Monday, October 25, 2021

किताबों की दुनिया - 243

डर कर घरों की धूप से कुछ गांव के बुजुर्ग 
डाले हुए सरों पे हैं पीपल की ओढ़नी

पहले तो तार-तार किया पैराहन तमाम 
फिर दाग दार कर गए पागल की ओढ़नी
*
समझौता तीरगी से कभी भी नहीं किया 
बिजली चली गई तो मज़ा धूप का लिया

दानिश वरों के मुंह पर हैं ताले पड़े हुए 
पागल ने सारा शहर ही सर पर उठा लिया
*
मैं सीढ़ियों से चढ़ तो गया आसमान पर 
यारों ने सीढ़ियों से उतरने नहीं दिया

हरचंद हूं सिफ़र मगर इतना रहे ख़्याल 
घाटा किसी अदद को सिफ़र ने नहीं दिया
*
अल्लाह तुम्हें ज़र्बे-कसाफ़त से बचाए 
इस उम्र में भी कांच का गुलदान लगो हो 
ज़र्बे-कसाफ़त: प्रदूषण की मार
*
पासों की मेहरबानी पर निर्भर नहीं हूं मैं 
शतरंज की बिसात हूं चौसर नहीं हूं मैं
*
जब तलक दिल में रहे मेघों की सूरत में रही 
याद जब पलकों तलक आई तो पानी हो गई

मैं तो अपने आप में पहले ही से यारों न था 
और कुछ कुछ इन दिनों रुत भी सुहानी हो गई

भोपाल -  इस शहर का नाम आते ही उन लोगों के, जो वहाँ गए हैं या नहीं भी गए हैं, ज़ेहन में बड़ा तालाब , छोटा तालाब, ताज-उल-मस्जिद, मोती मस्जिद। अरेरा हिल्स पर बना बिरला मंदिर या भारत भवन आदि दर्शनीय जगहों का नाम याद आता है।  
ऐसे ही जब भोपाल के शायरों की बात आती है तो हम असद भोपाली, कैफ़ भोपाली, शेरी भोपाली , ताज़ भोपाली  और बशीर बद्र आदि का नाम लेते हैं। ये नाम याद आने का कारण इनका पॉपुलर होना है लेकिन जिन दर्शनीय स्थानों के या शायरों के नाम हम नहीं लेते तो ये न समझें कि वो इनसे कम हैं।  

पुरानी बात है उर्दू अदब के हलकों में उस वक़्त हलचल मच गयी ये जब ये ख़बर आयी कि उर्दू अदब के स्कॉलर जनाब शम्सुर्रहमान फ़ारुख़ी साहब उर्दू के नये शायरों पर 'नये नाम' उन्वान से एक किताब निकाल रहे हैं जिसमें उस नये शायर के तआरुफ़ के साथ साथ उसका क़लाम भी छापा जायेगा। ज़ाहिर सी बात है कि अगर 'फ़ारुख़ी' साहब किसी शायर का ज़िक्र करेंगे तो वो ख़ास ही होगा। सारे नामी गरामी शोअरा बेताबी से उस क़िताब के मंज़र-ऐ-आम पर आने और उसमें खुद का नाम देखने को बेताब होने लगे। आख़िर किताब आयी जो भोपाल के उन सभी शायरों को जो अपना नाम उस किताब में देखने की ख़्वाइश लिए बैठे थे, को निराश कर गयी, क्यूंकि उस किताब में भोपाल के जिस एक मात्र शायर का क़लाम छपा था उसका नाम बाहर वालों के लिए तो क्या खुद भोपाल वालों के लिए अनजाना था।

ज़ुल्म  के आगे कभी तो सर उठा 
कुछ नहीं तो हाथ में पत्थर उठा

मैं भी करता हूं कलम की धार तेज़ 
और तू भी बे झिझक ख़ंजर उठा
*
ख्वाब ए हसीं के टूटने की इब्तिदा न हो 
दस्तक सी है किवाड़ पे बादे सबा न हो
*
हसीन ख़्वाब जो देखे थे रात भर मैंने
शऊर सुबह को कचरे में डाल देता है
*
किसी भी मेहनती लड़के के साथ बस लेती
ज़हीन लड़की है फिर भी नवाब चाहती है
*
ज़हन आज़ाद इक परिंदा है
फिर भी परवाज़ सरहदों वाली

