तुझे दिल याद करता है तो नग़्मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
अदावत* से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
*अदावत = दुश्मनी, घृणा
नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं
घटायें, धूप, बारिश, फूल, तितली, चांदनी 'नीरज'
तुम्हारा अक्स इनमें ही मैं अक्सर देख पाता हूँ
ये ग़ज़ल अभी ख़त्म नहीं हुई एक मक्ता और ज़ेहन में आया है जिसे मैं आप तक पहुँचाने में खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ...{ये कमजोरी है जिस पर काबू पाना जरूरी है}...चलिए ये बताइए के जब हम हुस्न-ऐ-मतला कह सकते हैं तो हुस्न-ऐ-मक्ता क्यूँ नहीं? सोचिये और जब तक जवाब मिले तब तक मैं ये एक और मक्ता आपको नज़र करता हूँ.
उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
Khatm na hui ho..ek yahi sher usko mukammal bana deta hai...mai gazalgo to hun nahi...jo dilme aaya so kah diya..
Behad sundar tasveer!
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
kya baat hai neeraj ji is sher ka jawab nahi. aur----
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं--
ye sher bhi lajwab hai.khuda iss tarah muskurane ki taufiq sabko de. nice.
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
बहुत खूब नीरज जी, वैसे भी आप कश्मीरी है जहाँ गुलो की भरमार है !
नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
ReplyDeleteगलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं
क्या-क्या लिख देते हैं!! क्या-क्या सिखा देते हैं!!
अद्भुत!!
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
ReplyDeleteमगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
...बहुत खूब. ...सुन्दर बात..सार्थक सन्देश भी...बधाई.
***************
'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.
बहुत ही अदभुत रचना, बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
तुझे दिल याद करता है तो नग़्मे गुनगुनाता हूँ
ReplyDeleteजुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
बहुत खूब. ...सुन्दर रचना...!
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
बहुत खूब ....सरे के आरे शेर एक से बढ़कर एक हैं !!
AAPKEE LEKHNEE SE EK AUR BEHTEEN
ReplyDeleteGAZAL.BADAAEE AUR SHUBH KAMNA.
तुझे दिल याद करता है तो नग़्मे गुनगुनाता हूँ
ReplyDeleteजुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं
waah, nagmon kee gungunahat achhi lagi
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
........bahut hi shaandar !!!!
वाह, सच में लहलहा गये ।
ReplyDeleteफसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
वाह कितनी सुंदर बात कही है.बेहतरीन ग़ज़ल है नीरज जी !
bahut khoob.......sabhi ek se badhkar ek hain.
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
ReplyDelete...मेरी मोहर कबूल करें
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
ReplyDeleteमगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
badi baat hai ye
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
नेक विचार , सकारात्मक सोच ।
बढ़िया ग़ज़ल नीरज जी ।
नीरज साहब, कमाल कर दिया।
ReplyDeleteऔर आखिरी मक्ता तो बहुत ही पसंद आया,
"उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ"
बहुत बहुत आभार।
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
ये शेर और अंतिम शेर भी कमाल का है नीरज जी ... हमेशा की तरह खिलता हुवा गुलाब ...... सुभान अल्ला ...
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
बेहतरीन भाई ... लाजवाब ! हमेशा की तरह !!
हमने भी इक रोज यूँ ही जानी थी शज़र की अहमियत .......
ReplyDeleteबहुत सुंदर गजल, हमारे यहां पतझड मै ऎसे ही चित्र देखने को मिलते है, बहुत खुब सुरत चित्र
ReplyDeleteनीरज भाई
ReplyDeleteखुबसूरत ग़ज़ल पढ़वाने का शुक्रिया
किबला आज के दौर में लोगों को मिसरे नहीं मिलते
और आप हैं के आप पर उसकी रहमतों की बारिश
लगातार जारी है ग़ज़ल में हुस्ने तकरार भी है
मतला और मक्ता की आमद भी
आपने तो मिस्र का बाज़ार सजा रखा है
चाँद शुक्ला हदियाबादी
डेनमार्क
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
ReplyDeleteमगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
बिना निराश हुए ही हार को सह लेना पृथ्वी पर साहस की सबसे बडी परीक्षा है । बेहतरीन ग़ज़ल!
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
बेहतरीन भाव समेटे है ग़ज़ल...
ek arse baad achhi gazal padi...wah neeraj ji wah.....
ReplyDeleteनीरज जी बेहतरीन...एक बात सच कहना चाह रहा हूँ पहले कभी कभी आपके ब्लॉग पर आता था अब तो ढूढ़ता रहता हूँ कि कुछ नया आया क्या...बहुत बढ़िया ग़ज़ल..
