Monday, October 22, 2007

हाथ मैं फूल




वो उठा कर के सलीबों को चला करते हैं
सच के ही साथ जियेंगे जो कहा करते हैं

जबसे मुजरिम यहाँ पे देख बने हैं हाकिम
बे गुनाहों के ही सर रोज कटा करते हैं

जिन्हें गुलशन से मोहब्बत है सही मैं यारों
खार को गुल के बराबर वो रखा करते हैं

धूप कमरे मैं उन्ही के ही खिला करती है
जिनके दरवाजे नहीं बंद रहा करते हैं

हिज्र की रात मैं जब चाँद निकल आता है
गुफ्तगू उससे समझ तुझको किया करते हैं

हाथ मैं फूल तबस्सुम हो जिनके होटों पर
ऐसे इंसान कहाँ जाने मिला करते हैं

आँधियों का तो बना करता एक बहाना है
जर्द पत्ते कहाँ शाखों पे रुका करते हैं

ये गुजारिश है की तुम इनको संभाले रखना
दिल के रिश्ते बड़ी मुश्किल से बना करते हैं

चाहते तब नहीं मंजिल पे पहुंचना "नीरज"
जब मेरे साथ सफर मैं वो रहा करते हैं

5 comments:

  1. आपकी गति कम कैसे हो गई। लगातार लिखते रहे। आपको पढते हुये ऐसा लगता है जैसे नामी-गिरामी कवि को पढ रहे है। काश मै भी ऐसा लिख पाता। आप नीरज ही है नीरस तो बिल्कुल नही हाँ ओजस जरूर है। बधाई। एक बात और, चित्र बढिया चुनते है आप।

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  2. बेहतरीन-

    धूप कमरे मैं उन्ही के ही खिला करती है
    जिनके दरवाजे नहीं बंद रहा करते हैं


    -सुन्दर रचना के लिये बहुत बधाई.

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  3. हम तो दरवाजा खोले रहते हैं। पर यह धूप तो गच्चा देकर जयपुर चली जाती है! (शिव ने बताया!)
    बहुत दिनो बाद दिखती है। सूरज तो रोज उगना चाहिये।

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  4. इतनी सुन्दर रचना पढ़ने के बाद तो सिर्फ वाह वाह ही निकलता है.

    चाहते तब नहीं मंजिल पे पहुंचना "नीरज"
    जब मेरे साथ सफर मैं वो रहा करते हैं

    सही कहा.

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  5. नीरज भैया,

    गजब का जोर है, गजलों में आपकी भैया
    इसी वजह से इंतजार किया करते हैं

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे