Monday, June 24, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 6


सभी का हक़ है जंगल पे कहा खरगोश ने जब से 
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी, बैठे मचनों पर
*
जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील, सागर, ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे 

हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पांच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे
*
तन में मन में पड़ी दरारें, टपक रहा आंखों से पानी 
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो 
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये,

बात सन 2006 की है, जब इंटरनेट पर ब्लॉग जगत का प्रवेश हुआ ही था बहुत से नए पुराने लिखने वाले इससे जुड़े, उन्होंने अपने ब्लॉग खोले उसमें लिखा, जिसे बड़ी आत्मीयता से पढ़ने वाले पढ़ते थे। ब्लॉग की पोस्टस को अख़बार वालों ने भी स्थान देना शुरू कर दिया था। 

उन्हीं दिनों देश के ख़्यातिनाम साहित्यकार 'पंकज सुबीर' ने अपने ब्लॉग 'सुबीर संवाद सेवा' पर ग़ज़ल के व्याकरण की पाठशाला चलाई थी जिससे बहुत से नए ग़ज़ल सीखने वाले जुड़े। उसी कक्षा से निकलने वाले बहुत से छात्र आज स्थापित ग़ज़लकार हो गए हैं और अपनी क़लम का लोहा मनवा रहे हैं।उन्हीं छात्रों में मेरे सहपाठी रहे हमारे आज के ग़ज़ल कार हैं 'सज्जन' धर्मेंद्र।

निरीक्षकता अगर इस देश की काफूर हो जाए 
मज़ारों पर चढ़े भगवा हरा सिंदूर हो जाए
*
पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर 
अभी तक गांव में हर साल मां स्वेटर बनाती है
*
एक तिनका याद का आकर गिरा है 
मयकदे में आंख धोने जा रहा हूं
*
सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है

छत्तीसगढ़' के 'रायगढ़' टाउन से लगभग 55 किलोमीटर दूर 'तलाईपल्ली' गांव में 'एनटीपीसी' द्वारा संचालित ओपन कोल माइन है, जहां 22 सितंबर 1979 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में जन्मे 'सज्जन' धर्मेंद्र उप महाप्रबंधक (सिविल) के पद पर कार्यरत हैं। इस भारी जिम्मेदाराना पोस्ट पर काम करते हुए भी, 'सज्जन' धर्मेंद्र अपनी साहित्यिक अभिरुचियों को पूरा करने के लिए समय निकाल लेते हैं। 

'धर्मेंद्र कुमार सिंह', इनका पूरा नाम है, ने प्रारंभिक शिक्षा 'राजकीय इंटर कॉलेजेज प्रतापगढ़' से प्राप्त करने में बाद 'काशी हिंदू विश्वविद्यालय' से बी.टेक और 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की' से 'एम.टेक' की उपाधि प्राप्त की । इसी के चलते इन्हें 'ग़ज़लों का इंजीनियर' भी कहा जाता है।

जाने किस भाषा में चौका बेलन चूल्हा सब
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं
*
खूं के दरिया में जब रंगों का गोता लगता है 
रंग हरा हो चाहे भगवा तब काला लगता है  
*
मत भूलिए इन्हें भले आदत को लिफ़्ट की 
लगने पे आग जान बचाती है सीढ़ियां
*
रात ने दर्द ए दिल को छुपाया मगर 
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई
*
दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में 
मजा न आया साहब को बिरयानी खाने में

आप जो अशआर यहां पर पढ़ रहे हैं ये सभी उनकी ग़ज़लों की पहली किताब 'ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर' से लिए गए हैं जिसे 'अंजुमन प्रकाशन' ने सन 2014 में छापा था। इसे आप 'कविता कोष' की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ सकते हैं। इसके बाद उनका एक और ग़ज़ल संग्रह 'पूंजी और सत्ता के ख़िलाफ़' सन 2017 में प्रकाशित हो कर धूम मचा चुका है। 'सज्जन' जी की ग़ज़लों में आप भले ही 'दुष्यंत कुमार' और 'अदम गोंडवी' की शैलियों की झलक देखें लेकिन उनकी अधिकांश ग़ज़लों में ज़िंदगी और उससे जुड़ी समस्याओं पर अनूठे और असरदार ढंग से शेर कहे गए हैं। 

'धर्मेंद्र' जी ने अपना लेखन ग़ज़लों तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने 'नवगीत' भी लिखे जो उनकी 2018 में प्रकाशित किताब 'नीम तले' में संकलित हैं । सन 2018 में उनकी कहानियों की किताब 'द हिप्नोटिस्ट' पाठकों द्वारा बहुत पसंद की गई। सन 2022 में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास 'लिखे हैं ख़त तुम्हें' अपनी अनूठी शैली के कारण बहुत चर्चित रहा है। उनकी सभी किताबें आप अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। आप सज्जन धर्मेंद्र जी को उनके 9981994272 पर बधाई संदेश भेज सकते हैं।

संगमरमर के चरण छू लौट जाती 
टीन के पीछे पड़ी है धूप 'सज्जन'

खोल कर सब खिड़कियां आने इसे दो 
शहर में बस दो घड़ी है धूप 'सज्जन'
*
कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में 
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइए

चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर 
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइए






Monday, June 17, 2024

किताब मिली - शुक्रिया -5


मुतमइन था दिन के बिखराव से मैं लेकिन ये रात 
दाना दाना फिर अ'जब ढंग से पिरोती है मुझे
*
इश्क़ में मैं भी बहुत मुहतात था सब झूठ है 
और ये साबित कर गया कल रात का रोना मेरा 
मोहतात:सावधान
*
समझ में कुछ नहीं आता मगर दिलचस्पी क़ायम है 
यही तो कारनामा है इस अलबेले मदारी का
*
कई दिनों से मैं एक बात कहना चाहता हूं 
तू लब हिला तो सही हां कोई सवाल तो कर

मैं चाह कर भी तेरे साथ रह नहीं पाऊं 
तू मेरे ग़म मेरी मजबूरी पर मलाल तो कर
*
हमारे ज़ेहन में ये बात भी नहीं आई 
कि तेरी याद हमें रात भी नहीं आई 

बिछड़ते वक़्त जो गरजे तो कैसे बादले थे 
ये कैसा हिज़्र कि बरसात भी नहीं आई
*
सुकून चाहता हूं मैं सुकून चाहता हूं 
खुली फिज़ा में नहीं तो क़फ़स में दे दे तू
*
उस पे तक़्सीम तो कीजे खुद को
क्या ज़रूरी है कि हासिल आए
*
मैं बांध ही रहा था ग़ज़ल में उसे अभी 
वो ज़ीना ए ख़्याल से नीचे उतर गया
*

आपको याद ही होगा की सन 2019 में एक भयंकर बीमारी ने पूरी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। उस बीमारी ने न गरीब देखा न अमीर, न गोरे देखे न काले, न देश देखे न मज़हब, उसने सबको, बिना भेदभाव के, अपनी चपेट में ले लिया था। 

उस बीमारी का इलाज तो खैर इंसान ने बहुत हद तक ढूंढ लिया है लेकिन एक और इससे भी बड़ी बीमारी का इलाज कोई इंसान अब तक नहीं ढूंढ पाया है। ढूंढ लिया होता तो आप, जो मैं लिख रहा हूं, यकीनन न पढ़ रहे होते। जी आप सही समझे, मैं 'सोशल मीडिया' की बात कर रहा हूं।जहां हर कोई 'मुझे देखो, मुझे पढ़ो, मुझे सुनो' की गुहार लगाता नज़र आता है।इसकी पकड़ में भी बहुत कम लोग ही आने से बच पाए हैं। जो लोग 'फेसबुक' 'यूट्यूब' 'ट्विटर' 'इंस्टाग्राम' आदि से बच गए वो 'व्हाट्सएप' की भेंट चढ़ गए। सोशल मीडिया में कोई बुराई नहीं है, बुराई सिर्फ इसकी अति में है। 

वैसे साहब ये पोस्ट 'सोशल मीडिया' के बारे में ज्ञान बांटने के लिए नहीं है क्योंकि पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना। दरअसल ये पोस्ट उस शाइर के बारे में है जो 'सोशल मीडिया' में होकर भी वहां नहीं है। 

