लगभग तीन-चार साल पुरानी बात होगी, शाम का समय था जब अमेरिका से श्री अनूप भार्गव जी का फोन आया। अनूप जी बिट्स पिलानी से केमिकल इंजीनियरिंग और आईआईटी दिल्ली से सिस्टम एवं मैनेजमेंट का कोर्स किए हुए हैं और वर्षों से अमेरिका में रह रहे हैं। प्रतिभाशाली अनूप जी का साहित्य प्रेम विशेष रूप से हिंदी के प्रति अनुकरणीय है। विदेश में रह कर जिस तरह उन्होंने हिंदी की सेवा की है उसकी दूसरी कोई मिसाल नहीं मिलती। हम दोनों एक दूसरे को उस समय से जानते हैं जब इंटरनेट पर ब्लॉग लेखन बहुत लोकप्रिय हुआ करता था।
अनूप जी की इच्छा थी कि एक ऑनलाइन ग़ज़ल की पाठशाला आरंभ की जाए जिससे देश विदेश के ग़ज़ल सीखने वाले जुड़कर ग़ज़ल कहना सीख सकें। उन्होंने मुझसे इस काम को अंजाम देने में मदद करने को कहा। विचार उत्तम था लेकिन ग़ज़ल कहने और सिखाने में ज़मीन आसमान का अंतर होता है। ग़ज़ल का व्याकरण अपने आप में एक वृहद विषय है।मुझे अपनी सीमाएं पता थीं इसलिए अपने बचाव में मैंने कुछ उस्तादों के नाम उनको सुझाए जो इस काम को बहुत अच्छे से अंजाम दे सकते थे। उस्तादों से उन्होंने संपर्क किया तो कुछ ने साफ ही ना किया कुछ ने नुकुर, किसी ने कहा देखते हैं तो किसी ने कहा सोचते हैं। यानी एक-एक करके सब के सब उस्ताद पतली गली से निकल लिए।
अनूप जी ने कहा कि आप शुरुआत तो करो मैं और लोगों को भी आपके साथ जोड़ने का प्रयास करता हूं भला हो अनूप जी का जिन्होंने इस कार्य में मेरे साथ एक ऐसे शख़्स को जोड़ा जिनका ग़ज़ल व्याकरण का ज्ञान मुझसे कई गुना बढ़कर था। वो शख़्स थे हमारे आज के शायर, एक बेहतरीन इंसान, जनाब "अनिल कुलश्रेष्ठ" साहब।
अनिल जी ने ग़ज़ल के व्याकरण को जिस धैर्य,सरलता और अंदाज से ग्रुप में सीखने वालों को सिखाया और आज भी सिखा रहे हैं, उसकी प्रशंसा के लिए मेरे पास शब्द नहीं है।
उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब "नक्श-ए- पा रह जाएगा" मेरे सामने है।
हासिले जम्हूरियत तो ये भी है अपने यहां
खूब तलवारे खिचेंगी मुद्दआ रह जाएगा
रोज ताला बंद करके जाने वाले जान ले
घर तो क्या ये हाथ आंखें, सब खुला रह जाएगा
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पिछली जो कमाई थी अब तक वो गंवा बैठे
आगे के सफ़र को भी कुछ दाम कमाने हैं
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हर सुबह की दोपहर फिर शाम होगी
मत कहो इसको कि सूरज ढल रहा है
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वक्त की मरहम का बेशक काम उम्दा है मगर
घाव भरना था भरा लेकिन निशान बनता गया
गजल की सैकड़ो बेहतरीन किताबें बाजार में उपलब्ध हैं तो फिर अनिल जी किस किताब में ऐसा क्या अलग है जो और किताबों में नहीं है? चलिए इस विषय में अनिल जी के ही शब्दों से आपको बताते हैं, वो लिखते हैं कि:
"मेरी यह किताब एक मायने में लीक से बिल्कुल अलग है। कोशिश है कि इसके केंद्र में सामान्य पाठकगण हों इसलिए प्रस्तुत किताब में मैंने हर ग़ज़ल के साथ ही मिसरे का वज़्न भी लिखा है। इसका मक़सद ही ये है कि जो पाठक ग़ज़ल की बहर को न पकड़ पा रहे हो उन्हें आसानी हो। मैंने बहर के साथ साथ ग़ज़ल के अरकान भी लिख दिए हैं"
इसके चलते ग़ज़ल सीखने वालों के लिए ये किताब बहुत उपयोगी है। इसे पढ़कर उन्हें बहरों का ज्ञान तो हो ही जाएगा साथ में ये भी समझना आसान हो जाएगा कि वज़्न कहां कैसे गिराया जा सकता है। जिन्हें व्याकरण का ज्ञान है वो इस किताब की ग़ज़लों में पिरोए भाव से आनंदित होंगे। कहने का मतलब ये है कि इस किताब को ग़ज़ल सिखाने वाले और ग़ज़ल सीख चुके दोनों ही पाठक पसंद करेंगे।
15 नवंबर 1953 को जन्मे अनिल जी पेशे से बैंकर रहे हैं और भारतीय स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक के पद से रिटायर होकर आजकल ग़ज़ल लेखन और ग़ज़ल प्रशिक्षण में व्यस्त रहते हैं। जिस लगन और मेहनत से वो ग़ज़ल सीखने वालों को ग़ज़ल की बारीकियां और सुझाव देते हैं उसकी तारीफ़ शब्दों में संभव नहीं।
जिस ग्रुप को अनूप जी ने आरंभ किया था उसके सदस्य अनिल जी के मार्गदर्शन में बेहतरीन ग़ज़लें कह रहे हैं ।एक साल के अंतराल में ही उन सदस्यों की ग़ज़लों का एक साझा संकलन "आग़ाज़" मंज़र ऐ आम पर आना किसी उपलब्धि से कम नहीं।
रोशनी जिसने अता की है शमा को इतनी
वोही भरता है जुनूं इश्क़ का परवाने में
*
तीरगी चांद पर पड़े भारी
उस पहले ही तू सहर कर दे
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जां बचाकर भागता जो चाक के चक्कर से वो
ढेर मिट्टी का कभी बढ़कर घड़ा होता नहीं
*
न कोई इब्तदा मेरी न कोई इंतिहा मेरी
मुसलसल जो चलेगा उस सफ़र का सिलसिला हूं मैं
*
कुछ तो उसमें कमी यक़ीनन है
जो बुरे को बुरा नहीं कहता
कभी नोएडा तो कभी सिंगापुर में निवास करने वाली अनिल जी को छात्र जीवन से ही कविताएं लिखने का शौक रहा जो धीरे-धीरे ग़ज़लों तक आ पहुंचा। इस विधा में पारंगत होने के बावजूद भी वो अपने आप को अभी भी ग़ज़ल का एक विद्यार्थी ही मानते हैं। जहां आजकल एक मिसरा लिखकर लोग खुद को उस्ताद समझने लगते हैं वहीं अनिल जी जैसे अपवाद भी हैं जो स्वयं को हमेशा ग़ज़ल का विद्यार्थी ही समझते हैं। हम ये भूल जाते हैं कि सीखना एक सतत क्रिया है जो जीवन भर पूरी नहीं होती।
कभी पत्नी "अनुपम" ही उनकी रचनाओं की प्रथम श्रोता हुआ करती थीं। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद 'अनिल जी' ने अपना ये ग़ज़ल संग्रह उन्हीं को इस शेर के साथ समर्पित किया है :
मिसरे मेरे, ग़ज़लें मेरी, पर पूरा दीवान तेरा
पन्ना पन्ना चेहरा तेरा, अक्षर अक्षर आंख तेरी
पर्यटन के शौकीन रहे अनिल जी ने देश-विदेश के अनेक दौरे किए हैं अब उन्होंने अपनी अधिकतर यात्राएं नोएडा और सिंगापुर तक ही सीमित कर ली हैं।
आप उन्हें इस संग्रह के लिए 9999781298 पर बात कर बधाई दे सकते हैं अथवा 9897066711 पर वाट्सएप पर जुड़ सकते हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आपको जिज्ञासा प्रकाशन गाज़ियाबाद से 9958426855 पर संपर्क करना होगा।
पुरानी एक चिट्ठी है कभी भेजी थी बेटे ने
मैं जितनी बार पढ़ता हूं अधूरी छूट जाती है
*
हर्फ़ ढाई हैं इश्क़ में लेकिन
इससे गहरी कोई किताब नहीं
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सारी बातें न मानिए सबकी
कुछ तो बाकी अगर मगर रखिए
ज़िन्दगी भी ग़ज़ल के जैसी है
सारे मिसरों को बा-बहर रखिए
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खुद को बदल सके ना जमाने के साथ जो
वालिद वो कह रहे हैं कि बच्चे बदल गए
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सांस, आंखें और जुबां भी बंद हो जाएंगे जब
अपनी ग़ज़लों से ही शायर बोलता रह जाएगा