दे कर गप्पें मार रहे हैं
सिंह: सर आपने एक बात नोट की ?
मैं: क्या?
सिंह: सर तीन सौ की.मी. के लंबे रास्ते में हमें खिडके बाहर एक भी जानवर या परिंदा नज़र नहीं आया...ये अजीब बात हैं न सर?
मैं: सही कह रहो आप..लगता है चीनी सभी जानवरों और परिंदों को एक जगह कैद करके रखते हों.
सिंह: किसलिए?
मैं: खाने के लिए. चीनी हर चलती हिलती डुलती चीज़ को खा जाते हैं यहाँ तक के कीड़े मकौड़े भी, तो जानवर और परिंदे तो उनके लिए बहुत खास चीज़ हैं.
सिंह: कीड़े खाते हैं?
मैं: बहुत शौक से...यहाँ की एक मशहूर कहावत भी है
सिंह: क्या?
मैं: कीड़े कि माँ कब तक खैर मनाएगी
सिंह: देखो कीड़े कि डिश
गुप्ता: ओ शिट
जगह: शंघाई एयर पोर्ट
समय: सुबह के आठ बजे
हम क्या कर रहे हैं: अगले पड़ाव कि तैय्यारी
हम कहाँ जायेगे : चेंदू (जिसे सिंह साहब चेंगडू कहते हैं) रुकते हुए नानजिंग शहर
क्यूँ?; काम है भाई कष्टमर से मिलना है
सिंह: सर वो बच्ची देख रहे हैं ?
मैं: कौनसी?
सिंह: वो सर आपके पीछे अपनी माँ के साथ हँसती हुई चीनी बच्ची
मैं: बहुत प्यारी है एक फोटो ले लूं?
सिंह: ओ छड्डो जी सारे बच्चे प्यारे होते हैं
मैं: सच है लेकिन ये बहुत प्यारी है
सिंह: छड्डो सर जाने दो उसकी माँ साथ है...
मैं: तो क्या हुआ मैं उसकी माँ से परमिशन ले लूँगा
सिंह: आपकी मर्ज़ी सर
मैं उस बच्ची कि तरफ जाता हूँ वो भागती है
मैं: मैडम क्या मैं आपकी बच्ची कि तस्वीर ले सकता हूँ?
मैडम: क्यूँ?
मैं: यूँ ही मेरी भी एक ऐसी ग्रांड डाटर है उसे दिखाऊंगा.
मैडम चीनी भाषा में: चुन चान चीन लीं मी
बच्ची विक्टरी साइन बनाकर पोज देती है
जगह : चेंदू जाने वाले हवाई जहाज कि सीट
समय : सुबह के दस बजे हैं
हम क्या कर रहे हैं? : हवाई जहाज़ के उड़ने का इन्तेज़ार
सिंह: सर बच्ची ने विक्ट्री साइन बनाते हुए फोटो क्यूँ खिंचवाई
मैं: लगता है ये विक्टरी साइन इन के दिलो दिमाग में कूट कूट कर भर दिया गया है तभी तो देखो न एशियाड में इन्होने ने थोक के भाव में पदक जीत कर अपने देश कि झोली भर दी है.
सिंह: सच्ची कह रहे हो सर, हम भी अपने बच्चों को अब विक्ट्री साइन बनाना सिखाएंगे.
मैं: लो अपनी अगली यात्रा शुरू हो गयी, विमान उड़ चला
सिंह: हा हा हा याने फ़ोकट कि दारु फिर मिलेगी सर
मैं: नहीं
सिंह: क्यूँ सर?
मैं क्यूँ के ये अंतर्राष्ट्रीय सेवा नहीं है डोमेस्टिक है और डोमेस्टिक सेवा में दारु नहीं मिलती
गुप्ता: ओ शिट
हम चेंदू होते हुए नानजिंग कि यात्रा वृतांत एक छोटे से ब्रेक के बाद फिर से शुरू करेंगे तब आप जरा द्रुत गति कि ट्रेन का आनंद लीजिए...कहीं जाईयेगा नहीं...हम बस यूँ गए और यूँ आये.
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नीरज जी , बड़ा मजेदार संस्मरण है शंघाई यात्रा का ।
ReplyDeleteआपके सिंह साहब के साथ आपकी बर्तालाप बड़ी दिलचस्प लगी ।
लेकिन लगता है कि गुप्ता जी ने शिट के सिवाय कुछ नहीं किया ।
वहां के बारे में जानकर यही कह सकते हैं कि हमारे यहाँ तो --
रास्ते हम से नहीं , हम से रास्ते बनते हैं ।
यानि हम जहाँ चाहें , वहीँ रास्तों को मोड़ सकते हैं , मंदिर या दरगाह बनाकर ।
सही बात है।
ReplyDeleteवे आटे में नमक मिलाते हैं और हम नमक में आटा।
बढिया वृत्तान्त।
बढ़िया संस्मरण नीरज जी |
ReplyDeleteवैसे 'छड्डो जी' और 'oh shit' साहब के साथ सफ़र और भी मजेदार रहा |
ओह शिट ! तो मै ब्लाग पर पोस्ट पढ रही थी? मुझे लगा मै चीन मे हूँ और ट्रेन मे सफर कर रही हूँ। बहुत रोचक बना दिया चीन यात्रा को। बधाई आपको
ReplyDeleteबहुत मजेदार!
ReplyDeleteइतना बढ़िया यात्रा संस्मरण पहली बार पढ़ा. कुछ फोटो खुल नहीं रहे. थोड़ी देर बाद फिर से कोशिश करते हैं, शायद खुल जाएँ.
गुप्ता ज़ी और सिंह साहब ने यात्रा को बहुत रोचक बना दिया है. इससे यह बात साबित होती है कि वाणिज्य और व्यापार भी ब्लागिंग को बहुत कुछ दे सकता है.
is sansmaran ne mujhe bhi yaatra karwa di ... train dekhker achha laga ...
ReplyDeleteफोटो नहीं खुल पा रहे हैं सो आपके रोचक संस्मरण के साथ साथ चित्रावली का अवलोकन नहीं हो पा रहा है । वैसे संस्मरण अपने आप में ऐसा है कि चित्रों की ज़रूरत नहीं है, शब्दों से ही चित्र बना दिया है ।
ReplyDeleteक्या बेहतरीन यात्रा वृतांत है ... मज़ा आ गया पढ़ने में ... और गुप्ता जी का बीच बीच में "ओह शीट" तो ऐसा लग रहा था जैसे सब्जी में तडका ...
ReplyDeleteऐसा लग रहा था कि हम आपके साथ यात्रा कर रहे हैं ...
पठन का आनंद आ गया . मनोरंजक, ज्ञानवर्धक और पठनीय .....................
ReplyDeleteमुंबई में दो धुरंधर 1. नीरज गोस्वामी और सचिन तेंडुलकर
ReplyDeleteसचिन की सेंचुरीज की हॉफ सेंचुरीज के बाद जैसे नि:शब्द हैं, वैसा ही हाल आपकी पोस्ट का है।
ओ छड्डो जी इण्डिया में किसे फुर्सत है शंघाई के बारे में जानने की...लोग अपने बारे में जान लें ये ही बहुत है (सिंह साहब को इससे जरूर अवगत कराएँ)।
'ओ शिट' गुप्ता जी इसके अलावा कुछ नहीं बोलते!
केएफसी के नीचे आपका फोटो मस्त है।
सर मुझे उनकी प्रगति का राज़ समझ में आ गया है।
क्या?
सिंह: सिंपल सर, पहले खाना बाद में पीना।
'हम भी बच्चों को विक्ट्री साइन बनाना सिखाएँगे'।
फोकट की दारू डोमेस्टिक में नहीं मिलती।
आपके लघुनाट्य ने पूरा चीन घुमा दिया है।
ReplyDelete" Pahunch gaye Cheen n ? " Bhai ,
ReplyDeleteaapne vakaaee Cheen pahunchaa diya
hai . Khoob mazaa aayaa hai hai ,
kaee saalon tak dil- o - dimaaq
par taaree rahega .
chin ke donon bhag padhe, wahin hun ab
ReplyDeleteओह शिट !
ReplyDeleteचीनियों की तारीफ करने का मन नहीं करता ....पर .....
वैसे ऐसे हमसफ़र हो तो यात्रा ओर हसीन हो जाती है
बढियां पल प्रतिपल वृत्तांत -मगर बीच बीच में बड़ा सा अंतराल क्यों है ?
ReplyDeleteअाह रे चीन...
ReplyDeleteवााह रे चीन...
बहुत खास पोस्ट है. यादगार!!
ओ शिट!
ReplyDeleteफोटू देख ही नहीं पाया। खुला ही नहीं।
बैठे-बिठाए चीन यात्रा हो गई और एक भी कीड़ा नहीं खाना पड़ा।
लो जी जयपुर में बैठकर हमने शंघाई और यीवू की यात्रा भी कर ली। और गुप्ता जी से एक नया तकिया कलाम भी सीख लिया ओ शिट।
ReplyDeleteबैठे ठाले घूम आये चीन . छड्डो जी आटे में नमक ओ शिट
ReplyDeleteनीरज जी
ReplyDeleteआपने तो आँखो देखा हाल सुना दिया ……………क्या गज़ब का संस्मरण लिखा है कि हम तो उसी मे खो गये।
नीरज जी,
ReplyDeleteपल पल का यात्रा वृतांत, बेहद मनभावन संस्मरण!!
आभार!!!
ओ छड्डो जी आप का यात्रा विवरण तो बहुत अच्छा लगा, लेकिन फ़ोटू कम ही दिखे पता नही मेरे यहां ही नही दिखे या सब को नही दिख रहे, गुप्ता जी की शिट ओर सिंह साहब की छड्डो जी ने मस्त कर दिया , नमस्कार जी
ReplyDeleteओ शि* बड़ी जल्दी ख़त्म हो गयी पोस्ट :)
ReplyDeleteये आपके शिटशिटाते गुप्ता जी ने यात्रा का भी कुछ आनंद लिया या सिर्फ़ ......
ReplyDeleteकल वो छोटी सी चीनी बच्ची नहीं देख पाया था, बाद में सोचा शायद मेरे ऑफिस के नेट कनेक्शन का प्रॉब्लम है |
ReplyDeleteफोटो के लिए बहुत बहुत धन्यवाद नीरज जी |
हाँ, अब दृश्य स्पष्ठ हुए, आनन्द दोगुना हो गया।
ReplyDeleteमेरे लिये रहेगा उपयोगी यह यात्रा-वृतांत ।
फोटो देख पुनः मजा अाया! खासकर विक्टरी साईन ने सोचने पर मजबुर कर दिया!
ReplyDeleteहां, अब सही है।
ReplyDeleteपहले मैंने सोचा था कि मेरे कम्प्यूटर में ही दिक्कत है। सब फोटो लोड नहीं कर पा रहा है। अब सब सही हो गया है।
मस्त फोटो हैं।
जगह : नीरज जी का ब्लॉग
ReplyDeleteसमय : दोपहर के तीन
समस्या : यहाँ कितना शीट पड़ा है साफ करे :)
अंशु : ओ शीट | काश की ये ट्रेन हमारे यहाँ होती सच में मुंबई से बनारस और दिल्ली जाना इतना डरावना नहीं होता जितना अब है | ओ छड्डो जी मुझे नहीं लगता की इस जन्म में मेरे पति देव को हर सन्डे ऐश से गुजरने वाली है |
और वो लड़की तो बिल्कुल मेरी भांजी जैसी है उसके चीनी चहरे के कारण हम उसे चिन्पिन्गली कहते है |
बिल्कुल लगा ही नहीं हम चीन में नहीं थे लगा आप नहीं हमी घूम रहे थे और वो भी दो मजेदार लोगो के साथ |
कितनी सारी शिट और एक बिचारा चीन । आपने तो मानो पूरा चीन ही घुमा दिया । क्या दीवार पर नहीं गये ।
ReplyDeleteड्रिंक करने का तरीका तो दक्षिण एशिया को छोड़ कर सारी दुनिया में एक जैसा ही है सर.. सच है इतनी सफाई तो लन्दन के मेट्रो स्टेशन पर भी नहीं होती, अलबत्ता यूरोप में जरूर मिल जायेगी. ये लिंक गुप्ता जी को जरूर भेजिएगा.. या तो ओ शिट!! तकिया कलाम छोड़ देंगे या आगे से पता करके रखेंगे कि उनके साथ टूर पर आप तो नहीं जा रहे.. :)
ReplyDeleteबहुत ही सलीके से लिखा गया रोचक विवरण.. चीनियों को नमन तो करना ही पड़ेगा वर्ना उनकी सफलता को देख जलने लगे तो हमारा 'मनुष्य तू महान है' कहना निरर्थक हो जाएगा.. इसलिए उनकी सोच, मेहनत और लगन को सलाम.
शंघाई की अद्भुत यात्रा वर्णन पढ़कर मन आनंदित हुआ।
ReplyDeleteसंवाद शैली और चित्रों ने पोस्ट की गुणवत्ता में चार चांद लगा दिए हैं।
आपके साथ-साथ हमने भी शंघाई की यात्रा कर ली ...आभार।
नीरज जी चीन यात्रा की बधाई .....
ReplyDeleteवहाँ का यात्रा वृतांत बेहद रोचक लगा ....
सफाई की सचमुच तारीफ करनी पड़ेगी .....
ट्रेन में बैठे हुए आपकी तस्वीर बहुत अच्छी आई है इसे ब्लॉग में लगा लें ....
खाना पहले और पीना बाद में ....इसकी भी कोई ख़ास वजह होगी शायद ....?
हाँ कीड़ों की डिस देख तो उबकाई आने लगी ....
नीचे की पोस्ट भी देखी ...छड्डो जी और शीट साहब को भी बधाई ......
'चुन चान चीन लीं मी '
ReplyDelete...
यात्रा वर्णन की यह प्रस्तुति बहुत ही रोचक लगी और चित्र तो बहुत ही सुन्दर!
वाह नीरज जी , फोटुएं देखकर बड़ा अच्छा लगा । शंघाई लगता है बहुत साफ़ सुथरा शहर है ।
ReplyDeleteमीलों लम्बी माल गाड़ी देखकर आनंद आ गया ।
बाकि वीडियोज भी देख रहे हैं । वीडियोज को काट कर छोटा किया जा सकता है ।
विंडोज मोवी मेकर से एक ही फिल्म भी बनाई जा सकती है , एडिटिंग करते हुए ।
रोचक विवरण के साथ ...सीख भी दे गया आपका यह संस्मरण ...शुक्रिया
ReplyDeleteआपकी नजर से चीन देख रहे हैं, अच्छा लग रहा है।
ReplyDelete---------
मोबाइल चार्ज करने की लाजवाब ट्रिक्स।
ओह ! अब चीन को खाली-पीली चपतियाना कैसे होगा जी :)
ReplyDeleteवाह जी वाह.......... नमक दे बारे सोचना पैय्गा..........
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