जनाब "शहराम सरमदी" साहब जिनकी किताब "किताब गुमराह कर रही है" पर लिखने का मन तो दो सालों से था लेकिन उनके बारे में कहीं से कोई सुराग नहीं मिल रहा था। 'फेसबुक' पर भी वो हैं 'इंस्टा' पर भी और 'यू ट्यूब' पर भी लेकिन बस हैं। वहां से आप उनके बारे में कुछ पता नहीं लगा सकते। यूं समझें हो कर भी नहीं हैं ।इंटरनेट पर कहीं उनका कोई इंटरव्यू या उन पर आर्टिकल भी देखने सुनने को नहीं मिलता, मुशाइरों के वीडियोज की बात तो भूल ही जाइए। 

हमने भी थक हार कर सोचा कि अगर 'शहराम सरमदी' साहब, एकांत में रहना चाहते हैं तो क्यों बेवजह उनकी प्राइवेसी में दखल दिया जाए।

आप 'रेख़्ता' से या 'अमेजन' से "किताब गुमराह कर रही है" को मंगवाइए और इत्मीनान से पढ़िए। याने आम खाइए, पेड़ मत गिनिए।
और हां,जब तक वो किताब आपके हाथ आए तब तक यहां 'सरमदी' साहब के ये चंद अशआर पढ़िए और पढ़िए फिर वो जहां, जैसे भी हैं, उन्हें दुआ दीजिए:

तो ज़मीं को आसमां करने की कोशिश ठीक है
सुनते हैं हर चीज हो जाती है मुमकिन वक्त पर
*
याद की बस्ती का यूं तो हर मकां खाली हुआ 
बस गया था जो खला सा वो कहां खाली हुआ

रफ़्ता रफ़्ता भर गया हर सूद से अपना भी जी 
रफ़्ता रफ़्ता दिल से एहसास ए जियां खाली हुआ 
सूद: फायदा, एहसास ए जियां: नुकसान
*
मैं अपनी फ़त्ह पर नाजां नहीं हूं 
प सुनता हूं कि थी दुनिया मुक़ाबिल
*
आज भी रोशन है वो इक नाम ताक़ ए याद में 
आज भी देती है जो इक लौ दिखाई उससे है
*
पहलू में कोई बैठ गया है कुछ इस तरह 
गोया किसी का साथ नहीं चाहिए हमें
*
हमेशा मुझसे ख़फा ही रही है तन्हाई 
सबब ये है कि तेरी याद जो बचा ली है
*
बस सलीक़े से जरा बर्बाद होना है तुम्हें 
इस ख़राबे में अगर आबाद होना है तुम्हें 
*
कई दिनों से बहुत काम था सो दफ़्तर में 
तेरे ख़्याल की लौ मैंने थोड़ी मद्धम की
*
उसने कहा था कि दिल का कहा मान इश्क़ है 
उस दिन खुला के वाकई आसान इश्क़ है 

हैरान मत हो देख के दीवानगी मेरी
तू महज़ तू नहीं है मेरी जान इश्क़ है

ऐसा नहीं है कि 'शहराम सरमदी' साहब के बारे में कुछ भी नहीं मालूम लेकिन जितना मालूम है वो मालूम होने की हद से बहुत दूर है। रेख़्ता की साइट पर जो जानकारी मौजूद है वो सिर्फ़ इतनी सी ही है
"शहराम सरमदी 1975 को अ’लीगढ़ में पैदा हुए। अ’लीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एम. ए. किया। मुम्बई यूनिवर्सिटी से डाक्टरेट की डिग्री हासिल की और वहीं कई बर्सों तक तदरीसी फ़राएज़ भी अनजाम दिए। बा’द-अज़ाँ वज़ारत-ए-उमूर-ए-ख़ारजा, हुकूमत-ए-हिन्द से वाबस्ता हुए और इन दिनों हुकूमत-ए-हिन्द की जानिब से ताजिकिस्तान में मामूर हैं।"
हांलांकि मेरे पास उनका वाट्सएप नंबर है लेकिन मैं उसे आपसे शेयर करने से परहेज़ करूंगा। मैं नहीं चाहता कि मेरी वज़्ह से उनकी प्राइवेसी में खलल पड़े।
आखिर में आपको इस किताब से कुछ और अशआर पढ़वाता चलता हूं:

तेरे जुनून ने इक नाम दे दिया वरना 
मुझे तो यूं भी ये सहरा उबूर करना था 
उबूर: पार
*
कभी जो फुर्सत ए लम्हा भी मिले तो देख 
कि दश्त ए याद में बिखरा पड़ा है तू कैसा
*
क्या मजा देता है बा'ज औक़ात कोई झूठ भी 
जैसे ये अफ़वाह दिल से ग़म की सुल्तानी गई
*
वो देख रोशनियों से भरा है पस मंजर 
मलूल क्यों है अगर सामने उजाला नहीं
मलूल: उदास
*
लग गई क्या इसके भी बैसाखियां 
तेज़ी से वक्त ढलता क्यों नहीं









