शबे ग़म की सहर नहीं होती
हो भी तो मेरे घर नहीं होती
हल्क़ से घूंट भर जहां उतरी
तौबा फिर उम्र भर नहीं होती
वस्ल में ये बला भी होती है
रात पिछले पहर नहीं होती
*
न सजदागह न कोई जलवागह बची हमसे
वो दिल में थे उन्हें हमने कहाँ कहांँ देखा
*
खाते थे अपनी भूख तो सोते थे अपनी नींद
माना क़फ़स में थे हमें खटका तो कुछ न था
*
है अभी मेरे बुढ़ापे में जवानी कैसी
है अभी उनकी जवानी में लड़कपन कैसा
*
सितम भी लुत्फ़ हो जाता है भोलेपन की बातों से
तुझे ऐ जान अंदाज़े-खफ़ा अब तक नहीं आया
जिसे तुम कोसते हो उम्र उसकी और बढ़ती है
तुम्हें सब कुछ तो आया कोसना अब तक नहीं आया
*
किसी से कहने ये आए हैं वो सहर होते
तमाम रात कटी मेरे इंतज़ार में क्या
शराब से भी सिवा ख़ुशगवार है हमको
बताएंँ क्या कि मज़ा पड़ गया उधार में क्या
कौन है यह नौजवान जो दिल्ली की सड़कों के किनारे लगे बाज़ार में किताबों के ढेर के पास बैठा कुछ ढूंढ रहा है ? मजे की बात है कि ये जिस ढेर के पास बैठा किताबों में ग़ुम है वो ढेर अंग्रेजी किताबों का नहीं है | अंग्रेजी किताबों का ढेर तो कुछ आगे लगा है, जिस पर अंग्रेजी बोलते युवा लड़के लड़कियां भीड़ लगाए खड़े हैं | जिस ढेर के पास ये नौजवान है वो तो हिंदी और उर्दू किताबों का है | दो ऐसी भाषाएं जो मौसेरी बहने हैं और जिन्हें बोलने वाले भले कम न हो पढ़ने वाले निश्चित रूप से बहुत कम हैं | उर्दू का हाल तो बहुत ही ख़स्ता है | कभी हिंदुस्तान का शान रही ये भाषा अब एक धर्म विशेष की भाषा करार दी गई है | अब कौन किसे ये बात समझाए कि भाषा का कोई धर्म नहीं होता | अगर थोड़ा गौर से देखें तो आप पाएंगे कि इस नौजवान ने जिन किताबों को छाँटा है उन पर धूल जमी हुई है और कागज़ वक्त की मार से पीले पड़ चुके हैं |
पूछने पर यह नौजवान अपना नाम 'अजय नेगी' बताता है जो पौड़ी गढ़वाल का रहने वाला है और फिलहाल फरीदाबाद रहते हुए मनोविज्ञान में बीए ऑनर्स के फाइनल वर्ष की तैयारी कर रहा है | फिल्मी गानों का शौकीन 'अजय' किसी दिन फिल्मों में गाने लिखने का ख़्वाब देखता है |
उर्दू जबान से बेइंतहा मोहब्बत करने वाले इस नौजवान ने इस ज़बान को सीखने के लिए बहुत पापड़ बेले | जब कोई ढंग का उस्ताद नहीं मिला तो अजय ने किताबों की मदद से इस ज़बान को सीखा | अजय ने ये सिद्ध किया कि यदि आपमें जुनून है तो फिर दुनिया का कोई काम मुश्किल नहीं होता | ऐसे ही एक दिन ढूंढते ढूंढते उसे वो किताब हाथ लगी जो फटेहाल लेकिन नायाब थी | उर्दू शायरी की इस किताब को पढ़ते हुए अजय को ख़्याल आया कि इसे हिंदी में भी लाना चाहिए और वो इस काम में जुट गया | हिम्मत ए मर्दां मदद ए खुदा, 'अजय' के इस सपने को साकार किया एनी बुक के 'पराग अग्रवाल' ने, जिन्होंने 'अजय' को हिम्मत और हौंसला दिया और उसकी मेहनत को किताब की शक्ल में मंज़रे आम पर लाने की जिम्मेदारी उठाई|