तुमने 'तनवीर' घर के होते हुए
ज़िंदगी जी है होटलों वाली
*
जब हल चला रही हो ग़ज़ल सूखे खेत में
पानी क़्वाफ़ी गेहूँ की बाली रदीफ़ हो
*
लाख तहज़ीब के मलबूस सजा लूँ तन पर
रूबरू शीशे के जब जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ
*
सदियों से जिसे देखता आया है ज़माना
बस शायरी अपनी उन्हीं ख़्वाबों की डमी है

'नए नाम' किताब में जिस शायर का ज़िक्र फ़ारुखी साहब ने किया था उनका नाम है जनाब 'शफक़ तनवीर'। ये नाम उर्दू वालों के लिए भी बहुत अधिक जाना पहचाना नहीं है ,हिंदी वालों की तो बात ही छोड़िये। भोपाल के एक बेहद मामूली परिवार में जब मोहम्मद यारखान के यहाँ 4 फरवरी 1939 को बेटा पैदा हुआ तो उसका नाम रखा गया 'अहमद यार खान'। बचपन से ही जनाब अहमद यार खान पढाई में होशियार थे। जब मेट्रिक की परीक्षा में अच्छे नंबर आये तो इंजीनियर बनने की ठानी। प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए गए तो पता चला कि उनके नम्बर इतने भी अच्छे नहीं थे कि दाखिला मिल जाता। जिन कालेजों में दाखिला मिल रहा था वो प्रदेश से बाहर थे और वहां पढ़ने के लिए घर के हालात इज़ाजत नहीं देते थे। किसी ने उन्हें डिप्लोमा करने की सलाह दी लिहाज़ा उन्होंने इलेक्ट्रिकल विषय में डिप्लोमा किया और अच्छे नंबरों से पास हुए। 

भोपाल का 'भारत हेवी इलेक्ट्रिकल' देश के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में से एक है जिसमें नौकरी करने का सपना हर होनहार इंजीनियर आज भी देखा करता है।  डिप्लोमा में आए नंबरों के आधार पर अहमद साहब को उम्मीद थी कि उन्हें भोपाल के इस संस्थान में नौकरी मिल जायेगी। उन्होंने वहां अप्लाई किया और चुन लिए गए। ये नौकरी उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट रही। इस नौकरी  ने उन्हें वो सब कुछ दिया जिसकी तमन्ना हर आम इंसान अपनी ज़िन्दगी में करता है। माली हालात सुधरने के साथ ज़िन्दगी में सुकून आता चला गया। काम के प्रति उनके लगाव और जी तोड़ मेहनत से कभी मुँह न मोड़ने वाले अहमद यार खान को संस्थान में भरपूर इज़्ज़त और तरक्की मिली। 

इसी दौरान शायरी में भी उनकी दिलचस्पी बढ़ी और वो शफक़ तनवीर के नाम से लिखने लगे। पहले अल्लामा अहसन गिन्नौरी से इस्लाह ली फिर उन्हीं के मश्विरे पर उस्ताद शिफ़ा ग्वालियरी से इस्लाह लेने लगे। हमारे हाथ में उनकी किताब 'धूप दोपहर की' है जिसके चुंनिदा अशआर आपको पढ़वा रहे हैं। ये किताब सं 2011 में ग़ुलाम मुतुर्जा ईडन ग्राफिक्स एन्ड प्रिंटर्स भोपाल से उर्दू और हिंदी लिपियों में प्रकशित हुई है। इस किताब को आप रेख़्ता की साइट पर ऑन लाइन दोनों भाषाओँ में इस लिंक को https://www.rekhta.org/ebook-detail/dhoop-dopahar-ki-shafaq-tanveer-ebooks?lang=hi क्लिक कर पढ़ सकते हैं।        
              

कुछ खराबी आपमें है कुछ खराबी मुझ में है 
छानने के वास्ते लगता है छलनी चाहिए
*
दिल के वीराने में यादें तेरी 
जैसे मरघट में दरख़्त इमली के
*
वक्त हूं एक जगह रुक ना मेरा काम नहीं 
चैक हूँ कोरा रक़म भर के भुना ले मुझको
*
कुरआन जब पढ़ा तो हुआ मुझ पर मुनकशिफ़ 
देगी फ़क़त नमाज ही जन्नत नहीं मुझे
*
बिना तेरे मैं अपनी चादरे-हस्ती बुनूँ कैसे 
जहां ताना ज़रूरी है वहीं बाना जरूरी है
*
अदू कोई भी नहीं है फ़क़त अना के सिवा 
खुद अपनी ज़ात पे पथराव मुझको करना है 

मैं अपनी सोच बदलने से क़ब्ल कैसे कहूंँ 
किसी की सोच में बदलाव मुझको करना है
*
दौलत आनी जानी शय है किसकी होती है 
जग को पाठ पढ़ा जाता है मौसम पतझड़ का
*
आंखें जुबानो-ज़ेहन के मालिक हैं फिर भी हम 
यूं जी रहे हैं लगता है कांधे पे सर नहीं 

दानिश्वरी ने हमको खड़ा कर दिया वहांँ 
है इल्म कुल जहान का ख़ुद की ख़बर नहीं


'शफक़' साहब क्यों इतने लोकप्रिय नहीं हुए उसके लिए वो खुद कहते हैं कि ' शायरी मेरी हॉबी है। कभी भी मैंने उसे कमर्शियल नहीं बनाया। मैंने कभी भी किसी मुशायरे के लिए दूसरे शोअरा की तरह दूरदर्शन आकाशवाणी या उर्दू एकेडमी के चक्कर नहीं लगाए। उर्दू के बाकी शोअरा की तरह मंच से पढ़ते वक्त मुझे सामयीन से दाद की भीख मांगना हमेशा ही बहुत खराब लगा ।रही अवॉर्ड्स या एज़ाज़ की बात तो हम सभी जानते हैं कि वो किस तरह जोड़-तोड़ से हासिल किए जाते हैं। शायरी ने मुझे जीने का सलीक़ा सिखाया, जीने का अज़्म दिया, रूह में फूल खिलाए। मुझे तन्हाई के अज़ाब से बचाए रखा।

मैं 'शफक़ तनवीर' जिसे एक पड़ोसी ने बचपन में स्कूल में दाखिल करवाया था बाप के होते हुए भी, मैं उस बदनसीब खानदान या मज़हब का हूंँ जहां बच्चे पैदा करके खुदा के भरोसे छोड़ दिए जाते हैं। आज मैं इस तरह भी महसूस करता हूं कि कहीं निचले तबक़े की जहालत के पीछे नवाबी हुकूमत का हाथ तो नहीं था ? यह तो खुदा का शुक़्र है कि मुल्क आज़ाद हुआ और नवाबी हुकूमत की बहुत सी लानतों से अपने आप हमारा पीछा छूट गया अगर नवाबी हुकूमत खत्म नहीं हुई होती तो मैं भी कभी का दूसरे गरीबों की तरह मर गया होता।

मैंने एक कामयाब ज़िंदगी गुज़ारी है और कभी भी अपने मिज़ाज के खिलाफ समझौता नहीं किया इसकी वजह मेरी शायरी है।'

सफ़र हयात का इक सिम्त हो चुका है बहुत
'शफ़क़' ट्रेन की पटरी बदल के देखते हैं
*
नीमो-पीपल मत तलाश कैक्टस के शहर में 
कट गए वो पेड़ जो कारे हवा करते रहे
*
प्लेटफार्म पर क्यों दिल को बेकरार करूं 
मुसाफिरों की तरह मैं भी इंतजार करूँ

शकिस्ता हाली ही पे मेरी न तंज फरमाएं 
मैं जिसके सर पे रखूँ हाथ ताजदार करूँ
*
मन की उंगली थाम कर यूं ही अगर चलता रहा 
वो नहीं दिन दूर जब दिवालिया हो जाऊंगा 

मेहर से तेरी मेरे दिल का चमन आबाद है 
बेरुखी से यार ! मैं 'हिरोशिमा' हो जाऊंगा
*
किया जब जब हिसाबे-उम्रे रफ्ता 
फ़क़त 'जीरो' ही में टोटल रहा है 
उम्रे रफ्ता: बीते दिनों का 
*
इलर्जी है उसे भेजा है तुमने फिर भी गुलाब 
ये दोस्ती है तो बतलाओ दुश्मनी क्या है
*
मिली ने द्वार पे तुलसी न सेहन में पीपल 
पराए देश से लौटा तो अपना घर न मिला 