Monday, June 10, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 4

उम्र गुज़री रेत की तपते हुए सहराओं में 
क्या ख़बर थी रेत के नीचे छुपा दरिया भी है
*
बुराई सुनना और ख़ामोश रहना 
बुराई करने से ज़्यादा बुरा है
*
ऐसी ऐसी बातों पर हम प्यार की बाज़ी हारे हैं 
उनकी मस्जिद के मंदिर से ऊंचे क्यों मीनारे हैं
*
चुभने लगते हैं तो फिर और मज़ा देते हैं
तेरी यादों के भी हैं कितने निराले कांटे 

ये तुझे वक्त का एहसास न होने देंगे 
घर के गुलदान में थोड़े से सजा ले कांटे
*
आप में से बहुतों को याद होगा कि 1988 की हिंदी फिल्म 'क़यामत से क़यामत तक' का गाना 'पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा, बेटा हमारा बड़ा नाम करेगा' बहुत लोकप्रिय हुआ था। हमारे आज के शाइर जनाब 'मजीद खान' साहब, जो 12 अक्टूबर 1954 को आगरा की एक नर्सरी में पैदा हुए थे, पर ये गाना एकदम सटीक बैठता है क्योंकि 'मजीद खान' ने बड़ा काम भी किया और नाम भी। ये अलग बात है कि उन्होंने वो नहीं किया जो उनके पापा चाहते थे। 
'मजीद खान' साहब के अब्बा मरहूम 'अलीमुद्दीन' साहब, आगरा के 'तकिया' अखाड़े के मशहूर पहलवान थे और चाहते थे कि उनका बेटा भी पहलवानी के दांव पेंच सीखे और फिर अखाड़े में बड़े से बड़े पहलवानों को धूल चटाकर नाम कमाए। ऐसा नहीं है की 'मजीद खान' साहब ने कोशिश नहीं की लेकिन अखाड़े की मिट्टी से ज्यादा मोहब्बत उन्हें उस मिट्टी से थी जिसमें पेड़-पौधे, फूल-पत्ते उगते थे, उस मिट्टी से थी जो जमुना के किनारे पर थी जिस पर बैठकर वो चांद सितारे देखा करते और लहरें गिनते थे या फिर उस मिट्टी से थी जो जमुना नदी के पास बनी सूफी संत हज़रत 'अब्दुल्लाह शाह' की दरगाह के इर्द-गिर्द फैली हुई थी। वो घंटों दरगाह में बैठे रहते जहां दरगाह के गद्दीनशीन बाबा 'मुस्तफा' उनको अपने पास प्यार से बिठाकर सूफी मत के बारे में विस्तार से बताते।

धूप में चलने का लोगो सीख लो कुछ तो हुनर 
जा रहे हो दूर घर के सायबां को छोड़कर
*
वही लोग दुनिया में पिछड़े हुए हैं 
नहीं सुन सके जो किताबों की आहट
*
न दुनिया की समझ है और न दीं की 
वो करने को इबादत कर रहा है
*
जहां भी तीरगी बढ़ी नए चिराग़ जल उठे 
है शुक्र इस ज़मीन पर अभी ये सिलसिला तो है

आगरा के जिस स्कूल में 'मजीद खान' पढ़ते थे वहां हर साल 'रसिया' प्रतियोगिता होती थी। 'रसिया' सुन-सुन कर 'मजीद खान' भी अच्छी खासी तुकबंदी करने लगे। ये तुकबंदी तब तक चलती रही जब तक वो ग्रेजुएशन करने के बाद 'यू.पी. स्टेट वेयरहाउसिंग में नौकरी के दौरान 1979 में सिकंदराबाद (बुलंदशहर )ट्रांसफर नहीं हो गये।

