Monday, June 29, 2009

क़ैद में पंछी फडफडाते हैं




हम तो बस अटकलें लगाते हैं
कब किसे यार जान पाते हैं

आप खुश हैं मेरे बगैर अगर
अश्क छुप छुप के क्यूँ बहाते हैं

लाख इनका करो ख्याल मगर
क़ैद में पंछी फडफडाते हैं

नाम माँ का जबां पे आता है
दर्द में जब भी बिलबिलाते हैं

ज़िन्दगी है गुलाब की डाली
साथ फूलों के खार आते हैं

चाँद आता नजर अमावस में
आप जब ग़म में मुस्कुराते हैं

हुस्न निखरे कई गुना 'नीरज'
फूल जब ओस में नहाते हैं

( गुरुदेव प्राण शर्मा जी के आर्शीवाद से संवरी ग़ज़ल )

Monday, June 22, 2009

मैं हूँ डॉन --ठाँय

(दोस्तों ये सच्ची घटना तब की है जब खुद के ब्लॉग का होना किसी के लिए भी प्रतिष्ठा का प्रतीक था. समाज की नज़रों में हर इंसान का रुतबा, ब्लॉग होने से ऊंचा उठ जाता था. बड़े अच्छे दिन थे वो. जिसका ब्लॉग होता था उसके पाँव जमीन पर नहीं होते थे और जिनका नहीं होता वो शर्म से जमीन में गड़ जाया करता था. आज ब्लॉग, मोबाईल की तरह हर एक की जरुरत हो गया है...किसी किसी के पास तो एक से ज्यादा भी)

{ संवैधानिक सूचना: इस पोस्ट को पढ़ते समय बुद्धि का प्रयोग वर्जित है ,ऐसा ना करने पर आप को हुई हानि के लिए आप स्वयं ही जिम्मेवार होंगे , लेखक नहीं }




नींद अभी पूरी तरह से खुली भी नहीं थी कि मोबाइल की घंटी बजी. यूं कह सकते हैं कि मोबाईल की घंटी की वजह से ही नींद खुल गई.

"हेलो" मैंने अलसाई आवाज़ मैं कहा.

"क्या बावा, सुबेरे-सुबेरे नींद का आनंद ले रयेला है? एक बात बता, ये तुम लोग सुबेरे सोता कैसे है? "

सवाल और भाषा से नींद जाती रही. आवाज़ के कड़क पन ने आलस्य को भी डपट दिया.

मैंने हड़बड़ा कर कहा; "जी मैं नीरज और आप?"

"अपुन डॉन... क्या?"

"डॉन..??? कौन शाहरुख़? "

"क्या रे. ये शाहरुख कभी से डान बना, बे ढक्कन "

"ओह तो क्या अमिताभ जी?" मैं चहका.

"क्यों बे, रात को लगा ली थी क्या? या सुबह-सुबह दिमाग मोर्निंग वाक को गए ला तेरा ? खवाब देख रए ला है क्या बे?" उधर से आवाज आई.

अब मैं उठ के बैठ गया दिमाग मैं घंटी बजी की मामला कुछ गड़बड़ है. गले से गों गों की आवाज निकलने लगी .

"अपुन असली डॉन ,बोले तो बड़ा सरोता, समझा क्या? तू अपुन का नाम तो सुना ही होगा."

"बड़ा सरोता?" मैं हकलाया. "वो ही जो किसी की भी सुपारी ले कर उसे कुतर डालता है?"

"वोहीच रे. आदमी पढ़ा लिखा है तू, क्या?" वो खुश हो के बोला.

"थैंक्यू थैंक्यू सर" मैंने थूक निगलते हुए कहा. "आप ने मुझे कैसे फ़ोन किया सर?" डर अच्छे अच्छे को तेहजीब से बोलना सिखा देता है. डॉन के लिए "सर" का संबोधन अपने आप मेरे मुह से झरने लगा. अब मैं बिस्तर छोड़ खड़ा हो गया था.

"मुझे हुक्म कीजिये सर मैं आप के क्या काम आ सकता हूँ?" मैंने ज़बान मैं जितनी मिठास लायी जा सकती थी ला कर कहा.

"ऐ स्याणे जास्ती मस्का मारने का नहीं, समझा क्या? बोले तो तू अपुन के क्या काम आएगा? अपुन अपने काम ख़ुद इच आता है " बड़ा सरोता बोला.

"येस सर येस सर" मैं फिर से हकलाया.

