एक बौनी बूँद ने
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा
बाकि बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकी
क्षण भर के लिए
लम्बी हुईं
फ़िर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूंदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी
मेहराब से लटक
अपना कद
लंबा करना चाहा
बाकि बूँदें भी
देखा देखी
लंबा होने की
होड़ में
धक्का मुक्की
लगा लटकी
क्षण भर के लिए
लम्बी हुईं
फ़िर गिरीं
और आ मिलीं
अन्य बूंदों में
पानी पानी होती हुई
नादानी पर अपनी
"सती हो गया सच"
तुम्हारे छोटे मंझले
और बड़े झूठ
उबलते रहते थे मन में
ढूध पर मलाई सा
मैं जीवन भर
ढकती रही उन्हे
पर आज उफन के
गिरते तुम्हारे झूठ
मेरे सच को
दरकिनार कर गए
तुम मेरी ओट लिए
साधू बने खड़े रहे
झूठ कि चिता पर
सती हो गया सच
"पहला झूठ"
जली हुई रुई की बत्ती
बड़ी आसानी से जल जाती है
नई बत्ती
जलने में बड़ी देर लगाती है
आसान हो जाता है
रफ्ता रफ्ता
है बस पहला झूठ ही
मुश्किल से निकलता
"बिवाई"
सावन कि रुत आयी जी
छेड़े है पुरवाई जी
लौट आयी चुपचाप हवा
कोई ख़बर कब लाई जी
ज़र्द हुआ पत्ता पत्ता
आँख मेरी पथराई जी
सूखे पत्ते सी डोलूँ
अक्ल मेरी बौराई जी
सब में मैं उसकी छब देखूं
हँसते लोग लुगाई जी
याद आए वो यूँ जैसे
दुखती पाँव बिवाई जी
जहाँ थे बिछुड़े वहीं मिलेंगे
आँगन कब्र खुदाई जी
लेखिका परिचय
विलक्षण प्रतिभा की धनी "दिव्या माथुर साहिबा" १९८५ से भारतीय उच्चायोग से जुड़ी हैं और १९९२ से नेहरू केन्द्र यू. के. में वरिष्ट कार्यक्रम अधिकारी की हैसियत से काम कर रही हैं. दिव्या जी की कई कविता और कहानियो की पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. आप का नाम "इक्कीसवीं सदी की महान स्त्रियाँ" की सूची में भी दर्ज किया जा चुका है.अनेकानेक पुरुस्कारों से नवाजी जा चुकी दिव्या जी कम शब्दों में गहरी बात कहने की कला में दक्ष हैं. दिव्या जी की अनुमति से उनकी कुछ रचनाएँ मैं अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर बहुत गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ.
नीरज जी ,
ReplyDeleteदिव्या जी की कविता में बूँद की नादानी पर
मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर याद आया -
इस्तर -ए -क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना .
इस्तर -ए क़तरा = बूँद की मुक्ति.
मुझे लगता है नादान बूँद ने खुद से रूबरू होकर
अपनी मुक्ति की मंज़िल आसान कर ली है .
सच के सतीत्व और मुश्किल के झूठ
जैसे प्रयोग कुछ अनूठे से लगे !
और हाँ ! ये जो बिवाई वाली बात है भाई ,
उस पर मुझे ये पंक्तियाँ बरबस याद आईं -
जाके पैर न फटे बिवाई
सो क्या जाने पीर पराई .
दिव्या जी की रचनाओं में इस पीर की पुकार सुनी जा सकती है .
आपको इस दिव्य चयन के लिए और दिव्या जी को दीप्त सृजन के लिए बधाई .
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है। आभार सहित.
ReplyDeleteदिव्या जी की सारी कवितायें एक से बढ़कर एक.
ReplyDeleteभइया, आपको धन्यवाद उनकी कवितायें अपने ब्लॉग पर पोस्ट करने के लिए.
बहुत अच्छा नीरज जी। दिव्या जी से परिचय करा आपने बहुत अच्छा किया।
ReplyDeleteकवितायें बहुत सरल और सुन्दर हैं।
पहली बार अहसास हुआ कि जली बाती बेहतर जलती है।
बहुत ख़ूब. कमाल की रचनाएं. सब की सब. बहुत शुक्रिया पढ़वाने का.
ReplyDeleteखुली हवा में साँस लेती हुईं
ReplyDeleteकोमल और पुख्ता भाषा से
सजी सँवरी, कलोल करतीं
कवितायें मन को छू गईं
लफ्ज़ लफ्ज़ खुशबू है, बात बात गुलशन है
देखा तेरे लहजे में एक चिराग रोशन है
चाँद हदियाबादी शुक्ला डेनमार्क
बहुत ही सुन्दर कविताएं हैं , दिव्या जी को बधाई पहुँचायें ।
ReplyDeleteसर जी
ReplyDeleteआपके ब्लॉग पर जाने का
मुझे हुआ लाभ
और हानी आपको
मुझे दिखी मेरी प्रिय
बौनी बून्द
और मैं बन गया अर्जुन
बाकी और
कुछ भी न दिया दिखाई
सुनो मेरे भाई
मैं एक बार फिर
ब्लॉग पर जाऊंगा
कुछ और पढूंगा
और आपको बताऊंगा
कि मैने क्या पाया
प्यार
तेज
आज पढ़ा..आनन्द आ गया..
ReplyDeleteएक बौनी बूँद ने मेहराब