सूरज है वो कि चाँद है देखूँगा फिर उसे
पहले वो मेरी आँख का कंकर निकाल दे
***
होगा न सेहरकारी में उससे बड़ा कोई
वो बूँद रक्खे सीप में गौहर निकाल दे
[ सेहरकारी : जादूगरी ]
***
काँटे तो सब निकाल लिये मैंने अपने आप
अब कोई मेरे पाँव का चक्कर निकाल दे
तारीख़ 24 अक्टूबर 1942, क़ायदे से आज घर में जश्न का माहौल होना चाहिए था लेकिन इस घर में इस तरह के फ़िज़ूल क़ायदे के लिए कोई जगह नहीं थी, इसीलिए जिस बच्चे की आज छठवीं सालगिरह थी उसके सामने केक के बजाय 'उर्दू' का क़ायदा पड़ा था, जिसे बच्चे के अब्बा उसे पढ़ा रहे थे। अब्बा ही पढ़ाते थे, वो भी जब उनका मन करता ,बच्चे को स्कूल भेजना उन्होंने कभी ज़रूरी नहीं समझा। अपनी सालगिरह के मौके पर बच्चे के तसव्वुर में केक तो नहीं अलबत्ता नारंगी रंग की मीठी गोली जरूर थी और इसी वज़ह से उसका ध्यान किताब में नहीं था। तभी तेज आवाज़ के साथ गाल पर अब्बा के पड़े थप्पड़ से बच्चे की आँखों के सामने सितारे नाचने लगे। ऐसे में कोई भी बच्चा दो काम करेगा पहला 'वो रोयेगा' दूसरा 'वो थप्पड़ मारने वाले के मरने की दुआ करेगा। इस बच्चे ने पहला काम नहीं किया क्यूंकि उससे दूसरा थप्पड़ पड़ने का अंदेशा था लिहाज़ा दूसरा काम बड़ी शिद्दत से किया। मुश्किल ये है कि ऊपरवाला आसानी से किसी की दुआ कबूल नहीं करता .इस बच्चे की भी नहीं की .बच्चा बड़ा होता रहा, उर्दू पढ़ता रहा और पिटता रहा। नतीज़ा ? ग्यारह बरस की उम्र तक बच्चे को ' मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा दीवान याद हो गया, मीर, मोमिन और दाग़ के सैंकड़ो शेर याद हो गए। बच्चा खुद भी धीरे धीरे शायरी करने लगा .लोग जब सुनते और बच्चे को इज़्ज़त की नज़रों से देखते तब बच्चे की समझ मेंआया कि ऊपर वाले ने क्यों उसकी दुआ क़बूल नहीं की थी। अब्बा जैसे भी थे, बच्चे को उर्दू से बेपनाह मोहब्बत करना सिखा गये।
बच्चे के हिंदी सीखने के पीछे की कहानी भी मज़ेदार है. पड़ौस में रहने वाला दोस्त हिंदी फिल्मों और गीतों का दीवाना था और उसके घर ऐसी पत्र पत्रिकाओं का खज़ाना था। बच्चा पत्र पत्रिकाओं में फोटो देख कर खुश होता लेकिन पढ़ नहीं पाने से निराश होता। दोस्त ने लगन से बच्चे को हिंदी के वर्णाक्षरों से परिचय कराया। बच्चे ने पत्रिकाएं पढ़ने के लालच में हिंदी भी सीख ली। थोड़ा और बड़ा हुआ तो अंग्रेज़ी भी ऐसे ही खुद की मेहनत से सीखी और इन तीनों ज़बानों पर अधिकार, बिना स्कूल का मुंह देखे कर लिया।
कहीं भी जाये चमकने का शौक़ है उसको
वो अपने साथ अँधेरे ज़रूर रखता है
***
वहीं से चाँद मेरे साथ साथ चलने लगा
जहाँ से ख़त्म हुई रौशनी मकानों की
***
मुझे कुछ भी नहीं आता मगर ये होशियारी है
ये मत समझो कि सब कुछ जानता हूँ इसलिए चुप हूँ
***
ठहर भी जाय तो पानी की सतह पर किश्ती
सफ़र का शौक़ लिए डगमगाती रहती है
***
मैं उसको देखूँ कुछ ऐसे कि देख भी न सकूँ
वो अपने-आप में छुप जाय जब दिखाई दे
***
छत पे सोने का ख़ूब लुत्फ़ रहा
मैंने ओढ़ा कभी बिछाया चाँद
***
जागता हो तो न देखे कोई महलों की तरफ़
किस तरह सोया हुआ आदमी ख़्वाबों से बचे
***
ध्यान में तेरे कभी बैठूँ तो क्या बैठूँ बता
जब तलक तेरा तसव्वुर भी तेरे जैसा न हो
***
ये जो सुकून सा है नतीजा है सब्र का
हँसता हुआ सा जो भी है रोया हुआ-सा है
***
सराब प्यास बुझाता नहीं कभी लेकिन
ये बात खूब समझता है कौन प्यासा है
[ सराब : मृगतृष्णा
ये बच्चा अब बड़ा हो चला है ,हारमोनियम बजाता है और सुर से गाने भी लगा है। मौसिकी के अलावा इसे चित्रकारी का भी शौक चढ़ गया है। बहुत खूबसूरत पेंटिंग करने लगा है, लोग पेंटिंग देखते हैं और बच्चे का हुनर देख कर दांतों तले उँगलियाँ दबा लेते हैं। संगीत, पेंटिंग और शायरी का शौक बच्चे को अपने अब्बा से मिला है जो दूसरा निकाह कर अब ये घर छोड़ कर अलग रहने जा चुके हैं। घर चलाने की जिम्मेदारी अब इस बच्चे के नाज़ुक कांधों पर आ पड़ी है। घर में माँ के अलावा छोटे भाई बहन भी हैं।अब्बा की सिफारिश से बच्चे की 'ग्वालियर इलेक्ट्रिक सप्लाई' में नौकरी लग गयी है, जहाँ नक्शों की ट्रेसिंग करनी होती है। जो तनख्वाह मिलती है उस से घर का गुज़ारा किसी तरह चल जाता है। सिर्फ हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के ज्ञान से ज्यादा ढंग का काम मिलना मुश्किल था। कोई डिग्री हाथ में होती तो और बात थी लेकिन यहाँ तो स्कूल की शक्ल भी कभी नहीं देखी थी। खैर वक़्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा और इस बच्चे की, जो अब जवान हो गया था, शादी भी हो गयी। ज़िन्दगी के 24 साल मुश्किलों से जूझते हुए गुज़र रहे थे राहत का कहीं कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था. तभी एक ऐसी घटना घटी जिसने इस जवान की पूरी ज़िन्दगी बदल दी . एक बार किसी रिश्तेदार ने उनके अनपढ़ होने का मज़ाक उड़ाया और सबके सामने खुल कर उड़ाया। इस घटना से बजाय अपमानित हो कर आंसू बहाने के, जवान ने क़सम खाई कि एक दिन इन सबका मुंह बंद करके दिखायेगा। बस ये धुन सवार हो गयी. प्राइवेट केंडिडेट की हैसियत से मेट्रिक की परीक्षा दे डाली। उसमें पास हुए तो फिर हायर सेकेंडरी भी पास कर डाली और उसके बाद इंटर फिर बी. ऐ. और अंग्रेजी में एम. ऐ. की डिग्री हासिल की। याने अगले आठ सालों में वो जवान तालीम के मुआमले में फर्श से अर्श पर पहुँच गया। ये बात लिखने, पढ़ने में जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं। सोच कर देखिये ये कितने कमाल की बात है कि जिस शख़्स ने 24 साल की उम्र तक स्कूल का रुख़ न किया हो उसने अपने बलबूते पर एम.ऐ. करली वो भी अंग्रेजी भाषा में, फिर उर्दू में । इस शख्स ने सबको दिखला दिया कि इंसान अगर ठान ले तो क्या नहीं कर सकता। उर्दू शायरी के इतिहास में ऐसा करिश्मा करने वाला शायद ही कोई दूसरा शायर हुआ हो
सवाब का तो कोई काम मुझसे हो न सका
किसी गुनाह से राहे -निजात निकलेगी
[ राहे -निजात : मुक्ति का रास्ता ]
***
बस एक आह भरी और सो गये चुपचाप
जरा सी देर में निबटाया रात-भर का काम
***
रखा संभाल के यूँ जाँ को जिस्म में हमने
कि जैसे क़ैद हवा को हबाब में रक्खा
[ हबाब :बुलबुला ]
***
पैसे नहीं हों जेब में जिस चीज़ के लिये
वो चीज़ ये समझ लो कि बाज़ार में नहीं
***
वो राहबर हैं तो फिर आगे क्यों नहीं आते
समझ में आ गया रस्ते में रात करनी है
जैसे जैसे डिग्रियां मिलती गयीं वैसे वैसे नौकरी में इस शख्स को तरक्की मिलती गयी। मामूली ट्रेसर के ओहदे से एल.डी.सी. फिर यू.डी.सी.और यू.डी.सी
से एस.जी.सी तक. पूरे आफिस में इस शख्स के जोश और जूनून की धाक जम गयी। नौकरी अपनी जगह चलती रही और इस शख्स की शायरी अपनी जगह। शायरी इस शख्स की रूहानी जरुरत बनकर ज़िन्दगी में दाख़िल हुई। शायरी को इस शख्स ने ज़िन्दगी की जद्दोजहद और घुटन को बाहर निकालने का जरिया बनाया। पेंटिंग का शौक था जो बाद में कमर्शियल आर्ट में तब्दील हो कर अतिरिक्त आय का ज़रिया बनने लगा। नौकरी से हर महीने रुपया तो मिलता था लेकिन सुकून धीरे धीरे कम होता जा रहा था और मन शायरी और पेंटिंग में उलझा रहता था। इस कश्मकश से निज़ात पाने के लिए मात्र 48 वर्ष की उम्र में सं 1984 में आखिर वो दिन आया जब इस शख्स ने अपनी 30 साल की नौकरी से प्री रिटायरमेंट ले लिया।
अब अपनी पसंद के दो काम इस शख्स के हाथ में रह गए थे ,पहला शायरी और दूसरा पेंटिंग। शायरी रूह के लिए और पेंटिंग घर खर्च के लिए। नौकरी छोड़ कर इस शख्स ने अपना 'ग्राफिक डिजाइनिंग' का काम शुरू किया जो चल निकला।
कोई कुछ भी कहे सुनो ही नहीं
ऐसे बन जाओ जैसे हो ही नहीं
न सही कोई सायादार शजर
रास्ते में कहीं रुको ही नहीं
हो कोई बदगुमाँ तो होने दो
इसका मतलब तो है हंसो ही नहीं
ऐसी बातों का सोचना भी क्या
कहना चाहो तो कह सको ही नहीं
'ग्राफिक डिजाइन' की बात आयी है तो एक वाक़्या बताता हूँ। नवंबर 1987 ,ग्वालियर शहर में गहमागहमी चरम पर थी। पूरा शहर सजाया जा रहा था । राजमहल का तो हाल ही मत पूछें । लोगों में भागदौड़ मची हुई थी । किसी के पास सर खुजाने तक का वक़्त नहीं था । ये सब लोग दिसम्बर याने अगले महीने में होने वाली, श्री 'माधवराव सिंधिया' जी की बेटी की शादी की तैयारी में व्यस्त थे । सबसे बड़ी समस्या से वो टीम जूझ रही थी जिसके ज़िम्मे शादी का कार्ड फ़ाइनल करना था। समय कम था और काम भी बहुत महत्वपूर्ण