बादल हो तो बरसो कभी बेआब ज़मीं पर
खुशबू हो अगर तुम तो बिखर क्यूँ नहीं जाते
जब डूब ही जाने का यकीं है तो न जाने
ये लोग सफीनों* से उतर क्यूँ नहीं जाते
सफीनों*= किश्तियों
तुम राह में चुपचाप खड़े हो तो गए हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यूँ नहीं जाते
आपने क्या जवाब दिया? आपकी नज़रों से गुजरें हैं ये अशआर...मुझे मालूम था शायरी के शौकीन हैं तो इन्हें पढ़े बिना कैसे रहे होंगे. अक्सर हम लोग किसी शेर को तो ज़ेहन में बिठा लेते हैं लेकिन शायर का नाम याद नहीं रख पाते. आपकी याददाश्त को हरा करते हुए बता दूं के ऊपर आपके द्वारा पढ़े अशआर उर्दू के मशहूर शायर मरहूम जनाब "अमीर आग़ा क़ज़लबाश" साहब के कहे हुए हैं. जिनके व्यक्तित्व के बारे में उर्दू के व्यंगकार मुज्तबा हुसैन साहब ने कहा है "एक खुश शक्ल, खुश लिबास, खुश मिजाज़, खुश गुलू और खुश गुफ्तार इंसान". आज हम उसी इंसान की शायरी की किताब की चर्चा करेंगे जिसे संकलित किया है श्री कन्हैया लाल नन्दन जी ने और प्रकाशित किया है "राजपाल एंड सन्ज" ने. राजपाल वालों ने उर्दू हिंदी के शायरों की किताबों की एक बेहतरीन श्रृंखला "आज के प्रसिद्द शायर " नाम से प्रकाशित की है, उसी श्रृंखला की एक कड़ी आज की ये पुस्तक है.
कुछ तो अपनी निशानियाँ रख जा
इन किताबों में तितलियाँ रख जा
लोग थक-हार के न लौट आयें
रास्ते में कहानियां रख जा
इन दरख्तों से फल नहीं गिरते
इनके नज़दीक आंधियां रख जा
हो रहा है अगर जुदा मुझसे
मेरी आँखों पै उँगलियाँ रख जा
क़ज़लबाश साहब की शायरी का न सिर्फ कैनवास बहुत बड़ा है बल्कि उनके कहने का ढंग भी अपने समकालीनो से बिलकुल जुदा और असरदार है. उनके कहने के अंदाज़ में सिर्फ तल्खी ही नहीं है बल्कि शायरी की खूबसूरत नजाकत भी है. उनका कलाम हमेशा जिंदा रहने वाला है और हर दौर में वो ताज़ा ही लगेगा.
काम आएँगी कल ये तहरीरें*
उँगलियों को लहू में तर रखना
तहरीरें*=लिखी हुई इबारतें
ख़ाली घर तो बुरा सा लगता है
ख़्वाब आँखों में कोई भर रखना
जानलेवा बहुत है बाखबरी
खुद को थोडा सा बेख़बर रखना
आखरी शेर के मिसरा ऐ सानी में 'थोडा सा' कह कर कमाल की ख़ूबसूरती बख्शी है अमीर साहब ने इस शेर में. ऐसी ख़ूबसूरती पूरी किताब में फैली उनकी शायरी में हर कहीं नज़र आती है और इस अजीम शायर की शान में सर अपने आप झुक जाता है.
तू कि दरिया है मगर मेरी तरह प्यासा है
मैं तेरे पास चला आऊंगा बादल की तरह
रात जलती हुई एक ऐसी चिता है जिस पर
तेरी यादें हैं सुलगते हुए संदल की तरह
इस किताब की भूमिका जाने माने कवि-शायर कन्हैया लाल नंदन जी ने लिखी है जिसमें उन्होंने अमीर साहब की शख्शियत और शायरी पर विस्तार से प्रकाश डाला है. वो एक जगह लिखते हैं " अमीर की शायरी से गुज़रते हुए आप ज़िन्दगी की कड़ी धूप में कांच के शामियानों से होकर गुज़रते हैं .ज़िन्दगी देखने का उनका नजरिया बिलकुल अपना होता है .ये निजता की पहचान अमीर की शायरी को बुलंदियों की तरफ लेकर चलती है."
मैं वह मुजरिमे-ज़िन्दगी हूँ कि जो
सज़ा काट ले और बहाली न हो
सरों को सलीबों पे रोशन रखो
ये दुनिया चरागों से ख़ाली न हो
मोहब्बत का अज़ब दस्तूर देखा
उसी की जीत है जो हार जाये
इनायत गर्दिशें दौरां इनायत
नज़र में आ गए अपने पराये
न कर मिन्नत 'अमीर' इस नाखुदा* की
सफीना** डूबता है डूब जाये
नाखुदा*= नाविक
सफीना**=नाव