उम्र गुज़री रेत की तपते हुए सहराओं में
क्या ख़बर थी रेत के नीचे छुपा दरिया भी है
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बुराई सुनना और ख़ामोश रहना
बुराई करने से ज़्यादा बुरा है
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ऐसी ऐसी बातों पर हम प्यार की बाज़ी हारे हैं
उनकी मस्जिद के मंदिर से ऊंचे क्यों मीनारे हैं
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चुभने लगते हैं तो फिर और मज़ा देते हैं
तेरी यादों के भी हैं कितने निराले कांटे
ये तुझे वक्त का एहसास न होने देंगे
घर के गुलदान में थोड़े से सजा ले कांटे
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आप में से बहुतों को याद होगा कि 1988 की हिंदी फिल्म 'क़यामत से क़यामत तक' का गाना 'पापा कहते हैं बड़ा काम करेगा, बेटा हमारा बड़ा नाम करेगा' बहुत लोकप्रिय हुआ था। हमारे आज के शाइर जनाब 'मजीद खान' साहब, जो 12 अक्टूबर 1954 को आगरा की एक नर्सरी में पैदा हुए थे, पर ये गाना एकदम सटीक बैठता है क्योंकि 'मजीद खान' ने बड़ा काम भी किया और नाम भी। ये अलग बात है कि उन्होंने वो नहीं किया जो उनके पापा चाहते थे।
'मजीद खान' साहब के अब्बा मरहूम 'अलीमुद्दीन' साहब, आगरा के 'तकिया' अखाड़े के मशहूर पहलवान थे और चाहते थे कि उनका बेटा भी पहलवानी के दांव पेंच सीखे और फिर अखाड़े में बड़े से बड़े पहलवानों को धूल चटाकर नाम कमाए। ऐसा नहीं है की 'मजीद खान' साहब ने कोशिश नहीं की लेकिन अखाड़े की मिट्टी से ज्यादा मोहब्बत उन्हें उस मिट्टी से थी जिसमें पेड़-पौधे, फूल-पत्ते उगते थे, उस मिट्टी से थी जो जमुना के किनारे पर थी जिस पर बैठकर वो चांद सितारे देखा करते और लहरें गिनते थे या फिर उस मिट्टी से थी जो जमुना नदी के पास बनी सूफी संत हज़रत 'अब्दुल्लाह शाह' की दरगाह के इर्द-गिर्द फैली हुई थी। वो घंटों दरगाह में बैठे रहते जहां दरगाह के गद्दीनशीन बाबा 'मुस्तफा' उनको अपने पास प्यार से बिठाकर सूफी मत के बारे में विस्तार से बताते।
धूप में चलने का लोगो सीख लो कुछ तो हुनर
जा रहे हो दूर घर के सायबां को छोड़कर
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वही लोग दुनिया में पिछड़े हुए हैं
नहीं सुन सके जो किताबों की आहट
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न दुनिया की समझ है और न दीं की
वो करने को इबादत कर रहा है
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जहां भी तीरगी बढ़ी नए चिराग़ जल उठे
है शुक्र इस ज़मीन पर अभी ये सिलसिला तो है
आगरा के जिस स्कूल में 'मजीद खान' पढ़ते थे वहां हर साल 'रसिया' प्रतियोगिता होती थी। 'रसिया' सुन-सुन कर 'मजीद खान' भी अच्छी खासी तुकबंदी करने लगे। ये तुकबंदी तब तक चलती रही जब तक वो ग्रेजुएशन करने के बाद 'यू.पी. स्टेट वेयरहाउसिंग में नौकरी के दौरान 1979 में सिकंदराबाद (बुलंदशहर )ट्रांसफर नहीं हो गये।
बुलंदशहर में उनकी मुलाकात उस्ताद शायर जनाब 'फ़ितरत अंसारी' साहब से हुई जिन्होंने उन्हें अपना शागिर्द तस्लीम कर लिया। अगले 4 साल यानी 1983 का वक्त माजिद खान की जिंदगी का अहम वक्त रहा। इन चार सालों में 'फ़ितरत अंसारी' साहब ने 'मजीद खान' साहब को एक मुकम्मल कामयाब शायर जनाब 'एन.मीम.कौसर' में तब्दील कर दिया। जिनका हिंदी में छपा पहला ग़ज़ल संग्रह "आईने ख्वाहिशों के" हमारे सामने है।
'मजीद खान' साहब की 'ऐन.मीम. कौसर' बनने की कहानी भी सुन लीजिए। हुआ यूं कि एक दिन 'फ़ितरत अंसारी' साहब ने फरमाया की देखो बरखुरदार 'मजीद' अल्लाह का नाम है इसलिए अगर कोई तुम्हें ए 'मजीद' कह कर पुकारे तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा? ऐसा करो कि तुम मजीद के आगे 'अब्दुल' लगा लो अब्दुल याने बंदा और अपना नाम 'अब्दुल मजीद' याने अल्लाह का बंदा रख लो। 'कौसर' तुम्हारा तख़्ल्लुस रहेगा। फिर कुछ सोच कर बोले कि ऐसा करो 'अब्दुल मजीद को छोटा करके 'अब्दुल' के 'अ' का ऐन, 'मजीद' के 'म' का मीम लेकर अपना नाम ऐन.मीम.कौसर रख लो। सारी दुनिया 'मजीद खान' को भूल उन्हें सिर्फ़ 'ऐन.मीम.कौसर' के नाम से ही जानती है जिनकी ग़ज़लों की हिंदी में छपी किताब ' आईने ख़्वाहिशों के' हमारे सामने है।
कश्ती के डूबने का मुझे कोई ग़म नहीं
गम ये है मेरे साथ कोई नाख़ुदा न था
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मेरी अना की धूप ने झुलसा दिया मुझे
निकला हूं अपनी ज़ात के जब भी सफर को मैं
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बदल डाले परिंदों ने बसेरे
शजर सूखा तो फिर तनहा हुआ है
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बदन पर दिन के पंजों की ख़राशें
हर इक शब मेरा बिस्तर देखता है
कौसर साहब पिछले 40 सालों से शायरी कर रहे हैं। उनके उर्दू में तीन और हिंदी में ये पहला ग़ज़ल संग्रह छपा है। इसके अलावा मुल्क़ के सभी बड़े रिसालों में वो लगातार छपते आ रहे हैं। अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है।
कौसर साहब का कहना है कि शाइरी आसान ज़बान में ही होनी चाहिए और शेर बोलचाल की भाषा में कहे जाने चाहिएं ताकि वो सीधे दिल में उतर सकें। उनकी नज़रों में कामयाब शेर वो है जो एक बार सुन लेने के बाद आपको हमेशा याद रहता है।
रिटायरमेंट के बाद 'कौसर' साहब बुलंदशहर में ही बस गए हैं और अपना पूरा वक्त शायरी लिखने-पढ़ने में बिताते हैं। उनकी ये किताब आप समन्वय प्रकाशन गाजियाबाद से 991166 9722 पर संपर्क कर मंगवा सकते हैं। 'कौसर' साहब से आप उनके मोबाइल नंबर 941238 7790 पर संपर्क कर बात कर सकते हैं।
रोज़ होती है यहां जंग महाभारत की
तू इसे गुज़रे हुए वक्त का किस्सा न समझ
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तीरगी न मिट पाई आदमी के ज़हनों की
की तो थी बहुत हमने रोशनी की तदबीरें
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दूर तक पहाड़ों पर सिलसिले चिनारों के
एक अज़ीम शाइर की शाइरी से लगते हैं
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बाहर से दिख रहा है सलामत मगर जनाब
अंदर से अपने आप में बिखरा है आदमी
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खुशबू पिघल-पिघल कर फूलों से बह रही है
कितनी तमाज़तें हैं तितली की इक छुअन में
तमाज़तें: गर्मी
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फूल से लोग संग सी फ़ितरत
आईने ख्वाहिशों के टूट गए
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बेहद सुंदर
ReplyDeleteचुभने लगते हैं तो फिर और मज़ा देते हैं
ReplyDeleteतेरी यादों के भी हैं कितने निराले कांटे
मंजर तुम्हारे शहर के जब भी याद आयेंगे, चोट लगेगी दिल पर मगर मुस्कुराएंगे।