था क्यूंकि कार्ड ही तो गणमान्य अतिथियों को पहला सन्देश देता है कि शादी किस स्तर की होने जा रही है। देश-विदेश से हज़ारों डिज़ाइन के एक से बढ़कर एक लाजवाब कार्ड सामने पड़े थे। हर एक कार्ड पर चर्चा हो रही थी लेकिन कोई कार्ड पसंद नहीं आ रहा था। तभी एक ऐसा कार्ड सामने आया जिसकी डिज़ाइन देखकर सब की बांछे खिल गयीं ये वो कार्ड था जो सभी को पसंद आया। ये कार्ड ऐसा था जैसे किसी ने मानो शायरी पेंट की है
वो, मुसव्विर याने चित्रकार जिसने ये कार्ड डिज़ाइन किया था हमारे आज के शायर 'शकील ग्वालियरी' हैं । शायरी भी एक तरह से मुसव्विरी ही तो है। इसमें शायर लफ़्ज़ों से पेंटिंग करता है। इस वाक़ये से आप उनके हुनर का अंदाज़ा लगा सकते हैं।
उसी हुनरमंद इंसान 'शकील ग्वालियरी' साहब की ग़ज़लों की हिंदी में एकमात्र छपी किताब 'लम्हों का रस' हमारे सामने है । इस किताब में लगभग 125 ग़ज़लें संकलित हैं.। शकील साहब की ग़ज़लें बेहद आसान ज़बान में हैं और यही इनकी सबसे बड़ी ख़ूबी है । डॉक्टर 'मुख़्तार शमीम (उज्जैन )' लिखते हैं कि,"शकील ग्वालियरी जिस सलीके से शेर कहते हैं और एक मिसरे में जिस तरह नया मोड़ देते हैं ये सलीक़ा कम ही शायरों को नसीब हुआ है ।"
देखते सब हैं मगर बंद ज़ुबाँ रखते हैं
इस तरह शहर में हम अम्नो-अमाँ रखते हैं
***
इश्क़ की इब्तिदा और इन्तेहा हम से पूछो
फूल को चूम के काँटों पे ज़ुबाँ रखते हैं
***
तह में मिट्टी है कि पत्थर हैं मुझे क्या मालूम
मैं तो ये देखता हूँ फूल खिला पानी पर
***
ज़ात क्या नाम भी पूछा न नदी का उसने
इतना प्यासा था कि आते ही गिरा पानी पर
शायरी जैसे शकील साहब के भीतर छुपी हुई थी तभी तो उन्होंने मात्र 15 -16 बरस की उम्र में बिना कोई खास तालीम हासिल किये बाक़ायदा शेर कहना शुरू कर दिए । उनके इस हुनर को तराशा उनके उस्ताद-ऐ-मोहतरम हज़रत 'गनी मुहम्मद क़ुरैशी गनी ग्वालियरी' साहब ने । सन 1953 याने 17 बरस की उम्र से उन्होंने सलीक़ेदार ग़ज़लें कहनी शुरू कर दीं। उनके लेखन का दायरा सिर्फ ग़ज़ल तक ही सीमित नहीं रहा उनके समीक्षात्मक लेख और लोक-साहित्य पर किये शोध-पत्र साहित्य जगत में चर्चा का विषय रहे । अपनी शायरी के बारे में उन्होंने लिखा है कि' मेरी शायरी का तअल्लुक़ मेरी अपनी तरह की सोच से है और मेरी सोच बनी है उन हालात से जिनसे मैं गुज़रा हूँ। यहाँ एक ख़ास बात ध्यान में रखने के क़ाबिल है कि ग़ज़ल के शेर में शायर की शख़्सियत कई छलनियों में छन कर थोड़ी बहुत अपनी झलक दिखाती है। हर शायर कुछ मख़्सूस बहरें इस्तेमाल करता है। मीर की खास बहर को ग़ालिब ने कभी इस्तेमाल नहीं किया, इसलिए कि वो उनके मिज़ाज से मेल नहीं खाती थी।