सभी का हक़ है जंगल पे कहा खरगोश ने जब से
तभी से शेर, चीते, लोमड़ी, बैठे मचनों पर
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जिस घड़ी बाजू मेरे चप्पू नज़र आने लगे
झील, सागर, ताल सब चुल्लू नज़र आने लगे
हर पुलिस वाला अहिंसक हो गया अब देश में
पांच सौ के नोट पे बापू नज़र आने लगे
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तन में मन में पड़ी दरारें, टपक रहा आंखों से पानी
जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये
ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो
नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये,
बात सन 2006 की है, जब इंटरनेट पर ब्लॉग जगत का प्रवेश हुआ ही था बहुत से नए पुराने लिखने वाले इससे जुड़े, उन्होंने अपने ब्लॉग खोले उसमें लिखा, जिसे बड़ी आत्मीयता से पढ़ने वाले पढ़ते थे। ब्लॉग की पोस्टस को अख़बार वालों ने भी स्थान देना शुरू कर दिया था।
उन्हीं दिनों देश के ख़्यातिनाम साहित्यकार 'पंकज सुबीर' ने अपने ब्लॉग 'सुबीर संवाद सेवा' पर ग़ज़ल के व्याकरण की पाठशाला चलाई थी जिससे बहुत से नए ग़ज़ल सीखने वाले जुड़े। उसी कक्षा से निकलने वाले बहुत से छात्र आज स्थापित ग़ज़लकार हो गए हैं और अपनी क़लम का लोहा मनवा रहे हैं।उन्हीं छात्रों में मेरे सहपाठी रहे हमारे आज के ग़ज़ल कार हैं 'सज्जन' धर्मेंद्र।
निरीक्षकता अगर इस देश की काफूर हो जाए
मज़ारों पर चढ़े भगवा हरा सिंदूर हो जाए
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पसीना छूटने लगता है सर्दी का यही सुनकर
अभी तक गांव में हर साल मां स्वेटर बनाती है
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एक तिनका याद का आकर गिरा है
मयकदे में आंख धोने जा रहा हूं
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सभी नदियों को पीने का यही अंजाम होता है
समंदर तृप्ति देने में सदा नाकाम होता है
छत्तीसगढ़' के 'रायगढ़' टाउन से लगभग 55 किलोमीटर दूर 'तलाईपल्ली' गांव में 'एनटीपीसी' द्वारा संचालित ओपन कोल माइन है, जहां 22 सितंबर 1979 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में जन्मे 'सज्जन' धर्मेंद्र उप महाप्रबंधक (सिविल) के पद पर कार्यरत हैं। इस भारी जिम्मेदाराना पोस्ट पर काम करते हुए भी, 'सज्जन' धर्मेंद्र अपनी साहित्यिक अभिरुचियों को पूरा करने के लिए समय निकाल लेते हैं।
'धर्मेंद्र कुमार सिंह', इनका पूरा नाम है, ने प्रारंभिक शिक्षा 'राजकीय इंटर कॉलेजेज प्रतापगढ़' से प्राप्त करने में बाद 'काशी हिंदू विश्वविद्यालय' से बी.टेक और 'भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की' से 'एम.टेक' की उपाधि प्राप्त की । इसी के चलते इन्हें 'ग़ज़लों का इंजीनियर' भी कहा जाता है।
जाने किस भाषा में चौका बेलन चूल्हा सब
उनको छूते ही उनसे बतियाने लगते हैं
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खूं के दरिया में जब रंगों का गोता लगता है
रंग हरा हो चाहे भगवा तब काला लगता है
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मत भूलिए इन्हें भले आदत को लिफ़्ट की
लगने पे आग जान बचाती है सीढ़ियां
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रात ने दर्द ए दिल को छुपाया मगर
दूब की शाख़ पर कुछ नमी रह गई
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दे दी अपनी जान किसी ने धान उगाने में
मजा न आया साहब को बिरयानी खाने में
आप जो अशआर यहां पर पढ़ रहे हैं ये सभी उनकी ग़ज़लों की पहली किताब 'ग़ज़ल कहनी पड़ेगी झुग्गियों पर' से लिए गए हैं जिसे 'अंजुमन प्रकाशन' ने सन 2014 में छापा था। इसे आप 'कविता कोष' की साइट पर ऑनलाइन भी पढ़ सकते हैं। इसके बाद उनका एक और ग़ज़ल संग्रह 'पूंजी और सत्ता के ख़िलाफ़' सन 2017 में प्रकाशित हो कर धूम मचा चुका है। 'सज्जन' जी की ग़ज़लों में आप भले ही 'दुष्यंत कुमार' और 'अदम गोंडवी' की शैलियों की झलक देखें लेकिन उनकी अधिकांश ग़ज़लों में ज़िंदगी और उससे जुड़ी समस्याओं पर अनूठे और असरदार ढंग से शेर कहे गए हैं।
'धर्मेंद्र' जी ने अपना लेखन ग़ज़लों तक ही सीमित नहीं रखा, उन्होंने 'नवगीत' भी लिखे जो उनकी 2018 में प्रकाशित किताब 'नीम तले' में संकलित हैं । सन 2018 में उनकी कहानियों की किताब 'द हिप्नोटिस्ट' पाठकों द्वारा बहुत पसंद की गई। सन 2022 में प्रकाशित उनका पहला उपन्यास 'लिखे हैं ख़त तुम्हें' अपनी अनूठी शैली के कारण बहुत चर्चित रहा है। उनकी सभी किताबें आप अमेजॉन से ऑनलाइन मंगवा सकते हैं। आप सज्जन धर्मेंद्र जी को उनके 9981994272 पर बधाई संदेश भेज सकते हैं।
संगमरमर के चरण छू लौट जाती
टीन के पीछे पड़ी है धूप 'सज्जन'
खोल कर सब खिड़कियां आने इसे दो
शहर में बस दो घड़ी है धूप 'सज्जन'
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कितना चलेगा धर्म का मुद्दा चुनाव में
पानी हो इसकी थाह तो दंगा कराइए
चलते हैं सर झुका के जो उनकी जरा भी गर
उठने लगे निगाह तो दंगा कराइए