अपने दुश्मन तो हम खुद हैं
हमसे हमको कौन बचाए
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बेवजह जो दाद देते हैं
कैक्टस को खाद देते हैं
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इस नदी का जल कहीं भी अब लगा है फैलने
बांध कोई इस नदी पर अब बनाना चाहिए
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लोग कुर्सी पर जो बैठे हैं ग़लत हैं माना
प्रश्न ये है जो सही हैं वो कहां बैठे हैं
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ज़माने से तुमको शिक़ायत बहुत
क्या तुमसे किसी को शिकायत नहीं
आपको याद होगा कि देश में 1975 में इमरजेंसी घोषित हुई थी, यानी अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी।1977 में जैसे ही इमरजेंसी हटी, जनता का गुस्सा फूट कर सामने आया और सत्ता के विरोध में कहानियों, उपन्यासों कविताओं और ग़ज़लों की बाढ़ सी आ गई जैसे कोई बांध टूट गया हो।
सत्ता के विरोध में और आम इंसान के दुख- तकलीफों पर लिखने वाले सफल रचनाकारों में से एक थे 'दुष्यंत कुमार' जिनकी ग़ज़लों ने जनमानस पर गहरा प्रभाव डाला। बहुत से नए ग़ज़ल कारों ने उन्हें अपना आदर्श माना। आम बोलचाल की भाषा में हुस्न और इश्क़ के रुमानी संसार से निकल कर हक़ीक़त की खुरदरी ज़मीन पर ग़ज़ल कहने का दौर आया।
हमारे आज के ग़ज़लकार श्री सुरेश पबरा 'आकाश' ने भी दुष्यंत जी को आदर्श मानते हुए ग़ज़लें कहना शुरू किया। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की किताब 'वो अकेला' जो अभी हमारे सामने है में लिखा है कि 'ग़ज़ल अब केवल मनोरंजन ही नहीं कर रही बल्कि समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा रही है। कभी-कभी किसी ग़ज़ल का एक शेर भी आदमी की जीने की दिशा बदल देता है। मेरी ग़ज़लें आम आदमी की भाषा में कही गई आम आदमी की ग़ज़लें हैं। ये ग़ज़लें ईमानदार आदमी पर हुए अत्याचार की, उसके साथ हुई पक्षपात की ग़ज़लें हैं। आम ईमानदार आदमी इन ग़ज़लों में अपनी पीड़ा महसूस करेगा और बेईमान आदमी इनको पढ़कर तिलमिलाएगा और ये तिलमिलाहट ही इन ग़ज़लों की सफलता होगी।'
बहुत मिले रावण से भी बढ़कर रावण
पर इस युग में नकली सारे राम मिले
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अपनी तो ये इच्छा है सब दुष्टों को
जल्द सुदर्शन चक्र लिए घनश्याम मिले
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शराफ़त से सहना ग़लत बात को
मियां बुजदिली है शराफ़त नहीं
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साफ कहने का मुझे अंजाम भी मालूम है
जानता हूं मैं कहां हूं और कहां हो जाऊंगा
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ये सही है मैं बहुत तन्हा रहा हूं उम्र भर
एक दिन तुम देखना मैं कारवां हो जाऊंगा
स्व.श्रीमति विद्यावती एवं स्व.श्री कर्म चंद पबरा के यहां चार जून 1954 को सुरेश जी का जन्म हुआ। अपने बारे में सुरेश जी बताते हैं कि "मैंने 1973 से व्यंग्य कवितायें लिखना प्रारम्भ किया मैंने दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पत्रिकाओं में पढ़ी उनसे प्रभावित हुआ। मैं मंचों पर भी जाया करता था एक कवि सम्मेलन में 'माणिक वर्मा' जी ने व्यंग के साथ कुछ ग़ज़लें भी सुनायीं बाद में उनमें से एक ग़ज़ल सारिका में भी छपी थी जिसका मिसरा था 'आज अपनी सरहदों में खो गया है आदमी' मैंने इसी बहर पर एक ग़ज़ल लिखी 'जुल्म हँस हँस के सभी सहने लगा है आदमी' और सारिका को भेजी । ये ग़ज़ल 1977 में लिखी थी जो 1979 में सारिका में प्रकाशित हुई। उसके बाद मैंने ग़ज़लें कहना शुरू किया और आज तक कह रहा हूँ ।
मेरी ग़ज़लें कादम्बिनी एवं नवनीत आदि बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। मेरा कोई उस्ताद नहीं रहा। 'डा आज़म' की आसान उरूज़' एवं 'वीनस केसरी' की किताब 'ग़ज़ल के बहाने' से बहर सीखी। अधिकांश ग़ज़लें स्वतः ही बहर में आयीं। शंका समाधान मैंने कइयों से किया।
मैंने 2003 में भेल (BHEL)शिक्षा मण्डल, भोपाल से व्याख्याता के रूप में VRS लिया उसके बाद पन्द्रह वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में प्राचार्य रहा सन् 2020 में, मैं प्राचार्य के रूप में सेवानिवृत्त हुआ फिर उसके बाद वकालत करने लगा जो अभी तक कर रहा हूँ ।"
'वो अकेला' सुरेश जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है जो 'पहले पहल प्रकाशन' भोपाल से सन 2018 में प्रकाशित हुआ था। उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह ' सितारों को जगाना है' सन 2022 में प्रकाशित हुआ है।
सुरेश जी की ग़ज़लें पढ़ कर आप उन्हें उनके मोबाइल +91 98932 90590 पर बात कर बधाई दे सकते हैं।
जाग कर इक रात काटी यार तेरी याद में
याद महकी रात भर और रात रानी हो गई
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पल भर जिधर ठहरना हमको लगता है दूभर
मजबूरी में उधर उम्र भर रहना पड़ता है
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भाईचारे की बात होती है
भाईचारा जहां नहीं होता
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उम्र भर तन्हा रहा है जो
भीड़ में वो खो नहीं सकता
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मखमल के गद्दों पर बैठे गीत गरीबी पर लिखते
बातें करते इंकलाब की दारू पीकर जाड़े में
बहुत ही सुन्दर
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