Monday, October 25, 2021

किताबों की दुनिया - 243

डर कर घरों की धूप से कुछ गांव के बुजुर्ग 
डाले हुए सरों पे हैं पीपल की ओढ़नी

पहले तो तार-तार किया पैराहन तमाम 
फिर दाग दार कर गए पागल की ओढ़नी
*
समझौता तीरगी से कभी भी नहीं किया 
बिजली चली गई तो मज़ा धूप का लिया

दानिश वरों के मुंह पर हैं ताले पड़े हुए 
पागल ने सारा शहर ही सर पर उठा लिया
*
मैं सीढ़ियों से चढ़ तो गया आसमान पर 
यारों ने सीढ़ियों से उतरने नहीं दिया

हरचंद हूं सिफ़र मगर इतना रहे ख़्याल 
घाटा किसी अदद को सिफ़र ने नहीं दिया
*
अल्लाह तुम्हें ज़र्बे-कसाफ़त से बचाए 
इस उम्र में भी कांच का गुलदान लगो हो 
ज़र्बे-कसाफ़त: प्रदूषण की मार
*
पासों की मेहरबानी पर निर्भर नहीं हूं मैं 
शतरंज की बिसात हूं चौसर नहीं हूं मैं
*
जब तलक दिल में रहे मेघों की सूरत में रही 
याद जब पलकों तलक आई तो पानी हो गई

मैं तो अपने आप में पहले ही से यारों न था 
और कुछ कुछ इन दिनों रुत भी सुहानी हो गई

भोपाल -  इस शहर का नाम आते ही उन लोगों के, जो वहाँ गए हैं या नहीं भी गए हैं, ज़ेहन में बड़ा तालाब , छोटा तालाब, ताज-उल-मस्जिद, मोती मस्जिद। अरेरा हिल्स पर बना बिरला मंदिर या भारत भवन आदि दर्शनीय जगहों का नाम याद आता है।  
ऐसे ही जब भोपाल के शायरों की बात आती है तो हम असद भोपाली, कैफ़ भोपाली, शेरी भोपाली , ताज़ भोपाली  और बशीर बद्र आदि का नाम लेते हैं। ये नाम याद आने का कारण इनका पॉपुलर होना है लेकिन जिन दर्शनीय स्थानों के या शायरों के नाम हम नहीं लेते तो ये न समझें कि वो इनसे कम हैं।  

पुरानी बात है उर्दू अदब के हलकों में उस वक़्त हलचल मच गयी ये जब ये ख़बर आयी कि उर्दू अदब के स्कॉलर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारुख़ी साहब उर्दू के नये शायरों पर 'नये नाम' उन्वान से एक किताब निकाल रहे हैं जिसमें उस नये शायर के तआरुफ़ के साथ साथ उसका क़लाम भी छापा जायेगा। ज़ाहिर सी बात है कि अगर 'फ़ारुख़ी' साहब किसी शायर का ज़िक्र करेंगे तो वो ख़ास ही होगा। सारे नामी गरामी शोअरा बेताबी से उस क़िताब के मंज़र-ऐ-आम पर आने और उसमें खुद का नाम देखने को बेताब होने लगे। आख़िर किताब आयी जो भोपाल के उन सभी शायरों को जो अपना नाम उस किताब में देखने की ख़्वाइश लिए बैठे थे, को निराश कर गयी, क्यूंकि उस किताब में भोपाल के जिस एक मात्र शायर का क़लाम छपा था उसका नाम बाहर वालों के लिए तो क्या खुद भोपाल वालों के लिए अनजाना था।

ज़ुल्म  के आगे कभी तो सर उठा 
कुछ नहीं तो हाथ में पत्थर उठा

मैं भी करता हूं कलम की धार तेज़ 
और तू भी बे झिझक ख़ंजर उठा
*
ख्वाब ए हसीं के टूटने की इब्तिदा न हो 
दस्तक सी है किवाड़ पे बादे सबा न हो
*
हसीन ख़्वाब जो देखे थे रात भर मैंने
शऊर सुबह को कचरे में डाल देता है
*
किसी भी मेहनती लड़के के साथ बस लेती
ज़हीन लड़की है फिर भी नवाब चाहती है
*
ज़हन आज़ाद इक परिंदा है
फिर भी परवाज़ सरहदों वाली

तुमने 'तनवीर' घर के होते हुए
ज़िंदगी जी है होटलों वाली
*
जब हल चला रही हो ग़ज़ल सूखे खेत में
पानी क़्वाफ़ी गेहूँ की बाली रदीफ़ हो
*
लाख तहज़ीब के मलबूस सजा लूँ तन पर
रूबरू शीशे के जब जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ
*
सदियों से जिसे देखता आया है ज़माना
बस शायरी अपनी उन्हीं ख़्वाबों की डमी है

'नए नाम' किताब में जिस शायर का ज़िक्र फ़ारुखी साहब ने किया था उनका नाम है जनाब 'शफक़ तनवीर'। ये नाम उर्दू वालों के लिए भी बहुत अधिक जाना पहचाना नहीं है ,हिंदी वालों की तो बात ही छोड़िये। भोपाल के एक बेहद मामूली परिवार में जब मोहम्मद यारखान के यहाँ 4 फरवरी 1939 को बेटा पैदा हुआ तो उसका नाम रखा गया 'अहमद यार खान'। बचपन से ही जनाब अहमद यार खान पढाई में होशियार थे। जब मेट्रिक की परीक्षा में अच्छे नंबर आये तो इंजीनियर बनने की ठानी। प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए गए तो पता चला कि उनके नम्बर इतने भी अच्छे नहीं थे कि दाखिला मिल जाता। जिन कालेजों में दाखिला मिल रहा था वो प्रदेश से बाहर थे और वहां पढ़ने के लिए घर के हालात इज़ाजत नहीं देते थे। किसी ने उन्हें डिप्लोमा करने की सलाह दी लिहाज़ा उन्होंने इलेक्ट्रिकल विषय में डिप्लोमा किया और अच्छे नंबरों से पास हुए। 

भोपाल का 'भारत हेवी इलेक्ट्रिकल' देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक है जिसमें नौकरी करने का सपना हर होनहार इंजीनियर आज भी देखा करता है।  डिप्लोमा में आए नंबरों के आधार पर अहमद साहब को उम्मीद थी कि उन्हें भोपाल के इस संस्थान में नौकरी मिल जायेगी। उन्होंने वहां अप्लाई किया और चुन लिए गए। ये नौकरी उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट रही। इस नौकरी  ने उन्हें वो सब कुछ दिया जिसकी तमन्ना हर आम इंसान अपनी ज़िन्दगी में करता है। माली हालात सुधरने के साथ ज़िन्दगी में सुकून आता चला गया। काम के प्रति उनके लगाव और जी तोड़ मेहनत से कभी मुँह न मोड़ने वाले अहमद यार खान को संस्थान में भरपूर इज़्ज़त और तरक्की मिली। 

इसी दौरान शायरी में भी उनकी दिलचस्पी बढ़ी और वो शफक़ तनवीर के नाम से लिखने लगे। पहले अल्लामा अहसन गिन्नौरी से इस्लाह ली फिर उन्हीं के मश्विरे पर उस्ताद शिफ़ा ग्वालियरी से इस्लाह लेने लगे। हमारे हाथ में उनकी किताब 'धूप दोपहर की' है जिसके चुंनिदा अशआर आपको पढ़वा रहे हैं। ये किताब सं 2011 में ग़ुलाम मुतुर्जा ईडन ग्राफिक्स एन्ड प्रिंटर्स भोपाल से उर्दू और हिंदी लिपियों में प्रकशित हुई है। इस किताब को आप रेख़्ता की साइट पर ऑन लाइन दोनों भाषाओँ में इस लिंक को https://www.rekhta.org/ebook-detail/dhoop-dopahar-ki-shafaq-tanveer-ebooks?lang=hi क्लिक कर पढ़ सकते हैं।        
              

कुछ खराबी आपमें है कुछ खराबी मुझ में है 
छानने के वास्ते लगता है छलनी चाहिए
*
दिल के वीराने में यादें तेरी 
जैसे मरघट में दरख़्त इमली के
*
वक्त हूं एक जगह रुक ना मेरा काम नहीं 
चैक हूँ कोरा रक़म भर के भुना ले मुझको
*
कुरआन जब पढ़ा तो हुआ मुझ पर मुनकशिफ़ 
देगी फ़क़त नमाज ही जन्नत नहीं मुझे
*
बिना तेरे मैं अपनी चादरे-हस्ती बुनूँ कैसे 
जहां ताना ज़रूरी है वहीं बाना जरूरी है
*
अदू कोई भी नहीं है फ़क़त अना के सिवा 
खुद अपनी ज़ात पे पथराव मुझको करना है 

मैं अपनी सोच बदलने से क़ब्ल कैसे कहूंँ 
किसी की सोच में बदलाव मुझको करना है
*
दौलत आनी जानी शय है किसकी होती है 
जग को पाठ पढ़ा जाता है मौसम पतझड़ का
*
आंखें जुबानो-ज़ेहन के मालिक हैं फिर भी हम 
यूं जी रहे हैं लगता है कांधे पे सर नहीं 

दानिश्वरी ने हमको खड़ा कर दिया वहांँ 
है इल्म कुल जहान का ख़ुद की ख़बर नहीं


'शफक़' साहब क्यों इतने लोकप्रिय नहीं हुए उसके लिए वो खुद कहते हैं कि ' शायरी मेरी हॉबी है। कभी भी मैंने उसे कमर्शियल नहीं बनाया। मैंने कभी भी किसी मुशायरे के लिए दूसरे शोअरा की तरह दूरदर्शन आकाशवाणी या उर्दू एकेडमी के चक्कर नहीं लगाए। उर्दू के बाकी शोअरा की तरह मंच से पढ़ते वक्त मुझे सामयीन से दाद की भीख मांगना हमेशा ही बहुत खराब लगा ।रही अवॉर्ड्स या एज़ाज़ की बात तो हम सभी जानते हैं कि वो किस तरह जोड़-तोड़ से हासिल किए जाते हैं। शायरी ने मुझे जीने का सलीक़ा सिखाया, जीने का अज़्म दिया, रूह में फूल खिलाए। मुझे तन्हाई के अज़ाब से बचाए रखा।

मैं 'शफक़ तनवीर' जिसे एक पड़ोसी ने बचपन में स्कूल में दाखिल करवाया था बाप के होते हुए भी, मैं उस बदनसीब खानदान या मज़हब का हूंँ जहां बच्चे पैदा करके खुदा के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। आज मैं इस तरह भी महसूस करता हूं कि कहीं निचले तबक़े की जहालत के पीछे नवाबी हुकूमत का हाथ तो नहीं था ? यह तो खुदा का शुक़्र है कि मुल्क आज़ाद हुआ और नवाबी हुकूमत की बहुत सी लानतों से अपने आप हमारा पीछा छूट गया अगर नवाबी हुकूमत खत्म नहीं हुई होती तो मैं भी कभी का दूसरे गरीबों की तरह मर गया होता।

मैंने एक कामयाब ज़िंदगी गुज़ारी है और कभी भी अपने मिज़ाज के खिलाफ समझौता नहीं किया इसकी वजह मेरी शायरी है।'

सफ़र हयात का इक सिम्त हो चुका है बहुत
'शफ़क़' ट्रेन की पटरी बदल के देखते हैं
*
नीमो-पीपल मत तलाश कैक्टस के शहर में 
कट गए वो पेड़ जो कारे हवा करते रहे
*
प्लेटफार्म पर क्यों दिल को बेकरार करूं 
मुसाफिरों की तरह मैं भी इंतजार करूँ

शकिस्ता हाली ही पे मेरी न तंज फरमाएं 
मैं जिसके सर पे रखूँ हाथ ताजदार करूँ
*
मन की उंगली थाम कर यूं ही अगर चलता रहा 
वो नहीं दिन दूर जब दिवालिया हो जाऊंगा 

मेहर से तेरी मेरे दिल का चमन आबाद है 
बेरुखी से यार ! मैं 'हिरोशिमा' हो जाऊंगा
*
किया जब जब हिसाबे-उम्रे रफ्ता 
फ़क़त 'जीरो' ही में टोटल रहा है 
उम्रे रफ्ता: बीते दिनों का 
*
इलर्जी है उसे भेजा है तुमने फिर भी गुलाब 
ये दोस्ती है तो बतलाओ दुश्मनी क्या है
*
मिली ने द्वार पे तुलसी न सेहन में पीपल 
पराए देश से लौटा तो अपना घर न मिला 

किसे मैं सौंपता फिर इल्म के ख़ज़ाने को 
धड़ों की भीड़ में ढूंढा तो एक सर न मिला

नौकरी के दौरान भारत सरकार की ओर से उन्हें 'लीबिया' में काम करने का मौका दिया गया, जहां वो बरसों रहे और इस सफ़र ने उनकी जिंदगी को नए नए तजुर्बे दिए ।शायरी के हवाले से वो तेहरान, त्रिपोली, दमिश्क और एथेंस जैसे शहरों में कई बार गए। सन 1997 में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल भोपाल से चीफ टेक्नीशियन के ओहदे से रिटायर हुए।

' गुलदस्ता भोपाल' के अध्यक्ष मोहम्मद रईस खान लिखते हैं कि 'शफक़ तनवीर' की शायरी गुलो- बुलबुल, औरतों की तारीफ़, हुस्नो इश्क, हिज़्रो विसाल जैसे परंपरागत विषयों पर नहीं है बल्कि सच्चाई को उजागर करने वाली शायरी है और यही वजह है कि वो आसानी से याद की हो जाती है'। 

जनाब सुरेश प्रसाद सरोश लिखते हैं कि शफक़ साहब की शायरी किसी खास रिवायत कि आईनादार नहीं है और ना ही किसी खास आईडियोलॉजी की। वो वक्त के साथ चल कर उन मौजूआत पर क़लम उठाते हैं जिनका ताल्लुक़ रोजमर्रा की जिंदगी से होता है। इंसानी दोस्ती का जज़्बा पूरी शिद्दत के साथ उभरकर पढ़ने वाले को मुत्तासिर करता है। हिंदी जबान से लगाव की वजह से आपकी शायरी में हिंदी लहजे का असर भी साफ दिखाई देता है। उनकी जुबान सादा और सलीकेदार है, वो कोशिश करके अल्फ़ाज़ से शेरों के मफहूम को नहीं सजाते बल्कि कोशिश करते हैं कि जो बात दिल से निकली है उसे बगैर किसी लाग लपेट के बयान किया जाए। उनकी शायरी जिंदगी की अक्कासी करती है उनमें ईमानदारी भरपूर ताज़गी और तवानाई है।'

नुमाइश की हदों तक दीन वाले धर्म वाले हैं 
इधर भी नाग काले हैं उधर भी नाग काले हैं 

वह मशि्रक हो के मगरिब बिन्ते-हव्वा एक जैसी है 
यहांँ सीता की चीखें हैं वहांँ मरियम के नाले हैं
बिन्ते-हव्वा: हव्वा की बेटी यानी स्त्री

गवारा ही नहीं मुझको किसी कमज़र्फ़ का एहसां 
कहूंँ मैं ख़ार से कैसे मेरे तलवों में छाले हैं
*
सफ़र में ऐसे भी आए थे कुछ मुकाम कि हम 
अभी चले भी नहीं थे कि पाँव थकने लगे 

करिश्मा कम ये नहीं सरफिरी हवाओं का 
समर भी शाखों पर पकने से पहले पकने लगे
*
सारे खुदाओं ने धरती के ये कैसा कानून रचा 
एक को मीठी-मीठी रातें एक को खारे-खारे दिन
*
उठाया संग हमने और भरी शाखों पर दे मारा
शफ़क़ तनवीर तब जाकर हमारे हाथ आम आया
*
सस्ती शोहरत का जुनूं पेड़ के कीड़े की तरह 
कच्चे फल पकने से पहले ही सड़ा देता है
*
रोटी की गंध सूखे शरीरों को है पसंद 
भाती नहीं सुगंध इन्हें ज़ाफ़रान की
*
जवान धूप के दिल को निराश क्या करते
सफ़र के दश्त में साया तलाश क्या करते

'धूप दोपहर की' किताब से पहले उनकी चार किताबें 'सूरज काँधों पर लिए, शीशों के दरमियान, जुगनू के हमसफर और 21वीं सदी के सूरज से, मंजरे आम पर आकर तहलका मचा चुकी हैं। उन्होंने ग़ज़लों के अलावा बेहतरीन नज़्में, रूबाइयाँ, कतआत और कह मुकरनियाँ भी लिखी हैं। 

बहुत तो नहीं लेकिन कभी कबार वो मुशायरों के मंचो से, दूरदर्शन की महफिलों और आकाशवाणी से भी सुनाई दिये हैं। किसी ज़माने में भोपाल की अदबी नशिस्तें उनकी शिरकत के बिना अधूरी मानी जाती थीं।
सन 2005 में आल इंडिया बज़्मे-सईद ,झाबुआ मध्य प्रदेश ने उन्हें राष्ट्रीय एकता, सौहार्द्र और बेलोस अदबी खिदमत के लिए 'शान-ए-अदब' से नवाज़ा।

आखिर में पेश है उनकी ग़ज़लों से कुछ और चुनिंदा अशआर: 

सोच समझ कर खोल जुबां को हद में रह
मुझ में सोया हुआ कहीं दुर्योधन है

मुमकिन है कल काम तुम्हारे आ जाए 
पास हमारे गुजरे युग का दर्शन है

काँच घरों में या फिर बीच दरिंदों के 
जिंदा रहना भी तो यारों इक फन है
*
मैं नहीं कहता बांध कर रखिए 
बस में अंदर का जानवर रखिए 

ख्वाहिशों पर लिबास लाज़िम है
 वहशी अरमान ढाँप कर रखिए 

करता था अपने रुख़ का तअय्युन शऊर से 
मेरी निगाह जिन दिनों सूरजमुखी न थी 
तअय्युन : प्रदर्शन 

इक वो भी था ज़माना, निजी मेरी हर ख़ुशी 
शोहरत के हत्थे चढ़के तमाशा बनी न थी 

आखिर में होली पर लिखी एक मुसलसल ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

मनचले टेसू के फूलों ने छटा बिखराकर 
आग जंगल में लगाई है तो होली आई 

प्रीत की रीत है अपने को फ़ना कर देना 
ख़ाक में शान मिलाई है तो होली आई 

हाँपती कॉँपती लंगड़ाती हुई ये दुनिया 
दुःख में डूबी नज़र आई है तो होली आई 




Monday, October 11, 2021

किताबों की दुनिया - 242

आठवें दशक के शुरुआत की बात है जब मैं पहली बार औरंगाबाद गया था। यही कोई जुलाई अगस्त का महीना होगा।  जब मैं एलोरा देखने गया तो हल्की फुहारें गिर रहीं थी और एलोरा इतना खूबसूरत लग रहा था कि क्या कहूँ। एलोरा की जगप्रसिद्ध 17 वीं गुफा के क़रीब ही एक चाय की टपरी थी। चाय की टपरी पर एक पुराना ट्रांजिस्टर बज रहा था। उस वक़्त पर्यटक भी अधिक नहीं थे। मौसम का तकाज़ा था कि एक गरमागरम चाय पी जाय। टपरी वाले को एक कप स्पेशल कड़क चाय का ऑर्डर दिया , चाय वाला स्टोव की तरफ़ मुड़ा ही था कि ट्रांजिस्टर पर अहमदहुसैन मोहम्मद हुसैन का गाया गीत 'सावन के सुहाने मौसम में ...' बजने लगा। टपरी वाले ने फ़ौरन स्टोव एक तरफ़ किया और बोला पाँच मिनट रुकें मैं इन्हें सुनने के बाद ही चाय बनाऊंगा। मैंने कहा ठीक है और सामने रखे स्टूल पर बैठ कर हुसैन बंधू की सुरीली आवाज़ में टपरी वाले के साथ ही डूब गया। उसके बाद मैं पता नहीं कितनी बार औरंगाबाद गया हूँ लेकिन मुझे वो टपरीवाला वाला और उसका हुसैन बंधुओं से लगाव आज तक नहीं भूलता। अब तो एलोरा केव्स के आसपास का इलाका बहुत बदल गया है। अब न कहीं कोई टपरी न कोई हुसैन बंधुओं का प्रेमी दिखाई देता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ ने सब कुछ बदल दिया है। पर्यटक पहले के मुक़ाबले बहुत ज़्यादा हो गए हैं जो उस जगह को महसूस करने की जगह वहाँ  की फोटो और सेल्फ़ी लेने में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। अधिकतर को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि इन चट्टानों को काट काट कर कैसे किसी ने ऐसी अद्भुत मूर्तियां तराशी होंगी ? वैसे भी अब पुराने में चाहे वो लोग हों, परम्परा हो या इमारतें लोगों की दिलचस्पी ख़त्म हो गयी है!  

पुतली हमारी नयन झरोखे में बैठ कर
बेकल हो झाँकती हैं पियारा कब आएगा
*
मुरझा रही है दिल की कली ग़म की धुप में 
गुलज़ार ए दिलबरी का हज़ारा कब आएगा
गुलज़ार ए दिलबरी: प्रेम के बाग का 
हज़ारा :एक प्रसिद्ध चिड़िया जो बहुत अच्छा गाती है
*
हिना से तुम नहीं बांधे हो मुट्ठी 
लिए हो हाथ शायेद दिल किसी का
*
सब जगह ढूंढ फिरा यार न पाया लेकिन 
दिल की गोशे में निहाँ था मुझे मालूम न था
*
क्या करेगा ब्याज़ ए नर्गिस कूँ 
तेरी आंखों का जिसको होवे स्वाद
ब्याज़ ए नर्गिस : नर्गिस के फूल की किताब
*
क्यों न मुझको गलावे इश्क तिरा 
जिसकी गर्मी सीं मोम है फौलाद
सीं: से
*
घटा ग़म, अश्क पानी, आह बिजली 
बरस्ता है अजब बरसात तुम बिन
*
क्या होवेगा सुनोगे अगर कान धर के तुम 
गुज़री बिरह की रात जो मुज पर कहानियां
मुज: मुझ
*
आंँख उठाते ही मेरे हाथ सीं मुज कू ले गए 
खुब उस्ताद हो तुम जान के ले जाने में
सीं: से, मुज कू: मुझ को
*
गुल ए नरगिस अगर नहीं देखा 
देख यक बार गुलबदन के नयन
यकबार: एक बार

अबकी बार जब मैं औरंगाबाद गया तो अपने दोस्त से बोला कि भाई यहाँ की कोई ऐसी जगह दिखाओ जो मैंने पहले न देखी हो। दोस्त बोला कि यार तुम इतनी बार यहाँ आ चुके हो चप्पा चप्पा छान चुके हो अब तुम्हें नया क्या दिखाऊं ? हम बातें करते जा रहे थे कि मैंने कार की खिड़की से दरवाज़ा देखा, दोस्त ने बताया कि ये पंचकुआँ कब्रिस्तान का दरवाज़ा है जिसे लोकल एम्.एल. ऐ. ने अभी हाल ही में बनवाया है। मैंने कहा चलो अंदर चल के देखते हैं तो दोस्त ने पहले तो मना कर दिया लेकिन मेरे जोर देने पर कहा कि अकेले तुम यहाँ घूमो मैं घंटे भर में एक जरूरी काम निपटा के आता हूँ। कब्रिस्तान में ऐसा कुछ नहीं था जहाँ एक घंटा बिताया जा सकता। मैं थोड़ा घूम कर बीच में बनी एक गुम्बदनुमा मज़ार के पास आ कर खड़ा हो गया तभी कहीं से आवाज़ आयी 'इदर किदर कूँ मियाँ ?' मैं चौंका ? ये आवाज़ कहाँ से आयी ? तभी फिर आवाज़ आयी 'घबरां सीं कूँ गए तुम, मैं सिराज बोलता हूँ सिराज औरंगाबादी, नाम नई सुनें मियां ? मैं वाकई डर गया था। तभी एक बुजुर्ग लाठी ज़मीन पे टेकते हुए मेरी तरफ़ आते दिखे। मेरी जान में जान आयी। बुजुर्ग पास आ कर बोले बड़े डरे से लग रहे हो मियाँ ? डरो नहीं सिराज  सबसूं बातां करते पर उन कूँ कोई सुनता नई। तुम यक बार सुन लो।' 