"देख बावा डरने का नहीं. पन अपुन सुना है, तूने कोई ब्लॉग खोले ला है."डॉन के मुहं से ब्लॉग की बात सुन के मैं चकराया. सोचने लग गया कि इसे कैसे पता चला.

मैंने कहा; " सर ब्लॉग भी कोई खोलने की चीज है. ब्लॉग तो लिखने के लिए होता है."

उसने कहा; "क्या बे, अपुन को एडा समझा है क्या तू?"

मैंने कहा; "क्या बात कर रहे हैं सर, मैं और आप को ऐसा समझूं!"

"अभी जास्ती पकाने का नहीं. एक ईच बात बताने का. तेरा ब्लॉग है या नहीं?" सरोता ने पूछा.

मैंने कहा; " है सर, है. पर इसमें मेरी कोई गलती नहीं है. वो तो शिव और ज्ञान जी ने मुझे ब्लॉग लिखने के लिए कहा. आप मेरी बात का यकीन कीजिये, मुझे मालूम होता कि आप नाराज होंगे तो मैं उन्हें ब्लॉग बनाने ही नहीं देता."

सरोता जी बोले; "क्या रे, ये तुम पढ़ा-लिखा लोग इतना सोचता काई को है? अभी तू बोल, मैं नाराज है, ऐसा बोला क्या मैं?"

"नहीं. लेकिन मुझे लगा कि आप मेरे ब्लॉग को देखकर नाराज गए हैं", मैंने उनसे कहा.

"देख, जास्ती सोचने का नहीं. अभी इतना सोचेगा, तो दिमाग का दही बन जायेगा. अपुन को देख, अपुन गोली चलाने से पहले सोचता है क्या? नई न. फिर? बोले तो, सोचने का नई. नौकरी करने का और ब्लॉग लिखने का." डान बोला.

मुझे थोड़ी राहत मिली. मैंने कहा; " ये तो अच्छी बात है न सर, कि आप नाराज नहीं हैं. अच्छा बताईये, मुझसे क्या काम है."

सरोता बोला, "देख, तू मेरा काम करीच नई सकता. मैं बोल रहा था, तू तो बस अपना काम कर. क्या, ग़लत बोला क्या मैं? नई न? मेरे को बस इतना ईच काम है तेरे से कि मेरा एक ब्लॉग बना दे"

"क्या बात कर रहे हैं, सर. आपका ब्लॉग???" मैं आसमान से गिरा और खजूर पर भी नहीं अटका.

"क्यों बे, तेरे को कोई प्रॉब्लम है क्या? नई न? नहीं बोल, प्राब्लम होने से बता, मैं तेरा भी गेम बजा दूँ अभिच . अपुन कभी-कभी शौकिया भी एक दो को टपका डालता है " डान दहाड़ा.

"नहीं सर, मुझे कोई प्राब्लम नहीं है, लेकिन आप ठहरे भाई. आपका ब्लॉग हो, इसकी क्या जरूरत है?" मैंने डरते-डरते कहा.

"काई को? अभी अमिताभ का आमिर का अल्लू बल्लू कल्लू का ब्लॉग हो सकता है तो अपुन का भी हो सकता है." डान बोला.

"सर अमिताभ ,आमिर तो मैं जान गया सर लेकिन ये अल्लू बल्लू कल्लू कौन हैं सर?" मैंने डरते डरते पूछा.

"अबे अल्लू बल्लू कल्लू माने तेरे माफिक फालतू का लोग ,समझा क्या?"

मेरी चुप रहने में ही भलाई थी सो चुप ही रहा.

"अपुन को भी फेमस होने का...इंटर नेशनल होने का...क्या ?" डॉन ने आगे कहा." अभी देख तेरे को कौन जानता था रे...तूने ब्लॉग बनाया तो कित्ता लोग तुझको जानता है,...नहीं क्या? ऐसे अपुन को भी फेमस होने का...बस." अभी बोल अपुन का ब्लॉग होना की नहीं होना चाहिए...बोल बे...मुंह सियेला है क्या?"

"नहीं नहीं सर, आपका ब्लॉग तो होना ही चाहिए, आप का नहीं तो किसी का भी नहीं होना चाहिए सर" मैं रिरियाया. मन ही मन मैंने सोचा की क्या दिन आ गए हैं एक डॉन को भी अब ब्लॉग की चाह होने लगी है .

"वो ईच तो, वो ईच तो बोल रए ला हूँ मैं इतनी देर से. तेरे भेजे में अपुन की बात उतरती ही नहीं. क्या बे, भेजा है कि नई, या दुनिया को खाली-पीली हूल देता फिरता है?"

"जी जी सर, है. भेजा है " मैंने घिघियाते हुए बताया.

"है न. तो फिर मेरे वास्ते एक ताजा ब्लॉग बना. और सुन ब्लॉग में तेरे को ईच लिखना है. समझा क्या?" डान ने मुझे धमकाते हुए बताया.

"याने मैं लिखूं आपका ब्लॉग सर ?" मैंने उससे पूछा.

"अबे एक बात बता. अभी तू बोला कि तेरे पास भेजा है. मेरे को एक ईच बात बोल, ये कैसा भेजा है बे, जो मक्खन का माफिक प्लेन बात भी नई समझता?" आगे बोला; "अभी तू सोच, अपुन ब्लॉग लिखेगा, तो अपुन का गेम बजाने का काम क्या तू करेगा? अपुन के पास एक ही ईच चीज नई है...पूछ क्या?

"क्या सर" मैंने पूछा

"वो है टाइम. समझा क्या? अपुन के पास बंदूक है. दुनिया का नियम है बे, जिसके पास टाइम नहीं उसके पास बन्दूक है और जिसके पास टाइम है उसके पास बंदूक नही होती." डान ने समझाते हुए कहा.

इतने ज्ञान की बात सुन के मेरी इच्छा हुई की मैं डॉन भाई के पांव छू लूँ."अभी तेरे पास बन्दूक नहीं सिर्फ टाइम है इसलिए तू अपुन का ब्लॉग लिख...समझा क्या?"

"मैं तो सिर्फ शायरी करता हूँ सर लेकिन मेरे भाई लोग अपने ब्लॉग में ऐसी ऐसी बातें लिखते हैं सर की दिमाग भन्ना जाता है सर...मुझसे बहुत ज्यादा विद्वान लोग हैं सर आप कहें तो उनसे बात करूँ सर..."मैंने लगभग रोती आवाज़ में अपनी जान बचने को कहा"

"अपुन का भेजा खाने का नहीं समझा क्या अपुन का ब्लॉग होने का मतलब की होने का बस . अब तू चाहे ख़ुद लिख या लिखवा ये अपुन का टेंशन नहीं समझा क्या? बस और अपुन कुछ नहीं बोलेगा. बात खल्लास." डान ने धमकाते हुए कहा.

मैं चुप रहा ,बोलने के लिए था ही क्या?

"और सुन ब्लॉग का नाम होना "मैं हूँ डॉन --ठाँय "

"ठाँय??? ठाँय क्या सर?" मैंने मूर्खता पूर्ण प्रश्न किया...

उधर से गोली चलने की आवाज़ आयी...थोडी देर की खामोशी के बाद डॉन बोला..."समझा क्या ठाँय?? "

"समझ गया समझ गया सर...बिना ठाँय के क्या डॉन सर...वाह सर आप ग्रेट हो सर...क्या नाम दिया है ब्लॉग का सर... लेकिन ब्लॉग में लिखना क्या होगा सर?"

"अबे ब्लॉग में भी सोचके लिखने का होता है क्या? अपुन की तारीफ लिखने का, पुलिस की बुराई लिखने का, चाक़ू, छुरी, कटार, तमंचा ,बन्दूक, बोम्ब का ताजा जानकारी लिखने का और क्या लिखने का रे? हाँ और लिखने का की डॉन से डरने का नहीं, डॉन को भाई मानने का, बस डॉन से पंगा लेने का नहीं सिर्फ़ उसकी बात पे मुण्डी हिलाने का"

"जी जी समझ गया सर"

"ब्लॉग जल्दी लिखने का समझा क्या? अपुन को इंटरनेशनल फ़टाफ़ट बनने का रे और सुन अगली बार अपुन का फ़ोन नहीं आएगा,या तो भेजे में गोली आएगा या डॉलर का बंडल आयेगा, अपुन उधार का धंदा नहीं करता समझा क्या?

फ़ोन कट गया. तब से परेशान हूँ की क्या लिखूं ? कोई है जो मेरी मदद करे? डॉलर के बंडल से आधा उसका जो मेरी मदद करेगा . चलो आधा नहीं पूरा का पूरा बंडल उसका, अपनी तो जान बच जाए ये ही बहुत है रे.

यहाँ अपने ब्लॉग पे लिखने के लिए कुछ नहीं मिल रहा ऊपर से डॉन के ब्लॉग के लिए टेंशन.... एक बात और आज तो डॉन का फ़ोन हमारे पास आया है हो सकता कल को किसी और डॉन की घंटी किसी ब्लोगर के पास बज जाये...एक डॉन का ब्लॉग खुला नहीं की दूसरी गेंग वाला डॉन भी अपना ब्लॉग खोलने के लिए मेरे जैसे किसी और निरीह ब्लोगर को ढूंढ़ना शुरू कर देगा...आप सब सावधान रहिएगा फ़िर न कहियेगा की मैंने बताया नहीं.और हाँ एक और बात डॉन भाई ने बोली है वो ये की जिस किसी ने उनका ब्लॉग नहीं खोला और टिपण्णी नहीं दी...तो "ठाँय"

Monday, June 15, 2009

किताबों की दुनिया - 12

"किताबों की दुनिया" वाली श्रृंखला जब शुरू की थी तब अनुमान नहीं था की पाठक इसे पसंद करेंगे...लेकिन मेरा अनुमान गलत निकला पाठकों ने इसे पसंद भी किया और मुझे प्रोत्साहित भी. इसीलिए आज मैं इसकी बारहवीं याने की एक दर्जन वीं पोस्ट के प्रकाशन के मौके पर बहुत ख़ुशी महसूस करते हुए अपने सभी पाठकों का उत्साह वर्धन के लिए धन्यवाद करना चाहता हूँ...

"ओम सपरा" जी से मैं व्यक्तिगत तौर पर तो कभी नहीं मिला लेकिन एक आध बार फोन और ई-मेल के माध्यम से परिचय है. वो मेरी रचनाओं को पढ़ कर हमेशा मेरा उत्साह वर्धन करते रहे हैं. "सपरा जी" के ,जो दिल्ली में रहते हैं और बहुत बड़े साहित्य प्रेमी हैं, अनुभव का लाभ तो मुझे मिलना ही था सो मिल गया. उन्हीं की मेहरबानी से मुझे "आवाज़ का रिश्ता" किताब की जानकारी मिली जिसे जनाब "कुलदीप सलिल" साहेब ने लिखा है. पुस्तक के अशआर पसंद आने पर पाठक "ओम जी" का शुक्रिया करना ना भूलें.



खाक़ हो जाये न तन, मिटटी न हो मन जब तक 
चीज़ ऐसी है ये हसरत कि निकलती ही नहीं 

ज़िन्दगी धूप भी है, छाँव भी है तो फिर क्यूँ 
बदनसीबी ये सरों से कभी टलती ही नहीं 

मकां कोई यहाँ तामीर करे तो कैसे 
ऐसी मिटटी है कि बुनियाद ठहरती ही नहीं 

इस किताब कि ग़ज़लें इतनी सरल हैं कि पढने वाला कब इन्हें गुनगुनाने लगता है पता ही नहीं चलता. बेहद सादा जबान इसकी सबसे बड़ी खासियत है. ये कमाल  कोई अनुभवी ही कर सकता है और सलिल साहेब के पास लगता है अनुभव का खजाना है. इसीलिए उनकी कही बात पढने वालों को अपनी ही लगती है.

हो मुहैया हमें सबकुछ ,हो ये कैसे ? और फिर
ऐसी चीजें भी तो हैं जिनकी कमी अच्छी है 

काम लो मेरे तजरबे से, न मचलो इतना 
यहाँ कुछ कहने से खामोशी कहीं अच्छी है 

सलिल साहेब ने एम् ऐ अंग्रेजी और अर्थ शास्त्र दिल्ली विश्व विद्यालय से किया था उसके बाद "हंस राज कालेज" दिल्ली के अंग्रेजी विभाग में वरिष्ठ रीडर के पद पर बरसों काम किया. सत्तर वर्षीय सलिल साहेब अब अपना सारा समय साहित्य साधना में लगाते हैं. उन कि शायरी सागरो मीना,गुलो बुलबुल, आशिक माशूक से आगे कि शायरी है... उनके तेवरों कि जरा बानगी तो देखिये...आप कह उठेंगे...वल्लाह क्या शायरी है:

रौशनी छीन के घर-घर से चरागों कि अगर,
चाँद बस्ती में उगा हो, मुझे मंजूर नहीं 

हूँ मैं कुछ आज अगर तो हूँ बदौलत उसकी 
मेरे दुश्मन का बुरा हो, मुझे मंजूर नहीं 

हो चरागां तेरे घर में, मुझे मंजूर 'सलिल' 
गुल कहीं और दिया हो, मुझे मंजूर नहीं 

वाणी प्रकाशन, २१-ऐ , दरियागंज, नई दिल्ली, द्वारा प्रकाशित इस किताब में ११५ ग़ज़लें हैं...इन्द्र धनुष के सारे रंग समेटे हर ग़ज़ल हीरे कि कणी जैसी है...अगर आप दिल्ली में रहते हो तो फिर काम आसान है लेकिन दिल्ली से बाहर रहते हैं तो दिल्ली में रहने वाले किसी इष्ट मित्र कि सेवाएं इसे खरीदने में प्राप्त कि जा सकती हैं, जैसे कि मैंने की हैं.