मैंने भी अपनी ग़ज़लों में उन्हीं चंद बहरों का इस्तेमाल किया जो मेरे ख़्याल को आसानी से शेर में पिरोने में मददगार थीं. मैं शायरी में किसी भी लफ्ज़ का इस्तेमाल बिना उसका ओरिजिन जाने नहीं करता हूँ क्यूंकि हर लफ्ज़ का एक कल्चर होता है उस कल्चर का परसेप्शन न हो तो शब्द का उचित इस्तेमाल नहीं हो सकता। मैं अपनी शायरी में लफ़्ज़ों के माध्यम से अस्ल मफ़्हूम (विषय )के अलावा भी कई बातें कह जाता हूँ। मानी और मफ़्हूम के अलावा मेरी शायरी में आप तास्सुर भी पाएंगे मैं कहता हूँ शायरी में तास्सुर लाने के लिए हिंदी कवियों को उर्दू और उर्दू कवियों को हिंदी साहित्य पढ़ना चाहिए '
हो सलीक़ा अगर बरतने का
लफ़्ज़ रहते हैं हर जुबान में ख़ुश
***
दुनिया का कोई काम हो आसान से आसान
होना हो तो होता है वगरना नहीं होता
***
तुम्हारी जीत उसे तुमसे दूर कर देगी
निबाह चाहो तो दानिश्ता हारते रहना
***
अम्न एक लफ़्ज़ है अक्सर जो उभर आता है
ख़ूने-इंसान में डूबी हुई तलवारों पर
***
साहिल पे एक कमीज़ मिली चाक की हुई
ये किसने ख़ुदकुशी का इरादा बदल दिया
***
इश्क़ करने चले थे चाँद से हम
ख़त न फेंका गया अटारी तक
***
लिखा है जिसकी तख़्ती पर मुहब्बत
वो दरवाज़ा कोई जाँ-बाज़ खोले
***
किसी की राहतें भी बे-मज़ा हैं
किसी के दर्द में लज़्ज़त बहुत है
***
ये बात न होती तो कभी रंग न चुभते
काँटों का असर कुछ तो गुलाबों में भी आया
***
कितने नादाँ हैं वो जो सोचते हैं
इश्क़ में कामयाब हो जायें
शकील साहब की ग़ज़लों की पहली किताब 'तरकश' मध्यप्रदेश उर्दू अकादमी द्वारा 1986 में प्रकाशित की गयी। ग्वालियर में उर्दू ग़ज़ल के 100 साल के इतिहास के विवेचन और समीक्षा पर केंद्रित उनकी दूसरी किताब 'पत्थरों के शहर में' सन 1996 में प्रकाशित हुई जो उर्दू साहित्य के क्षेत्र में ख़ासी चर्चित हुई । तीसरी किताब एक ग़ज़ल संग्रह 'आसमां पर आसमां' सन 2000 में चौथी और एकमात्र देवनागरी में छपी किताब 'लम्हों का रस' सन 2003 में प्रांजल शिक्षा एवं साहित्य समिति ग्वालियर द्वारा प्रकाशित की गयी । देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं जिनमें धर्मयुग ,हंस ,युद्धरत तथा अक्षरा प्रमुख हैं । इसके अलावा राणा प्रताप पर खंड-काव्य लिखा है । उनका शोध-पत्र स्कंदगुप्त : एक अध्ययन है ।कविता संग्रहों में 'फसल बनती उम्मीदें' , 'पुष्पगंध' तथा 'ऐसा क्यों होता है' विशेष उल्लेखनीय हैं । उन्होंने दतिया से प्रकाशित 'उद्भव' और 'विकास' सन्दर्भ-ग्रन्थ तथा 'ज्ञान ज्योति' और 'अस्मिता' पत्रिकाओं का संपादन भी किया है । शकील साहब म. प्र. हिंदी साहित्य सम्मेलन , म. प्र . साहित्य अकादमी से सम्बद्ध रखते हैं । आकाशवाणी के ग्वालियर केंद्र के प्रारम्भ से लेकर अब तक सहयोगी रहे हैं । आकाशवाणी ग्वालियर ने आप पर तीन घंटे की रेडियो ऑटोबायोग्राफ़ी 2014 में तैयार की थी