किसे मैं सौंपता फिर इल्म के ख़ज़ाने को 
धड़ों की भीड़ में ढूंढा तो एक सर न मिला

नौकरी के दौरान भारत सरकार की ओर से उन्हें 'लीबिया' में काम करने का मौका दिया गया, जहां वो बरसों रहे और इस सफ़र ने उनकी जिंदगी को नए नए तजुर्बे दिए ।शायरी के हवाले से वो तेहरान, त्रिपोली, दमिश्क और एथेंस जैसे शहरों में कई बार गए। सन 1997 में भारत हेवी इलेक्ट्रिकल भोपाल से चीफ टेक्नीशियन के ओहदे से रिटायर हुए।

' गुलदस्ता भोपाल' के अध्यक्ष मोहम्मद रईस खान लिखते हैं कि 'शफक़ तनवीर' की शायरी गुलो- बुलबुल, औरतों की तारीफ़, हुस्नो इश्क, हिज़्रो विसाल जैसे परंपरागत विषयों पर नहीं है बल्कि सच्चाई को उजागर करने वाली शायरी है और यही वजह है कि वो आसानी से याद की हो जाती है'। 

जनाब सुरेश प्रसाद सरोश लिखते हैं कि शफक़ साहब की शायरी किसी खास रिवायत कि आईनादार नहीं है और ना ही किसी खास आईडियोलॉजी की। वो वक्त के साथ चल कर उन मौजूआत पर क़लम उठाते हैं जिनका ताल्लुक़ रोजमर्रा की जिंदगी से होता है। इंसानी दोस्ती का जज़्बा पूरी शिद्दत के साथ उभरकर पढ़ने वाले को मुत्तासिर करता है। हिंदी जबान से लगाव की वजह से आपकी शायरी में हिंदी लहजे का असर भी साफ दिखाई देता है। उनकी जुबान सादा और सलीकेदार है, वो कोशिश करके अल्फ़ाज़ से शेरों के मफहूम को नहीं सजाते बल्कि कोशिश करते हैं कि जो बात दिल से निकली है उसे बगैर किसी लाग लपेट के बयान किया जाए। उनकी शायरी जिंदगी की अक्कासी करती है उनमें ईमानदारी भरपूर ताज़गी और तवानाई है।'

नुमाइश की हदों तक दीन वाले धर्म वाले हैं 
इधर भी नाग काले हैं उधर भी नाग काले हैं 

वह मशि्रक हो के मगरिब बिन्ते-हव्वा एक जैसी है 
यहांँ सीता की चीखें हैं वहांँ मरियम के नाले हैं
बिन्ते-हव्वा: हव्वा की बेटी यानी स्त्री

गवारा ही नहीं मुझको किसी कमज़र्फ़ का एहसां 
कहूंँ मैं ख़ार से कैसे मेरे तलवों में छाले हैं
*
सफ़र में ऐसे भी आए थे कुछ मुकाम कि हम 
अभी चले भी नहीं थे कि पाँव थकने लगे 

करिश्मा कम ये नहीं सरफिरी हवाओं का 
समर भी शाखों पर पकने से पहले पकने लगे
*
सारे खुदाओं ने धरती के ये कैसा कानून रचा 
एक को मीठी-मीठी रातें एक को खारे-खारे दिन
*
उठाया संग हमने और भरी शाखों पर दे मारा
शफ़क़ तनवीर तब जाकर हमारे हाथ आम आया
*
सस्ती शोहरत का जुनूं पेड़ के कीड़े की तरह 
कच्चे फल पकने से पहले ही सड़ा देता है
*
रोटी की गंध सूखे शरीरों को है पसंद 
भाती नहीं सुगंध इन्हें ज़ाफ़रान की
*
जवान धूप के दिल को निराश क्या करते
सफ़र के दश्त में साया तलाश क्या करते