आज ज़नाब रियाज़ ख़ैराबादी साहब की ग़ज़लों की वही किताब 'शब-ए-ग़म की सहर नहीं होती' जिसका अजय नेगी साहब ने लिप्यंतरण और सम्पादन किया है हमारे सामने खुली हुई है :
मुद्दत हुई कि हाथ दुआ से उठा लिया
दिल लाख पाक साफ़ है दामन का क्या करूंँ
जा जा के मयकदे में ये धब्बा लगा लिया
खाने में क़ैदे वक्त न अच्छे बुरे से काम
जब मिल गया तो शुक्र किया और खा लिया
*
वो पूछते हैं शौक़ तुझे है विसाल का
मुंँह चूम लूँ जवाब ये है इस सवाल का
रूठे हुए भी छोड़ के सुनते हैं मेरे शेर
मेरे कलाम में है मज़ा बोलचाल का
*
घर मेरा कहते हैं जिसको कोई जिंदाँ होगा
दरो दीवार न होते जो मेरा घर होता
जिंदाँ: कैदखाना
*
मेरे सिवा नज़र आए न कोई दोज़ख मे
किसी का जुर्म हो मालिक मुझे सज़ा देना
*
कमबख़्त वही दिल है कि था हार गले का
अब हार के फूलों में भी शामिल नहीं होता
*
अब ये जाना कि इसे कहते हैं आना दिल का
हम हसीं खेल समझते थे लगाना दिल का
दर्दे दिल आज सुनाया जो उन्हें रो-रो कर
हंँस के बोले कि ये किस्सा है पुराना दिल का
ख़ैराबाद उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले का एक नगर है। इसी ख़ैराबाद में लगभग एक ही कालखंड में दो ऐसे बेमिसाल शायर हुए जिन्होंने अपनी शायरी से पूरे देश में अपने नाम का डंका बजा दिया। पहले थे सं 1853 में पैदा हुए जनाब 'रियाज़ ख़ैराबादी' और दूसरे उसके 12 साल बाद याने 1865 में पैदा हुए जनाब 'मुज़्तर खैराबादी'। हालाँकि रियाज़ साहब 84 वर्ष तक जिए जबकि मुज़्तर साहब महज़ 62 साल बाद ही इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़्सत हो गए लेकिन उनका नाम फिर भी देश में ज्यादा लोग जानते हैं। दरअसल मुज़्तर साहब का नाम उनके बाद उनके बेटे मशहूर शायर जनाब 'जां निसार अख़्तर' और फिर उनके पोते शायर 'जावेद अख़्तर' साहब ने ज़िंदा रखा जबकि रियाज़ साहब के बाद की पीढ़ी में ऐसी कोई मशहूर हस्ती नहीं हुई। पुरखों की विरासत को सँभालने की ज़िम्मेदारी अगली पीढ़ी की होती है जो रियाज़ साहब को नसीब नहीं हुई। ये तो भला हो 'अजय नेगी' जैसे जुनूनी नौजवान का जिसने रियाज़ साहब की शायरी से हमें रूबरू होने का मौका दिया।
रियाज़ साहब के वालिद जनाब सैयद तुफ़ैल अहमद अपने वक़्त के बड़े आलिम थे। अरबी और फ़ारसी के विद्वान् तुफ़ैल साहब गोरखपुर में अंग्रेजी हुकूमत के पुलिस विभाग में बड़े ओहदे पर थे। रियाज़ साहब ने अरबी और फ़ारसी की शुरुआती तालीम अपने वालिद से ली और आगे की पढाई खैराबाद के मदरसा अरबिया से की। रियाज़ साहब लड़कपन से ही शेर कहने लगे और अपनी शायरी का आगाज़ 'असीर' साहब की शागिर्दी में किया। अपना तख़ल्लुस पहले 'आशुफ़्ता' रखा फिर उस्ताद के कहने पर 'रियाज़' के नाम से शायरी करने लगे। ग़ालिब को पढ़ा तो उनके क़ायल हो गए और लगे उन जैसी मुश्किल ज़बान में शेर कहने। उस्ताद ने समझाया कि मियाँ तुम कितनी भी कोशिश कर लो ग़ालिब तो बनने से रहे इसलिए मुश्किल ज़बान छोडो और आम बोलचाल की भाषा में शेर कह कर अपनी अलग पहचान बनाओ। रियाज़ साहब को उस्ताद की बात अच्छे से समझ में आ गयी और वो आम ज़बान में शेरगोई करने लगे।
घर में दस हों तो ये रौनक़ नहीं होती घर में
एक दीवाने से आबाद है सहरा कैसा
अब ये आलम है कि पलकें भी नहीं तर होतीं
इन्हीं आंँखों से बहा देते थे दरिया कैसा
*
कमजोर हुए अश्कों से घर के दरो-दीवार
रोने के लिए लेंगे किराए का मकाँ अब
धोके से पिला दी थी उसे भी कोई दो घूंँट
पहले से बहुत नर्म है वाइज की जुबाँ अब
*
मयख़ाना हमारा कोई मस्जिद तो नहीं है
तस्बीह लिए कौन बुजुर्ग आए इधर आज
*
हो भी कुछ तो है बहुत बेजा घमंड
चार दिन की जिंदगी पर क्या घमंड
ख़ाक़ में छुपना है तो कैसा गुरुर
ख़ाक में मिलना है तो कैसा घमंड
इज्ज़ से बढ़कर नहीं है कोई चीज
कैसी नख़वत किब्र कैसा क्या घमंड
इज्ज़: नम्रता, नख़वत: बहादुरी, किब्र: बड़ी उम्र
*
मुश्किल हमारी नज़्अ में आसान हो गई
वो कह गए हम आएंँगे तेरे मज़ार पर
नज्अ: मौत के समय
बेकस सी रात दिन मेरे घर में पड़ी रही
आया ना तुमको रहम शबे-इंतज़ार पर
बेकस: बेबस
वालिद साहब ने जब देखा कि उनके बरखुरदार दीन -दुनिया से बेखबर शायरी के गहरे समंदर में गोते लगा कर सीपियाँ ढूंढने में लगे हुए हैं तो उन्हें चिंता हुई। ये चिंता हर बाप को अपनी उस औलाद के कारण होती है जो उनकी नहीं सुनता और अपनी खुद की राह बनाना चाहता है। इसलिए उन्होंने रियाज़ को, राह पर लाने के लिए अपने रसूख़ और ताल्लुक़ात का इस्तेमाल करते हुए, गोरखपुर के पुलिस विभाग में सब इस्पेक्टर के पद पर लगा दिया। कोई और शख़्स होता तो सब-इन्स्पेक्टर बन कर इतराता फिरता लेकिन रियाज़ साहब को ये मुलाज़मत पाँव की ज़ंज़ीर लगी। चौबीसों घंटे शायरी में मुब्तिला रहने वाला उनका दिमाग पुलिस की गैर शायराना ड्यूटी से मुक्ति पाने को छटपटाने लगा।आख़िर एक दिन उन्होंने अपना इस्तिफा दे कर चैन की सांस ली।
नौकरी से फ़ारिग हो कर रियाज़ साहब ने अपना पूरा ध्यान शायरी पर लगा दिया। इसी बीच उनके एक दोस्त ने उनकी मुलाक़ात उस्ताद शायर 'अमीर मीनाई' से करवाई। रियाज़ साहब को लगा कि 'अमीर मीनाई' ही वो उस्ताद हैं जिनकी उन्हें बरसों से तलाश थी। 'अमीर' साहब की शागिर्दी में रियाज़ साहब की शायरी में ग़ज़ब का निखार आया यूँ समझें कि लोहे का एक मामूली सा टुकड़ा पारस के छूने से सोना हो गया। बेहद दिलकश और खूबसूरत शख़्सियत के मालिक रियाज़ साहब अपनी शायरी की बदौलत हर दिल अजीज़ होते चले गए। रियाज़ खैराबादी ने शराब पर कहे अपने शेरों में शायद ही ऐसा कोई पहलू छोड़ा हो जिस पर तबअ-आज़माई न की हो। रियाज़ खैराबादी ने कभी शराब को मुँह नहीं लगाया और न ही अपने मज़हब से ग़ाफ़िल हुए।
जो अदा पर मर रहे हैं शौक़ से मरते रहें
जाए बन-बन कर क़ज़ा उनकी अदा को क्या ग़रज़
दुख़्तरे-रज़ शब को आ जाती है छुपकर मेरे घर
मयकदे में जाऊँ मुझसे पारसा को क्या ग़रज़
दुख़्तरे-रज़: शराब
*
शगुफ़्ता फूल हसीनों के हार के का़बिल
जो ख़ुश्क हों तो हमारे मज़ार के क़ाबिल
फ़लक की तारों भरी कहकशाँ बुरी क्या है
ये चादर अच्छी है मेरी मज़ार के क़ाबिल
*
जो पूछा जान लोगे दिल्लगी में
तो बोले हंँस के है क्या आदमी में
रहा तक़दीर का रोना हमेशा
हमारी उम्र तो गुज़री इसी में
*
अदू के काम आई तू शबे हिज्र
तेरा काला हो मुँह दोनों जहांँ में
जब उतरे हल्क़ से दो घूंट मय के
फले फूले चमन देखे ख़िज़ाँ में
*
रात दिन दोनों है मेरे काम के
चाँद हो इक चाँद सी तस्वीर हो
ग़ैर के आगे अगर बैठे हो आप
आपके आगे मेरी तस्वीर हो
रियाज़ साहब की लड़कपन से शायरी के साथ साथ नस्र में भी बहुत रूचि थी। वो पत्रकार बनना चाहते थे। गोरखपुर से पुलिस की वर्दी उतार कर और आमिर मीनाई से शायरी के सारे गुर सीख कर जब वो वापस ख़ैराबाद आये तो रोजगार के लिए उन्होंने पत्रकारिता को ही चुना। महज़ 19 की उम्र में उन्होंने 'रियाजुल-अख़बार' के नाम से साप्ताहिक अख़बार निकाला। ये अखबार बाद में गोरखपुर और लखनऊ स्थानांतरित हो गया। इस अखबार के अलावा उन्होंने 'तारे-बर्क़ी' और 'सुल्हे-कुल' नाम से अखबार शाया किये जो अधिक नहीं चले। उनका उर्दू तंजो-मिज़ाह पर टिका अखबार 'फ़ित्ना-इत्रे-फ़ित्ना' लगभग तीस साल तक चला।
रियाज़ साहब ग़ज़ब के अनुवादक भी थे उन्होंने ब्रिटिश नॉवलिस्ट रेनॉल्ड्स के दो उपन्यासों 'द लव्स आफ द हरम' और 'ऐलन पर्सी' का अनुवाद 'हम असरा' और 'नज़ारा' नाम से किया जो उर्दू अदब में बहुत पसंद किया गया। वो उनके तीसरे उपन्यास 'ब्रॉन्ज़ स्टेचू' पर काम कर रहे थे जो पूरा नहीं हो पाया।
लिखने लिखाने का ये सिलसिला अभी चल ही रहा था कि उनके वालिद साहब ने उनकी शादी सीतापुर जिले के बिस्वां क़स्बे में तय कर दी। रियाज़ इस शादी के लिए बिलकुल तैयार नहीं थे लेकिन वो ज़माना और था वालिद का कहा पत्थर पर लकीर हुआ करता था, आजकल भी अधिकांश घरों में ऐसा ही होता है। इस शादी के बाद रियाज़ की ज़िन्दगी से ख़ुशी ने किनारा कर लिया। जैसे तैसे कुछ वक़्त बीता और उनकी बीवी का एक बीमारी के चलते इंतकाल हो गया। रियाज़ साहब जैसे आज़ाद हो गए।
फल मैं पा जाऊँ इबादत का बना दे यारब
दाना अंँगूर का तस्बीह के हर दाने को
*
जो आज पी हो तो साक़ी हराम शै पी हो
ये यह कल की पी हुई मय का ख़ुमार बाक़ी है
कोई भी अश्क सा दुख-दर्द का शरीक नहीं
यही तो अब मेरा बचपन का यार बाक़ी है
*
शबे-वस्ल उठाए ये बाहम मजे़
न वो होश में है न हम होश में
रियाज़ अब कहां वो जवानी के दिन
कहांँ अब हसीं कोई आगोश में
*
सता रहा है हमें तो ख़्याले-रोज़े-शुमार
वो हमने पी भी तो क्या पी जो बे-हिसाब न पी
ख़्याले-रोज़े-शुमार: कयामत के दिन का ख्याल
गुनाह कोई न करते शराब ही पीते
ये क्या किया कि गुनह तो किए शराब न पी
*
न पीने को खुम में न खाने को घर में
कहीं ऐसे में शायरी सूझती है
ये काफ़िर लिए साथ आती है बोतल
घटा आते ही मयकशी सूझती है
*
चुभती हुई इक फाँस है हर साँस सुकूँ की
दुनिया में किसी के लिए आराम नहीं है
रियाज़ की मोहब्बत की दास्ताँ हमेशा एक मोड़ पर आ कर दुखांतिका में बदलती रही। गोरखपुर के एक गैर मुस्लिम परिवार में उनका बहुत आना-जाना था। वो परिवार रियाज़ की शायरी का दीवाना था और उन्हें भी बहुत पसंद करता था। उस परिवार की एक खूबसूरत लड़की से उन्हें मोहब्बत हो गयी वो भी दिलो-जान से उन्हें चाहने लगी। वो दिन सोने के और रातें चाँदी की थी लेकिन ऐसा कब तक चलता ? एक न एक दिन मज़हब की दीवार तो उनके बीच खड़ी होनी ही थी, सो हुई। रियाज खैराबादी चाहते तो मज़हब का ख्याल एक तरफ रख कर उस लड़की से शादी कर सकते थे क्योंकि लड़की अपना मज़हब तब्दील करने के लिए राजी थी लेकिन रियाज़ खैराबादी उस खानदान की बदनामी नहीं चाहते थे इसलिए उस लड़की से शादी के लिए तैयार नहीं हुए। रियाज़ अपने गम की हरारत को कम करने के लिए बिना किसी को बताए एक लंबे सफर पर रवाना हो गए, जब वापस लौटे तब तक उनकी महबूबा तपेदिक की बीमारी से रात-दिन लड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थी।
टूटा दिल और आँखों में आंसू लिए यूँ समझें कि देवदास बने रियाज़ एक तवायफ़ के कोठे पर जाने लगे। किस्मत देखिये कि उस कोठे की एक बला की खूबसूरत लेकिन दूसरे मज़हब की तवायफ़ इनपर मर मिटी। चूँकि यहाँ किसी ख़ानदान के बदनाम होने की फ़िक्र नहीं थी इसलिए रियाज़ साहब ने उस तवायफ़ का धर्म परिवर्तन करवा कर उससे शादी कर ली। दुल्हन के हाथ की मेहँदी अभी उतरी भी न थी कि एक दिन पुलिस धड़धड़ाती हुई उनके घर घुसी और उस तवायफ़ को किसी के क़त्ल के इलज़ाम में गिरफ़्तार कर ले गयी। रियाज़ साहब को तो जैसे काटो तो खून नहीं। मुक़दमा चला और उस तवायफ़ को सजाये मौत सुनाई गयी। रियाज़ साहब ने बहुत कोशिश की कहाँ कहाँ नहीं भागे आखिर बहुत कोशिशों से मौत की सज़ा 18 साल की क़ैदे बामशक़्क़त में तब्दील हो गयी। रियाज़ इस हादसे से बिलकुल टूट गए।
वस्ल की रात के सिवा कोई शाम
साथ लेकर सहर नहीं आती
अरे वाइज़ डरा न तू इतना
क्या उसे दर-गुज़र नहीं आती
दर गुज़र: माफी
शर्म आती है दिल में सौ सौ बार
तौबा लब पर मगर नहीं आती
*
लगी आग मेरी जिगर में यूँ न लगे किसी के भी घर में यूंँ
न तो लौ उठी कि न चमक हुई न शरर उठे न धुआंँ उठा
*
आप आए तो ख़्याले-दिले-नाशाद आया
आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया
क्या कहा फिर तो कहो भूल गए हम किसको
सदक़े उसके जो तुम्हें भूल के यूंँ याद आया
*
ये भी पीना है कोई चाल है ये भी कोई
हर क़दम पर उन्हें सौ बार संँभलते देखा
*
ये मुझसे सख़्त-जाँ पर शौक़ ख़ंजर आज़माई का
ख़ुदा हाफ़िज़ मेरे क़ातिल तेरी नाज़ुक कलाई का
वो क्या सोएंगे ग़ाफ़िल हो के शब भर मेरे पहलू में
उन्हें ये फ़िक्र है निकले कोई पहलू लड़ाई का
