मैं रोज़ इधर से गुज़रता हूँ कौन देखता है
मैं जब इधर से न गुज़रूँगा कौन देखेगा
*
मिरि तबाहियों का भी फ़साना क्या फ़साना है
न बिजलियों का तज़्किरा न आशियाँ की बात है
तज़्किरा : वर्णन
निगाह में बसा-बसा निगाह से बचा-बचा
रुका-रुका, खिंचा-खिंचा ये कौन मेरे साथ है
चराग़ बुझ चुके, पतंगे जल चुके, सहर हुई
मगर अभी मिरि जुदाईयों की रात, रात है
*
जुनूने-इश्क़ की रस्मे-अजीब क्या कहना
मैं उनसे दूर वो मेरे क़रीब क्या कहना
*
ये सोज़े-दुरुं, ये अश्क़े-रवाँ, ये काविशे-हस्ती क्या कहिए
मरते हैं कि कुछ दिन जी लें हम, जीते हैं कि आख़िर मरना है
सोज़े-दुरुं : आंतरिक वेदना , अश्क़े-रवाँ : बहते आँसू , काविशे-हस्ती : जीने की कोशिश
*
तिरी पलकों की जुम्बिश से जो टपका
उसी इक पल के अफ़्साने ज़माने
उन्हीं की ज़िन्दगी जो चल पड़े हैं
तिरी मौज़ों से टकराने ज़माने
बात यही कोई 1970 के आसपास की होगी, साहीवाल जो पाकिस्तान के पंजाब राज्य का एक कस्बा है उस कस्बे के 'स्टेडियम होटल' में पड़ी एक गोल सी मेज के इर्दगिर्द दस पन्द्रह लोग बैठे हैं। टेबल पर अभी अभी खाए बिस्कुटों की खाली प्लेटें, पानी के गिलास,चाय के कप और ऐश ट्रे में बुझे-अधबुझे सिगरेट के टुकड़े हैं जिनसे धुआँ उठ रहा है। जो लोग यहाँ आसपास के रहने वाले हैं उनके लिए ये रोज का दृश्य है। रोज शाम के पाँच बजते बजते इसी टेबल पर बरसों से महफ़िल जमनी शुरू हो जाती है जो सात बजे तक जमी रहती है। एक पचास साठ के बीच की उम्र का दुबला पतला शख्स पिछले पन्द्रह सोलह साल से रोज धीमी चाल से साईकिल चलाता यहाँ आता है जिसके आते ही महफिल में जान आ जाती है और उसके बाद सिगरेट, चाय-कॉफी, बिस्कुट और भी बहुत कुछ खाने पीने का सामान जमा हुए लोगों की फरमाइश के हिसाब से आता रहता है। इन लोगों में बातचीत हमेशा हल्की आवाज़ में होती है, कभी किसी ने इस मेज पर किसी को बहस करते या ऊँची आवाज में बात करते नहीं सुना जबकि सबको पता है कि यहाँ इस टेबल पर जो भी आता है उसका अदब से ख़ास रिश्ता या लगाव होता है और ऐसे लोग बिना शोर मचाये बातचीत नहीं करते। यहाँ बैठने वाले शायर भी हैं, अफ़साना निगार भी, नॉवलिस्ट भी हैं और पत्रकार भी। इस टेबल पर बैठने वाले हर शख्स की निगाहें उस तरफ होती हैं जिस तरफ वो साईकिल पर मध्यम रफ्तार से आने वाला बैठा होता है। ये ख़ास शख़्स बोलता बहुत कम है, सुनता ज्यादा है।
आज लेकिन मामला कुछ अलग है। इस टेबल पर एक शख़्स सर झुकाए खड़ा है और साईकिल पर आने वाले शख़्स की निगाहें उस पर आग बरसा रहीं हैं । धीमी लेकिन रोबदार आवाज में उस से सवाल किया गया है 'तुमने हमारे सामने ये गुस्ताख़ी की कैसे बरखुरदार ?' ये बात सुनकर तुरंत एक काली शेरवानी पहने शख़्स ने कहा 'माफ़ करें हुज़ूर आज नासिर को मैं ही पहली बार आपकी बज़्म में लाया हूँ , ये गुस्ताख़ी इससे नहीं ,मुझसे हुई है , मुझे इसे बताना चाहिए था कि इस टेबल पर बैठने के कुछ उसूल हैं '। तब सर झुकाए शख़्स ने बेहद मुलायम लफ़्जों में हाथ जोड़ते हुए पूछा 'मुझसे आखिर ऐसी क्या गुस्ताख़ी हो गई उस्ताद ?' अपनी गर्दन काली शेरवानी पहने हुए की तरफ़ करते हुए साईकल पर आने वाले शख़्स ने कहा