ReplyDeleteनीरज जी धन्यवाद स्वीकारें....बधाई
क्या कहूँ खो सा गया कहीं आपके गजलो में , लाजवाब प्रस्तुति रही ।
ReplyDeleteबहुत खूब. ...सुन्दर रचना...!
ReplyDeleteऐसे ही लहलाहते है हमेशा आप
ReplyDeleteनहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
ReplyDeleteसफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं
ये शेर बहुत ही बहुत उम्दा लगा!
बहुत अच्छी गज़ल.
उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
ReplyDeleteफसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ
-यही जज़्बा चाहिये लहलहाने के लिए..बहुत खूब, भाई...लाओ, कलम चूम लें..:)
आनन्द आ गया.
"जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं"
जी बहुत ही सुन्दर,लाजवाब!
कुंवर जी,
नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
ReplyDeleteगलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं
लाजवाब ग़ज़ल के हार्दिक और बधाई पढवाने के लिए आभार
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
...मुझे तो यह शेर ही सबसे अच्चा लगा.
हुस्न-ए-मक्ता का भाव लाजवाब लगा लेकिन मुझे लगता है कि इसी बात को बीज के माध्यम से ही कहा जाय तो अधिक विनम्रता झलकेगी. यह मेरा ख्याल है मैं बिलकुल गलत भी हो सकता हूँ..
बाऊ जी,
ReplyDeleteसभी अच्छे हैं! लेकिन हासिल-ए-महफ़िल का खिताब तो इसे ही मिलना चाहिए:
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
वाह नीरज जी !
ReplyDeleteएक और बेहतरीन नगमा ...:)
हर एक शेर की बात अपने आप में निराली है .....और भाव तो बहुत ही अच्छे लगे |
ऐसे ही झूमते लहलहाते रहे आपकी सुन्दर और गहरी कलम .....यूँ ही सुनाते रहिये .....
बहुत कुछ कह जाते हैं आप ....बहुत कुछ सीख लेते हैं हम ....:)
नीरज जी नमस्ते
ReplyDeleteआपके कहन की तारीफ़ करने के लिए शब्द खोजता रह जाता हूँ
किसी ने कहा है कि जब कहने के लिए बहुत कुछ हो और सीमित सब्दों में कहना हो तो आप्द्मी को शब्द नहीं मिलते और वो खामोश रह जाता है
आज फिर से वही हाल हुआ
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
इस शेर में सारा जीवन दर्शन छुपा हुआ है
आज फिर से लाजवाब हो गया
सचमुच, लाजवाब कर दिया आपने।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई।
--------
बूझ सको तो बूझो- कौन है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
कविता, शायरी, गजल कभी पल्ले नहीं पडती
ReplyDeleteलेकिन कुछ बात है ‘नीरज’, तुझे पढने चला आता हूं।
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
ReplyDeleteमगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
बधाई नीरज जी खुबसूरत ग़ज़ल के लिए दिनों बाद आया हूँ , मगर खुबसूरत ग़ज़ल से मुलाकात हुई ...
ढेरो बधाई
अर्श
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
ReplyDeleteहटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
क़ौमी यकजहती के लिये कितना बड़ा पैग़ाम दिया है नीरज जी.....ज़िन्दाबाद
और....
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
हवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
इंसान ये हक़ीक़त समझ ले तो...इंसान बन जाये
E-mail received from Mansoor Ali Hashmi Saheb:-
ReplyDeleteखूबसूरत ग़ज़ल, हर शेर ला जवाब..... बस यही कह सकता हूँ कि:-
"उतर आओ, फलो फूलो, बड़ी ज़रखेज़ धरती है,
उगाओ फूल शब्दों के उसे आँखों से चुनता हूँ."
ग़ज़ल की नफ़ासत
ReplyDeleteग़ज़ल की रा`नाई
ग़ज़ल की शिगुफ्त्गी
..... .........
ग़ज़ल की और ना जाने
किन-किन खूबियोंका ज़िक्र किया जाता है aksar
और बात आ के ठहरती है
जनाब नीरज साहब की ग़ज़लों तक..
...अब इस फ़न की क्या मिसाल दूं
"घटायें,धूप,बारिश,फूल,तितली,चांदनी 'नीरज."
आफ़रीं. . . .
और,,,,,
"मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं..."
बस.... अब बेलफ्ज़ हूँ .
मुबारकबाद .
'
जनाब चाँद शुक्ला जी की बात से सहमत हूँ
ReplyDeleteऔर उन्हें गुजारिश करता हूँ
कि अपनी 'आवाज़ की दुनिया' में इस ग़ज़ल को
आपकी आवाज़ में लगा कर सब को सुनवाएं
Bahut Sunder !!
ReplyDeleteजिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
फसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं
नीरज जी बहुत ही पाकीज़ा ख़यालात की तर्जुमानी करते हैं ये अश’आर ,
अगर हम सब फूल बिछाने में यक़ीन करने लगें तो बात ही क्या है
नमस्कार नीरज जी,
ReplyDeleteहर शेर किसी मोती से कम नहीं है, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने, अरे नहीं बहुत ज्यादा खूबसूरत.
आपके लफ़्ज़ों की ये सादगी आपसे ही उभर के आई है, और शेरों में ढल गयी है
मतले से लेकर मकते तक ये जादू कर देती है, हर शेर अच्छा है, सोच रहा हूँ किसे कोट करूं, एक को करूँगा तो दूसरे से ज्यादती हो जाएगी.
दिल से वाह वाह ही निकल रही है और बारहां ग़ज़ल को पढ़ रहा हूँ.............................
आज का दिन मुकम्मल हो गया.
हर शेर नायाब, पूरी की पूरी गज़ल किसी मोती माला सी ।
ReplyDeleteफसादों से न सुलझे हैं, न सुलझेगें कभी मसले
हटा तू राह के कांटे, मैं लाकर गुल बिछाता हूं ।
उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ
नीरज जी बहुत ही कमाल ।
फिर से आया हूँ कहने कि:
ReplyDeleteतुझे दिल याद करता है तो नग़्मे गुनगुनाता हूँ
जुदाई के पलों की मुश्किलों को यूं घटाता हूं
-सच में!!
charchamanch pe dekh kar aaya..outstanding type to nahi hai ..par ek achhi ghazal kahi hai aapne...
ReplyDeleteसुंदर गज़ल कही है आपने..
ReplyDeleteऔर यह शेर खासकर पसंद आया है
नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं
बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने के लिये आभार
नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
ReplyDeleteसफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
मगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
उतरता हूँ कभी 'नीरज' मैं बन कर बीज धरती पर
फसल बनकर तभी तो झूमता हूँ लहलहाता हूँ
सम्मानीय नीरज भाई नमस्कार ।
एक एक शेर दमदार और अनुभव की तपिश में तपकर खरा हुआ है।
आपके सान्निध्य की हमेशा प्रतीक्षा रहेगी
तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
ReplyDeleteदे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे
मैं भी यही चाहता हूं
ईश्वर तो हमारे पास ही है आपकी इस गजल ने अहसास करवा दिया है |गजल के बारे में ज्यादा तो नहीं जानती किन्तु जितना भी लिखा है आपने बहुत ही सुखदायक है |
ReplyDeleteऎसी उम्दा ग़ज़ल हमारे प्यारे नीरज दा के अलावा कौन लिख सकता है। हर सम्त आग थी और आप ठंडी फ़ुहार छोड़ आए। अश अश!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteगलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूँ...आह, क्या मिस्रा बुना है उस्ताद। आज की सुबह बन गयी अपनी। बेहतरीन ग़ज़ल हमेशा की तरह और दोनों मकते ने तो ऐसा माहौल क्रियेट किया है कि उफ़्फ़्फ़्फ़.....विशेष कर घटायें, धूप, बारिश..ये तमाम शब्द कितनी खूबसूरती से बहर में बैठ गये हैं।
ReplyDeleteवाह!
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
waah waah kya sher kaha hai
नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
गलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं
ahaaaaaaaa
नहीं जब छांव मिलती है कहीं भी राह में मुझको
सफर में अहमियत मैं तब शजर की जान जाता हूं
kamaal ka sher
bahut hi asardaar gazal ......
बहुत खूब लिखा है |
ReplyDeleteआशा
नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
ReplyDeleteगलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं...क्या बात है....बढ़िया!!
नहीं तहजीब ये सीखी कि कह दूं झूठ को भी सच
ReplyDeleteगलत जो बात लगती है गलत ही मैं बताता हूं
बहुत खूब लिखा है सर!
सादर
मुझे मालूम है मैं फूल हूं झर जाऊंगा इक दिन
ReplyDeleteमगर ये हौसला मेरा है हरदम मुस्कुराता हूं
वाह नीरज सर, कम्माल के अशआर हैं...
और दोनों ही मकते जानदार...
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल..
सादर बधाई...
जिसे सब ढूंढ़ते फिरते हैं मंदिर और मस्जिद में
ReplyDeleteहवाओं में उसे हरदम मैं अपने साथ पाता हूं
एक दम सच कहा ..बधाई
bahut sunder hamesha ki tarah lajawab gazel.
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