पलकों पे आके रुक गए ख़्वाबों के काफ़िले
पानी के पास शहर-सा आबाद हो गया
***
जो हाथ थपकियों से सुला देते थे कभी
तकिये पे बस ग़िलाफ़ चढाने के रह गये
***
पागल हूँ, घर की तन्हाई
ढूंढ रहा हूँ बाहर आकर
***
मैं ही कश्ती भी हूँ मल्लाह भी तूफ़ान भी हूँ
और अब डूब रहा हूँ तो परेशान भी हूँ
***
अजीब बात है उनसे जो मेरे अपने हैं
मुझे ये कहना पड़ा मेरा ऐतबार करो
***
बजा रहा है कोई साज़ बंद कमरे में
लरज़ रही है छतें सात आसमानों की
***
मौजे-खूँ की तह में क्या है ये किसे मालूम था
नदी उतरी तो भारी पत्थरों के सर खुले
***
सैयाद छोड़ दे दरे-ज़िन्दान खुला हुआ
फिर कोई क़ैद रह के दिखाये मेरी तरह
***
आओ ,सो जाओ उठो और चल दो
ये ठिकाना भी ठिकाना है कोई
***
पानी जहाँ है डूबे हुओं की है यादगार
आग उनकी यादगार है जो ख़ाक हो गये
यूँ तो शकील साहब पर लिखने के लिए एक पोस्ट काफी नहीं है, लेकिन हमारी मज़बूरी है इसलिए शकील साहब की इस किताब में दर्ज जनाब 'रामकिशोर शुक्ल' साहब की इन पंक्तियों से इस पोस्ट को विराम देते हैं,"शकील की शायरी लगभग पचास साल का सफ़र तय कर चुकी है । इस दौरान उनका मिज़ाज पूरी तरह ग़ज़ल में रच-बस गया है । उनका ये ग़ज़ल-संग्रह आपको एक ऐसी दुनिया में ले जायेगा जहाँ आप अपने अतीत वर्तमान और भविष्य से रूबरू होंगे, जहाँ आप पुरानी तहज़ीब की धरोहरों और नये तौर-तरीकों से ख़त्म हो रही पुरानी क़द्रों के अहसासात महसूस करेंगे, जहाँ आप सच्चाइयाँ बयाँ करते हुए किरदार और धरती से आकाश तक फैली कायनात के मंज़र देखेंगे, जहाँ आप कान से देख सकेंगे और आँख से सुन सकेंगे, जहाँ आप हार-जीत से ऊपर होंगे, जहाँ आप बिना पर वाली चीजें उड़ती हुई देखेंगे,जहाँ आप वो सब देखेंगे और महसूस करेंगे जिनकी तलाश में इंसान सदियों से है। सबसे ऊपर आप यह महसूस करेंगे कि दुनिया में ईश्वर के बाद कोई है जो आपको पार लगा सकता है वो कोई और नहीं सिर्फ आप ख़ुद हैं ।"
उससे बिछड़े एक मुद्दत हो गई लेकिन हमें
आज भी हर काम में उसकी इजाज़त चाहिए
***
तजरुबों ने ख़राब कर डाला
दोस्तों हम भी साफ़ थे दिल के
***
अगर है तंज़ ही करना नज़र मिला के करो
चढ़ा हो तीर तो सीधा रखो कमान का रुख़
***
ये तो गुलिस्तानों में रोज़ के क़िस्से हैं
फूल खिले, खिलकर शाखों से दूर हुए
***
ग़मे-हयात से ऐ दिल फ़रार क्या मानी
सिपाही छोड़ के लश्कर तो जा नहीं सकता
***
इज़्ज़त बचा के अपनी कैसा निकल गया है
कहते हैं चाँद भी है टुकड़ा इसी ज़मीं का
***
रौशनी में कहीं उगल देगा
मेरा साया निगल गया है मुझे
***
शायरी में शायरी हमने बहुत कम की 'शकील'
शेर भी कहना हुआ तो सादगी से कह दिया
(ये पोस्ट ग्वालियर के मशहूर शायर 'अतुल अजनबी' जी द्वारा भेजे गए 'पहल' पत्रिका के उस अंक से तैयार की गयी है जिसमें शकील साहब ने अपने बारे में एक लेख लिखा था )