'लो अब तुम ही इसे बताओ अनवर'। अनवर ने गला साफ़ किया फिर बोले 'मियॉँ इस टेबल पर पिछले सोलह सत्ररह सालों से जनाब की मौजूदगी में जो भी खाने पीने का सामान मंगवाया जाता है उसके बिल का हमेशा जनाब ही भुगतान करते आये हैं ये ही इस टेबल का उसूल है लेकिन आज तुमने अनजाने में बिल भुगतान की पेशकश करते हुए जेब से रुपये निकाल कर वेटर को दे दिए, ये ज़नाब की शान में गुस्ताख़ी है जिसे ये कभी बरदाश्त नहीं कर सकते। आज तुम पहली बार आए हो इसलिए ये रूपये उठाओ और याद रखो कि आईंदा आप ऐसी हरकत दुबारा न करें।' इस वाक़ये के थोड़ी बाद महफ़िल बर्ख़ास्त हो गयी। साईकिल सवार ने सब को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा अपनी साईकिल उठाई और धीमी रफ़्तार से उसे चलाते हुए अगले मोड़ से ओझल हो गया।
बिल भुगतान की पेशकश करने वाले शख़्स ने पास खड़े अपने दोस्त अनवर से कहा 'कमाल के इंसान हैं 'मजीद अमजद' साहब, जितना उनके बारे में सुना था उससे बढ़ कर।'
इक लहर उठी और डूब गए होटों के कँवल आँखों के दीये
इक गूँजती आँधी वक़्त की बाज़ी जीत गई, रुत बीत गई
तुम आ गए मेरी बाहों में कौनैन की पेंगें झूल गई
तुम भूल गए, जीने की जगत से रीत गई, रुत बीत गई
कौनैन : दो दुनियाएं -भौतिक-आध्यात्मिक
इक ध्यान के पाँओं डोल गए, इक सोच ने बढ़ कर थाम लिया
इक आस हँसी, इक याद सुनाकर गीत गई, रुत बीत गई
ये लाला-ओ-गुल क्या पूछते हो सब लुत्फ़े-नज़र का किस्सा है
रुत बीत गई जब दिल से किसी की पीत गई, रुत बीत गई
*
ख़याले-यार तिरे सिलसिले नशे की रुतें
जमाले-यार तिरी झलकियाँ गुलाब के फूल जमाले यार : प्रेमिका की ख़ूबसूरती
सुलगते जाते हैं चुपचाप हँसते जाते हैं
मिसाले-चेहरा-ए-पैग़मबरां गुलाब के फूल
कटी है उम्र बहारों के सोग में 'अमजद'
मेरी लहद पे खिलें जावेदां गुलाब के फूल
लहद : क़ब्र, जावेदां : हमेशा के लिए
*
किसको बतायें अब जो ये उलझन आन पड़ी है
जब तक तुमको भूल न पायें, याद न आयें
*
प्यार की मीठी नज़र से तूने जब देखा मुझे
तल्खियाँ सब ज़िन्दगी की लुत्फ़े-सामां हो गईं
छा गईं दुश्वारियों पर मेरी सहल-अंगारियाँ
मुश्किलों का इक ख़याल आया कि आसां हो गईं
सहल-अंगारियाँ =बेफ़िक्री
'मजीद अमजद' एक ऐसे शायर है जिससे हिंदी के पाठक तो छोड़ें, उर्दू वाले भी अधिक परिचित नहीं हैं। परिचित नहीं हैं से मेरा मतलब ये है कि उतने परिचित नहीं हैं जितने होने चाहियें। क्यों नहीं है इसका उत्तर हमें शमीम हनफ़ी जैसे बड़े आलोचक द्वारा उनके बारे में लिखी इन पंक्तियों से मिलता है " कभी कभी कुछ फ़नकार एक इंडस्ट्री बन जाते हैं अपने आप में और फिर सब कुछ उन्हीं के इर्दगिर्द घूमता है और दूसरे जो उनसे किसी लिहाज़ से कम नहीं बल्कि बाज़ औक़ात तो उनमें से कुछ का क़द निकलता हुआ होगा, उनकी अनदेखी हो जाती है। फैज़ और मन्टो जैसे रचनाकारों को इंडस्ट्री बन जाने की मिसाल हमारे सामने है जबकि मजीद अमजद जैसे बड़े और अहम शायर पसे-पुश्त डाल दिए गए। ज़दीद नज़्म निगारी के बानियों में एक अहम नाम मजीद अमजद का है। क्या ज़बान, क्या ख़्याल, क्या उस्लूब ( स्टाइल ),क्या तर्ज़े-अहसास हर सतह पर मजीद अमजद ने अपना इनफिराद (मौलिकता ) क़ायम किया है। बहुत फ़िक्र-अंगेज़ है उनकी शायरी जिसकी तह में कहीं एक गहरी उदासी की कारफ़रमाई रहती है।
मजीद अमजद यूँ तो अपनी नज़्मों की वज़ह से जाने जाते हैं लेकिन उन्होंने ग़ज़लेँ भी कहीं जो अपनी मिसाल आप हैं। उनकी ग़ज़लों की तादाद नज़्मों के मुकाबले बहुत कम है लेकिन जितनी हैं जो हैं कमाल हैं।
ऐनीबुक प्रकाशन ने हाल ही में मजीद अमजद साहब की कुलियाते-ग़ज़ल और चुनिंदा नज़्में 'बहारों का सोग' नाम से प्रकाशित की है। इस किताब के लिप्यंतरण और सम्पादन की जिम्मेदारी पं. अर्श सुल्तानपुरी उठाई है। गम्भीर शायरी का लुत्फ़ लेने वाले हिंदी पाठक इसे पढ़ कर जरूर आंनदित होंगे। आप इस किताब को अमेज़न से ऑन लाइन या फिर जनाब 'पराग अग्रवाल' को 9971698930 पर फोन कर मंगवा सकते हैं।
इस पोस्ट में इसी किताब से उनकी ग़ज़लों के शेर बानगी के लिए आपके सामने हैं।
शम'अ के दामन में शोला, शम'अ के क़दमों में राख़
और हो जाता है हर मंज़िल पे परवाने का नाम
*
ज़िन्दगी की राहतें मिलती नहीं मिलती नहीं
ज़िन्दगी का ज़हर पी कर जुस्तजू में घूमिये
*
झोंकों में रस घोले दिल
पवन चले और डोले दिल
जीवन की रुत के सौ रूप
नग्मे, फूल, झकोले, दिल
यादों की जब पेंग चढ़े
बोल अलबेले बोले दिल
किसकी धुन है बावरे मन
तेरा कौन है भोले दिल
*
निज़ामे-कुहना के साये में आफ़ियत से न बैठ
निज़ामे-कुहना तो गिरती हुई इमारत है
निज़ामे-कुहना : जान से मारने के प्रबंधक , आफ़ियत :ख़ैरियत
दिलों की झोंपड़ियों में भी रौशनी उतरे
जो यूँ नहीं तो ये सब सैले-नूर अकारत है
सैले-नूर :रौशनीकी किरण ,अकारत :बेकार
*
दिन कट रहे हैं कश्मकशे-रोज़गार में
दम घुट रहा है साया-ए-अब्रे-बहार में
साया-ए-अब्रे-बहार :बहार के बादल का साया
आती है अपने जिस्म के जलने की बू मुझे
लुटते हैं निकहतों के सुबू जब बहार में
निक़हतों के सुबू =खुशबू की सुराही
गुज़रा उधर से जब कोई झोंका तो चौंक कर
दिल ने कहा ये आ गए हम किस दयार में
चलिए अमजद साहब के बारे में थोड़ा जानें। लगभग एक सौ सात पहले याने 29 जून 1914 को झंग शहर, जो अब पाकिस्तान में है, के मियाँ मुहम्मद अली के यहाँ मजीद साहब का जन्म हुआ। अभी वो छोटे ही थे कि उनके वालिद ने दूसरी शादी कर ली। उनकी माँ को ये बरदाश्त नहीं हुआ और वो नन्हें मजीद को गोद में उठाये अपने मायके आ गयीं। आप उस बच्चे की किस्मत का अंदाज़ा लगाएँ जिसको बाप के होते हुए यतीम की ज़िन्दगी बितानी पड़ी और उस बीवी का जो शौहर की मौज़ूदगी में बेवाओं की तरह रही। उनके नाना मियाँ नूर मोहम्मद, जो अरबी फ़ारसी के विद्वान थे, ने बचपन से ही मजीद साहब को दोनों ज़ुबानों से रूबरू करवाया। अमजद साहब ने मेट्रिक तक की पढाई इस्लामिया कॉलेज झंग से और गवर्मेंट कॉलेज लाहौर से सं 1934 में ग्रेजुएशन किया। लाहौर में जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो आखिर झंग के एक अर्ध सरकारी अख़बार 'उरूज़' में बतौर एडिटर काम करने लगे।
मजीद साहब का बचपन चूँकि एक आम बच्चे से अलग था लिहाज़ा उन्होंने अपने ज़ज़्बात का इज़हार करने को शायरी का दामन थामा। उनके साथ के बच्चे जब उनसे कोई जाती सवाल पूछते तो वो झल्ला जाते। उनके दुःख दर्द कोई समझता नहीं था इसलिए वो किसी से शेयर भी नहीं करते थे। उन्होंने अपनी एक दुनिया बना ली जिसमें वो तन्हा रहना पसंद करते। सातवीं क्लास से वो अपने दिल में जो महसूस करते उसे एक डायरी में नज़्म की शक्ल में दर्ज़ कर लेते।उनकी शायरी में बचपन के हालात का गहरा असर है क्यूंकि उनका खेलकूद नाज़ो-नख़रे उठवाने का वक़्त बरबाद हो गया इसलिए उनकी शायरी में दुखभरा अहसास मिलता है। उनकी शादी भी छोटी उम्र में कर दी गयी थी जो बदक़िस्मती से क़ामयाब नहीं हो सकी.
पढ़ने का उन्हें बचपन से ही शौक था, 'उरूज़' अख़बार में नौकरी के दौरान उन्होंने विदेशी साहित्य खूब पढ़ा जिसमें कीट्स,शैली,ऑस्कर वाइल्ड, विक्टर ह्यूगो और कामू जैसे लेखक विशेष हैं। दस साल 'उरूज़' में गुज़ारने के बाद उन्होंने
असिस्टेंट फ़ूड कंट्रोलर के पद पर, ता-उम्र सरकारी नौकरी की।
जो तुम हो बर्क़े-नशेमन तो मैं नशेमने बर्क़
उलझ पड़े हैं हमारे नसीब क्या कहना
बर्क़े-नशेमन :घोंसले पर गिरने वाली बिजली, नशेमने बर्क़: वो घोंसला जिस पर बिजली गिरे
लरज़ गई तेरी लौ मेरे डगमगाने से
चराग़े-गोशा-ए-कू-ए-हबीब क्या कहना
चराग़े-गोशा-ए-कू-ए-हबीब: प्रेमिका की गली के ताक़ में जलने वाला चराग़
*
मेरे नसीबे-शौक़ में लिक्खा था ये मक़ाम
हर-सू तिरे ख़्याल की दुनिया है, तू नहीं
*
बोझल पर्दे, बंद झरोखा ,हर साया रंगीं धोका
मैं इक मस्त हवा का झौंका, द्वारे-द्वारे झाँक चुका
*
सहरा-ए-ज़िन्दगी में जिधर भी क़दम उठे
रस्ते में एक आरज़ूओं का चमन पड़े
इस जलती धूप में ये घने साया-दार पेड़
मैं अपनी ज़िन्दगी इन्हें दे दूँ जो बन पड़े
*
साँझ-समय इस कुँज में ज़िन्दगियों की ओट
बज गई क्या-क्या बाँसुरी रो गए क्या-क्या लोग
गठरी काल रैन की सोंटी से लटकाए
अपनी धुन में ध्यान-नगर को गए क्या-क्या लोग
मीठे-मीठे बोल में दोहे का हिन्डोल
सुन-सुन उसको बाँवरे हो गए क्या- क्या लोग
*
रूहों में जलती आग ख़यालों में खिलते फूल
सारी सदाक़तें किसी काफ़िर निगाह की
सदाक़तें: सच्चाई
जब भी ग़मे-ज़माना से आँखें हुई दो-चार
मुँह फेर कर तबस्सुमे-दिल पर निगाह की
नौकरी के सिलसिले में उनका ट्रांसफ़र 1945 में लाहौर से 'साहीवाल' हो गया। 'साहीवाल' में तन्हा रह कर गुज़ारा 29 साल का वक़्त उनकी 60 साला ज़िन्दगी का सबसे बेहतरीन वक़्त था। वो हमेशा इस कोशिश में रहते कि कहीं उनका ट्रांसफर बड़े शहर में न हो जाय। ज़िंदादिल,
बेहद संवेदनशील- कहीं कोई हरा दरख़्त कट जाय ,कोई बच्चा उदास हो जाय ,चींटी किसी के पाँव से कुचली जाय या कोई परिंदा ज़ख़्मी हो जाय तो बहुत दुखी हो जाने वाले, सबके काम आने वाले, छोटे बड़े की इज़्ज़त करने वाले, कोई मिल गया तो साईकिल से उतर कर उसके साथ चलने वाले मजीद अमजद को 'साहीवाल' में सब पहचानते थे।
'साहीवाल' जिसका पुराना नाम मोंटगुमरी था के पास ही विश्व प्रसिद्ध ईस्वी से लगभग 2500 वर्ष पूर्व की सभ्यता के अवशेष 'हड़प्पा' में मिले थे। इन अवशेषों के अध्यन के लिए जर्मनी से एक लड़की 'शालात' सरकारी मेहमान की हैसियत से 1957 में 'साहीवाल' आयी और मजीद अमजद साहब के घर पर रुकी। क्यों रुकी इसका मुझे पता नहीं लेकिन रुकी ये जरूर पता है। हो सकता है कि साहीवाल में ढंग का होटल न हो और मजीद साहब के पास क्यूंकि दो कमरों का मकान था और वो अकेले रहते थे तो सरकार द्वारा उसे अपने घर पर रखने का उन्हें आदेश मिला हो. खैर वो रही और रोज शाम को मजीद साहब के साथ गप्पें मारती हुई कैनाल कॉलोनी से स्टेडियम होटल तक की लम्बी सैर करती। साहीवाल जैसे छोटे क़स्बे में एक स्थानीय बन्दे के साथ गोरी लड़की का हँस हँस कर बतियाते हुए सैर करना सबके लिए दिलचस्पी का विषय था। 'शालात' मजीद साहब के ज्ञान से बहुत प्रभावित थी और शायद मजीद साहब भी उसे मन ही मन पसंद करने लगे थे। जब 'शालात' की घर वापसी का वक्त आया तो मजीद साहब ने सोचा की उसे अपने दिल की बात बता दूँ याने इज़हारे मोहब्बत कर दूँ, लिहाज़ा वो उसे छोड़ने स्टेशन गए और साथ फूलों का गुलदस्ता भी ले गए। शर्मीले मजीद अमजद ने गुलदस्ता अपनी साइकिल पे ये सोच कर छोड़ा कि वो इसे गाड़ी चलने पर 'शालात' को पकड़ाएंगे। स्टेशन पर बतियाने में वक़्त का पता ही नहीं चला और गाड़ी स्टेशन से रेंगने लगी तो वो भी 'शालात' के साथ ही बातें करते करते ट्रेन पर चढ़ गए और क्वेटा,जो लगभग दो सौ किलोमीटर दूर था, जहाँ 'शालात' को उतरना था, तक चले गए, ये भूल कर कि साहीवाल स्टेशन पर वो जो अपनी साइकिल खड़ी कर आये हैं उस पर फूलों का गुलदस्ता रखा है। सफ़र ख़तम हो गया लेकिन दिल की बात ज़बाँ पर न आ पायी। ऐसा कई बार होता है कि ज़िन्दगी की ट्रेन का स्टेशन आ जाता है, दिल की कई बातें दिल ही में रह जाती हैं और मोहब्बत के फूल गुलदस्ते में लगे -लगे मुरझा जाते हैं।
उस मोड़ पर अभी जिसे देखा है कौन था
संभली हुई निगाह थी सादा लिबास था
यादों के धुंधले देश खिली चाँदनी में रात
तेरा सुकूत किसकी सदा का लिबास था
सुकूत : मौन
ऐसे भी लोग हैं जिन्हें परखा तो उनकी रूह
बे-पैरहन थी जिस्म सरापा लिबास था
*
मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा
ये सुराही में फूल नरगिस का
ख़ुद-निगर : स्वार्थी, ख़ुद में लिप्त
हाय वो ज़िन्दगी-फ़रेब आँखें
तूने क्या सोचा मैंने क्या समझा
घुंघुरुओं की झनक-मनक में बसी
तेरी आहट ! मैं किस ख़्याल में था
है जो ये सर पे ज्ञान की गठरी
खोल कर भी इसे कभी देखा
*
फिर लौट कर न आया ,ज़माने गुज़र गए
वो लम्हा जिसमें एक ज़माना गुज़ारा था
*
वो एक टीस जिसे तेरा नाम याद रहा
कभी कभी तो मिरे दिल का साथ छोड़ गई
*
झुकें जो सोचती पलकें तो मेरी दुनिया को
डुबो गई वो नदी जो अभी बही भी न थी
'शालात' के जाने के बाद अमजद साहब बहुत दिन उदास रहे और फिर उन्होंने 'म्यूनिख' उन्वान से एक नज़्म कही जो उर्दू शायरी में एक अहम स्थान रखती है। साहीवाल में मजीद साहब के यहाँ बाहर से अक्सर शायर आ कर ठहरा करते थे उन्हीं में एक थे भारत से आये शायर 'साहिर लुधियानवी'। एक शाम मजीद साहब ने साहिर को अपनी ताज़ा लिखी नज़्म सुनाई जिसकी शुरुआत की सतरें थीं ' ये दुनिया ये तख़्तों ये ताज़ों की दुनिया , ये रस्मों में लिथड़े रवाज़ों की दुनिया' साहिर ने नज़्म सुन कर मजीद साहब के हाथ पकड़ते हुए कहा इस नज़्म की कुछ सतरें आप मुझे इस्तेमाल करने दें ,मजीद साहब ख़ुशी ख़ुशी मान गए। साहिर ने अपने हिसाब से इस नज़्म को कहा जो बेहतरीन है लेकिन उसकी कुछ सतरें मजीद साहब की हैं ,इस नज़्म को फिल्म 'प्यासा' में मोहम्मद रफ़ी साहब ने गा कर अमर कर दिया। इसी तरह मन्टो साहब के इसरार पर मजीद साहब ने उन पर भी एक नज़्म कही है जो बहुत सराही गयी खास तौर पर ये लाइनें 'कौन है जो बल खाते ज़मीरों के पुर-पेच धुंधलकों में /रूहों के इफ्रीत-कदों ( राक्षसों के घर ) के ज़हर-अन्दोज़ (ज़हरीले)महलकों (छोटी जगह) में /ले आया है यूँ बिन पूछे अपने आप /ऐनक के बर्फीले शीशों से छनती नज़रों की चाप /कौन है ये गुस्ताख़ /ताख़ तड़ाक।
शायरी के माध्यम से खुद को दुनिया से जोड़ने वाले, दाद वसूलने और किसी को खुश करने की ख़्वाइश से कोसों दूर हो कर शायरी करने वाले मजीद साहब को जीते जी वो पहचान नहीं मिली जिसके वो हक़दार थे। उनकी सिर्फ एक किताब 'शबे-रफ़्ता' ही उनके सामने 1958 में शाया हुई थी।
उस दौर के पाँच बड़े शायरों फ़ैज़ (1911 ), नासिर काज़मी (1925) ,मुनीर नियाज़ी (1928 )नून मीम राशिद (1910 ) और जोश (1898 ) के साथ में मजीद साहब का नाम शुमार होता है। मजीद साहब के पास ख़्यालों की बहुत बड़ी रेंज थी उनके शायरी के केनवास पर इतने रंग है जो और किसी शायर के यहाँ नज़र नहीं आते।
बिखरती लहरों के साथ दिनों के तिनके भी थे
जो दिल में बहते हुए रुक गए ,नहीं गुज़रे
*
ध्यान में रोज़ छमछमाता है
क़हक़हों से लदा हुआ ताँगा
दो तरफ़ बँगले रेशमी नींदें
और सड़क पर फ़क़ीर इक नाँगा
*
तू कि अपने साथ है अपने बदन के वास्ते
कोई तेरे साथ तन्हा है तिरे दिल के लिए
*
दुनिया के ठुकराए हुए लोगों का काम
पहरों बैठे बातें करना दुनिया की
*
क़ालीनों पर बैठ के अज़्मत वाले सोग में जब रोए
दीमक लगे ज़मीर इस इज़्ज़ते-ग़म पर क्या इतराए थे
अज़्मत: प्रभावशाली
*
तुझे तो इल्म है क्यों मैंने इस तरह चाहा
जो तूने यूँ नहीं चाहा तो क्या, जो तू चाहे
सलाम उनपे तहे-तेग़ भी जिन्होंने कहा
जो तेरा हुक्म जो तेरी रज़ा जो तू चाहे
तहे-तेग़ : तलवार के नीचे
रिटायरमेंट के बाद मजीद साहब की माली हालत और सेहत बिगड़ती गयी।सरकार के ख़िलाफ़ जब तक लिखने की वजह से उनकी पेंशन और वजीफ़ा रोक दिया गया लेकिन फिर भी उनका स्टेडियम होटल जाने और अपनी टेबल के बिल अदा करने की आदत में कभी रूकावट नहीं आयी। एक बार जब महफ़िल बर्खास्त हुई तो आदतन मजीद साहब ने बिल अदायगी के लिए जब जेब में हाथ डाला तो पाया कि वो खाली है तब मुस्कुराते हुए वेटर से बोले 'आज का बिल उधार रहा मियां इसे कल अदा करूँगा ' ।होटल का मालिक 'जोगी' जो अमजद साहब का जिगरी दोस्त था, उनकी माली हालत से वाक़िफ़ था लेकिन कुछ मदद नहीं कर पा रहा था क्योँ कि उसे डर था कि मदद की पेशकश से कहीं उनकी खुद्दारी को ठेस न पहूंचे।आज दूर से ये नज़ारा देख उससे रहा नहीं गया वो टेबल पर आया और आराधना फिल्म के गाने 'बागों में बहार है' की तर्ज़ पर अमजद साहब से पूछा 'मजीद भाई ये होटल किसका है ?' मजीद साहब ने जवाब दिया 'आपका' जोगी ने फ़ौरन पूछा 'आप दोस्त किसके है ?' मजीद साहब ने मुस्कुराते हुए कहा 'आपका', 'जोगी साहब ने बिना वक़्त गँवाए फिर पूछा 'इस टेबल पर आया सामान किसका था?' मजीद साहब ने कहा 'आपका' जोगी हँसते हुए बोला कि 'जब होटल मेरा है, आप मेरे हैं, टेबल पर रखा सामान मेरा है तो इसके बिल अदा करने का हक़ किसका हुआ ?अमजद साहब बिना सोचे बोले 'आपका'। ये ही जोगी सुनना चाहता था वो मुस्कुराते हुए वहाँ जमा सब लोगों से बोला 'सुना आप सबने माजिद भाई ने क्या कहा, आज से इस टेबल पर इनकी मौजूदगी में जो आएगा उसका बिल खाक़सार ही अदा करेगा। मन ही मन में अमजद साहब समझ गए कि जोगी ने उनकी इज़्ज़त को बड़ी ख़ूबसूरती से बचाया है। उस दिन के बाद से जोगी ने कभी मजीद साहब को बिल अदा नहीं करने दिया। हाय कहाँ गए ऐसे लोग और ऐसे दोस्त !!
धीरे धीरे आँख से नज़र आना बंद हो गया। 11 मई 1974 की दोपहर को खाना खाने के बाद उन्होंने अपने खिदमतगार 'अली मोहम्मद' जो शुरू से उन्हीं के पास रहता था लेकिन काम कहीं और करता था को बाजार से कुछ लाने को भेजा। जब वो वापस लौटा तो उसने देखा कि मजीद साहब बेसुध अपनी खाट पर पड़े हैं। डॉक्टर बुलवाया गया जिसने आते ही उन्हें मृत घोषित कर दिया।
साहीवाल के डिप्टी कमिश्नर जावेद क़ुरेशी जो मजीद साहब के प्रशंसक थे को जैसे ही खबर मिली उन्होंने उनके घर में पड़े वो सारे कागज़ात जिन पर मजीद साहब ने कुछ लिख रखा था यूनाइटेड बैंक के लॉकर में रखवा दिए। उनके क़लाम के चोरी हो जाने का अंदेशा जो था।
जावेद साहब ने अपनी देखरेख में आनन फानन में फ़ूड विभाग का एक छोटा ट्रक जिसमें खाने का तेल गाँव गाँव सप्लाई होता था को धो पौंछ कर तैयार करवाया उनकी देह को फूलों से सजाया और उन्हें झंग दफ़नाने के लिए भेज दिया। जनाज़े में उनका अपना कोई नहीं था सिवा उन चंद दोस्तों के जो उनके साथ स्टेडियम होटल की टेबल के इर्दगिर्द बैठा करते थे।
उनकी वफ़ात के बाद लॉकर से कागज़ निकाल कर पढ़े गए और उनके लिखे को 'शबे -रफ़्ता के बाद' शीर्षक से छपवाया गया।
आज उन पर सैंकड़ो किताबें और हज़ारों आर्टिकल छप चुके हैं लेकिन उन्हें देखने वाले मजीद साहब नहीं हैं। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर झंग में जो एक पब्लिक पार्क भी बनवाया गया था वो अब देख रेख के अभाव में कूड़े के ढेर में बदल चुका है। यू ट्यूब पर आप उस पार्क की हालत देख, शर्मिंदा हो सकते हैं। भारत हो या पाकिस्तान, अदीबों के साथ हम ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं ? शायद किसी के पास जवाब हो लेकिन मेरे पास नहीं है।
अंत में उनके चंद अशआर और :
चैत आया, चेतावनी भेजी, 'अपना वचन निभा'
पतझड़ आई, पत्र लिखे, 'आ जीवन बीत चला'
खुशियों का मुख चूम के देखा, दुनिया मान भरी
दुःख वो सजन कठोर कि जिसको रूह करे सजदा
शीशे की दीवार ज़माना, आमने सामने हम
नज़रों से नज़रों का बँधन, जिस्म से जिस्म जुदा
*
तिरे ख़्याल के पहलू से उठ के जब देखा
महक रहा था ज़माने में कू-ब-कू तिरा ग़म
*
मुझे ख़बर भी न थी और इत्तिफ़ाक़ से, कल
मैं इस तरफ से जो गुज़रा वो इन्तिज़ार में थे
आप शायरी व शायरों के बारे में जिस प्रमाणिकता के साथ लिखते हैं।लोगो से उनका परिचय कराते हैं वो बहुत बड़ी बात है।बहुत अनूठी बात है।आप के इस साहित्य यज्ञ को प्रणाम करता हूँ।
ReplyDeleteबहुत बहुत शुक्रिया भाई
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत
ReplyDeleteधन्यवाद ग्यानू जी
Deleteक्या ही खूबसूरती से दर्शन करवाये हैं। अहा रूह ताज़ा हो गयी भाई साहब
ReplyDeleteधन्यवाद संजीव भाई
Deleteहर बार सर झुक जाता है आपकी लेखनी के आगे ऐसे लगता है जैसे हम ने उन लम्हों को जिया हो । आंखें भर आईं मेरी।
ReplyDeleteउम्दा शायर उम्दा शायरी से रूबरू करवाने के लिए तह-ए-दिल
से आपका शुक्रिया आदरणीय
बहुत शुक्रिया रश्मि जी
Deleteधन्यवाद शिवम जी
ReplyDeleteआप इस अरह किसी शायर की ज़िन्दगी के दिन रात का बयां करते हैं कि आँखों में देर तक नमी बनी रहती है | शालात का ज़िक्र और मजीद अमजद का आशिक-नाकाम | बहुत सुन्दर कहा आपने |मुबारक हो आपका तआरूफ करने का अंदाज़
ReplyDeleteमेरे नसीबे-शौक़ में लिक्खा था ये मक़ाम
हर-सू तिरे ख़्याल की दुनिया है, तू नहीं
*
बोझल पर्दे, बंद झरोखा ,हर साया रंगीं धोका
मैं इक मस्त हवा का झौंका, द्वारे-द्वारे झाँक चुका
*
सहरा-ए-ज़िन्दगी में जिधर भी क़दम उठे
रस्ते में एक आरज़ूओं का चमन पड़े
इस जलती धूप में ये घने साया-दार पेड़
मैं अपनी ज़िन्दगी इन्हें दे दूँ जो बन पड़े
*फिर लौट कर न आया ,ज़माने गुज़र गए
वो लम्हा जिसमें एक ज़माना गुज़ारा था
शीशे की दीवार ज़माना, आमने सामने हम
नज़रों से नज़रों का बँधन, जिस्म से जिस्म जुदा
*
तिरे ख़्याल के पहलू से उठ के जब देखा
महक रहा था ज़माने में कू-ब-कू तिरा ग़म
*
मुझे ख़बर भी न थी और इत्तिफ़ाक़ से, कल
मैं इस तरफ से जो गुज़रा वो इन्तिज़ार में थे
मुबराकाद
रमेश 'कवल'
बहुत बहुत शुक्रिया रमेश जी
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-02-2021) को "ज़िन्दगी भर का कष्ट दे गया वर्ष 2021" (चर्चा अंक-3966)
ReplyDeleteपर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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किताबों की दुनिया=224
ReplyDeleteनसर निगारी तहरीर का बयान वाकई किसी आम आदमी के बस का रोग नहीं है, इस के लिए तारीख़ के औराक़ और अदब शनासाई बहुत बहुत ज़रूरी है। नीरज गोस्वामी जी इस हुनर में माहिर हैं। मैं अपनी बात अहमद फ़राज़ के इस शेर से इबि्तदा करता हूं*
ये ज़लज़ले यूं ही नहीं आते फ़राज़
कोई दीवाना तहे ख़ाक़ तड़पता होगा।
जिस आत्मियता से नीरज जी अपना ब्लॉग लिखते हैं यकीनन तारीफ के काबिल हैं
आज की जिस किताब को फ़रोग मिला है उसका उनवान है*बहारों का सोग*अदब साज़ जनाब मजीद अमजद
फिर लौट कर न आया ज़माने गुज़र गए
वो लम्हा जिस में एक ज़माना गुज़ारा था
नीरज जी ने जिस तरह उनकी अदबी और ज़ाती ज़िन्दगी को बयान किया है काबिले-तारीफ है।साथ ही साथ मैं मुबारकबाद देता हूं जनाब अर्श सुल्तानपुरी जी ,पराग अग्रवाल जी और एनी बुक प्रकाशन को भी। एकबार फिर नीरज जी को इस नेक काम के लिए मुबारकबाद शुक्रिया
सागर सियालकोटी
लुधियाना
पोस्ट की शुरुआत में आपके अन्दर छुपे स्क्रिप्ट राइटर से परिचय हुआ । मजीद साहब ज़िन्दाबाद । पराग अग्रवाल जी बड़ी ही मुश्तैदी से अदब की ख़िदमात में लगे हुए हैं ।
ReplyDeleteबहुत शुक्रिया नवीन जी..
Deleteनमन आपको, आपकी लेखनी को
ReplyDeleteमोनी गोपाल 'तपिश'
शुक्रिया मोनी भाई साहब 🙏
Deleteमजीद अहमद की जिंदगी और साहित्यिक यात्रा से वाकिफ करने के लिए शुक्रिया!--ब्रजेंद्रनाथ
ReplyDeleteधन्यवाद मर्मज्ञ जी
Deleteमजीद अहमदजी की जिंदगी और काव्य यात्रा के बारे में शोधात्मक विवरण संस्मरण और अनके लिखे ग़ज़ल शेर सभी तारिफे काबिल है।
ReplyDeleteशानदार पोस्ट।
बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर आदरणीय
ReplyDeleteधन्यवाद अजय जी
Deleteवाह, वाह लाज़वाब प्रस्तुति...बेमिसाल अंदाजे बयां
ReplyDeleteशुक्रिया आपका
धन्यवाद हिमकर जी
Deleteभाई साहब
ReplyDeleteमजीद अहमद साहब की किताब 'बहारों का सोग' आपके हवाले से पढ़ रहा हूँ।
जैसे हम अपने कार्यालयीन आफिस नोट में बॉस के लिये संबंधित matter का gist तैयार कर देते हैं और उतने भर से उसे पूरी विषय वस्तु का भरपूर अंदाज़ मिल जाता है उसी तरह आप पूरी किताब और शायर को summerised रूप में हमारे सामने रख देते हैं। मज़ाल क्या की हमे फिर कुछ और ढूंढना पड़े उस शायर और किताब के बारे में।
लेकिन इस प्रक्रिया में शायर से संबंधित सामग्री को इकट्ठा करने में आप किस मनोयोग और श्रम के साथ जुट जाते हैं उसका मुझे ख़ूब पता है।और उस पर ये भी की शायर की अस्मिता पर कोई चोट हो जाये या आपके आत्मीय और पारिवारिक ढंग से उसके बारे में दी गई जानकारी में कोई ख़लिश रह जाये तो फिर वो नीरज भाई साहब ही क्या।मगर अब तो आपका ये ढंग भी मेरे लिए पुराना हो चुका ।क्या कहूँ 'ज़बां थक गई मरहबा कहते कहते।"
ईश्वर आपके इस ढंग को बचाये और बनाये रखे।
अखिलेश तिवारी
जयपुर
badmashi status
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