आज के जीवन कि त्रासदी को सलिल साहेब ने किस खूबसूरती से आसान लफ्जों में बयां किया है देखिये:

यहाँ इक-दूसरे के घर अभी तक लोग जाते हैं
तुम्हारे शहर कि ये सादगी अच्छी लगी हमको 

छुअन तक हम भुला बैठे थे जब ठंडी फुहारों की 
किसी बच्चे की किश्ती कागजी अच्छी लगी हमको 

सफ़र से दुनिया के लौटे, खला में घूम आये जब
तो अपने गाँव कि इक-इक गली अच्छी लगी हमको 

प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर साहेब ने लिखा है " सलिल साहब ग़ज़ल लिखना जानते हैं और लिखते रहेंगे. हमें आशा है कि एक दिन ग़ज़ल कि दुनिया में उनका नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा क्यूँ कि उनके कहने में सादगी और सलीके के साथ ग़ज़ल कि गहराई भी है."प्रभाकर" साहेब कि बात को सिद्ध करने के लिए नहीं सिर्फ आपको उनकी शायरी का विस्तार दिखाने के लिए उनके ये शेर पढने कि दावत देता हूँ:

सर के बल आऊँ तेरे घर मैं तो लेकिन इस से क्या 
तू मिला न राह में तो फ़ासला रह जायेगा

चुप्पियाँ रह जाएँगी, रह जाएँगी तन्हाईयाँ 
तेरे जाने पर भी यों तो घर बसा रह जायेगा 

वो चले जायेंगे तूफाँ, में भी अपने काम पर
और कोई घर के अन्दर काँपता रह जायेगा 

उम्मीद है आपको भी मेरे तरह "सलिल" साहेब कि शायरी के सागर से उठाये ये मोती जरूर पसंद आये होंगे...जैसा मैंने कहा कि आप "ओम" जी का शुक्रिया जरूर अदा कीजिये वर्ना इस किताब तक पहुंचना मेरे लिए शायद संभव न होता. आयीये चलते चलते एक आध शेर का आनंद और उठा लिया जाये ...

ग़ज़ल में मीर हैं जैसे भजन मीरा का भजनों में
किसी का है मकाम ऐसा हमारे ख़ास अपनों में 

और

ज़िन्दगी लेके कहाँ आयी सलिल साहब आज
देखने को नहीं कुछ और नज़र बाकी है 

किताबों कि दुनिया का ये सिलसिला तब तक चलता रहेगा जब तक आप सब का दुलार इसे मिलता रहेगा...आपके दुलार में कमी ही इसके समापन का कारण होगी...तो चलते हैं एक और किताब कि तलाश में...

Monday, June 8, 2009

परिंदे प्‍यार के उड़ने दे



ये ग़ज़ल दुष्यंत जी के लाजवाब शेर

जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम कहाँ हैं आदमी हम झुनझुने हैं

से प्रभावित हो कर लिखी है...लेकिन बहर और कथ्य अलग हैं, गुरुदेव पंकज सुबीर का आर्शीवाद मिले बिना मेरी ये रचना बेमानी ही रहती.


ये कैसे रहनुमा तुमने चुने हैं
किसी के हाथ के जो झुनझुने हैं

तलाशो मत तपिश रिश्तों में यारों
शुकर करिये अगर वो गुनगुने हैं

बहुत कांटे चुभेंगे याद रखना
अलग रस्ते ये जो तुमने चुने हैं

'दया' 'ममता' 'भलाई' और 'नेकी'
ये सारे शब्‍द किस्‍सों में सुने हैं

रिआया का सुनाओ दुख अभी मत,
अभी मदिरा है और काजू भुने हैं

यहाँ जीने के दिन हैं चार केवल
मगर मरने के मौके सौ गुने हैं

परिंदे प्‍यार के उड़ने दे 'नीरज'
हटा जो जाल नफरत के बुने हैं

Monday, June 1, 2009

कहती है शम्‍अ हंस कर


कोई अस्सी के दशक की बात है ,राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी जी ने मिलकर एक उपन्यास लिखा था "एक इंच मुस्कान", इसके लेखन में खूबी ये थी की दोनों ने अपने अपने अध्याय अलग अलग ढंग से लिखे थे ,जहाँ से पहला अपनी बात और कथा ख़तम करता वहीँ से दूसरा अगले अध्याय में उसे आगे ले जाता, नए पात्रों को जोड़ता घटाता और उन पात्रों का निर्वाह करता. दोनों ने इस काम को इस खूबी से अंजाम दिया की पता ही नहीं चलता ये उपन्यास दो अलग अलग व्यक्तियों ने लिखा है. पाठकों को दोनों लेखकों की लेखन शैली का मजा एक ही उपन्यास में मिल जाता है. उपन्यास लिखने की ये नयी विधा एक प्रयोग के रूप में बहुत चर्चित हुई, लेकिन प्रचिलित नहीं हुई. इसका कारण शायद ये रहा हो की जिस तरह का तालमेल इस प्रयोग में चाहिए वैसा दो लेखकों में पहले तो मिलना ही मुश्किल है और दूसरे हर लेखक का अहम् भी आड़े आ जाता है. राजेंद्र जी और मन्नू जी तब पति पत्नी थे और दाम्पत्य के सौहाद्र पूर्ण दौर से गुज़र रहे थे, तभी ये प्रयोग संभव और सफल हो पाया.

इस भूमिका की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्यूँ की गुरुदेव पंकज सुबीर जी ने ऐसा ही अद्भुत प्रयोग ग़ज़ल लेखन में करने का जिम्मा इस खाकसार पर डाल दिया और इस से पहले की मैं कुछ कह पाता उन्होंने कुछ मिसरे ये कह कर मुझे भेज दिए की नीरज जी इस में गिरह लगाईये...मेरी कुछ दिनों की चुप्पी से वे समझ गए की मेरे हाथ पाँव फूल रहे हैं...तब उन्होंने पीठ पर हाथ रखते हुए कहा की आप कोशिश तो कीजिये, डर क्यूँ रहे हैं क्या होगा ???अधिक से अधिक असफल ही तो होंगे...लेकिन तजुर्बा तो मिलेगा. उसी कोशिश का नतीजा है ये ग़ज़ल जिसका मिसरा-ऐ-सानी (दूसरी पंक्ति लाल रंग में ) गुरुदेव का है और मिसरा-ऐ-ऊला (पहली पंक्ति, नीले रंग में) खाकसार का.

अब मैं इस प्रयोग की सफलता-असफलता का निर्णय आप सुधि पाठकों पर छोड़ता हूँ.


हर बात पे अगर वो बैठेंगे मुंह फुला कर
रूठे हुओं को कब तक लायेंगे हम मना कर

काफूर हो गए जो मिलने पे थे इरादे
देखा किये हम उन को बस पास में बिठा कर

अपने रकीब को जब देखा वहां तो जाना
रुसवा किया गया है हमको तो घर बुला कर

पहले दिए हजारों जिसने थे घाव गहरे
मरहम लगा रहा है अब वो नमक मिला कर

गहरी उदासियों में आई यूँ याद तेरी
जैसे कोई सितारा टूटा हो झिलमिलाकर

हमको यकीं है उसने आना नहीं है फिर भी
बैठे हुए हैं पलकों को राह में बिछा कर

यूं लग रहा के अरमां पूरा हुआ है उनका
खुश यार हो रहे हैं मय्यत मेरी उठा कर

माना हूँ तेरा दुश्मन बरसों से यार लेकिन
मेरे भी वास्ते तू एक रोज़ कुछ दुआ कर

गर प्यार के सलीके को जानना है तूने
कहती है शम्‍अ हंस कर परवाने तू जला कर

उनको पता है इक दिन जायेंगें जान से हम
आता उन्हें मज़ा है हमको यूँ ही सता कर

सीखा कहाँ से बोलो यूँ दोस्ती निभाना
खूं पी रहे हमारा सोडा मिला मिला कर (मजाहिया शेर)

गर खोट मन में तेरे बिलकुल नहीं है 'नीरज'
फिर किस वजह से करते हो बात फुसफुसाकर



(ग़ज़ल मुकम्मल करने के लिए इसका मकता खाकसार ने कहा है इसलिए ये पूरा शेर नीले रंग में है और इस प्रयोग के बाहर है )