बुलंदशहर में उनकी मुलाकात उस्ताद शायर जनाब 'फ़ितरत अंसारी' साहब से हुई जिन्होंने उन्हें अपना शागिर्द तस्लीम कर लिया। अगले 4 साल यानी 1983 का वक्त माजिद खान की जिंदगी का अहम वक्त रहा। इन चार सालों में 'फ़ितरत अंसारी' साहब ने 'मजीद खान' साहब को एक मुकम्मल कामयाब शायर जनाब 'एन.मीम.कौसर' में तब्दील कर दिया। जिनका हिंदी में छपा पहला ग़ज़ल संग्रह "आईने ख्वाहिशों के" हमारे सामने है।

'मजीद खान' साहब की 'ऐन.मीम. कौसर' बनने की कहानी भी सुन लीजिए। हुआ यूं कि एक दिन 'फ़ितरत अंसारी' साहब ने फरमाया की देखो बरखुरदार 'मजीद' अल्लाह का नाम है इसलिए अगर कोई तुम्हें ए 'मजीद' कह कर पुकारे तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा? ऐसा करो कि तुम मजीद के आगे 'अब्दुल' लगा लो अब्दुल याने बंदा और अपना नाम 'अब्दुल मजीद' याने अल्लाह का बंदा रख लो। 'कौसर' तुम्हारा तख़्ल्लुस रहेगा। फिर कुछ सोच कर बोले कि ऐसा करो 'अब्दुल मजीद को छोटा करके 'अब्दुल' के 'अ' का ऐन, 'मजीद' के 'म' का मीम लेकर अपना नाम ऐन.मीम.कौसर रख लो। सारी दुनिया 'मजीद खान' को भूल उन्हें सिर्फ़ 'ऐन.मीम.कौसर' के नाम से ही जानती है जिनकी ग़ज़लों की हिंदी में छपी किताब ' आईने ख़्वाहिशों के' हमारे सामने है।

कश्ती के डूबने का मुझे कोई ग़म नहीं 
गम ये है मेरे साथ कोई नाख़ुदा न था
*
मेरी अना की धूप ने झुलसा दिया मुझे 
निकला हूं अपनी ज़ात के जब भी सफर को मैं
*
बदल डाले परिंदों ने बसेरे
शजर सूखा तो फिर तनहा हुआ है
*
बदन पर दिन के पंजों की ख़राशें 
हर इक शब मेरा बिस्तर देखता है

कौसर साहब पिछले 40 सालों से शायरी कर रहे हैं। उनके उर्दू में तीन और हिंदी में ये पहला ग़ज़ल संग्रह छपा है। इसके अलावा मुल्क़ के सभी बड़े रिसालों में वो लगातार छपते आ रहे हैं। अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। 
कौसर साहब का कहना है कि शाइरी आसान ज़बान में ही होनी चाहिए और शेर बोलचाल की भाषा में कहे जाने चाहिएं ताकि वो सीधे दिल में उतर सकें। उनकी नज़रों में कामयाब शेर वो है जो एक बार सुन लेने के बाद आपको हमेशा याद रहता है। 

रिटायरमेंट के बाद 'कौसर' साहब बुलंदशहर में ही बस गए हैं और अपना पूरा वक्त शायरी लिखने-पढ़ने में बिताते हैं। उनकी ये किताब आप समन्वय प्रकाशन गाजियाबाद से 991166 9722 पर संपर्क कर मंगवा सकते हैं। 'कौसर' साहब से आप उनके मोबाइल नंबर 941238 7790 पर संपर्क कर बात कर सकते हैं।

रोज़ होती है यहां जंग महाभारत की 
तू इसे गुज़रे हुए वक्त का किस्सा न समझ
*
तीरगी न मिट पाई आदमी के ज़हनों की 
की तो थी बहुत हमने रोशनी की तदबीरें
*
दूर तक पहाड़ों पर सिलसिले चिनारों के 
एक अज़ीम शाइर की शाइरी से लगते हैं
*
बाहर से दिख रहा है सलामत मगर जनाब 
अंदर से अपने आप में बिखरा है आदमी
*
खुशबू पिघल-पिघल कर फूलों से बह रही है 
कितनी तमाज़तें हैं तितली की इक छुअन में
तमाज़तें: गर्मी
*
फूल से लोग संग सी फ़ितरत 
आईने ख्वाहिशों के टूट गए












Monday, June 3, 2024

किताब मिली - शुक्रिया - 3

तू चाहता है जो मंजिल की दीद सांकल खोल 
सदाएं देने लगी है उमीद सांकल खोल 

 बड़े मज़े में उदासी है बंद कमरे में 
 मगर हंसी तो हुई है शहीद सांकल खोल 
बाद इसके चराग़ लौ देगा 
पहले इक लौ चराग़ तक पहुंचे 
यार उकता गया हूं मैं खुद से 
यूं करो अब तुम्हीं जियो मुझको 
पास दरिया है प्यास फिर भी है 
बेबसी देखिए किनारों की 
अब आप लोगों को हो तो हो लेकिन सच बात तो ये है कि मुझे नहीं मालूम था कि मध्य प्रदेश के 'शिवपुरी' जिले में कोई 'करेरा' नाम का नगर भी है जिसके पास 'समोहा गांव है जहां लगभग 1500 साल पुराना 'हिंगलाज माता' का प्रसिद्ध मंदिर है। चलिए मान लेता हूं कि आपको यहां तक तो मालूम होगा लेकिन यह बात तो तय है कि आपको ये नहीं मालूम होगा कि 'हिंगलाज माता' का प्रसिद्ध मूल मंदिर जो हजारों साल पुराना है और 51 शक्तिपीठ में से एक है, पाकिस्तान के शहर 'कराची' से लगभग 250 किलोमीटर दूर बलूचिस्तान के बीहड़ पहाड़ों में स्थित है। आपके लिए ये विश्वास करना भी कठिन होगा कि इस मंदिर में हिंदू और मुसलमान दोनों समान रूप से पूजा/ इबादत करने हजारों की संख्या में आते हैं। बीहड़ पहाड़ों की गुफाओं में बने इन मंदिरों में 'हिंगलाज माता' के अलावा 'हनुमान जी' 'राम सीता लक्ष्मण' और 'शिव जी' के मंदिर भी हैं जहां रोज नियम से पूजा प्रार्थना होती है। यकीन नहीं हुआ ना ?मुझे भी नहीं हुआ था, जब तक मैंने यूट्यूब पर इसके वीडियोज ढूंढ कर नहीं देखे। आप भी चाहें तो देख सकते हैं, ये रहा लिंक:- 
https://dainik-b.in/uhq0M4q5Mtb 

अब के तो अश्क भी नहीं आए 
अबके दिल बेहतरीन टूटा है 
कुछ खबर ही नहीं है सीने को 
जब कि सीने के दरमियां है दिल 
*
 जिस्म बिस्तर पर ही रहा शब भर 
दिल न जाने कहां-कहां भटका 
जब कहें वो कहिए कुछ तो चुप रहूं मैं 
जब कहें वो कुछ ना कहिए तब कहूं क्या 

आप भी सोच रहे होंगे कि मैं कहां की बात ले बैठा हूं और यहां क्यों कर रहा हूं ? ये बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि हमारी आज के शाइर जनाब "सुभाष पाठक" 'जिया' इसी गांव समोहा में 15 सितंबर 1990 को पैदा हुए थे। उन्होंने अपनी ग़ज़लों की जो किताब 'तुम्हीं से ज़िया है' मुझे भेजी थी । आज उसी किताब की बात करते हैं। इसे अभिधा प्रकाशन ने सन् 2022 में प्रकाशित किया था। इस किताब को आप अमेज़न से मंगवा सकते हैं। 