मैंने कहा जनाब मैं जानता ही नहीं कि ये कौन हैं तो बुजुर्ग उदास हो कर बोले यही तो बात है कि लोग इन्हें जानते। मैंने कहा ऐसा क्या है कि हमें इन्हें जानें तो उन्होंने जो जवाब दिया वो मेरे लिए चौकाने वाला था बोले क्या गंगा को जानने वालों के लिए गंगोत्री को जानना जरूरी नहीं ? गंगोत्री ? गंगा ? मतलब ? मैंने हैरानी पूछा। बुजुर्ग बोले 'लोग उर्दू शायरी को पसंद करते हैं लेकिन उस शायरी के इब्तिदाई शायरों के बारे में नहीं जानते। सिराज वली दक्कनी से ज्यादा मुकम्मल शायर थे'। 'क्या बात कर रहे हैं आप '? मैंने हैरानी से कहा। 'जी जनाब ,ये सच है' बुजुर्ग बोले। 'आपके पास फुर्सत हो तो इत्मीनान से बैठें मैं आपको बताता हूँ सिराज साहब के बारे में फिर गुम्बद की और मुंह करके बोले क्यों सिराज मियां इजाज़त है?' गुम्बद से हंसी की आवाज़ आयी। मुझे किसी तरह एक घंटा गुज़ारना ही था लिहाज़ा मैं बुजुर्गवार के पास के पत्थर पर बैठ गया।

लश्कर ए अक्ल क्यों किया ग़ारत 
बेखुदी की सिपाह सीं पूछो 
ग़ारत: नष्ट, की : के, सिपह : सिपाही का बहुवचन, 
सीं :से
*
दिल ब तंग आया है अब लाज़िम है आह
गुंचा ए गुल कूँ सबा दरकार है
तंग: बेज़ार, नाराज
*
किसके पास जा कहूं मैं हमदर्द कोई नहीं है 
इस वास्ते रखा हूं अब मन में बात मन की 

तूफान ए ग़म उठा है ऐ आशना करम कर 
जी डूबता है मेरा कश्ती दिखा नयन की
आशना: मित्र, प्यारा
*
मैं न जाना था कि तू यूंँ बे-वफा हो जाएगा 
आशना हो इस क़दर ना आशना हो जाएगा

मैं सुना हूं तुज लबों का नाम हे हाजत-रवा 
यक तबस्सुम कर कि मेरा मुद्दआ हो जाएगा
 हाजत-रवा: मनोरथ पूरा करने वाला, मुद्दआ: मकसद
*
अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किसी मजनू की सोहबत बैठ दीवाने हुए होते 
अबस: व्यर्थ बेकार, ज़ाए :बर्बाद 

मोहब्बत के नशे हैं खास इसां वास्ते वरना 
फरिश्ते ये शराबें पी के मस्ताने हुए होते
*
तेरा रुख़ देख कर जल जाए जल में 
कहां यह रंग ये खूबी कँवल में 

हुआ वीराँ नगर मेरी ख़िरद का 
जुनूँ की सुबे दारी के अमल में
ख़िरद: बुद्धि, अमल: अधिकार

बुजुर्गवार ने अपने मैले से कुर्ते की जेब से एक बीड़ी का बण्डल निकाला उसमें से एक बीड़ी निकाली बण्डल मेरी तरफ बढ़ाया और मेरे मना करने पर मुस्कुराये फिर बीड़ी सुलगाकर जितना उनके फेफड़ों में दम बचा था उतना लगा कर एक कश खींचा और ढेर सा धुआँ थोड़ी देर में उगलते हुए बोले 'बरखुरदार सिराज की कहानी बहुत पुरानी है ,इनके पुरखे जहाँगीर के समय मदीना अरब से हिज़रत करके मुज़फ्फर नगर (यू.पी.) आये फिर जीविका की खोज में इधर उधर बिखर गए। सिराज के पिता 'मोहम्मद दरवेश' जब औरंगाबाद में अध्यापक की हैसियत से यहाँ एक मदरसे में पढ़ाने आये थे तब औरंगजेब का आख़री काल था। यहाँ आकर उन्होंने औरंगाबाद के पास देवल घाट क़स्बे के सय्यद अब्दुल लतीफ क़ादरी की बेटी से निकाह कर लिया। मंगलवार 21 मार्च 1712 दिन सय्यद सिराजुद्दीन का जन्म हुआ। याने आज से कितने बरस पहले ? 'करीब 309 बरस' मैंने हिसाब लगा कर जवाब दिया। यूँ समझो मियाँ कि 'वली दकनी' की पैदाइश के 45 साल बाद। इनकी पैदाइश के पाँच साल पहले ही 'वाली दकनी' याने 1707 में इस दुनिया ए फ़ानी से रुख़सत हो चुके थे। खैर ! जनाब मोहम्मद दरवेश ठहरे अध्यापक इसलिए उस वक़्त महज चार साल की उम्र में सिराज की तालीम शुरू कर दी गयी।   

सिराज बचपन से ही बेहद तेज़ दिमाग के थे इसलिए अगले चार पांच सालों ने उन्होंने अरबी।, फ़ारसी और उर्दू ज़बान सीख ली।इन जुबानों में लिखा साहित्य कुरान हदीस और दूसरी चीज़ें भी पढ़ लीं। बारह बरस तक तो जनाब संजीदगी से पढ़ते रहे फिर अचानक ही इनका मन इस सबसे ही नहीं दुनिया से ही उचट सा गया। एक अजीब सी कैफ़ियत इन पार तारी रहने लगी और इसी में वो अपने कपडे फाड़ कर रात रात भर घने जंगलों में पहाड़ियों में दूर निकल जाते और खुल्दाबाद में हज़रत शाह बुन्हानोद्दीन की मज़ार पर जा कर ठहर जाते।इसी अवस्था में वो फ़ारसी में शेर कहने लगते। ये शेर सुन कर लोग उनके दीवाने हो जाते लेकिन किसी ने उन शेरों को कलमबद्ध नहीं किया नतीजा ऐसे हज़ारों शेर वक़्त के साथ भुला दिए गए। अगर ऐसा न होता तो आज उनके कहे फ़ारसी शेरों का एक बड़ा ज़खीरा हमारे पास होता। 

