जब भी होता है तेरा जिक्र कहीं बातों में
यूं लगे जुगनू चमकते हैं सियाह रातों में
खूब हालात के सूरज ने तपाया मुझको
चैन पाया है तेरी याद की बरसातों में
रूबरू होके हक़ीक़त से मिलाओ आँखें
खो ना जाना कहीं जज़्बात की बारातों में
झूठ के सर पे कभी ताज सजाकर देखो
सच ओ ईमान को पाओगे हवालातों में
आज के दौर के इंसान की तारीफ़ करो
जो जिया करता है बिगड़े हुए हालातों में
सच तो हैके अभी आना नहीं मुमकिन तेरा
दिल मगर कहता यकीं करले करामातों मैं
सबसे दिलचस्प घड़ी पहले मिलन की होती
फिर तो दोहराव है बाकी की मुलाक़ातों में
गीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में
अति सुंदर..............
ReplyDeleteबात ही बात में ये बात समझ में आई
ReplyDeleteबड़ी ताकत है इन जज्बात भरी बातों में
बहुत खूब नीरज भैया...
जिंदगी कैदे मुशक्कत की तरह काटी है
ReplyDeleteजीस्त अपनी को बिताया है हवालातो मैं .
चाँद शुक्ला हदियाबादी डेनमार्क
वाह! क्या बात कही वड्डे वापाजी आपने. कहाँ से लाते है ये विचार आप. पढ़ हम तो गद-गद हो गए.
ReplyDeleteजब से शुरू किया पढ़ना गजलें आपकी
आप ही छाये रहते हो मेरे ख्यालातों में.
आपका मुरीद हो गया हूँ.
मुंबई में कभी आना हो तो अवश्य मिलिए..
ReplyDeleteकवि कुलवंत
मुंबई में भी गोष्ठी शुरू करने का आपक विचार अच्चा है.. चलिए मिल कर शूरू करते है..
ReplyDeleteनीरज भाई , एक सत्य तो ये कि पहले मुलाकात के बाद की सारी मुलाकात सिरफ दुहराव है और इसका तो जवाब नही
ReplyDeleteगीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में
हम बही खाते से समय निकाल कर आपकी गुनगुन सुनते रहेंगे . सुनाते रहिए.
एक एक पंक्ति अप्रतिम है। भंवरे का ही नहीं हमारा भी गीत है यह। बही खाता तो एक क्षण छूट जाता है हाथ से।
ReplyDeleteनीरज जी,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिखा है आपने..जीवन चित्रण जैसे.
आपके शब्दों में
गीत भंवरे का सुनो किससे कहूँ मैं नीरज
जिसको देखूँ वोही उलझा है बही खातों में
मेरे शब्दों मे
लगता नही है कुछ भी उसके हाथ
आखिर में जब हिसाव करता है आदमी
प्रोत्साहन के लिये आभारी हूँ । आशा भविष्य में भी ऐसे ही प्रोत्साहन मिलता रहेगा ।
ReplyDeleteआपकी रचना भी अत्यंत मार्मिक है ।
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
नीरजजी आपने अपने ब्लाग पर मुझे आने की दावत दी.तो लीजिए बरदाश्त कीजिये.
ReplyDeleteआपकी ग़ज़ल के मतले की दूसरी पंक्ति वज़न से गिर रही है जैसे
जब भी होता है तेरा जिक्र कहीं बातों में.
लगे जुगनू से चमकते हैं सियाह रातों में.
यहां लगे में शुरूआत का रुक्न ल लघु है उसे दीर्घ होना चाहिए- इसे इस तरह करें तो वज़न में आ जायेगा.
यूँ लगे जुगनू चमकते हैं सियाह रातों में.
ये उर्दू की मश्हूर बहर
बहरे रमल मुसम्मन मखबून महज़ूफ़ है.
इसके अरकान है
फाइलातुन,फइलातुन,फइलातुन,फेलुन.
2122 1122 1122 22
ग़ालिब की मश्हूर ग़ज़ल इसी बहर में है.
इश्क पर जोर नहीं है ये वो आतिश गालिब
जो लगाये न लगे और बुझाये न बने.
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो.दुष्यन्तकुमार
आप मेरी बात शायद समझेंगे.
रही कथ्य की बात तो रवानी है बनाये रखिये.
सुभाष जी
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया
मैंने ग़ज़ल को, जैसा आपने बताया,ठीक कर दिया है.
यूं ही आते रहिये और सिखाते रहिये.
नीरज
Neerajji
ReplyDeleteaapki kalam ki shiddat pad kar mehsoos kar rahi hoon.
Agar Bombay aap aa rahe hai sabhi se milne to main bhi miloongi.Kulwant ji se to mili hoon
Devi
कल 14/11/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
सबसे दिलचस्प घड़ी पहले मिलन की होती
ReplyDeleteफिर तो दोहराव है बाकी की मुलाक़ातों में
बहुत खूब!
आज के दौर के इंसान की तारीफ़ करो
ReplyDeleteजो जिया करता है बिगड़े हुए हालातों में
वाह! सर... तमाम अशार कमाल हैं...
आद सुभाष जी ने महत्वपूर्ण जानकारी दी...
सादर बधाई/आभार...
खूबसूरत गज़ल
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