'धूप दोपहर की' किताब से पहले उनकी चार किताबें 'सूरज काँधों पर लिए, शीशों के दरमियान, जुगनू के हमसफर और 21वीं सदी के सूरज से, मंजरे आम पर आकर तहलका मचा चुकी हैं। उन्होंने ग़ज़लों के अलावा बेहतरीन नज़्में, रूबाइयाँ, कतआत और कह मुकरनियाँ भी लिखी हैं। 

बहुत तो नहीं लेकिन कभी कबार वो मुशायरों के मंचो से, दूरदर्शन की महफिलों और आकाशवाणी से भी सुनाई दिये हैं। किसी ज़माने में भोपाल की अदबी नशिस्तें उनकी शिरकत के बिना अधूरी मानी जाती थीं।
सन 2005 में आल इंडिया बज़्मे-सईद ,झाबुआ मध्य प्रदेश ने उन्हें राष्ट्रीय एकता, सौहार्द्र और बेलोस अदबी खिदमत के लिए 'शान-ए-अदब' से नवाज़ा।

आखिर में पेश है उनकी ग़ज़लों से कुछ और चुनिंदा अशआर: 

सोच समझ कर खोल जुबां को हद में रह
मुझ में सोया हुआ कहीं दुर्योधन है

मुमकिन है कल काम तुम्हारे आ जाए 
पास हमारे गुजरे युग का दर्शन है

काँच घरों में या फिर बीच दरिंदों के 
जिंदा रहना भी तो यारों इक फन है
*
मैं नहीं कहता बांध कर रखिए 
बस में अंदर का जानवर रखिए 

ख्वाहिशों पर लिबास लाज़िम है
 वहशी अरमान ढाँप कर रखिए 

करता था अपने रुख़ का तअय्युन शऊर से 
मेरी निगाह जिन दिनों सूरजमुखी न थी 
तअय्युन : प्रदर्शन 

इक वो भी था ज़माना, निजी मेरी हर ख़ुशी 
शोहरत के हत्थे चढ़के तमाशा बनी न थी 

आखिर में होली पर लिखी एक मुसलसल ग़ज़ल के ये शेर आपको पढ़वाता चलता हूँ :

मनचले टेसू के फूलों ने छटा बिखराकर 
आग जंगल में लगाई है तो होली आई 

प्रीत की रीत है अपने को फ़ना कर देना 
ख़ाक में शान मिलाई है तो होली आई 

हाँपती कॉँपती लंगड़ाती हुई ये दुनिया 
दुःख में डूबी नज़र आई है तो होली आई 




37 comments:

  1. किसे मैं सौंपता फिर इल्म के ख़ज़ाने को
    धड़ों की भीड़ में ढूंढा तो एक सर न मिला

    बहुत बहुत सुंदर, भोपाल याद आ गया फिर से।

    ReplyDelete
  2. ज़ुल्म के आगे कभी तो सर उठा
    कुछ नहीं तो हाथ में पत्थर उठा

    मैं भी करता हूं कलम की धार तेज़
    और तू भी बे झिझक ख़ंजर उठा

    बेमिसाल आपकी पसंद लाजबाब चुनाव ... बहुत ही सुन्दर हमेशा की तरह .

    ReplyDelete
  3. नायाब शायर की बेहतरीन शायरी पढ़वाने के लिए धन्यवाद। आपकी लेखनी को नमन!

    ReplyDelete
  4. एक और बेमिसाल शायर पर एक और बेमिसाल पोस्ट।
    आप इसी तरह एक से बढ़ कर एक ख़ूबसूरत किताब पढ़वाते रहें ! यही दुआ है।

    ReplyDelete
  5. बेहतरीन, लाजवाब शायरी, आभार नीरजजी साहब

    ReplyDelete
  6. एक-एक शेर पढ़ने लायक । एक भी मिसरा अवॉइड करने के लायक नहीं । ऐसे कलाम पढ़कर मन प्रसन्न होता है । टिपिकल सबजेक्ट्स के साथ-साथ लोजिकल सबजेक्ट्स से भी कंचों की तरह खेलने का हुनर है यह । नीरज साहब बहुत-बहुत शुक्रिया ।

