Monday, August 12, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 13


लखनऊ' में देश के कद्दावर उर्दू शायर के घर की बैठक है, जिसमें आए दिन देश-विदेश के नामवर शोअरा आते रहते हैं, गुफ़्तगू करते हैं, अपनी शायरी सुनाते हैं। इन शोअरा से मिलने और उन्हें सुनने वालों का हर वक्त मंजूर साहब के घर तांता लगा रहता है। इन सब मेहमानों की ख़िदमत में इस घर का जो बच्चा लगा हुआ है वो बड़ी हैरत से उर्दू शाइरी के इन बड़े सितारों को देखता है, सुनता है और सोचता है और कि वो भी बड़ा होकर इनके जैसा बनेगा। 

बात उर्दू के उस्ताद शायर जनाब 'मलिकजादा मंजूर अहमद' साहब के उस घर की हो रही है जहां उनके बेटे, हमारे आज के शाइर जनाब "मलिक जादा जावेद" साहब की परवरिश हुई। 'मंजूर' साहब ने 'जावेद' साहब को शायरी करने के लिए कभी नहीं उकसाया बल्कि ये कहा कि, बरखुरदार पहले पढ़ाई लिखाई करो, अपने पांव पर खड़े हो जाओ फिर कर लेना शायरी- वायरी। 'जावेद' साहब पढ़ते भी रहे और अपने अब्बा से छुप-छुप कर शायरी भी करने लगे जो। छुपछुपा कर मुशायरे भी पढ़ने लगे। ऐसे ही किसी मुशाइरे में लखनऊ के आला अफसर 'अनीस अंसारी' साहब ने भी उन्हें सुना और उनके बगावती तेवरों से बड़े मुत्तासिर हुए। उन्होंने ने 'जावेद' को बुलाया और पूछा कि बरखुरदार आप करते क्या हो, तो 'जावेद' साहब ने कहा कि उर्दू में पोस्ट ग्रेजुएशन करने के बाद पीएचडी कर रहा हूं जिसमें तीन साल तो लग ही जाएंगे उसके बाद अल्लाह मालिक है। बात आई गई हो गई। 

एक दिन 'जावेद' साहब की पहचान के जनाब 'बशीर फ़ारुक़ी' साहब जो सचिवालय में काम करते थे, उन्हें ढूंढते हुए आए और कहा कि जावेद भाई आपको 'अंसारी साहब' ने याद किया है। 'अंसारी' साहब तब 'उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक वित्तीय विभाग' जो कि नया ही बनाया गया था के, एम.डी. बनाए गये थे। 'जावेद' साहब उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा, बरखुरदार सरकारी नौकरी करोगे? और उनका ज़वाब सुनने से पहले ही विभाग के जनरल मैनेजर 'शर्मा जी' को बुला कर कहा कि ये नौजवान 'मलिकजादा जावेद' बहुत होशियार है और इससे पहले कि ये फ्रस्ट्रेशन का शिकार हो जाए इसे अपने विभाग में नौकरी दे दो। आनन-फानन में उन्हें नौकरी पर रख लिया गया। इस तरह 'जावेद' साहब को अपनी शायरी की बदौलत सरकारी नौकरी मिल गई।

बेतरतीबी ठीक नहीं
कमरे में अलमारी रख

सबको बांट के खे़मों में 
अपने घर सरदारी रख
*
सुखन में दस्तकारी बढ़ रही है
ग़ज़ल के कारखाने लग रहे हैं

ये दुनिया एक पल में ख़त्म होगी 
मगर इसमें ज़माने लग रहे हैं
*
ज़ुबां एजाज़ देकर काट लेगा
ये हाकिम कुछ अजब किरदार का है एजाज़: इनाम
*
बारिश का मौसम तो बीत गया लेकिन 
उजली दीवारों पर धब्बे उग आए 
*
ख़त लिखने को जी चाहे अल्फ़ाज़ बगैर
इतनी भी शिद्दत से तुम याद आना मत

देश के नामवर शायर जनाब 'बशीर बद्र' साहब 'मलिकजादा जावेद' साहब की शायरी के काइल थे।लखनऊ में नौकरी के साथ-साथ जावेद साहब मुशायरे तो पढ़ते थे लेकिन उन्हें उतनी शोहरत नहीं मिलती जिसके वो हकदार थे। सब जानते हैं कि एक बड़े दरख़्त के नीचे छोटे पौधों का पनपना मुश्किल होता है वही हाल 'जावेद' साहब का था। लखनऊ में लोग उनकी शायरी पे दाद तो देते लेकिन साथ ये भी कहते कि ये एक बहुत बड़े शायर का बेटा है अपने अब्बा जैसा तो कभी कह नहीं पाएगा। कभी किसी अच्छी शेर पर लोग ये भी कमेंट करते कि ये शेर इसने अपने अब्बा से लिखवा लिया होगा। 

ये सब देखकर एक बार 'जावेद' साहब ने 'बशीर बद्र' साहब से कहा कि वो उन्हें दिल्ली के डी.सी.एम. के मुशायरे में पढ़ने का मौका दिलवाएं। उस वक्त डी.सी.एम. का मुशायरा पढ़ने वाला शायर ही असली शायर समझा जाता था। 'बशीर बद्र' साहब की सिफ़ारिश पर 'जावेद' साहब को मुशायरे में बुलाया गया जिसकी निजामत 'मलिकजादा मंजूर' करने वाले थे। 'जावेद' साहब चाहते थे कि उनके उस मुशायरे में शिरकत की बात उनके अब्बा तक मुशायरा से पहले ना पहुंच पाए। ऐसा हुआ भी, 'मंजूर' साहब जिस ट्रेन से दिल्ली गए 'जावेद' साहब उस ट्रेन की बजाए दूसरी ट्रेन से दिल्ली पहुंचे और उनसे अलग होटल में रुके। मुशायरे की स्टेज पर सबसे छुपते-छुपाते आख़िरी सफ़ जा कर बैठ गए। जब शायरों की लिस्ट मंजूर साहब को निजामत से पहले सौंपी गई तो वो उसमें 'जावेद' साहब का नाम देखकर हैरान हुए और पलट कर पीछे देखा। 'जावेद' उन्हें बैठे दिखाई दिये। 'मंजूर' साहब ने मुशायरे का आगाज़ ये कह कर किया कि मैं सबसे पहले उस नौजवान को दावते-सुखन दे रहा हूं जो मेरा बेटा है लेकिन इसे यहां बुलाने में मेरा कोई हाथ नहीं है। इससे ज़्यादा इनका तार्रुफ़ इनकी शायरी ही आपको करवाएगी। 'जावेद' साहब माइक पर आए और अपनी तीन ग़ज़लें पढ़ी। मजे की बात ये हुई कि अगले दिन अख़बारों में जहां नामवर शायरों का एक एक ही शेर कोट किया गया वहीं 'जावेद' के तीन शेर कोट किए गए। उस दिन के बाद से 'जावेद' साहब शोहरत की बुलंदियां छूने की और बढ़ चले।

अब तो ख़त लिख कर ही होगी गुफ़्तगू 
फ़ोन पर करता है वो बातें बहुत
*
मौसम तक पैग़ाम ये लेकर जाए कौन
सूखे शजर पत्तों की चाहत करते हैं
*
एक भी तस्वीर एल्बम में नहीं
मेरी यादों का सफ़र है मुख़्तलिफ़
*
मैं भी पंजों पर खड़ा हो जाऊंगा 
हैसियत से वो अगर बढ़ कर मिले
*
सभी कमरों में घुस जाते हैं आकर
कहां होती है कोई बात घर में

नौकरी लगने के कुछ ही सालों बाद 'जावेद' साहब का लखनऊ से नोएडा ट्रांसफर हो गया और यहीं से 'जावेद' साहब को अपनी असली पहचान मिली। उन्होंने अपने पिता की रिवायती शैली से बिल्कुल अलग ग़ज़ल की शैली अपनाई। बड़े भाई समान 'बशीर बद्र' साहब की इस सलाह को हमेशा याद रखा की "शायरी उस ज़बान में की जानी चाहिए जिसको समझने के लिए किसी को लुगत का सहारा ना लेना पड़े, यानी आम बोलचाल की सीधी सरल ज़बान।

उन्होंने ग़ज़लें न सिर्फ़ आम ज़बान में कहीं बल्कि उनमें सामाजिक सरोकारों को, इंसानी फितरत को, आम इंसान के सुख-दुख को बड़े दिलकश अंदाज में जोड़ा। 

"धूप में आईना" 'जावेद' साहब का दूसरा ग़ज़ल संग्रह है, जिसमें उनकी 101 बेहतरीन ग़ज़लें शामिल हैं ।ये ग़ज़ल संग्रह 'आदम पब्लिशर्स' नई दिल्ली से 2005 में प्रकाशित हुआ था। इस ग़ज़ल संग्रह में ज्यादातर ग़ज़लें छोटी बहर में है और जैसा सब जानते हैं कि छोटी बहर में ग़ज़ल कहना बहुत हुनर का काम होता है। 'जावेद' हुनर इनमें सर चढ़कर बोलता है। इस संग्रह से पहले सन 1992 में उर्दू में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "खंडर में चिराग" छपकर मक़बूल हो चुका है। इस संग्रह को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने पुरस्कृत भी किया था।

हाल ही में नोएडा से, रिटायर होकर, 'जावेद' साहब अब अपने लखनऊ के पुश्तैनी मकान में जाकर बस गए हैं। आप 'जावेद' साहब से उनके मोबाइल नंबर 9312439228 पर संपर्क कर इस किताब को प्राप्त करने का तरीका पूछ सकते हैं।

कहां तुम आ गए बैसाखियों की नगरी में 
यहां तो पांव से चलता नहीं है कोई भी
*
इल्म के मांझे से क्या हासिल 
लफ़्फ़ाज़ी की डोर बहुत है
*
इकट्ठा हो गए वो एक पल में 
मगर बच्चों की मांए लड़ रही हैं
*
खिड़की के बाहर मत झांक 
अपने घर के अंदर देख
*
मेरी गली के शिवाले में कीर्तन भी हो
तेरे पड़ोस की मस्जिद में भी अज़ान रहे 





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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे