Monday, May 26, 2008

मेले में


प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़ल है "मेले में" जिसे उन्होंने मुझे ब्लॉग पर पोस्ट करने की इच्छा जाहिर की है.आज के शहरी जीवन में लोग मेले का मजा भूल से गए हैं, हो सकता आज की पीढ़ी को शायद मेले का कोई अनुभव ही ना हो. जिन्होंने ने मेले का आनंद लिया है या वो जो मेला क्या है नहीं जानते उनसब के लिए पेश है ये नायाब ग़ज़ल, जिसमें प्राण साहेब ने मेले के कितने ही रंग समेट लिए हैं :

घर वापस जाने की सुध-बुध बिसराता है मेले में
लोगों की रौनक में जो भी रम जाता है मेले में

किसको याद आते हैं घर के दुखड़े, झंझट और झगडे
हर कोई खुशियों में खोया मदमाता है मेले में

नीले-पीले, लाल-गुलाबी पहनावे हैं लोगों के
इन्द्र धनुष का सागर जैसे लहराता है मेले में

सजी सजाई हाट-दुकानें खेल - तमाशे और झूले
कैसा- कैसा रंग सभी का भरमाता है मेले में

जेबें खाली कर जाते हैं क्या बच्चे और क्या बूढे
शायद ही कोई कंजूसी दिखलाता है मेले में

तन तो क्या मन भी मस्ती में झूम उठता है हर इक का
जब बचपन का दोस्त अचानक मिल जाता है मेले में

जाने अनजाने लोगों में फर्क नहीं दिखता कोई
जिस से बोलो वो अपनापन दिखलाता है मेले में

डरकर हाथ पकड़ लेती है हर माँ अपने बच्चे का
ज्यों ही कोई बिछुड़ा बच्चा चिल्लाता है मेले में

ये दुनिया और दुनियादारी एक तमाशा है भाई
हर बंजारा भेद जगत के समझाता है मेले में

रब ना करे कोई बेचारा मुहँ लटकाए घर लौटे
जेब अपनी कटवाने वाला पछताता है मेले में

राम करे हर गाँव - नगर में मेला हर दिन लगता हो
निर्धन और धनी का अन्तर मिट जाता है मेलेमें

Tuesday, May 20, 2008

तितलियों की बात हो



तीर खंजर की ना अब, तलवार की बातें करें
ज़िंदगी में आईये बस प्यार की बातें करें

टूटते रिश्तों के कारण जो बिखरता जा रहा
अब बचाने को उसी घर बार की बातें करें

थक चुके हैं हम बढ़ा कर यार दिल की दूरियाँ
छोड़ कर तकरार अब मनुहार की बातें करें

दौड़ते फिरते रहें, पर ये जरूरी है कभी
बैठ कर कुछ गीत की झंकार की बातें करें

तितलियों की बात हो या फ़िर गुलों की बात हो
क्या ज़रूरी है की हरदम खार की बातें करें

कोई समझा ही नहीं फितरत यहाँ इंसान की
घाव जो देते वोही उपचार की बातें करें

काश "नीरज" हो हमारा भी जिगर इतना बड़ा
जेब खाली हो मगर सत्कार की बातें करें


(प्राण शर्मा जी और पंकज जी का एहसानमंद हूँ जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया)

Wednesday, May 14, 2008

आप दुश्मन को मत बड़ा करिये




जब ये ग़ज़ल लिखी गयी थी तब जयपुर में बम के धमाके नहीं हुए थे, आज सोचता हूँ अपने शहर वासियों को इस ग़ज़ल के कुछ शेर सुनाता चलूँ .


आप मुश्किल में जी कड़ा करिये
बाँध मुठ्ठी को बस लड़ा करिये

आँख में भर के ढेर से आंसू
आप दुश्मन को मत बड़ा करिये

जोर पैरों का आजमाने को
आँधियों में इन्हे खड़ा करिये

रात काली से डर लगे जब भी
आप तारों से तब जड़ा करिये

ग़र दरिंदे हैं आप तो बेशक
गैर के गम में मत पड़ा करिये

डोर जब भी हो गैर हाथों में
आप इतरा के मत उड़ा करिये

हो बदलनी जो सोच नामुमकिन
ठहरे पानी सा तब सडा करिये

बात सच्ची को मानिए "नीरज"
झूठ के दम पे क्या अडा करिये

( प्राण शर्मा जी ने इस ग़ज़ल को अपने आशीर्वाद से इसे नवाजा है )

Monday, May 12, 2008

खोजिये राह बढ़ जाइये



इस जहाँ से ना घबराइये
खौफ रब से मगर खाइये

वो सुनेगा करो तुम यकीं
बस सदा में असर लाइये

साथ हरदम चला कौन है
खोजिये राह बढ़ जाइये

खार से दुश्मनी किसलिए
साथ उनका भी अपनाइये

बात से कम करें दूरियां
क्या ज़रूरी कि टकराइये

दायरे में समाये रहें
पाँव इतने ही फैलाइये

ख्वाब महलों के देखो मगर
झोपडों को न ठुकराइये

हों भले ही परेशानियाँ
गीत आशा भरे गाइये

झूठ "नीरज" लगी बात ये
कर भला, तो भला पाइये



( आभारी हूँ प्राण शर्मा साहेब का जिन्होंने इस ग़ज़ल को ग़ज़ल कहलाने लायक बनाया )

Monday, May 5, 2008

काश, कौधे नहीं कभी बिजली



कौन उस सा फकीर होता है
जो भी दिल का अमीर होता है

उस को क्या खौफ है ज़माने का
साफ जिसका ज़मीर होता है

ताना हर बात पर नहीं देते
पार दिल के ये तीर होता है

काश, कौधे नहीं कभी बिजली
फूल सा मन अधीर होता है

वैसा ही होता है मिजाज़ उस का
जिसका जैसा ज़मीर होता है

लोग पत्थर से ही नहीं होते
सबकी आंखों में नीर होता है

"प्राण" सदियाँ ही बीत जाती हैं
पैदा कब नित कबीर होता है.

(प्राण शर्मा जी की ये ग़ज़ल उनकी किताब " ग़ज़ल कहता हूँ " से साभार ली गयी है. ज़बान की सादगी और कलाम का बांकपन देखिये और उनको मुबारकबाद दीजिये)

Saturday, May 3, 2008

नरक यात्रा


पिछले दिनों मुम्बई में अपने मित्र सूरज प्रकाश जी के घर जाना हुआ. उनका घर घर नहीं पुस्तकालय है. साहित्य से संबंधित इतनी किताबें हैं उनके यहाँ की आँखें फटी की फटी रह जाती हैं.वहीं से अपने प्रिये लेखक श्री ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास "नरक यात्रा" उठा लाया. सरकारी हस्पताल में घटने वाली सिर्फ़ एक दिन की घटनाओं का ऐसा वर्णन है उसमें की जिसे हर डाक्टर, मरीज़ और भविष्य में होने वाले मरीजों को ज़रूर पढ़ना चाहिए. याने हम सब को पढ़ना चाहिए.हास्य और व्यंग का संगम कहीं आप को ठहाके लगाने को मजबूर करता है तो कहीं आंखों में पानी ले आता है.
मैंने पढ़ते हुए सोचा की अपने पाठकों को जो मेरी ग़ज़लों के ओवर डोज से खट्टी डकारें ले रहें हैं इसे चूरन की भांति परोस दूँ. तो पढ़ें इस उपन्यास में आए एक प्रसंग की छोटी सी झलक:
प्रसंग है एक वरिष्ट डॉक्टर का जनरल वार्ड में दौरे का :-
" ऐसे डा. चौबे राउंड पर निकले थे जैसे कोई शहंशाह रियासत में तफरीह को निकले या हमारा प्रधानमंत्री लक्षद्वीप की तरफ़ चले. जैसे कोई सुबह की सैर को निकले या अफीम खाने वाला अफीम की दूकान की तरफ़ चले. जैसे कोई मोर जंगल में नाचने को निकले या भैंस मड़ियाने चले या मंत्री सचिवालय की तरफ़ या थानेदार अलमारी की तरफ़ दारू की बाटली निकालने.
वैसे ही निरर्थक, अर्थहीन,उदेश्यहीन तथा फल विहीन कार्य की तरफ़ था उनका राउंड. एक तफरीह सी कार्यवाही . एक हरम खोरी सी कुछ बात. समय काटने के लिए जैसे आदमी मूंगफली खाता है, वैसी टाइम पास कार्यवाही. मुंह दिखाई की रस्म. रस्म अदायगी की मजबूरी में राउंड लेना पढता है, सो वे जा रहे थे, वरना सारा काम जूनियर डाक्टर चला ही रहे थे. सभी मरीजों को मलेरिया ही निकलता था तथा राउंड में ख़राब होने वाले समय में वे प्रईवेट मरीजों को देख सकते थे जो फीस देने के लिए रिरियाते घूम रहे थे. बिना पैसे लिए मुफ्त में राउंड लेने में वैसे भी उनकी जान पर बनती थी......
डा.चौबे राउंड पर थे.
बड़े हस्पतालों के विषय में जो लोग थोड़ा बहुत भी जानते हैं, वे राउंड नाम की चीज़ से परिचित होंगे. इसके बिना चारा भी नहीं. राउंड एक समारोह है, जिसके अंतर्गत एक बड़े डाक्टर के साथ पाँच दस जूनियर डाक्टर हर मरीज़ की जांच करके, उसकी मृत्यु क्यों नहीं हो रही, या यह ठीक कैसे हो गया इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं.
राउंड वास्तव में एक परिक्रमा है दो सो गज की बाधा दौड़ है, बड़े साहेब की झांकी है, जिसे मरीजों के बीच घुमा कर चाय की प्यालियों में विसर्जित कर दिया जाता है. राउंड का मतलब है गोल, चक्राकार.कुछ गोल है, गोलमाल है. राउंड एक चक्र है, चक्कर है, घनचक्कर है. राउंड वास्तव में आध्यात्म की चीज़ है, जितना इसकी तह में जाओगे, वैराग्य की तरफ़ झुकते जाओगे. राउंड का अर्थ है गोल, शून्य, ना कुछ. शून्य है सब.कोई कीमत नहीं, पर फ़िर भी हस्पताल के गणित की एक आवश्यक संख्या.
चौबे जी का राउंड लेने का अपना तरीका था, जिसे भारत सरकार ने मौलिक आविष्कार होने के बावजूद अभी तक कोई पुरस्कार नहीं दिया था. वे मरीज़ से लगभग तीन फिट की दूरी कायम रखकर उसकी जांच किया करते थे. वे दूर से ही पहले नंबर के बेड वाले मरीज़ से पूछते की कहो भाई, क्या तकलीफ है, और जब तक वो बतलाता की पेट में दर्द है, तब तक चौबे जी पाँचवें मरीज़ को तीन फिट की दूरी कायम रखते हुए बतला रहे होते की उसकी पेचिश का राज मलेरिया है.
डा. चौबे भागते हुए राउंड लेते. मरीज़ की बात सुनने का समय उनके पास नहीं था. वे मरीज़ को देखने में इतने व्यस्त थे की मरीज़ देखने का समय उनके पास नहीं था. वे एक पलंग से दूसरे पलंग तक तेज़ दौड़ते, फ़िर बिस्तर पर छलांग मारकर बाधा क्रास करते और फ़िर दौड़ते. वे चिकित्सा विज्ञान की पी.टी. उषा थे.वे मरीजों के समुन्द्र के ऊपर उड़ने वाले पवन पुत्र की तरह आते. वे सट से आते और फट से वार्ड से निकल जाते.
बागला देश के तूफ़ान की तरह आते. पहले मरीज़ के पास ही मानो रेस की सिटी सी बजती और डाक्टरों का पूरा काफिला दौड़ता हुआ मरीजों के पास से, सामने से, पलंग के नीचे से, खटिया के ऊपर से निकल जाता. एक दम भगदड़ सी मच जाती. सभी डा.चौबे के पीछे भागते, दौड़ते, उड़ते तथा घिसटते थे.
डा.चौबे के राउंड का काफिला आज भी हांफता हुआ उसी कमर दर्द के मरीज़ के पास रुक गया था. डा. चौबे ने गांधीजी जैसी निश्छल मुस्कराहट अपने चेहरे पर बिछा कर मरीज़ से लगभग लिपट जाने वाली आत्मीयता के भाव से विभोर होकर पूछा, "कैसा है?"ठीक नहीं है" मरीज़ ने जवाब दिया.
"कमर का दर्द कैसा है?"
"ठीक नहीं है."
"जो ठीक नहीं है, वो कमर का दर्द कैसा है?"
"ठीक नहीं है."
"जो कभी ठीक नहीं होने वाला, वो दर्द कैसा है?"
"ठीक नहीं है"...........
चौबे जी हंसने लगे. ऐसे स्पष्ट वादी मरीज़ उन्हें भाते थे. उन्होंने प्यार से उसकी कमर में एक धौल जमाई तथा लात मारी. उसके बाद मरीज़ का दर्द ठीक हो गया. इलाज करने का चौबे जी का ये अपना मौलिक तरीका था. इसके लिए भी सरकार ने उनको कोई पुरस्कार नहीं दिया था. परन्तु डा.चौबे सरकार के प्रोत्साहन की परवाह ना करते हुए लातें मार मार कर गरीबों का इलाज करते जा रहे थे.वर्षों से, वे गरीब मरीजों को लात मार कर वार्ड से बाहर करते रहे थे. वे अगर डाक्टर ना होते तो जनता के बीच "लात मारूआ बाबा" के रूप में मशहूर होते और शायद जयादा पैसे कमाते.
इसी बीच एक भृत्य ने धीरे से आकर डा.चौबे को कुछ कहा और खड़ा हो गया.डा.चौबे ने कहा "राजाराम तुम साहेब को कमरे में बिठा दो और ठंडा पिलाओ"
राजाराम ने बताया की उसने उन्हे कमरे में बिठा दिया है और ठंडा देकर ही यहाँ आया है.
चौबे जी ने उसे प्यार से देखकर सबको कहा "स्मार्टनेस कोई राजाराम से सीखे, गुड." इसके बाद उन्होंने डाक्टरों को बताया की मिनिस्टर साहेब के छोटे भाई कमरे में बैठे हैं और मैं उनसे निपटकर आता हूँ.
राउंड को इसतरह बीच में ही मरीज़ की तरह बेमौत खत्म करके डा.चौबे और भी तेज़ क़दमों से वार्ड के बाहर निकल गए. जूनियर डाक्टरों ने चैन की साँस ली और सिगरेट निकलकर एक दूसरे को गालियाँ देते, फोश मजाक करते, ढोल धप्पा करते चाय की दूकान की तरफ निकल गए.
वार्ड अब युद्ध के बाद पानीपत के मैदान की भांति अफरा तफरी भरा था.
( नरक यात्रा ,राजकमल प्रकाशन से १९९४ में प्रकाशित हुई थी, इसका दूसरा संस्करण १९९८ में छापा था, मूल्य १५० रुपये)