फूल मेरे कूँ अगर फूल कहूंँ भूले सीं 
फूल कूँ फूल के फूलों में समानाँ मुश्किल 
फूल मेरे कूँ यानेअपनी प्रेमिका को, सीं : से , फूल कूँ : फूल को ,फूल के :बहुत खुश होकर, समानाँ: भरजाना
*
छुपाते हो सो बेजा इस जमाल ए हैरत अफजाँ कूँ  
मिरी आंँखों सीं देखोगे तो फिर दर्पण न देखोगे
बेजा: बेकार, जमाल: रूप, हैरत अफजाँ: हैरत बढ़ाने वाला
*
आती है तुझे देख के गुल रू की गली याद 
ए बुलबुल ए बेताब मुझे अपना वतन बोल 
गुल रू: फूल जैसे चेहरे वाली
*
लश्कर ए इश्क़ जब सीं आया है 
मुल्क ए दिल को ख़राब देखा हूँ
सीं: से
*
क़तरा ए अश्क मिरा दाना ए तस्बीह हुआ
रात दिन मुझ कूँ गुज़रता है तिरी सिमरन में
दाना ए तस्बीह: जपमाला
*
मत करो शम्अ कूँ बदनाम जलाती वो नहीं 
आप से शौक पतंगो कूँ है जल जाने का
*
अभी ला ला मुझे देते हो अपने हाथ सीं प्याला
कभी तुम शीशा ए दिल पर मिरे पथराव करते हो
*
दीवाने को मत शोरे-जुनूँ याद दिलाओ 
हरगिज़ न सुनाओ उसे ज़ंजीर की आवाज
*
नयन की पुतली में ऐ सिरीजन तिरा मुबारक मुक़ाम दिसता
पलक के पट खोल कर जो देखूंँ तो मुझ कूँ माह ए तमाम दिसता
सिरीजन: प्रेमिका, माह ए तमाम: पूर्णिमा का चांद
*
ज़बाँ में शहद ओ शकर, दिल में ज़हर रखते हैं 
कसा हूं सब कूँ जिते आशना हैं  बे-गाने
कसा: परख कर देख लिया , जिते आशना: जितने पहचान वाले

उनकी ये नीम बेहोशी सं 1723 से 1730 तक तारी रही। सन 1930 के बाद हालाँकि उनकी व्याकुलता और आतुरता पहले जितनी नहीं रही लेकिन उसके बाद भी वो अपने मन को शांत करने की खोज में लगे रहे। ये खोज उन्हें हज़रत शाह अब्दुल रहमान चिश्ती हुसैनी जैसे निपुण धर्मगुरु तक ले गयी जिनके साथ ,मार्गदर्शन और उपदेशों ने सिराज की सोच में आमूलचूल परिवर्तन किया और उन्हें ज़िन्दगी में ठहराव दिया। चिश्ती परम्परा के इन विद्वान का साथ सिराज के साथ लगभग 17 वर्ष तक रहा। 

सं 1733 से 1739 तक याने लगभग 6 वर्षों का समय सिराज के लेखन का सुनहरी काल कहा जा सकता है। इन 6 सालों में वो औरंगाबाद के हर छोटे-बड़े मुशायरों में शामिल हो कर मुशायरे लूटते रहे। वो अपनी ग़ज़लों की मिठास कोमलता और अलंकारिक शैली के कारण श्रोताओं में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। शहर और बाहर से आये शायर उनकी ग़ज़लों के मिसरों पर ग़ज़लें कहना फ़क्र की बात समझते थे। कव्वालों के तो वो सबसे ज्यादा पसंदीदा शायर हो गए थे। उनकी ख़्याति औरंगाबाद की सरहदों से दूर पूरे दकन में फ़ैल रही थी।
 
सं 1739 में जब सिराज की शायरी सब तरफ़ धूम मचा रही थी और लोग उसे वली का उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे तभी उनके धर्मगुरु अब्दुल रहमान चिश्ती ने अचानक उन्हें ग़ज़ल की शायरी को त्याग देने का आदेश दे दिया। सिराज ने बिना देर किये तत्काल प्रभाव से अपने गुरु की बात मानते हुए शायरी छोड़ दी और सूफी बन गए।
जब ये बात सिराज के घनिष्ठ मित्र अब्दुल रसूल को पता चली तो वो बहुत परेशान हो गए। उन्हें लगा कि जिस तरह सिराज की फ़ारसी शायरी जाया हो गयी थी कहीं वैसे ही उनकी ग़ज़लें का बहुमूल्य खज़ाना भी नष्ट न हो जाय। उन्होंने आननफानन में सिराज की सभी ग़ज़लों को इकठ्ठा किया उन्हें तरतीबवार सजाया। सं 1939 उन्होंने सिराज की ग़ज़लों का दीवान 'अनवारुल सिराज' सम्पादित कर छपवाया। 'अनवारुल सिराज' में करीब 3630 अशआर और छोटी-बड़ी 524 ग़ज़लें शामिल हैं।

आता है जब ख़याल ए हम आगोशी ए सनम 
सिलता है मिसल ए ख़ार मेरे पैरहन में गुल
हम-आगोशी: गले लगाना, सिलता: चुभता
मिसल ए ख़ार: काँटे जैसा
*
सिफले हुए अज़ीज़ अज़ीज़ अब हुए ख़राब 
बे-जोहरों में क़द्र ए शराफत नहीं रही
सिफले: कमीने, निकृष्ट बे-जौहर : गुण रहित
*
तुम्हारी जुल्फ का हर तार मोहन 
हुआ मेरे गले का हार मोहन

गुल ए आरिज़ कूँ तेरे याद कर कर 
हुआ है दिल मेरा गुलज़ार मोहन 
गुल ए आरिज़: फूल जैसे गाल
*
ऐ शोख़ गुलिस्तां में नहीं ये गुल ए रंगी 
आया दिल-ए- सद-चाक मिरा रंग बदल कर
दिल ए सद चाक : सौ जगह से फटा हुआ दिल
*
मेरा दिल आ गया झट-पट झपट में 
हुआ लट-पट लपट जुल्फों की लट में
झपट: जल्दी का हमला, लट-पट: नुकसान, लपट: धोका

लगी है चट-पटी मत कर निपट हट 
छुपे मत लट-पटे घुंघट के पट में

हर इक नाकूस से आती है आवाज़ 
की है परघट वो हर हर, हर के घट में
नाकूस: शंख, परघट: मौजूद
*
जिस कूँ पियो के हिज्र का बैराग है
आह का मजलिस में उस की राग है

जब सीं लाया इश्क़ ने फौज ए जुनूँ
अक़्ल के लश्कर में भागम भाग है
सीं: से

सं 1747 में अपने धर्मगुरु शाह अब्दुल रेहमान चिश्ती के इंतेक़ाल के बाद सिराज ने अपना अलग तकिया (मठ ) क़ायम किया और बाक़ी ज़िन्दगी अल्लाह की इबादत में गुज़ारने लगे लेकिन शायरी की तरफ रुझान लगातार बना रहा। सिराज को संगीत से बेहद लगाव था इसलिए उनके तकिये में 'समाअ' याने सूफ़ी कव्वाली की महफिलें जमतीं जिसमें चिश्तिया सिलसिले के मशहूर और शहर के ख़ास लोग दूर दूर से आते। कव्वाल इन महफिलों में सिराज का कलाम भी गाते और श्रोता झूमने लगते। इस तकिये में पूरे हिन्दुस्तान से लोग सिराज से मिलने उनसे गुफ़्तगू करने और कव्वालियां सुनने आते।

वक़्त गुजरने के साथ जहाँ औरंगाबाद में राजनैतिक दुरावस्ता और पतन शुरू हुआ वहीँ सिराज की तबियत भी बिगड़ने लगी। दक्कन में सत्ता के लिए युद्ध होने लगे इसे देख सिराज के अधिकतर शिष्य औरंगाबाद छोड़ कर दूसरे शहरों में रहने के लिए चले गए। सिराज ने चूँकि शादी नहीं की थी इसलिए उनका अपना सगा सम्बन्धी भी कोई नहीं था। तकिये में अब वो नितांत अकेले थे ,हाँ कभी कोई भूले भटके उनके पास आ कर कुछ मदद कर जाता था। पेचिश और बवासीर की बीमारी धीरे धीरे जड़ पकड़ती गयी और आखिर में ला-इलाज हो गयी। उनकी इस हालत का पता जब उनके एक बेहद ख़ास शिष्य ज़ियाउद्दीन 'परवाना' को लगा तो वो अपनी फ़ौज की नौकरी छोड़ कर अहमदनगर से उनके तकिये पर रहने आ गए।' परवाना' साहब ने उनकी जी तोड़ सेवा की लेकिन वो उन्हें बचा नहीं सके। रोगों से लड़ते झूझते 52 साल की आयु में शुक्रवार 16 अप्रैल 1764 को सिराज दुनिया ए फ़ानी को अलविदा कह गए।

सिराज के प्रस्थान की ख़बर से पूरा औरंगाबाद शोक में डूब गया। 'परवाना' साहब की रहनुमाई में पूरे रीति-रिवाज़ और परम्परा के अनुसार पूरे सम्मान के साथ सिराज के जनाज़े को चौक की मस्जिद ले जाया गया जहाँ शहर के सभी नामवर लोगों जनाज़े की नमाज़ पढ़ी। बाद में उन्हें उनके तकिये में दफनाया गया और उनकी क़बर पर एक गुम्बंद बना दिया।

बुजुर्गवार थोड़ी देर के रुके और बोले ये जिस जगह आप बैठे हैं उसे अब पंचकुआँ कब्रिस्तान के नाम से जाना जाता है और ये जो इतनी सारी कब्रें आसपास देख रहे हैं वो सब सिराज के शिष्यों और अनुयायियों की हैं।

मेरे ये पूछने पर कि सिराज को कहाँ पढ़ा जा सकता है बुजुर्ग ने बताया कि यूँ तो रेख़्ता की साइट पर सिराज का थोड़ा बहुत क़लाम दर्ज़ है लेकिन तुम्हें अगर उसकी चुनिंदा शायरी पढ़नी है तो 'सिराज औरंगबादी'  के नाम से छपी 'असलम मिर्ज़ा' साहब द्वारा सम्पादित किताब पढ़ो जिसे मिर्ज़ा वर्ल्ड बुक हाउस, कैसर कॉलोनी, औरंगाबाद ने प्रकाशित किया है और इस किताब को 9325203227 पर फोन करके या mirza.abdul11@gmail.com पर मेल कर के मँगवा सकते हैं। 
आप इस पोस्ट में जो अशआर पढ़ रहे हैं वो इसी किताब से लिए गए हैं।       


वो साहिर ने अदा का सेहर कर कर 
लिया मुझसे दिल ओ जाँ रफता रफता
साहिर: जादूगर, सेहर : जादू
*
अदा -ए-दिल -फरेब- ए- सर्व क़ामत
क़यामत है क़यामत है क़यामत
सर्व क़ामत: सीधा ऊँचा शरीर 

न करना जी कूँ कुर्बां तुझ क़दम पर 
नदामत है नदामत है नदामत
नदामत: लज्जा, पछतावा
*
यार जब पेश-ए-नज़र होता है 
दिल मेरा ज़ेर-ओ-ज़बर होता है 
पेश-ए-नज़र :आंखों के सामने जेर ओ जबर: ऊपर नीचे 

हो ख़जिल बाग़ में गुलाब हुआ
जब सी गुल रू का गुज़र होता है 
ख़जिल : लज्जित, शर्मिंदा 

दिल लिया नर्गिस ए साहिर ने तेरी
सच की जादू कूँ असर होता है
नर्गिस ए साहिर: जादू करने वाली आँख
*
अमल से मय परस्तों के तुझे क्या काम ऐ वाईज़
शराब-ए-शौक़ का तूने पिया नहीं जाम ए वाईज़ 
अमल :काम , मय परस्त मदिरा भक्त

'सिराज' उस काबा-ए-जाँ के तसव्वुर कुँ किया सुमरण
यही विरद ए सहर है और दुआ एंशाम ए वाइज़
विरद ए सहर : सुबह का जाप
*
बुझता है बिस्तर ए आराम कूँ दाम ए बला
दिल कूँ है आराम शायद बेक़रारी में तेरी
बुझता: समझता, दाम ए बला: फंदा
*
मेरी आंखों के दोनों पट खुले थे इंतजारी में 
सो वैसे में यकायक देखता क्या हूं कि आता है

पाकिस्तानी शायर और आलोचक ज़नाब अहमद ज़ावेद साहब का यू ट्यूब पर लगभग सवा घंटे का एक विडिओ है जिसमें वो सिराज औरंगबादी की शायरी के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करते दिखाई देते हैं। सिराज की शायरी को पूरी तरह से समझने के लिए मैं आपको वो विडिओ देखने की सलाह दूंगा। वो फरमाते हैं कि सिराज ने वली की तरह बल्कि उनसे भी बेहतर ढंग से इंसानी ताल्लुक को रूहानी तर्ज़े अहसास से महसूस करके दिखाया। सिराज महबूब महबूबे मज़ाज़ी है इनकी शायरी की थीम इश्क़ और मुहब्बत है। इनके यहाँ तख़य्युल याने कल्पना का अभाव है लेकिन इस कमी को वो अहसास की सदाक़त सादगी और शिद्दत से पूरा कर देते हैं क्यूंकि उस वक़्त उर्दू शायरी की ज़बान में पेचीदा इज़हार वाला निज़ाम पैदा ही नहीं हुआ था। इनकी शायरी में बाकी दकनी शायरों की बनिस्पत उर्दूपन बहुत ज्यादा है। क़लाम में इस क़दर ताज़गी है कि लगता है जैसे पोस्ट मॉर्डर्न शायरी पढ़ रहे हैं।

सिराज को एक सूफी शायर की उपाधि जरूर दी जाती है लेकिन उनकी शायरी में सूफिज़्म की अधिकता कहीं दिखाई नहीं देती। सिराज अपने स्वभाव से सूफी जरूर थे लेकिन सूफी शायर नहीं थे। सिराज जीवन की सच्चाई को एक प्रेमी की नज़र से देखते हैं। उनके लिए मानव प्रेम ही ईश्वर भक्ति है। शिराज की शायरी में श्रृंगार करुणा और विस्मय रस बहुतायत से देखने को मिलते हैं। उन्होंने अपने शेरों में इजाफतों का प्रयोग बड़ी सरलता से किया है इससे उनकी शायरी बेहद दिलकश हो गयी है। जैसे दिल का दर्द को दर्द-ए-दिल, ग़म की शाम को शाम-ए-ग़म ,जान और दिल का आराम को आराम-ए-जान-ए-दिल आदि।

सिराज को अगर ध्यान से पढ़ें तो उनके शेरों की झलक आप उनके बाद आने वाले मीर तक़ी मीर , मिर्ज़ा ग़ालिब, ज़ौक़,सौदा ,दर्द से लेकर बशीर बद्र तक की शायरी में देख सकते हैं।उदाहरण के लिए दाग़ का शेर 'लुत्फ़-ए-मय तुझसे क्या कहूं ज़ाहिद' को आप सिराज के 'शराब-ए-शौक़ का तूने पिया नहीं जाम ए वाईज़' में, ग़ालिब के 'कितने शीरीं हैं तेरे लब ग़ालिब' को 'तेरे लब में अजब मीठा मज़ा है' में और बशीर बद्र के लिखे फिल्म 'भागमती' के एक गाने का मिसरा 'मेरे नैनों के दोनों पट खुले हैं इन्तेज़ारी में' को सिराज के ' मेरी आंखों के दोनों पट खुले थे इंतजारी में' साफ़ देख सकते हैं। ऐसी हज़ारों मिसालें दी जा सकती हैं।

मेरे दोस्त की कार का हॉर्न क़ब्रिस्तान के बाहर बने विशालकाय दरवाज़े के बाहर बज ही गया। एक घंटा कब बीता पता ही नहीं चला और मैं भारी मन से सिराज साहब के मक़बरे को देखता हुआ आगे बढ़ने लगा। ये मक़बरा एक महान विरासत की तरह संभाले जाने लायक़ है क्यूंकि इसके नीचे वो इंसान है जिसकी शायरी आज भी ज़िंदा है और जिसके मिसरों ने न जाने कितने शायरों की ग़ज़लों को रौशन किया है। हम कंगूरों को देख ताली बजाने वाले कभी नींव के पत्थरों को वो इज़्ज़त नहीं देते जो दी जानी चाहिए क्यूंकि हम भूल ही जाते हैं कि ये कंगूरे बिना नींव के पत्थरों के अपना सर उठाये खड़े नहीं रह सकते। .

आखिर में पेश हैं सिराज साहब की ग़ज़लों से लिए कुछ और अशआर

हरगिज़ गुज़र नहीं है यहां अक्स-ए-ग़ैर कूँ
दिल आशिकों का आईना-ए-बे-मिसाल है
*
हैफ है उस की तमाशा बीनी 
चश्म-ए-बातिन कूँ जो कोई वा न किया
हैफ: धिक्कार,  तमाशा बीनी:  अय्याशी,खेल
चश्म-ए-बातिन: मन की आँख, वा न किया: खोला नहीं

मुद्दतों लग हरम व दैर फिरा  
मैं तेरे वास्ते क्या-क्या न किया
लग: तक, हरम व दैर: मंदिर मस्जिद
*
तुम जल्द अगर आओ तो बेहतर है वगरना 
बेताब हूंँ मैं काश के अब आए क़ियामत
*
खाता है जोश खून ए जिगर उसके रश्क सीं
देखा है जब सीं हाथ तुम्हारा हिना के हाथ
सीं: से
*
किया है जब सीं अमल बेखुदी के हाकिम ने
ख़िरद नगर की रईयत हुई है रू ब गुरेज़
अमल: अधिकार, बेखुदी के हाकिम: अचैतन्य का शासक, खिरद: बुद्धि, रईयत : प्रजा, रू ब गुरेज़: भाग जाना
*
देखकर ख़ाल-ए-रूख़-ए-यार हुआ यूँ मालूम 
सफर ए राह ए मोहब्बत में ख़तर है तिल तिल
ख़ाल ए रूख ए यार : यार के मुख का तिल
*
बज्मे-उशाक़ में अरे जाहिद
अक़ल कूँ एतिबार नहीं हरगिज़
बज्मे उशाक़: प्रेमियोँ की सभा
*
तेरे लब में अजब मीठा मज़ा है 
चखा जा लज़त-ए-दुशनाम यक बार
लज़त-ए-दुशनाम: गाली का स्वाद, यक: एक
*
जान व दिल सीं मे गिरफ्तार हूंँ किन का, उन का 
बंदा-ए-बे-ज़र दीनार हूंँ किन का, उन का 
बे-ज़र: जिसके पास पैसा न हो

गुलशन-ए-इश्क़ में रहता हूंँ ग़ज़ल खवान-ए-फिराक़
अंदलीब-ए-गुल-ए-रुख़सार हूंँ किन का,  उन का
ग़ज़ल-खवान-ए-फिराक़: प्रेमी के वियोग में ग़ज़ल गाने वाला, अंदलीब: बुलबुल , गुल-ए-रूखसार: पुष्प जैसे गाल