घर अपना है ये जग सारा
बिन दीवारें बिन चोबारा
मन उसने ही तोडा अक्सर
जिस पर अपना सब कुछ वारा
सच का परचम थामो देखो
कैसे होती है पौ बारा
दुश्मन दिल से सच्चा हो तो
वो भी लगता हमको प्यारा
भूखा जब भी मांगे रोटी
मिलता उसको थोथा नारा
सूखी है भागा दौड़ी में
सबके जीवन की रस धारा
सुख में दुःख में आ जाता क्यों
इन आंखों से पानी खारा
दिल में चाहत हो तो 'नीरज'
दिन में दिखता चन्दा तारा
क्या बात है - "गरजें पर ना बरसें समझो/ नेता बादल झूठा नारा"; - नायाब खारा पानी भी
ReplyDelete"कहने को छोड़ा ही क्या है/ सारा का सारा लिख डारा" -सादर - मनीष
हर एक पद अनूठा दर्शन देता है - दुश्मन दिल से सच्चा हो तो वह भी प्रिय है - खूब!
ReplyDeleteबहुत सरल से शब्दों में आपने हर पंक्ति में विचार दिये हैं।
ReplyDeleteसच्चा दुश्मन भी प्रिय है - छद्म वाले मित्र से - वाह!
घर अपना है ये जग सारा
ReplyDeleteबिन दीवारें बिन चोबारा
sachhi bat aor khari bat.....
घर अपना है ये जग सारा
ReplyDeleteबिन दीवारें बिन चोबारा
sachhi bat aor khari bat.....
तय नहीं कर पा रहा कि ग़ज़ल की ज्यादा तारीफ करूं या उसके ऊपर दी गयी तस्व्ीर की. क्या तो चांद खोज कर लाये हैं अपने घर आंगन के लिए.
ReplyDeleteदोहरी बधाई
सूरज
bahut sundar gazal hui hai NEERAJ ji..shukriyaa
ReplyDeleteनीरज जी ग़ज़ल अच्छी है । विशेषकर आपका शेर सूखी है भागा दौड़ी में सबके जीवन की रस धारा तो कमाल का शेर है । हां मन तोड़ा है जब अपनों ने और गरजें पर ना बरसें में कहीं कुछ और सुधार की गुंजाइश है और वो भी इसलिये क्योंकि नीरज गोस्वामी अब एक स्थापित ग़ज़लकार का नाम है सो इस नाम से कुछ और ज्यादा की उम्मीद होती है । आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद होंगें ।
ReplyDeleteबहुत खूब!
ReplyDeleteसीधे सच्चे जज्बातों को
लिख-लिख करते कागज़ कारा
किन सुंदर लब्ज़ों में 'नीरज'
ReplyDeleteआपने ढ़ाला ये जग सारा
बेहद खूबसूरत कलाम नीरज जी....
मन तोडा है जब अपनों ने
ReplyDeleteतब बिखरे हम जैसे पारा
- जैसा पंकज जी बोलें हैं
यहां जरा द्खें दोबारा
रचना के बारे में लिखना ?
चन्दा को दिखलाना तारा
पंकज जी
ReplyDeleteआप के आदेशानुसार मैंने अपनी समझ से वांछित परिवर्तन कर दिए हैं. भविष्य में भी मार्गदर्शन करते रहें.
नीरज
सीधी सच्ची बात कही है
ReplyDeleteजी करता है पढ़ूँ दोबारा
निश्छल शब्दों में भावों की
अविरल बहती जीवन-धारा
सिर्फ़ ग़ज़ल ये नहीं फ़लसफा
दोस्त बनाने का है न्यारा
दर्द दूसरों का जीने का
मर्म छुपा है इसमें सारा
नीरज की चाहत गर हो तो
चंदा अपना , अपना तारा !
नीरज जी !
सुंदर शब्द....सुंदर चित्र
और श्रेष्ठ प्रस्तुति पर बधाई !
सरल शब्दों मे सहज अभिव्यक्ति लेकिन जीवन दर्शन लिए हुए...
ReplyDeleteभाई नीरज जी
ReplyDeleteआपकी निम्न पंक्तियाँ तो है सटीक पर आज के त्वरित युग में शायद ही ये फिट बैठे :
सच का परचम थामो देखो
कैसे होती है पौ बारा
कारण कि........
१. बात तो सही है पर ये समय देखने के लिए जिन कष्टों को वर्तमान युग में झेलने पड़ते हैं, उसे झेलने में पूरी एक अगली पीढ़ी बर्बाद हो जाती है. जिसका विश्वास न केवल धीरे-धीरे सच से उठाने लगता है, बल्कि उसकी पढ़ाई- लिखी सब बर्बाद हो जाती है. पूरा का पूरा परिवार भयावह वातावरण में रहने को बाध्य कर दिया जाता है , पर कोई कुछ नही बोलता.
२. आज कल ग़लत लोंगों को तुरंत प्रभाव से परिणाम प्राप्त होते से दिखते हैं ,पर सच्चे को इतना इंतजार क्यों करना पड़ता है.
३. सच की लड़ाई लड़ने लिए जिन संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है, उसका इंतजाम एक सीधा- सच्चा ईमानदार आदमी कंहा से करे और बिना पैसे के आज की दुनिया में कौन किसका साथ देता है.
४. सर्व शक्तिमान होते हुए भी श्री राम जी को कितना इंतजार करना पड़ा,और क्या वे फिर भी वास्तविक रूपसे अपनी पत्नी को वापस पा पाए , क्योंकि उन्हें माता सीता को लोक- भय के चलते त्यागना पड़ गया था.
5. वर्तमान कोर्ट में भी डेट पर डेट लगती रहती है, अपने भी वकील को पेशेवर होने के नाते उसे हमारे कष्टों से कम, अपने पैसों पर ज्यादा ध्यान रहता है.
६. कंही से भी झेलने वाले ईमानदार व्यक्तियों के लिए आज के युग में सहायता की कोई गुंजाईश नही है, कष्ट-दर-कष्ट झेलते हुए भी यदि उसे आत्मिक संतोष में ही " पौ-बारह" के दर्शन होते हैं तो ये बात ही कुछ अलग है.
आदि - आदि .......
मेरा विश्लेषण आप को कैसा लगा, अवगत कराने की महती कृपा करें.
चंद्र मोहन गुप्ता,
जयपुर
अच्छी बात , सच्ची बात !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर बधाई स्वीकार करें धन्यवाद
ReplyDeleteहर शे'र पर 'वाह!' की आवाज़ निकलती है। विशेषकर यह शे'र बहुत अच्छा लगाः
ReplyDeleteसूखी है भागा दौड़ी में
सबके जीवन की रस धारा.
बधाई!