 समोहा' किसी भी आम भारतीय गांव की तरह ही एक गैर शायराना माहौल वाला गांव था। ऐसे ही गैर शायराना माहौल में 'सुभाष पाठक' जी के मन में शायरी के बीज पड़े। स्कूल के दिनों में जब आम बच्चे 'किशोर कुमार' के गानों पर ठुमके लगाते थे तब 'सुभाष' जी को 'उमराव जान' फिल्म के 'इन आंखों की मस्ती में', 'दिल चीज क्या है' और फिल्म 'गमन' के गाने 'सीने में जलन दिल में ये तूफान सा क्या है' सुनने में आनंद आता था। 'जगजीत चित्रा' और ग़ुलाम अली को लगातार सुनने के बावजूद भी उनका मन नहीं भरता था। याने उनमें कुछ तो ऐसा था जो उनके साथ वाले दूसरे बच्चों में नहीं था। क्या था ?ये बात उन्हें स्कूली शिक्षा के बाद जब वो 'शिवपुरी' ग्रेजुएशन करने गए, तब समझ में आई। वो था उनका ग़ज़ल के प्रति रुझान। 'शिवपुरी' के एक मुशायरे में 'निदा फ़ाज़ली' साहब को सुनने के बाद उनमें ग़ज़ल कहने की उनकी इच्छा बलवती हो गई। ग़ज़ल कहने की बात सोचने में और ग़ज़ल कहने में ज़मीन आसमान का फ़र्क है साहब। ग़ज़ल कहने के लिए तपस्या करनी पड़ती है जैसे गाना सीखने के लिए रियाज़। उसके लिए अच्छे उस्ताद का मिलना बहुत ज़रूरी होता है। कुछ होनहार ऐसे भी हैं जिन्होंने किताबों को उस्ताद बनाया और उन्हीं की मदद से कामयाब हुए। सुभाष साहब को ग़ज़ल की टेढ़ी मेढ़ी पगडंडियों पर हाथ पकड़ कर चलना सिखाने वाले दो उस्ताद मिले पहले जनाब महेंद्र अग्रवाल साहब जिन्होंने उनकी पहली ग़ज़ल अपने रिसाले में छापी और ग़ज़ल के व्याकरण पर लिखी किताबें भी पढ़ने को दीं और दूसरे ज़नाब इशरत ग्वालियरी साहब जिनसे वो हमेशा इस्लाह लिया करते हैं। 

यह ख़ुशी है छुईमुई जैसी 
मशवरा दो इसे छुऊं कि नहीं 
वो तितलियां बना रहा था इक वरक़ पे 
सो इक फूल इक वरक़ पे बनाना पड़ा मुझे 
तुम्हारी बज़्म में जाएंगे शादमा होकर 
ये राज़ घर में रहेगा कि खुश नहीं हैं हम 
रेशम विसाल का रखें दिल में संभाल कर 
यादों की धूप आए तो चादर बुना करे 

पेशे से अध्यापक 'सुभाष पाठक' जिनका तख़्ल्लुस 'ज़िया' उनके उस्ताद 'इशरत' साहब का दिया हुआ है, का शेरी सफ़र आसान नहीं रहा। लगातार मेहनत और कोशिश करते रहने का नतीजा तब सामने आया जब उन्हें दिल्ली के एक मुशायरे में पद्मभूषण स्व.श्री गोपाल दास 'नीरज' और पद्मश्री 'अशोक चक्रधर' के सामने पढ़ने का मौका मिला। 'नीरज' जी ने उनकी ग़ज़लों की तारीफ़ की, उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज सुभाष जी को पूरे भारतवर्ष से मुशायरों में पढ़ने के लिए बुलाया जाता है। दूरदर्शन और रेडियो से उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। देश के प्रसिद्ध ग़ज़ल गायकों ने उनकी ग़ज़लों को गाया भी है‌ जिसमें 'सारेगामा' कार्यक्रम के विजेता देश के प्रसिद्ध गायक 'मुहम्मद वकील' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सुभाष जी ग़ज़ल के अलावा गीत भी सफलता पूर्वक लिखते हैं । उनका कोरोना पर लिखा गीत जिसे मुहम्मद वकील साहब ने स्वर दिया था ' कोरोना एंथम' के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसने लाखों लोगों के दिलों में आशा के दीप जलाए। 

इतनी कम उम्र में जिन बुलंदियों को सुभाष जी ने छुआ है वहां तक या उसके आसपास तक पहुंचना बहुतों के लिए मुमकिन नहीं होता। लगातार कुछ नया सीखने और करने को उत्सुक, अपनी ज़मीन से जुड़े, सुभाष जी कभी अपनी उपलब्धियों पर गर्व नहीं करते और यही उनकी निरंतर सफलता और लोकप्रियता का राज़ है। उन्हें और ज्यादा नज़दीक से जानने के लिए मैं आपसे सिर्फ़ इतना ही कहूंगा कि उनकी ये किताब आप सभी मंगवा कर इत्मीनान से पढ़ें। 


आओ कि साहिलों पे घरोंदे बनाएं हम 
तुम थपथपाओ रेत सनम पांंव हम रखें 
अगर तमाज़त को सह सको तुम 
 तो हसरते- आफ़ताब रखना 
तमाज़त: गर्मी 

जो बात कहनी हो ख़ार जैसी 
तो लहज़ा अपना गुलाब रखना 
मैं ऊबता हूं ना क़िस्से को और लम्बा खींच 
अगर है हाथ में डोरी तो फिर ये पर्दा खींच