*
यूंँ भी हो शग़्ले-मय कि पिएँ हम पिलाओ तुम
यूंँ भी हो शग़्ले-मय कि पियो तुम पिलाएँ हम
कहानी यहाँ ख़त्म नहीं हुई। रियाज़ दिन-ब-दिन कमज़ोर और बीमार रहने लगे। इस दौर की उनकी ग़ज़लें उनके टूटे दिल की कैफियत बयाँ करती हैं। 18 साल बाद जब वो ख़ातून जेल से रिहा हुई तो रियाज़ साहब ने उसे तलाक़ दे दिया। तलाक़ क्यों दिया इसका जवाब कहीं मिलता नहीं और कोई बताने वाला भी शायद नहीं है -कुछ तो मज़बूरियां रही होंगी --खैर साहब ढलती उम्र और बढ़ती बीमारियों ने रियाज़ को जर्जर कर दिया। रियाज़ की ये हालत देख उनके वालिद , जी हाँ वालिद ने उनके ग़म को कम करने के लिए उनकी फिर से शादी करवा दी। ये नुस्ख़ा आज भी लोग आज़माते हैं। साठ साल की उम्र में रियाज़ फिर से दूल्हा बने। इस शादी ने जैसे चमत्कार कर दिया। सूखे पेड़ की टहनियां हरी हो गयीं उनमें फूल और फल लगने लगे। मुनीर फातिमा बेग़म से उन्हें छै बच्चे हुए। ज़िन्दगी गुलज़ार हो गयी।
चौथी शादी के लगभग बीस साल बाद तक रियाज़ काम में जुटे रहे और फिर उम्र की मार से धीरे धीरे बीमार होते चले गए। ख़ैराबाद में ही 28 जुलाई 1934 को इस बेमिसाल शायर ने आख़री साँस ली। अफ़सोस की बात है कि वक़्त के साथ दुनिया इन्हें भूल गयी। मुझे यकीन है की जब तक अजय नेगी जैसे नौजवान हैं उर्दू का मुस्तक़बिल रौशन रहेगा और ऐसे बेमिसाल लेकिन अपेक्षाकृत गुमनाम शायर हमारे सामने आते रहेंगे।
क्या ही अच्छा हो यदि आप श्री 'अजय नेगी' को +919315119977 पर कॉल कर इस बेमिसाल काम के लिए बधाई दें ताकि इस नौजवान का हौंसला बढ़े और वो आने वाले वक्त में हमारे सामने ऐसे ही गुमनाम नायाब शायरों को खोज कर लाता रहे |
आप इस किताब को अमेज़न से आॕन लाइन या फिर ऐनीबुक से सीधे मंगवा सकते हैं | ऐनी बुक के लिए आप पराग अग्रवाल जी से +919971698930 नंबर पर संपर्क करें|
शैख़ ये कहता गया पीता गया
है बहुत ही बदमज़ा अच्छी नहीं
बाद जिसके हिज़्र हो वो वस्ल क्या
दर्दे-दिल अच्छा दवा अच्छी नहीं
*
इतनी पी है कि बादे-तौबा भी
बे पिए बेखुदी सी रहती है
तेरी तस्वीर हो कि तेग़ तेरी
हमसे हरदम खिंची सी रहती है
*
आ गया पीरी में भी रंगे शबाब
घूँट उतरे जब मये-गुलफ़ाम के
पीरी: बुढ़ापा
शैख़ ये कहता गया पीता गया
ReplyDeleteहै बहुत ही बदमज़ा अच्छी नहीं
बाद जिसके हिज़्र हो वो वस्ल क्या
दर्दे-दिल अच्छा दवा अच्छी नहीं
- बहुत खूबसूरत अंक
- उमेश मौर्य
धन्यवाद उमेश जी
Deleteशराब का शौक न होते हुए भी शराब पे उम्दा कहा है जनाब ने ,,पीते होते तो आग लगा देते
ReplyDeleteसच कहा अवनिंद्र जी
Deleteरियाज़ साहब के संदर्भ में ग़ालिब साहब की शायरी की बात आई है और उल्लेख हुआ है भाषा की कठिनाई का। मेरा मानना है कि किसी भी शायर की भाषा उसके दौर के संदर्भ में आम ही होती है। ग़ालिब के दौर में जो भाषा शायरी के क़द्रदान समझते थे वही ग़ालिब द्वारा उनकी शायरी में ली गयी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि समय के साथ जहाँ भाषा में नये शब्द स्थान पाते रहते हैं वहीं आगे आने वाली पीढ़ियों के प्रचलन में भाषा का स्वरूप बदलता रहता है। यही उर्दू के साथ भी हुआ है और हिंदी के साथ भी। आज से 50 वर्ष पूर्व के काव्य और आज के काव्य की भाषा के तुलनात्मक अध्ययन से इसकी पुष्टि की जा सकती है।
ReplyDeleteअमीर मीनाई साहब जैसे शायर ने जिसको अपना शागिर्द बनाना स्वीकार कर लिया वह अछूता कैसे रह सकता है उच्चस्तरीय शायरी से। इसकी पुष्टि रियाज़ साहब की शायरी से होती है।
जिस शायर का साहित्य हिंदी में उपलब्ध नहीं था उसे अनुवाद के माध्यम से हिंदी में लाने के लिये अजय नेगी जी हार्दिक आभार के पात्र हैं और इस पुस्तक को आपकी पोस्ट के माध्यम से सबके सामने लाने के लिये आप भी इसी हार्दिक आभार के पात्र हैं।
धन्यवाद तिलक भाई...
Deleteहमेशा की तरह सूक्ष्म दृष्टि और नायाब शब्दावली में चित्र की तरह उकेर कर जो आपका समीक्षात्मक प्रस्तुतीकरण होता है, पढ़ते पढ़ते उसी में खो जाना पड़ता है। वाह क्या बात है आपकी क़लम की!!
ReplyDeleteजया गोस्वामी जयपुर
बहुत ही बेहतरीन काम किया है अजय नेगी ने और उस पर सोने पे सुहागा वाला काम तुमने किया है इस किताब के बारे में जिस तरह बताया है, जिस तरह व्याख्या की है। मुबारक हो आपको।
ReplyDeleteकेडी शर्मा जयपुर
आप उर्दू के शायरों व उनकी शायरी से जिस प्रभावी भाषा मे हिन्दी पाठकों से परिचय करवाया रहे हैं ये बहुत उम्दा व मौलिक कार्य है।हम जैसे लोग जो उर्दू से मोहब्बत तो करते हैं पर लिपि न जानने के कारण उस साहित्य का आनन्द नहीं पाते उनको आप ये शायरी का अमृत पिला रहे हैं।सादर प्रणाम।बहुत शुभकामनाएं
ReplyDeleteशुक्रिया...काश कमेंट में अपना नाम भी लिखदेते
Deleteआपके इस ब्लॉग की अपनी तरह की पहली पोस्ट । पराग जी और अजय जी दौनों की जितनी तारीफ़ की जाय कम है । आप ने एक बार फिर साबित किया कि दीवानगी इसे कहते हैं । प्रणाम भैया । जय श्री कृष्ण ।
ReplyDeleteबेहद शुक्रिया नवीन भाई
Deleteबहुत बढ़िया। सुंदर एवं सार्थक पोस्ट। अनुपम लेखनी। आपका अंदाज़ सबसे अलग है।
ReplyDeleteशुक्रिया हिमकर भाई
Deleteबहुत ख़ूबसूरती से लिखा गया लेख पुरातन शायरी से रूबरू कराता अकल्पनीय लेखन नीरज जी आप ही का हिस्सा है
ReplyDeleteजि़न्दाबाद बहुत बधाई
मोनी गोपाल 'तपिश'
धन्यवाद मोनी भाई साहब
Deleteरियाज़ साहब और अजेय नेगी
ReplyDeleteऔर उसपर नीरज भाई की कलम
जी करता है बार बार पढ़ता ही रहूँ
जी.…बेहद शुक्रिया
Deleteबेहतरीन
ReplyDeleteधन्यवाद भाई
Deleteखाते थे अपनी भूख तो सोते थे अपनी नींद
ReplyDeleteमाना क़फ़स में थे हमें खटका तो कुछ न था
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फिर फिर पढ़ने में .. कुछ न कुछ खासम खास मिल ही जाता है
.
उमेश मौर्य