    ReplyDelete
  7. [10/25, 10:51] Sarv: डर कर घरों की धूप से कुछ गांव के बुजुर्ग
    डाले हुए सरों पे हैं पीपल की ओढ़नी 👌👌
    Kya visualize kiya hai👌👌
    सदियों से जिसे देखता आया है ज़माना
    बस शायरी अपनी उन्हीं ख़्वाबों की डमी है
    👌👌

    Sarv jeet sarv
    Delhi

    ReplyDelete
  8. ग़ज़लों में एक खास तरह का टटकापन और वैशिष्ट्य रेखांकित किये जाने योग्य है जिसे आपने अपने चिर परिचित अंदाज़ में कराया है।जिस मिशन मोड में आप शायरों को हम पाठकों से रूबरू करवाते हैं वो भी आपको बरबस दाद दिए जाने पर विवश करता है।आपकी इस तलाश ने कितने नगीने हम तक पहुंचाए हैं अब तो उनकी संख्या भी याद नहीं।बहुत शुभकामनाएं

    अखिलेश तिवारी

    ReplyDelete
  9. नायाब शायर की बेहतरीन शायरी पढ़वाने के लिए धन्यवाद। आपकी लेखनी को नमन! 🙏🏻

    हिमकर श्याम

    ReplyDelete
  10. बेहतरीन प्रस्तुति

    ReplyDelete
  11. बहुत ही अच्छा प्रयास

    ReplyDelete
  12. Very nice presentation on a lesser known SHAYAR, but his
    Creative poetry is
    Realistic, satirical n entertaing/heattouching
    Thx indeed for sharing quality stuff

    Mukund Agarwal

    ReplyDelete
  13. Waaaaah waaaaah bahut khoob ... Maazi yaad aa gaya ... Bahut shukriya mohtaram ... Raqeeb

    ReplyDelete
  14. जब तलक दिल में रहे मेघों की सूरत में रही
    याद जब पलकों तलक आई तो पानी हो गई


    दौलत आनी जानी शय है किसकी होती है
    जग को पाठ पढ़ा जाता है मौसम पतझड़ का


    किया जब जब हिसाबे-उम्रे रफ्ता
    फ़क़त 'जीरो' ही में टोटल रहा है

    मिली ने द्वार पे तुलसी न सेहन में पीपल
    पराए देश से लौटा तो अपना घर न मिला

    और , और भी कई ऐसे ही ख़ूबसूरत शेर।
    बेहद शानदार।

    ReplyDelete
  15. वाह वाह वाह बेहतरीन तब्सिरा , और क्या ही शानदार गुलदस्ता पेश किया है मुन्तख़ब अशआर के हवाले से
    🌷🌷🌷🌷

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया अय्यूब भाई...

      Delete
  16. ज़िन्दाबाद वाह वाह नीरज जी वाह
    मोनी गोपाल 'तपिश'

    ReplyDelete
  17. बहुत ही मानूस अपना-सा लगने वाला लहजा...... उर्दू शाइरी के लिए यह उस समय वाक़ई नया होगा.... आपका, आपकी पेशकश का और फ़ारुक़ी साहब दोनों का बहुत शुक्रिया सर

    Ashok

    ReplyDelete
  18. बहुत ही बढिया आलेख नीरज जी। पहली बार इनका नाम सुना और इन्हें पढकर बहुत अच्छा लगा। ख़ूबसूरत शायरी है और रोज के हक़ीकी जीवन के अशार लिखे हैं! शुक्रिया बहुत इस तोहफ़े के लिये।

    ReplyDelete
  19. नीरज सर जी आप अपना मोबाइल नंबर दीजिए न।

    ReplyDelete
  20. वाह! कितना कुछ पढ़ने को मिला।

    रोटी की गंध सूखे शरीरों को हैं पसंद
    भाती नहीं है इन्हें सुगंध ज़ाफरान की।

    हर एक शेर बहुत कुछ कहता है। होली पर लिखे आपके अशआर खूबसूरत। धन्यवाद नीरज सर।

    ReplyDelete
  21. नीरज जी ! न जाने कितने ही लाजवाब शायर छिपे हुए हैं आपके ज़हन में और शायरी का तो खज़ाना हैं आप । शफ़क़ तनवीर जैसे क़माल के शायर के फ़न से हमें रूबरू कराने के लिए आपका तहे दिल से शुक्रिया ।

    ReplyDelete

तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे