इस जहाँ से ना घबराइये
खौफ रब से मगर खाइये
वो सुनेगा करो तुम यकीं
बस सदा में असर लाइये
साथ हरदम चला कौन है
खोजिये राह बढ़ जाइये
खार से दुश्मनी किसलिए
साथ उनका भी अपनाइये
बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये
दायरे में समाये रहें
पाँव इतने ही फैलाइये
ख्वाब महलों के देखो मगर
झोपडों को न ठुकराइये
हों भले ही परेशानियाँ
गीत आशा भरे गाइये
झूठ "नीरज" लगी बात ये
कर भला, तो भला पाइये
( आभारी हूँ प्राण शर्मा साहेब का जिन्होंने इस ग़ज़ल को ग़ज़ल कहलाने लायक बनाया )
वाह!
ReplyDeleteबहुत खूब.
हम चले आयेंगे पढने को
आप लिखिए और छपवाईये
हौसला हक़ के लिए बाक़ी हो
ReplyDeleteतो डगर अपनी भी अपनाइये
===========
जीने का ज़ज़्बा साथ लाए हैं
चलिए अब संग भी हो जाइए
==========
पंख-परवाज़ प्यार की बातें
गौर से सुनिए औ'सुनाइये
==========
बधाई नीरज जी.
आपका
डा.चंद्रकुमार जैन
वाह.......
ReplyDeleteलगातार यथार्थ के धरातल मे बने रहने के लिये ये पंक्तियाँ मार्गदर्शक बनेगी। मैने इन्हे सहेज लिया है। हमेशा की तरह आपका आभार शानदार प्रस्तुति के लिये।
ReplyDeleteबात से कम करें दूरियां
ReplyDeleteक्या ज़रूरी कि टकराइये
वाह बहुत खूब नीरज जी ..बेहद खूबसूरत लिखा है आपने
खार से दुश्मनी किसलिए
ReplyDeleteसाथ उनका भी अपनाइये
बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये
वाह नीरज जी, वैसे तो अह्र शेर बेहतरीन है, उपर उद्धरित विषेश पसंद आये।
***राजीव रंजन प्रसाद
बहुत उम्दा गज़ल बन गई है, वाह!!
ReplyDeleteसाथ हरदम चला कौन है
खोजिये राह बढ़ जाइये
खार से दुश्मनी किसलिए
ReplyDeleteसाथ उनका भी अपनाइये --- यही करने में तो मज़ा है. हमेशा की तरह बहुत खूब .....
वाह! एक उम्दा ग़ज़ल है जो पाठक को सोचने पर विवश कर दे कि यह क्या ग़ैरमुरद्दफ़ ग़ज़ल है जिस में रदीफ़ की जगह काफ़िया ले लेता है और मतले
ReplyDeleteके बिना ही ग़ज़ल बन जाती है या फिर कभी यह गुमान हो जाता है कि कहीं काफ़िये को रदीफ़ में ही छुपा दिया है। यानि रदीफ़ "इये" और "काफ़िया" इस में जुड़ा हुआ है?
ख़ैर, फिर भी मन ने इसे 'ग़ैर मुरद्दफ़' गज़ल की श्रेणी में मान ली। दूसरी ख़ूबी इस में तख़य्युल की है, बड़े अच्छे विचार दिए हैं।
काफ़ी दिनों बाद आपका ब्लॉग देखा है, आंखों की मजबूरी अभी भी चल रही है।
महावीर शर्मा
बात से कम करें दूरियां
ReplyDeleteक्या ज़रूरी कि टकराइये
दायरे में समाये रहें
पाँव इतने ही फैलाइये
ख्वाब महलों के देखो मगर
झोपडों को न ठुकराइये
क्या बात है,आपका एक अलग ही अंदाज है जो जीवन की सामान्य बातो को भी गजल बनाता है ,वैसे कभी इसी विचार पर मैंने भी लिखा था ...गजलों के मूड पर कभी आपसे भी बाँटेंगे......
@ शिवकुमार मिश्र - सबसे पहले टिप्पणी! लगता है नीरज जी पोस्ट आपको पहले ही आउट कर देते हैं।
ReplyDeleteख्वाब महलों के देखो मगर
ReplyDeleteझोपडों को न ठुकराइये
वाह !
नीरज जी
ReplyDeleteमेरी ऊपर लिखी टिप्पणी में इन शब्दों को अहमियत न देना क्योंकि यह थोड़ा सा मज़ाक में लिख डाला थाः- "कि कहीं यह गुमान हो जाता है कि कहीं काफ़िये को रदीफ़ में ही छुपा दिया है। यानि रदीफ़ 'इये' और काफ़िया इस में जुड़ा हुआ है।" इये तो कोई शब्द नहीं होता। इस टिप्पणी को नज़रअंदाज़ कर देना।
बहुत से बड़े बड़े शायरों ने भी ग़ैरमुरद्दफ़ गज़लें लिखी हैं जो बहुत मशहूर हुई हैं।
जैसे 'राही' साहब कीः
हमने लिया न जब किसी रहबर का सहारा
हर गाम पे 'राही' हमें मंज़िल ने पुकारा।
नीरज जी, आपकी यह बात बहुत पसंद है कि ग़ज़ल विधा में कुछ प्रयोग कर के ग़ज़ल को नयापन देकर विस्तृत रूप देकर साहित्य सेवा कर
रहे हैं। मुम्बइया भाषा में आपकी लिखी हुई ग़ज़ल आज भी याद है।
इसी तरह लिखते रहिए और रवायतों की बुनियाद (बहर वगैरह) पर ग़ज़लों को नये नये रूप दे कर लोगों को रास्ता दिखाते रहिए।
इस गज़ल ने मचल कर कहा
ReplyDeleteगुनगुनाते हमें जाईये
वज़्म ने ये तकाजा किया
एक दो और फ़रमाईये