Monday, February 1, 2010

किताबों की दुनिया - 23

कोई सत्तर के दशक के आरम्भ की बात होगी. मैं तब कालेज में पढता था. जयपुर की बड़ी चौपड़ पर स्थित मानक चौंक स्कूल के भव्य प्रागण में मुशायरा चल रहा था जिसे कुंवर महेंद्र सिंह बेदी संचालित कर रहे थे. उस समय स्टेज पर बशीर बद्र, शमीम जयपुरी, शमशी मीनाई, शकील बदायुनी, मजरूह सुलतान पुरी,कतील शफाई जैसी हस्तियाँ मंच पर बिराजमान थीं. मध्य रात्रि के बाद बेदी साहब ने एक दुबले पतले इंसान को आवाज़ लगाई जिसने अपने सधे गले से तरन्नुम में एक के बाद एक लाजवाब ग़ज़लें सुनाईं और मुशायरा लूट लिया. आज उर्दू शायरी के दीवानों के लिए उनका नाम अजनबी नहीं बल्कि अज़ीज़ है. उस शायर का नाम है जनाब " वसीम बरेलवी" . आज उनके बिना उर्दू मुशायरा मुकम्मल नहीं माना जाता.

लीजिये मेरी और से प्रस्तुत है इस विश्व विख्यात शायर की देवनागरी लिपि में छपी पहली किताब "मेरा क्या" के बारे में अदना सी जानकारी.



खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
कोई तो है, जो हवाओं के पर कतरता है

शराफतों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
किसी का कुछ न बिगाड़ो, तो कौन डरता है.

वसीम साहब ने अपनी शायरी में उर्दू के भारी भरकम लफ़्ज़ों का बहुत अधिक प्रयोग नहीं किया बल्कि मौजूदा समय की समस्याओं पर बड़े सहज और सरल ढंग से लिखा है.ये ही कारण है की उनके शेर लोग आम बात चीत में अक्सर कोट करते हुए सुनते रहते हैं.

उसूलों पर जहाँ आंच आये, टकराना जरूरी है
जो जिंदा हो, तो फिर जिंदा नज़र आना जरूरी है

थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीका मंद शाख़ों का लचक जाना जरूरी है

मेरे होटों पे अपनी प्यास रख दो और फिर सोचो
कि इसके बाद भी दुनिया में कुछ पाना जरूरी है

वसीम साहब बड़े ही अलग से अंदाज़ में गहरी बात कह जाते हैं. इनकी लिखी ग़ज़लों को बहुत से ग़ज़ल गायक अपना स्वर दे चुके हैं. वो कहते हैं की "लफ्ज़ और एहसास के बीच का फासिला तय करने की कोशिश का नाम ही शायरी है, मगर ये बेनाम फासिला तय करने में कभी कभी उम्रें बीत जाती हैं और बात नहीं बनती." उन्होंने बिलकुल सही कहा है और इस बात की पुष्टि के तौर पर मैं आपको उनके दो शेर पढवाता हूँ:

अच्छा है, जो मिला वो कहीं छूटता गया
मुड़ मुड़ के ज़िन्दगी की तरफ देखता गया

मैं , खाली जेब, सब की निगाहों में आ गया
सड़कों पे भीख मांगने वालों का क्या गया

इसी किताब की भूमिका में वसीम साहब आगे कहते हैं "शायरी मदद न करती, तो ज़िन्दगी के दुःख जान लेवा साबित हो सकते थे. वह तो ये कहिये कि अभिव्यक्ति के इस माध्यम ने मानसिक संतुलन बरकरार रखने में मदद की और झुलसा देने वाली धूप में एक बेज़बान पेड़ की तरह सर उठाकर खड़े रहने का अवसर दिया."

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे
तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे

घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है
पहले यह तय हो कि इस घर को बचाएं कैसे

लाख तलवारें बढीं आती हों गर्दन की तरफ
सर झुकाना नहीं आता, तो झुकाएं कैसे

"परंपरा बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, ४१२, कोणार्क, अपार्टमेन्ट. २२, पटपड़गंज रोड, आई.पी. एक्टेंशन दिल्ली " द्वारा प्रकाशित मात्र सौ रुपये मूल्य की ये किताब वसीम साहब की एक सौ चालीस ग़ज़लों को समेटे हुए है. इसके अलावा उनके ढेरों फुटकर शेर भी हैं. इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए लगता है पूरी की पूरी किताब आपको पढवा दूं क्यूँ की हर ग़ज़ल बल्कि उनका लिखा हर शेर क़यामत ढाता है और दिल पर बहुत गहरा असर डालता है:

तुम्हारा प्यार तो साँसों में सांस लेता है
जो होता नश्शा, तो इक दिन उतर नहीं जाता

'वसीम' उसकी तड़प है, तो उसके पास चलो
कभी कुआँ किसी प्यासे के घर नहीं जाता

रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी साहब के महबूब शायर हैं वसीम साहब, वो उनसे और उनके कलाम दोनों से मोहब्बत करते हैं.उनका कहना है "वसीम की शायरी में ज्ञान और विवेक की तहों का जायजा है".उनके चाहने वाले दुनिया भर में हैं और वो जहाँ जाते हैं लोग उन्हें सर आँखों पर बिठाते हैं. ये मुकाम बहुत कम शायरों को नसीब हुआ है.

मैं इस उम्मीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तिहान क्या लेगा

मैं उसका हो नहीं सकता, बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वह सब जला लेगा

हज़ार तोड़ के आ जाऊं उससे रिश्ता 'वसीम'
मैं जानता हूँ वह जब चाहेगा, बुला लेगा

मुझे यकीन है की उर्दू शायरी के प्रेमी होने के नाते आप ये किताब जरूर अपनी किताबों की अलमारी में रखना चाहेंगे. ये ऐसी किताब है जिसको न खरीदने के बारे में सोचना भी पाप है. अब आखिर में चलते चलते आईये पढ़ते हैं वसीम साहब के कुछ फुटकर शेर जिन्हें आप बरसों नहीं भूल पाएंगे.

वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से
मैं ऐतबार न करता, तो और क्या करता
***
उसी को जीने का हक़ है, जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
***
बिछड़ के मुझसे तुम अपनी कशिश न खो देना
उदास रहने से चेहरा ख़राब होता है
***
ये सोचकर कोई अहदे वफ़ा करो हमसे
हम एक वादे पे उम्रें गुज़ार देते हैं
***
मुझे पढता कोई तो कैसे पढता
मेरे चेहरे पे तुम लिक्खे हुए थे
***
वो मेरी पीठ में खंज़र जरूर उतारेगा
मगर निगाह मिलेगी, तो कैसे मारेगा
***
ग़रीब लहरों पे पहरे बिठाये जाते हैं
समन्दरों की तलाशी कोई नहीं लेता

इस तरह के सैंकड़ों शेर भरे पड़े हैं इस किताब में, आप खरीद कर तो देखिये. दिल्ली के बाशिंदे तो इस बार शायरी की ऐसी कई किताबें पुस्तक मेले से खरीद सकते हैं. मेरा काम बताने का है और आपका....??? आप सोचिये.

45 comments:

  1. नीरज सर, हिन्दुस्तान के इन हर दिल अज़ीज़ शायर की पहली देवनागरी में तब्दील इतनी लाजवाब पुस्तक से अवगत कराने के लिए बहुत आभारी हूँ..
    एक एक शेर दिल चीर के निकला है..
    जय हिंद...

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  2. niraj ji

    aaj to nishabd kar diya........na jaane rooh ke kis kone se gujarkar sher nikle hain , itni mahan shakhsiyat se ru-b-ru karwane ka shukriya ada kin lafzon mein karoon...........har sher rooh mein utarta chala gaya.

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  3. बहुत आभार आपका इस पुस्तक परिचय के लिये.

    रामराम.

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  4. वसीम बरेलवी साहब का कथन कि "लफ्ज़ और एहसास के बीच का फासिला तय करने की कोशिश का नाम ही शायरी है, मगर ये बेनाम फासिला तय करने में कभी कभी उम्रें बीत जाती हैं और बात नहीं बनती." शायरी के इल्‍म का वो पाठ है जिसे समझना और उतारना हर शायरी सीखने वाले के लिये जरूरी है। बड़ी सादगी से यह गंभीर पाठ उन्‍होने पढ़ा दिया।
    वसीम साहब के किसी एक शेर की तारीफ करूँ तो लगेगा कि सीधी सादी भाषा में कहे गये बाकी शेर समझने का माद्दा मुझमें नहीं है और तारीफ करने लगा तो आपकी पोस्‍ट से बड़ी टिप्‍पणी हो जायेगी।

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  5. खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते
    कोई तो है, जो हवाओं के पर कतरता है

    नीरज जी ....... आपने शुरुआत में ही इतना ग़ज़ब का शेर लगाया है वसीम बरेलवी जी का की आगे का अंदाज़ हो गया ....... उनकी शायरी में दिल को छू लेने वाले एहसास हैं ......... गहरी बात को बहुत सीधे सीधे से कह दिया है .......
    और आपका अंदाज़ हमेशा की तरह बहुत दिलकश, इतना लाजवाब कि मन करता है बस अभी खरीद लूँ किताब को .........

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  6. वसीम साहब की बात सिद्ध करने के लिये एक उदाहरण देना चाहूँगा। 20 वर्ष से अधिक हो गये एक मुखड़ा कहा था कि:
    उॅची-नीची, सर्पिल सी, पगडंडी तेरे गॉंव की
    धूप-धूप ही बिखरी है रे ठौर नहीं इक नहीं छॉंव की।
    ये गीत कभी पूरा नहीं हो सका, बस वही बात थी कि लफ़्ज और एहसास का फासिला कभी तै न हो सका। इस बीच सोच की परिपक्‍वता कुछ बढ़ी तो लगा कि मुखड़ा ही ग़लत है, सरासर ग़लत। मुखड़ा सुधरा कि:
    उँची-नीची, क्‍यूँ लागे, पगडंडी तेरे गॉंव की
    धूप-छॉंव के खेल में जीवन, आस रखे क्‍यूँ छॉंव की।
    मुखड़े में तो एहसास ने लफ़्ज पा लिये लेकिन छंद मूर्त रूप न ले सके और मैनें समझ लिया कि इस एहसास को व्‍यक्‍त करने योग्‍य मॉं सरस्‍वती ने मुझे नहीं पाया है। इस एहसास पर शायद किसी दिन किसी अन्‍य से मुझे यह गीत पूरा सुनने को मिलेगा, यही आस है।

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  7. नीरज जी, आदाब
    वसीम साहब का जिक्र ही शायरी के दीवान से कम नहीं होता
    और उनकी शायरी पर कुछ कह पाना,
    बहुत गुणवान ही ऐसा कर सकते हैं
    इस मुश्किल काम को इतनी आसानी से पेश करने के लिये
    तहे-दिल से दाद कबूल फरमायें
    'मेरा क्या' तो आकर ही रहेगी

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  8. नीरज जी आपने शुरुआत में ही इतना ग़ज़ब का शेर लगाया है आगे का अंदाज़ हो गया ....... उनकी शायरी में दिल को छू लेने वाले एहसास हैं ......... गहरी बात को बहुत सीधे सीधे से कह दिया है .......

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  9. वसीम साहब मेरे अत्यंत प्रिय शायर हैं। ऐसी बहुत कम ग्रज़लें हुआ करती हैं जिनमें लगभग सभी शेर अच्छे हों पर वसीम साहब अकसर ऐसी ही ग़ज़लें लिखा करते हैं। उनके कुछ शेर जो यहां नहीं हैं, आपके सामने रख रहा हूं:

    क्या दुख है समंदर को बता भी नहीं सकता
    आंसूं की तरह आंख में आ भी नहीं सकता

    वैसे तो एक आंसू बहाकर मुझे ले जाए
    ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता

    तू छोड़ रहा है तो ख़ता इसमें तेरी क्या
    हर शख़्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता

    उनकी क़िताब से परिचय कराने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।

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  10. नीरज जी, "मेरा क्या" का हर शेर बोलता है, ये अनमोल रत्न मैंने पहले से ही अपने पास सहेज के रख रखा है

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  11. वसीम साहब से शेर अक्सरहां गुनगुनाने लायक होते है... अच्छी बात तो यह है की ये वर्तमान परिदृश्य में ज्यादा सार्थक लगते हैं...
    शराफतों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
    किसी का कुछ न बिगाड़ो, तो कौन डरता है.

    अब क्या कह सकते हैं.. इसपर... ????

    लाख तलवारें बढीं आती हों गर्दन की तरफ
    सर झुकाना नहीं आता, तो झुकाएं कैसे

    शुक्रिया...

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  12. इस अज़ीम शायर की किताब के बारे में बता कर बहुत उपकार किया है आपने।
    हार्दिक आभार।
    अमर

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  13. शराफतों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं
    किसी का कुछ न बिगाड़ो, तो कौन डरता है.

    वसीम बरेलवी तो छाही गए..

    सोचता हूँ.. आप कितना पढ़ लेते है.. और लिख भी देते है यहाँ.. मेरे लिए तो ये सब नामुमकिन सा लगता है..

    वैसे अगले महीने जयपुर में भी बुक फेयर लग रहा है.. आप ही के ब्लॉग पर तफरी मारके जाऊँगा..

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  14. Waseem ji ko kaee martabaa
    mushaayroN meiN sunaa hai
    aur har baar yahi lagaa
    k abhi aur sunaa jaae...aur sunaa jae
    har insaan ki zindgi ki koi na koi baat unki shaayri mei zinda-jaaved mil jaati hai..
    unka ek sher aksar zabaan par rehta hai...
    "wo mere saamne hi gayaa, aur maiN ,
    raaste ki tarah dekhtaa reh gayaa "

    aapka aabhar .

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  15. नीरज जी जब आप ऐसी बहुमुल्य पुस्तक का जिक्र करते हैं तो उसे हम तक पहुँचाने की जिम्मेदारे भी ले लें मुझे लगता है अब दिल्ली जाना ही पडेगा ये दो शेर पढ कर ही वसीम साहिब की पुस्तक पढने की उत्सुकता बढ गयी है
    उसूलों पर जहाँ आंच आये, टकराना जरूरी है
    जो जिंदा हो, तो फिर जिंदा नज़र आना जरूरी है

    थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
    सलीका मंद शाख़ों का लचक जाना जरूरी है
    वाह वाह वसीम साहिब को बधाई और सलाम आपका धन्यवाद्

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  16. लीजिये नीरज जी...आपकी चुनी हुई एक और किताब जो मेरी आलमारी की भी महक बढ़ा रही है विगत एक साल से।

    अशआरों का चयन यकीनन माशल्लाह। वसीम साब तो हम जैसों के लिये खुदा का रुतबा रखते हैं।

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  17. नीरज जी , हमें तो उर्दू शायरी का ज्यादा ज्ञान नहीं है । लेकिन वसीम साहब की शायरी वास्तव में आसान लफ़्ज़ों में पढ़कर आनंद आ गया।
    आभार इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए ।

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  18. vaseem saahab ka to javaab hee naheen...main bhopal men unse mil chukee hoon....

    aapne bahut achchha paramarsh diya hai pustaken khareedne ka.....

    aabhar..

    shubh-kaamnaen
    Gita

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  19. वाह! क्या नायाब तोहफा दिया है आपने!!
    पढ़ा भी और सुना भी ..
    अभी और भी शेष है सुनने के लिए ..मैं चला...

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  20. आज की आपकी पोस्ट नें मेरे भी पुराने दिनों की याद दिला दी जब विश्वविद्यालय के दिनों में हम लोग इन लाइनों को गुनगुनाया करते थे.

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  21. वसीम बरेलवी साहब-कितना कह पाऊँगा अपनी सारी औकात जुटा कर भी...जबरदस्त!!


    उसूलों पर जहाँ आंच आये, टकराना जरूरी है
    जो जिंदा हो, तो फिर जिंदा नज़र आना जरूरी है

    कितना बड़ा फलसफा लिए हर शेर....घंटो एक शेर की छांव में गुजार दें तो भी पूरी गहराई में उतरना संभव नहीं.

    बहुत आभार आपका इस समीक्षा के लिए.

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  22. बेहतरीन एक एक शेर कमाल लगा वसीम साहब का। ये पुस्तक निश्चय ही खरीदने योग्य है।

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  23. वाह जी वाह ऐसा लगा जैसे कोई खजाना मिल गया..एक से बढ़ कर एक ग़ज़ल पढ़ना बहुत सुखद लगा..बहुत बहुत धन्यवाद नीरज जी

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  24. ओह नीरज सर, आपको कम से कम बताना चाहिए था की आज वासिम साहब आ रहे हैं.

    मेरी कोशिश होती पहला दीदार मैं करता. ये वहि शायर जिनको मैंने पहली एक बार टी.वी. पर सुना और उनका फेन बन चूका हूँ, मन ही मन उनको अपना शायरी का उस्ताद मानता हूँ.

    आगे अगली टिपण्णी में कहूंगा..

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  25. E-mail received from Om Sapra Ji:


    shri neeraj ji
    namastey
    the poetry of vaseem barelvi as presented by is your superb selection,
    congrats,
    i am going to jaipur on 3rd fefruary, 2009 to attend a marriage of son of a friend of mine.

    regards,
    -om sapra, delhi-9

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  26. वासिम साहब का एक शे'र नौजवानों के लिए बतौरे-ख़ास पेश है...

    खासकर नए ब्लोगरो से अपील है पसंद आये तो दिल में उतार लेना मेरे दोस्त.

    “कौनसी बात, कब और कहाँ कहनी चाहिए
    ये सलीका आता हो तो हर बात सुनी जायेगी“

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  27. neeraj ji, behatareen prastuti hai, padhkar bahut achcha laga. pustak jald leta hun. aabhaar.

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  28. बहुत खूबसूरत चर्चा।

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  29. मेरे बहुत ही प्रिय शायर हैं वसीम साहब. तरन्नुम में गजल सुनाते हैं तो लगता है कि इंसान को और क्या चाहिए? ये किताब संयोग से मेरे पास है. कलकत्ते में वसीम साहब को मुशायरे में सुना भी है. बहुत बढ़िया अनुभव रहा था. आपकी यह सीरीज एक ऐसी धरोहर बन जायेगी जिसकी कल्पना करना शायद अभी मुमकिन न हो.

    वसीम साहब ने मुशायरे में ये शेर सुनाये थे;

    उड़ान वालों उड़ानों पे वक़्त भारी है
    परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है

    मैं क़तरा होके तूफानों से जंग लड़ता हूँ
    मुझे बचाना समंदर की जिम्मेदारी है

    कोई बताये ये उसके गुरूर-ए-बेजा को
    वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है

    दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
    ये एक चराग कई आँधियों पे भारी है

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  30. खूबसूरत शेर पढ़वाये, और एक अच्‍छा परि‍चय जानकारी में आया धन्‍यवाद।

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  31. वसीम साहब की शायरी में सच की सरलता है और एहसास की महक |उनकी कुछ ग़ज़लें जो जगजीत सिंह ने बहुत बखूबी गायी है उनका ज़िक्र करना चाहूँगा

    मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो... की में ज़मीन के रिश्तों से कट गया यार्रों

    मैं चाहता भी यही था वो बेवफ़ा निकले..उसे समझने का कोई तो सिलसिला निकले

    शायद उन्ही के दो शेर उनकी शायरी को बखूबी बयान करते हैं

    कौन-सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
    ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है

    पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
    कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है

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  32. उसूलों पर जहाँ आंच आये, टकराना जरूरी है
    जो जिंदा हो, तो फिर जिंदा नज़र आना जरूरी है


    bhavnatmak shayari hain.
    Neeraj ji kya acche shayari ke liye jeevan me dukh aana jaroori hai?

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  33. mujhe shayari karni to aati nahin par padna pasand hai.
    par inhen padkar man udas ho jata hai.
    aap aise bhi shayaron ka bhi parichay karwaiyega jinhone jeevan ko behad sakaratmak drishti se dekha ho.
    Aabhar.
    Roshani....

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  34. मुझे पढता कोई तो कैसे पढता
    मेरे चेहरे पे तुम लिक्खे हुए थे
    उस्ताद शाईर जनाब वासिम साब का ये शे'र सलीके से परेशान कर रहा है नीरज जी ... कल से इस शे'र का हुआ बैठा हूँ ... कल ही उनकी पुस्तक मेरे पास आयी है ... कुछ भी कहने के लायक नहीं हूँ मैं....इस किताब के लिए खास कर आपका आभार ब्यक्त भी नहीं कर सकता ... उस चीज के लिए मेरे पास शब्द नहीं है ...



    आपका
    अर्श

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  35. नीरज जी वसीम साहब से मिलवाने का शुक्रिया । थोडेसे ही शेर अभी पढे हैं, पर उसी में डूब गये । इत्मिनान से पढ कर फिर कमेंट करूंगी ।

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  36. दादा अभी तक वसीम जी को सुना ही था. आपने पढबे की राह दिखा दी है.

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  37. तुम्हारा प्यार तो साँसों में सांस लेता है
    जो होता नश्शा, तो इक दिन उतर नहीं जाता

    वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से
    मैं ऐतबार न करता तो और क्या करता

    तू छोड़ रहा है तो ख़ता इसमें तेरी क्या
    हर शख़्स मेरा साथ निभा भी नहीं सकता

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  38. MOTIYO KO JIS MALA MEIN PIRO KAR GALE KA HAAR BANA DIYA H USKE LIYE DIL SE ABHAAR VAYAKT KARTA HUN.

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  39. neeraj ji kya kamal ka collection he aapka masha allah
    wasim sir ka ek sher yaad aata he

    nazar me aayenge chehre na jane kiss kiss ke,

    dua karo mehfil me roshni kam ho

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  40. थके हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें
    सलीका मंद शाख़ों का लचक जाना जरूरी है
    वाह वसीम साहिब

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  41. दिल को छू लेने वाले अशआर से रू-ब-रू होना ऐसा ही है जैसे बचपन की प्रेमिका से फिर मिलना. बहुत सुकून देते हैं आप ये काम करके नीरज जी !

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  42. Wonderful..So nice of you to let us know about this Great persona!
    All the best to you!

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  43. कुछ भी कहना अब जरूरी तो नही,
    ये भी कहीं मेरी जी हुज़ूरी तो नही।

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे