Monday, March 29, 2021

किताबों की दुनिया - 228


फटी पुरानी सियाह रात की रिदा के लिए 
अभी सुई से मुझे रोशनी गुज़ारनी है 

तमाम उम्र जुदाई की साअते नाजुक
कभी निबाहनी है और कभी गुज़ारनी है 
साअते : समय 

तो क्या यह तय है कि वो फैसला न बदलेगा 
तो क्या यह कै़द मुझे वाकई गुज़ारनी है
*
कोई कुछ भी गुमान कर लेगा 
चुप की चिलमन है गर हमारे बीच
*
बहते बहते एक दरिया से कहीं मिल जाएगा 
बारिशों के बाद पानी बे निशांं होता नहीं 

रोशनी के पैरहन में आ गई ताज़ा महक 
रात में कलियों का खिलना रायगां होता नहीं 
राएगां :व्यर्थ, बेकार

यह ख़्याले ख़ाम कब तक थपकियाँ देता रहे 
जो यहां पर हो रहा है वो कहां होता नहीं

मोअतबर ठहरा वही आबादियों की आंख में 
लफ़्ज़ के चेहरे से जो मानी बयां होता नहीं
*
खुद है मुश्किल पसंद मुश्किल में
उसकी मुश्किल कुशाई ही मुश्किल है 
मुश्किल कुशाई: मुश्किल से निकलना

मंजिलों तक पहुंचने वालों ने 
जो रियाज़त बताई मुश्किल है 
रियाज़त :मेहनत

मुश्किलों से निकल के जान लिया 
मुश्किलों से रिहाई मुश्किल है

आज मौसम कुछ ज्यादा ही खुशग़वार था, यूँ तो नैरोबी में अमूमन मौसम खुशग़वार ही रहता है लेकिन जुलाई से अक्टूबर तक बाकि महीनों से कुछ ज्यादा ठंडा। सूट पहने हुए बुजुर्ग ने अपनी टाई को ठीक किया और अपने लग्ज़री आफ़िस की सीट से उठ कर सामने लगी शीशे की विशाल दीवार से पर्दा हटा कर बाहर देखने लगा। 75 साल की उम्र के बावजूद इस बुजुर्ग़ के चेहरे की चमक नौजवानों को मात कर रही थी। ऑफिस के मेन गेट से बाहर वाली सड़क पर कारें तेजी से आ जा रहीं थी। 'सर आपकी कॉफी' बुजुर्ग की सेकेट्री ने ऑफिस में अंदर आते हुए कहा 'इसे आपकी मेज़ पर रख दूँ ?' बुज़ुर्ग ने बिना चेहरा घुमाये बाहर देखते हुए कहा ,नहीं मुझे यहीं देदो, सुबह से सीट पर बैठे-बैठे थक गया हूँ। सेकेट्री, कॉफी का मग बुज़ुर्ग को पकड़ा कर धीरे से ऑफिस के बाहर चली गयी। मग से उठती कॉफी की खुशबू से उसके ज़ायके का अंदाज़ा लगाया जा सकता था। बुज़ुर्ग ने हलके से एक सिप लिया और मुस्कुराया। कॉफी बेहद ज़ायकेदार थी। अगला सिप लेते वक्त उसने देखा कि सड़क पर एक बच्चा अपने साथ सूट बूट में चल रहे रोबीली शख़्सियत के एक बुजुर्ग की ऊँगली थामे उछलता हुआ चल रहा है। बुजुर्ग की आँखें बच्चे के साथ चल रहे बुज़ुर्ग पर टिक गयीं। अरे मेरे नाना जान भी बिलकुल ऐसे ही थे। 

'नाना' का ध्यान आते ही बुज़ुर्ग की यादों में सियालकोट की वो कोठी आ गयी जिसके बरामदे की आराम कुर्सी पर उसके नाना हुक्का गुड़गुड़ाते हुए किसी से बतिया रहे थे।'अस्सलाम वालेकुम' नाना ,बुज़ुर्ग जो उस वक़्त 22 साल के नौजवान थे, ने कहा। 'वालेकुम अस्लाम' बरख़ुरदार जीते रहिये। मुबारक़ हो सुना है तुम्हारा पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से बी फार्मेसी का रिजल्ट आया है'। नाना मुस्कुराते हुए बोले। 'जी , ठीक सुना है आपने तभी तो आपके लिए आपकी पसंदीदा मिठाई लाया हूँ ' कहते हुए नौजवान ने पीठ पीछे छुपाया मिठाई का डिब्बा आगे करते हुए कहा। नाना ने एक टुकड़ा मुंह में डाला और मुस्कुराते हुए सामने बैठे शख़्स को देते हुए बोले 'ये नौजवान मेरा नवासा है'। 'नाना ,आप रिजल्ट क्या आया पूछेंगे नहीं ? युवक ने हैरान होते हुए पूछा। 'पहले कभी पूछा है जो आज पूछूँ ?' नाना हँसते हुए बोले। 

अब हैरान होने की बारी नाना के सामने बैठे शख़्स की थी वो नाना की और मुख़ातिब होते हुए बोला  'मियां जमशेद अली राठौर साहब आप पूछेंगे नहीं कि रिज़ल्ट क्या रहा ? 'यार रहमत अली कम से कम मेरा नाम तो पूरा बोला करो बोलो जमशेद अली राठौर पी.एच.डी.। , सियालकोट में जमशेद अली राठौर हज़ारों होंगे लेकिन पी.एच.डी. मैं अकेला हूँ, नाना ठहाका लगाते हुए बोले। 'बेशक बेशक' सकपकाते हुए रहमत साहब ने फ़रमाया 'मैं आइंदा इस बात का ख़्याल रखूँगा। 'मियां रहमत जिस नौजवान का नाना पी.एच.डी हो और जिसके ख़ानदान की निस्बत 'अल्लामा इक़बाल' से हो उस से मैं रिजल्ट पूछूँ ? लानत है , नाना मुस्कुराते हुए बोले 'हमारे यहाँ इम्तिहान का नतीजा नहीं पूछा जाता सिर्फ पोज़ीशन पूछी जाती है,और मैं इसकी शक्ल देख कर बता सकता हूँ कि इसे फर्स्ट पोज़ीशन मिली है  क्यों बरख़ुरदार ? ' ' जी आप ने सही कहा' नौजवान ने कहा। नाना उठे और अपने नवासी को गले लगा लिया। 

याद है वो आशना जो उन्स आंखों में भरे 
राह तकता था किसी की खिड़कियों की ओट से

क्या शरीके ज़ात है कुछ साअतों का आदतन 
देखना मीठी नज़र से तल्ख़ियों की ओट से 

रात चिड़ियां जुगनुओं से क्यों तलब करती रहींं 
कुछ तसल्ली की शुआएं डालियों की ओट से 

मैली मैली इस फिज़ा में चांद भी खदशे में है 
मुश्किलों से झांकता है बादलों की ओट से
*
बस्ती, दरिया, सहरा, जंगल देख चुके तो सीखा है
शब में तन्हा चलते रहना, डर में सोच समझ कर रहना

जानी पहचानी शक्लें हैं देखे भाले से हथियार 
हमला आवर घर वाले हैं, घर में सोच समझ कर रहना
*
फ़क़त तुम्हारा नहीं इसमें मेरा ज़िक्र भी है 
गये दिनों की मोहब्बत को मोअतबर रखना 

वफ़ा की बात मुफ़स्सल बयान करनी है 
अदावतों की कहानी को मुख़्तसर रखना
मुफ़स्सल: विस्तृत, ब्योरे से

मुझे खबर है तुझे आंधियो का खौफ नहीं 
मगर संभाल के अल्फ़ाज़ज का यह घर रखना
*
ज़मींं पे ख़ाक की चादर बिछाने वाले ने 
बुलंदी आंख में रक्खी तो साथ डर भी दिया
*
इस ग़म को ग़मे यार का हासिल न कहो तुम
 ये दायमी ग़म मेरी तबीअत का सिला है
दायमी: चिरस्थाई

बुज़ुर्ग कॉफी का मग लिए ऑफिस में करीने से लगे ख़ूबसूरत सोफे पे बैठ गए. यादों का सिलसिला जो एक बार शुरू हुआ तो उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया। बी-फार्मा  करने के बाद नौजवान ने पाकिस्तान की फार्मेसी कंपनियों में मुलाज़मत की लेकिन दिल को तसल्ली नहीं मिली। हर जगह करप्शन का बोल बाला दिखा। नौजवान के वालिद मोहतरम मोहम्मद बशीर बट सियालकोट में डिप्टी सैटलमेंट कमिश्नर थे हज़ारों को उन्होंने प्लाट एलाट किये, अगर वो चाहते तो अपने अपने रिश्तेदारों को एक नहीं कई प्लाट दिला देते लेकिन नहीं न उन्होंने अपने लिए कोई प्लाट लिया न अपने किसी रिश्तेदार को दिलवाया। ऐसे वालिद की औलाद का करप्शन से कोई नाता कैसे हो सकता था। पढ़े लिखे नाना, एम ऐ पास वालिद और बी ऐ पास वालिदा ने उनकी तरबियत में ईमानदारी घोट कर मिला दी थी। नौजवान को अच्छे से याद है जब एक दिन उनके वालिद ने उन्हें कहा था कि "बरख़ुरदार वसीम बट ज़िन्दगी में कितनी भी मुश्किलें आयें ,सह लेना लेकिन याद रखना जब कभी मुँह में लुक्मा डालो वो हलाल का हो, लफ्ज़ सच का हो और अमल में दियानतदारी हो।" वो दिन है और आज का दिन वसीम ने वालिद की इस सीख का हमेशा पालन किया है। 

ये मेरी तारीख़ का तारीक पहलू बन गया 
मैं रहा ग़ाफिल उसी से जो मेरे नज़दीक था 

रात भर अहबाब मेरे दिल को बहलाते रहे 
एक चेहरे की कमी थी वरना सब कुछ ठीक था
*
मैं एक उम्र से तेरे दिलो दिमाग़ में हूं 
मुझे कुबूल न कर मेरा एअतेबार तो कर
*
पुर सुकूं कितना था वो जब फ़ासले थे दरमियां 
रंग फीका पड़ गया अब कुर्बतों के ख़ौफ़ से 
कुर्बत: निकटता 

जब सरे महफ़िल अना की मुफ़्त सौगातेंं बटींं 
बा वफ़ा सारे अलग थे रंजिशों के ख़ौफ़ से 

ना गहानी सानहों के हो गए वह भी शिकार 
घर से जो बाहर न निकले हादसों के ख़ौफ़ से
ना गहानी सानहे: अचानक होने वाली दुर्घटना
*
कैसी मुश्किल में आ गया है वो 
जिसको आसानियाँ समझनी हैंं 

बस्तियों की चहल-पहल देखूं 
घर की वीरानियां समझनी हैंं 

मुझको खुद से तो आशनाई हो 
अपनी नादानियां समझनी हैंं
*
जब अंधेरों ने पुकारा घर से बस हम ही गये 
अब उजालों ने बुलाया है तो हमसाये गए
हमसाये: पड़ौसी

वालिद की अचानक हुई वफ़ात से नौजवान वसीम पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। आठ छोटे बड़े भाई बहनों को उन्हीं का सहारा था। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और तब तक राहत की सांस नहीं ली जब तक उन्होंने अपनी सारी जिम्मेवारियां पूरी नहीं कर लीं। 

सं 1974 में अचानक किस्मत ने करवट ली और वो पाकिस्तान छोड़ कर कीनिया के नैरोबी शहर में आ गए। बुज़ुर्ग, जो अब वसीम बट वसीम के नाम से पूरे कीनिया में जाने जाते हैं, कॉफी के मग को गौर से देखते हुए फिर यादों के गलियारों में गश्त करने लगते हैं। उन्हें नैरोबी में बिताये शुरू के संघर्ष के दिन अच्छे से याद हैं जब एक अजनबी शहर में अपने पाँव जमाने के लिए रात दिन कितनी जद्दोजहद की थी। कोशिशों का नतीजा अच्छा निकला उन्होंने दो साल की अथक मेहनत के बाद 'ग्लोब फार्मेसी' के नाम से कम्पनी खोली और 1977 में पूर्वी अफ्रीका में इंजेक्शन बनाने का पहला कारखाना लगाया। 

ईमानदारी सच्चाई और दयानतदारी के चलते कारोबार में बरकत होने लगी। इसी दौरान वसीम साहब को शायरी का शौक चढ़ा। यूँ शायरी वो सियालकोट में सं 1973 से ही करने लगे थे लेकिन एक बार नैरोबी में जब उनके पाँव जम गए और घर के सभी लोग खुशहाल ज़िन्दगी जीने लगे तो ये शौक़ परवान चढ़ता गया। नतीज़तन उनकी शायरी की पहली किताब 'धनक के सामने' सं 2001 में लाहौर से प्रकाशित हुई। इस किताब ने दुनिया भर में फैले उर्दू प्रेमियों को बहुत प्रभावित किया।  देश विदेश में फैले उर्दू साहित्य के आलोचकों ने इस किताब पर प्रशंसात्मक लेख लिखे जिनमें जयपुर के जनाब फ़राज़ हामिदी भी शामिल हैं। फ़राज़ साहब को वसीम साहब की शायरी पढ़ कर ख़्याल आया कि इसे उन लोगों तक भी पहुँचाया जाना चाहिए जो उर्दू नहीं पढ़ सकते लिहाज़ा उन्होंने इस किताब का हिंदी में लिप्यांतरण किया और फिर अपनी इस ख़्वाइश का इज़हार करते हुए वसीम साहब से फोन पर इस किताब को हिंदी में प्रकाशित करने की इज़ाज़त मांगी जो वसीम साहब ने ख़ुशी से दे दी। नवम्बर 2008 में अदबी दुनिया पब्लिकेशन जयपुर से इसका प्रकाशन हुआ।नवम्बर 2008 में अदबी दुनिया पब्लिकेशन जयपुर से इसका प्रकाशन हुआ। अफ़सोस की बात है कि अब अदबी दुनिया प्रकाशन में अब ये किताब उपलब्ध नहीं है , आपकी किस्मत बुलंद हो तो हो सकता है आपको ये किसी बड़ी लाइब्रेरी में मिल जाए। 


मुझे यह वहम था हमसाये पानी लाएंगे 
मैं वरना घर में लगी आग बुझने क्यों देता 

पुरानी सोच की सादा हथेलियों पे कभी 
नए खयाल की मेंंहदी लगाने क्यों देता
*
जो रो रहे थे, वो पत्ते थे, ख़्वाब थे, क्या थे 
मैं कच्ची नींद से जागा तो चल रही थी हवा 

उसी मुक़ाम से अपनी उड़ान तेज़ हुई
कि जिस मुक़ाम पे लहजा बदल रही थी हवा
*
बस एक बात मेरी उसको नापसंद रही 
कि मेरी सोच का एक ज़ाविया अलग सा है

खुशी की दस्तकें मुझसे ही क्यों गुरेज़ां हैं 
लिखा जो दर पे है शायद पता अलग सा है
*
मैं अपने आप को अक्सर झिड़क भी देता हूं 
तभी तो मुझसे मेरी बात बनती जाती है 

वही दरख़्त है अब भी सफेद फूलों का
मगर तने से वो तहरीर मिटती जाती है 

ये आसमान तो सदियों से अपना दुश्मन था 
जमींं भी पांव तले से निकलती जाती है
*
इतनी सारी राहतों को अब न भेजो एक साथ 
सुख को सहने की अनोखी आदतें होने तो दो

अचानक टेबल पर पड़े फोन की घंटी बजने से बुज़ुर्ग वसीम बट साहब की यादों का सिलसिला टूटा। कॉफी का मग टेबल पर रखते हुए फोन उठाया और धीरे से बोले 'हैलो वसीम दिस साइड' दूसरी तरफ सेकेट्री थी बोली 'कल शाम चार बजे केन्या उर्दू सेंटर के सदस्य आपकी सदारत में एक मीटिंग करना चाहते हैं उनको आपसे मंज़ूरी चाहिए ,क्या बोलूं ? वसीम साहब ने एक पल सोचा और कहा 'मंज़ूरी देदो'। सन 1992 में जब वसीम साहब ने केन्या उर्दू सेंटर की बुनियाद रक्खी तो किसी ने नहीं सोचा था कि ये सेंटर चलेगा, क़ामयाबी तो दूर की बात है। ये सेंटर आज भी चल रहा है और यहाँ बच्चों को उर्दू की बाक़ायदा तालीम देने के लिए क्लासेस चलाई जाती हैं। जिसके अपने मुल्क़ के बच्चों में उर्दू पढ़ने लिखने का शौक धीरे धीरे कम होता जा रहा है वहीँ एक ऐसे मुल्क़ में जहाँ उर्दू न बोली जाती है न समझी ये शख़्स पिछले 30 सालों से बच्चों को इसे सिखाने के लिए सेंटर चला रहा है। उर्दू सेंटर की तरफ़ से समय पर होने वाले सेमीनार, ड्रामा और मुशायरे उर्दू ज़बान को केन्या में ज़िंदा रखे हुए हैं। मीर ग़ालिब इक़बाल और फैज़ पर हुए ख़ास प्रोग्राम आज भी केन्या वासियों की याद में ताज़ा हैं। 

सच की मशअल हाथ में है आंधियों की ज़द में हूं 
दुश्मनों से लड़ रहा हूं दोस्तों की ज़द में हूं 

सर छुपाना था मुकद्दम हादसों को भूलकर 
आईनोंं की छत चुनी थी किरचियों की ज़द में हूँ 
मुकद्दम: पुराने

क्या जरूरी है कि जो मैं चाहता हूं वो मिले 
रोशनी का घर बनाकर जुल्मतों की ज़द में हूँ
*
उलझनों से अब रिहाई सोचते हो, देख लो 
गर्दनों में निस्बतों की भारी जंजीरे भी हैं 
निस्बत: लगाव
*
बे ख़बर आराम की चादर लपेटे सो गए 
जागते बिस्तर में तन्हा बा ख़बर मुश्किल में है

वसीम साहब  के बारे में इफ़्तेख़ार आरिफ़ साहब ने लिखा है कि ' वसीम बट्ट की शायरी के अशआर पढ़ते वक़्त ये ख़्याल भी नहीं आता कि वो कितने अर्से से वतन और एहले वतन से दूर हैं।  ऐसा मालूम होता है कि उनके अशआर का इलाक़ा अपने मुले सुख़न की मानूस और आशाना सरहदों ही में कहीं वाक़ेअ है। अपनी ज़मीने निकालना और नए ख्यालो नये मिज़ाज की शायरी करना वसीम की तख़्लीक़ी सुरवत मंदी की मोतबर गवाहियाँ हैं।' 
जनाब अमजद इस्लाम अमजद साहब लिखते हैं कि ' मेरे इल्म के मुताबिक़ वसीम अफ्रीक़ा के पहले ऐसे साहिबे दीवान शाइर हैं जिनका कलाम पूरे एतेमाद के साथ और बगैर किसी रिआयत के हम अस्र शाइरी के नुमाइन्दा नमूनों के साथ रखा जा सकता है। 
लाख कोशिशों के बावजूद मुझे वसीम साहब का कलाम इंटरनेट पर हिंदी लिपि में कहीं नहीं मिला और तो और 'रेख़्ता' की साइट पर भी वो मुझे कहीं नज़र नहीं आये जहाँ हज़ारों छोटे बड़े शायरों का क़लाम पढ़ा जा सकता है। उनके बारे में कोई जानकारी भी कहीं से हासिल नहीं हो पायी। लिहाज़ा किताब में जो जानकारियां थीं उन्हीं को कल्पना का सहारा ले कर आपके सामने पेश किया है। 
आखिर में उनके कुछ और शेर आपको पढ़वाता हूँ :   

तेरी चश्मे तर में रहना 
जैसे एक सफ़र में रहना 

सब दीवारें रोशन करके 
डर के पस मंज़र में रहना 

मेरी तन्हाई की रौनक 
दीमक का इस दर में रहना 

आंखों पर इक पट्टी बांधे 
ख़्वाबों के बिस्तर में रहना
*
अपने नाम से पहले कोई नाम लिखा 
फिर उस काग़ज़ पर दिन भर का काम लिखा 

जलती रेत के रेज़े कितने बेकल थे 
धूप की तख़ती पर जब लफ़्ज़े आराम लिखा 
*
बजा के अपने ठिकाने से हट के रहता है 
मगर ये दर्द है आख़िर पलट के रहता है 

वो शख़्स जिस की हदें दूरियों से मिलती हैं 
अजीब बात है दिल में सिमट के रहता है 
*
ये मोअजिज़ा भी दिखाते हैं अब हुनर वाले 
भले न आग लगे पर धुआं बना लेना

ग़मों की धूप में ताजा हवा जरूरी है 
खुशी के घर में जरा खिड़कियां बना लेना








36 comments:

  1. आज आपने बेहद कीमती पुस्तक से परिचित कराया है भाई साहब। आनंद आ गया।

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  2. बहुत सुन्दर समीक्षा प्रस्तुति।
    रंग भरी होली की शुभकामनाएँ।

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  3. नीरज गोस्वामी जी किसी किताब पर लिखते हैं तो उसकी किस्मत सी लिख देते हैं। कमाल है आप और आपकी लेखनी भी।

    ब्रजेन्द्र गोस्वामी
    बीकानेर

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  4. किताब मेरे पास भी है। पूरी तबीयत से पढ़ी भी है लेकिन यक़ीन मानिये इस के बारे में मैं इतनी ख़ूबसूरती के साथ नहीं लिख सकता था।

    कल और आज का लगभग सारा दिन लोगों को तमाम ग्रुप्स में यही समझाने में बीत गया कि एक ग़ज़ल जो महाकवि नीरज, हालांकि उन्होंने कोई महाकाव्य रचा ही नहीं, के नाम से तमाम व्हाट्स ऐप ग्रुप में घूम रही है, वह आप की है स्व० गोपालदास जी नीरज की नहीं।

    उर्दू के अदीबों के क़लम ख़ूब चला है।
    लोगों ने वही पढ़ के तो शाइर को पढ़ा है।

    अनिल अनवर
    जोधपुर

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  5. शैलेश सोनीMarch 30, 2021 at 5:04 AM

    बहुत शानदार समीक्षा के लिए बधाई सर
    आप को और आपकी लेखनी के लिए यही कहूंगा
    जिंदाबाद जिंदाबाद

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  6. सरसरी निगाह डालने के बाद यही तय किया कि फ़ुर्सत के औक़ात में पढ़ने वाला मज़मून है।
    आप के क़लम का जादू किसे प्यासा छोड़ सकता है।

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  7. बेहद रोचक अंदाज

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  8. बहुत उम्दा शायरी, बहुत उम्दा आलेख। दोनों को सलाम।

    ओमप्रकाश नदीम

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  9. वाह वाह भाई साहब आपकीवही तलाश जो हमेशा से हैरत में डाले रखती है बदस्तूर है। इस बार भी वसीम बट्ट जी के रूप में सामने है क्या अच्छे शेर और क्या अच्छा उनका चयन।आत्मीयता और किस्सागोई का अंदाज़ तो क्या कहना लगता है जैसे सामने बैठे हुए लोगों में आपस मे बात हो रही हो। एक कामयाब चलचित्र के दृश्यों की तरह एक के बाद एक दृश्य आंखों के सामने आते हैं। सच ये भी है कि मैं जो थोड़ा बहुत शायरी में अपडेट हो पाता हूँ उसमें आपका बड़ा योगदान है।
    वसीम बट्ट जी के हवाले से गोया आपने हमे ही 'धनक के सामने' ला खड़ा किया है।
    बधाइयां और शुभकामनाएं।

    अखिलेश तिवारी
    जयपुर

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  10. पुरानी सोच की सादा हथेलियों पे कभी
    नए खयाल की मेंंहदी लगाने क्यों देता
    *
    जो रो रहे थे, वो पत्ते थे, ख़्वाब थे, क्या थे
    मैं कच्ची नींद से जागा तो चल रही थी हवा

    उसी मुक़ाम से अपनी उड़ान तेज़ हुई
    कि जिस मुक़ाम पे लहजा बदल रही थी हवा
    *
    बस एक बात मेरी उसको नापसंद रही
    कि मेरी सोच का एक ज़ाविया अलग सा है

    खुशी की दस्तकें मुझसे ही क्यों गुरेज़ां हैं
    लिखा जो दर पे है शायद पता अलग सा है
    *
    मैं अपने आप को अक्सर झिड़क भी देता हूं
    तभी तो मुझसे मेरी बात बनती जाती है

    वही दरख़्त है अब भी सफेद फूलों का
    मगर तने से वो तहरीर मिटती जाती है

    ये आसमान तो सदियों से अपना दुश्मन था
    जमींं भी पांव तले से निकलती जाती है
    *
    और बस ये ही नहीं, हर शेर इस बात की पुष्टि कर रहा है कि जनाब जब शेर कहते हैं तो वो शेर होता है मात्र एक और शेर की गिनती नहीं। बस यही बात बट साहब को अलग करती है। बुजुर्गों से मिली सीख कि "ज़िन्दगी में कितनी भी मुश्किलें आयें ,सह लेना लेकिन याद रखना जब कभी मुँह में लुक्मा डालो वो हलाल का हो, लफ्ज़ सच का हो और अमल में दियानतदारी हो।" को वसीम बट साहब ने अपनी शायरी में भी पूरी ईमानदारी से निभाया यह स्पष्ट है।

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    1. शुक्रिया तिलक भाई आपने सच में बहुत मन से पढ़ी है पोस्ट...

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  11. हमेशा की तरह शानदार
    बधाई नीरज सर

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  12. वाह वाह सर। हमेशा की तरह नायाब हीरा ढूँढकर ले आए

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  13. वसीम बट्ट साहब और उनकी शायरी जिंदाबाद!
    आपकी कलम के जादू ने उनकी समीक्षा में चांद_सितारे पिरो दिए हैं ।लाजवाब नीरज गोस्वामी जी ।आपको सैल्यूट साथी !🙏🙏

    कृष्णा पोरवाल

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  14. किताबों की दुनिया=228
    धनक के सामने=वसीम बट

    हस्बे मामूल बेहतरीन तरीके से काम करने वाले लोगों ये ज़माना हमेशा याद रखता है। अदब की दुनिया में वो शनासा शख़्स जिससे मेरी रगबत एक परछाईं से कम नहीं है मेरी मुराद जनाब नीरज गोस्वामी जी से है जो अरसा तवील से*किताबों की दुनिया*को तरतीब दे रहे हैं मेरा सलाम है। ऐसी मायानाज़ हस्ती को ख़ुदा उन्हें उम्र दराज़ी अता करे

    मैं अपनी बात अपने इस शेर से इबि्तदा करता हूं=

    अदब सब का मगर हम लश्करी को याद करते हैं
    रहे उर्दू ज़बां ज़िंदा यही फरयाद करते हैं।

    मेरे अजदाद की सर ज़मीं जिसे सियालकोट कहते हैं, सागर सियालकोटी लुधियाना का सरे सिजदा है सियालकोट की पहचान अदबी शनाख़्त के हवाले से बहुत बड़ी है अल्लामा इक़बाल, फ़ैज़ अहमद कुलदीप नैयर सैंकड़ों नाम दर्ज करवा सकता हूं। कुशादा दिलों का शहर कुशादा दिली का एक छोटा सा हवाला मगर बहुत बडा कारनामा एयरपोर्ट सियालकोट वहां के आवाम ने तामिर करवाया न के हक़ूमत ने

    बसीम बट साहिब को इस नायाब तोहफा के लिए दिली मुबारकबाद और हम हकीरों तक पहुंचाने के लिए नीरज गोस्वामी जी का शुक्रिया।
    इस मजमूए से मेरे पसंदीदा शेर=

    जब अंधेरों ने पुकारा घर से बस हम ही गये
    अब उजालों ने बुलाया है तो हमसाये गये

    तेरी चश्मे तर में रहना
    जैसे एक सफ़र में रहना

    सागर सियालकोटी
    लुधियाना

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  15. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  16. नीरज भाई इतने बड़े शायर और कीमती किताब से हमारा तआरुफ़ करवाया ।
    आप और आपकीं कलम को नमनः
    ज़िंदाबाद
    इतना बेहतरीन लिखते हो कि किताब पढ़ने की तलब हो उठती है।
    बधाई

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    1. दानिश भाई आपकी मुहब्बतों का शुक्रिया

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  17. बहुत अच्छा लगा पढ़ कर।

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  18. जब अंधेरों ने पुकारा घर से बस हम ही गये
    अब उजालों ने बुलाया है तो हमसाये गये

    तेरी चश्मे तर में रहना
    जैसे एक सफ़र में रहना

    शानदार
    वसीम बट्ट
    आपकी ख़ुशबयानी जी ख़ुश कर देती है

    शुक्रिया

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  19. बहुत दिलकश अंदाज़ से धीरे से सर पे चड़ के छा जाने वाले जादू बयान की चासनी से सराबोर लेख ज़िन्दाबाद वाह वाह क्या कहना
    मोनी गोपाल 'तपिश'

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  20. सब से पहले आपको सलाम जो इस शिद्दत से इस नेक काम में जुटे हैं और इतनी खूबसूरती से हमें अदीबों से रूबरू करवाते हो

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  21. Wah wah Niraj sahab। Bahut hi naayab aur naye andaaz ke sheron ke khaliq se taaroof karwaya। Adab ki jo khidmat aap kar rahe hain, gumnami ke andheron men jo diye roshan hain unhe roshni men laa rahe hain, apki is Jan fishani ka koi mol nahi hai। Aapko dil se naman।🙏🙏🙏🙏

    Prem Bhandari
    Udaipur

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  22. एक ख़ास तरह की लज़्ज़त और शाइराना पुरकशिश लहजा बट साहब के कलाम में क़ाबिले तारीफ़ अंदाज़ के साथ नुमायाँ है..... बेहतरीन पेशकश सर..... दिली मुबारकबाद
    🌹🌹👌🏻👌🏻🙏🙏🌷🌷

    नज़र (अशोक)

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे