क्या कहा ?? जी ?? टाइम खोटी मत करूँ सीधे मुद्दे पे आऊँ ? ठीक है भाई सीधे मुद्दे पर आता हूँ और आपको एक ऐसी किताब से रूबरू करवाता हूँ जो आपको अभी पढने का वक्त न होने की स्तिथि में भी खरीद कर रख लेनी चाहिए. शायरी की ये किताब ज़मीन से जुडी किताब है जो गुलाब के फूलों की नहीं उसके काँटों की बात करती है क्यूँ की, यदि मुग़ल-ऐ-आज़म फिल्म का डायलोग दोहराने की इजाज़त दें तो कहूँगा "काँटों को मुरझाने का खौफ़ नहीं होता"
भूख के अहसास को शेरों सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जल्वों से वाकिफ हो गयी
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो
ग़ज़ल के इस 'अदब' को 'मुफलिसों की अंजुमन' और 'बेवा के माथे की शिकन' तक ले चलने की आवाज़ लगाने वाले शायर का नाम है " अदम गोंडवी ", आज हम उनकी ही बेमिसाल शायरी की किताब " समय से मुठभेड़ " का जिक्र करेंगे जिसे "वाणी प्रकाशन" दरियागंज , नयी दिल्ली ने प्रकाशित किया है .आप उनसे फोन न: 011-23273167 / 23275710 पर या फिर उनकी ई-मेल vaniprakashan@gmail.com द्वारा भी संपर्क कर सकते हैं
बाईस अक्तूबर १९४७ को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के आटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह व् श्री देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में "अदम गोंडवी" के नाम से सुविख्यात हुए.
अदम जी कबीर परंपरा के कवि हैं, अंतर यही कि अदम ने कागज़ कलम छुआ पर उतना ही जितना किसान ठाकुर के लिए जरूरी था.
दुष्यंत जी ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुँचाने की कोशिश की है जहाँ से एक एक चीज़ बगैर किसी धुंधलके के पहचानी जा सके.
मुशायरों में ,घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफ़ेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान जिसकी और आपका शायद ध्यान ही न गया हो यदि अचानक माइक पे आ जाए और फिर ऐसी रचनाएँ पढे के आपका ध्यान और कहीं जाए ही न तो समझिए वो इंसान और कोई नहीं अदम गोंडवी हैं. उनकी निपट गंवई अंदाज़ में महानगरीय चकाचौंध और चमकीली कविताई को हैरान कर देने वाली अदा सबसे जुदा और विलक्षण है.
अदम शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय वे ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते हैं.उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है.
वस्तुतः ये गज़लें अपने ज़माने के लोगों से 'ठोस धरती की सतह पर लौट ' आने का आग्रह कर रही हैं.
अदम जी की शायरी में आज जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है के पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है.आप इस किताब का कोई सफह पलटिए और कहीं से भी पढ़ना शुरू कर दीजिए, आपको मेरी बात पर यकीन आ जायेगा.
अदम साहब की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं. उनकी शायरी न तो हमें वाह करने के अवसर देती है और न आह भरने की मजबूरी परोसती है. सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है.
लगभग सौ पृष्ठों की इस अनमोल किताब में ऐसे ढेरों शेर हैं जिन्हें पढ़ कर कभी मुस्कराहट के फूल खिलते हैं तो कभी विद्रोह के अंगार. आम इंसान के दुःख दर्द समेटे इन अशआरों को एक नहीं बार बार पढ़ने का जी करता है. शब्दों की मारक क्षमता का अंदाज़ा आपको इस किताब को पढकर हो जायेगा. लिजलिजी थोथी भावुकता से कोसों दूर ये अशआर आपको अपने लगने लगेंगे.
अमूमन मैं किसी किताब के बहुत अधिक शेर इस श्रृंखला में कोट नहीं करता बहुत से अपने पास रख लेता हूँ लेकिन इस किताब के दिल करता है सारे शेर कोट कर दूं, मुझे पता नहीं क्यूँ ये आभास होता है के अधिकांश पाठक इस पोस्ट को पढ़ने के बाद इस श्रृंखला में चर्चित किताब को बजाये खरीदने के भूल जाते हैं, मैं चाहता हूँ के आप मेरी इस धारणा तोडें, और इसे खरीद कर पड़ें, इसलिए अपने आप पर संयम रखते हुए आपको और अधिक शेर नहीं पढ़वाऊंगा आप इस किताब को ढूंढें तब तक मैं भी तलाशता हूँ आपके लिए कोई और शायरी किताब. चलते चलते न चाहते हुए भी ये शेर और दिए जा रहा हूँ पढ़ने के लिए...आप भीं क्या याद रखेंगे. पढ़िए और सोचिये क्या कह गए हैं अदम साहब...
देखना सुनना व् सच कहना जिन्हें भाता नहीं
कुर्सियों पर फिर वही बापू के बन्दर आ गए
कल तलक जो हाशिए पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाजार में उनके कलेंडर आ गए
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
किसको उम्मीद थी जब रौशनी जवां होगी
कल के बदनाम अंधेरों पे मेहरबां होगी
खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर
फिर मेरे गीत में मासूमियत कहाँ होगी
आप आयें तो कभी गाँव की चौपालों में
मैं रहूँ या न रहूँ भूख मेज़बां होगी
वस्तुतः ये गज़लें अपने ज़माने के लोगों से 'ठोस धरती की सतह पर लौट ' आने का आग्रह कर रही हैं.
ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में
मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में
काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत
इतना असर है खादी के उजले लिबास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो हवाश में
बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को
भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए
गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को
लगभग सौ पृष्ठों की इस अनमोल किताब में ऐसे ढेरों शेर हैं जिन्हें पढ़ कर कभी मुस्कराहट के फूल खिलते हैं तो कभी विद्रोह के अंगार. आम इंसान के दुःख दर्द समेटे इन अशआरों को एक नहीं बार बार पढ़ने का जी करता है. शब्दों की मारक क्षमता का अंदाज़ा आपको इस किताब को पढकर हो जायेगा. लिजलिजी थोथी भावुकता से कोसों दूर ये अशआर आपको अपने लगने लगेंगे.
घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
बगावत के कमल खिलते हैं दिल की सूखी दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है
सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर अहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है
जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
जल रहा है देश ये बहला रही है कौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिये
श्री अदम गोंडवी साहब