तजरुबों ने ख़राब कर डाला
ReplyDeleteदोस्तों हम भी साफ़ थे दिल के
ये बात न होती तो कभी रंग न चुभते
काँटों का असर कुछ तो गुलाबों में भी आया
शकील साहब ने अपने बुरे अनुभवों को सब के सामने इस सलीके से सार्वजनिक किया कि लगता है वे शंकर की तरह विष पचाने में उस्ताद थे
शुक्रिया भाई
Deleteग्वालियर छोड़े हुए मुझे 40 वर्ष हो गए लेकिन शकील साहब और उनके उस्ताद-ए-मोहतरम गनी मुहम्मद क़ुरैशी गनी साहब दोनों नाम बहुत परिचित से लग रहे हैं।
ReplyDeleteपलकों पे आके रुक गए ख़्वाबों के काफ़िले
पानी के पास शहर-सा आबाद हो गया
***
जो हाथ थपकियों से सुला देते थे कभी
तकिये पे बस ग़िलाफ़ चढाने के रह गये
***
पागल हूँ, घर की तन्हाई
ढूंढ रहा हूँ बाहर आकर
***
मैं ही कश्ती भी हूँ मल्लाह भी तूफ़ान भी हूँ
और अब डूब रहा हूँ तो परेशान भी हूँ
***
अजीब बात है उनसे जो मेरे अपने हैं
मुझे ये कहना पड़ा मेरा ऐतबार करो
***
जैसे शेर तो हर किसी को उसकी निजि जिंदगी से जुड़े लगेंगे।
आलेख के लिए आपके प्रयास वंदनीय हैं।
शुक्रिया भाई..
Deleteवाह वाह और वाह अद्वितीय शायर उम्दा पेशकश आपकी निष्ठा और समर्पण भी बेमिसाल है 🙏🙏🙏
Deleteप्रमोद कुमार
दिल्ली
आपकी इस पोस्ट का इंतज़ार रहता है..
ReplyDeleteख़ूबसूरत आलेख..और इंतख़ाब किये गये अशआर भी बेहतरीन..
🌺🌺
बकुल देव
जयपुर
आपके परिश्रम को नमन
ReplyDeleteशुक्रिया भाई
Deleteएक और सोमवार और एक नये शायर और उनकी किताब के साथ नीरज जी फिर से हाज़िर।नीरज जी की लेखन शैली की एक खास बात ये हैं की किसी भी शायर के लिये वो उसकी जिंदगी के उस हिस्से से लिखना से शुरू करते हैं जो उसकी शायरी का अहम हिस्सा होता हैं अब बताइये एक ६ साल के बच्चे के थप्पड़ लगे और वो अपने बाप के मरने की शिद्द्त से दुआ करें, ये बात किसी बड़े शायर के बारे में कोई नहीं लिखेगा पर क्योंकि वो थप्पड़ उसकी शायरी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तो नीरज जी ये राज जरूर खोलेंगे की उसकी शायरी पर किस बात का प्रभाव इतना ज्यादा हैं और क्यों हैं।
ReplyDeleteवैसे तो गर कोई आम आदमी ये कहे की किसी ने ११ साल की उम्र में मिर्ज़ा ग़ालिब का दीवान पूरा कंठस्थ कर लिया हो और साथ में‘ख़ुदा-ए-सुख़न’ मीर, मोमिन दाग़ भी हो तो ये अतिश्योक्ति ही लगेंगी पर क्योंकि बात ही थप्पड़ से शुरू हुई थी तो मान लीजिये की बात पूरी तरह से सही हैं क्योंकि मैं और हम में से ज्यादातर इस तरह के हादसों से गुज़र कर ही यहाँ तक पहुँचे होंगे।
राजेश रेड्डी साहब का एक शेर हैं
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम-सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है
अब कोई शायर ऐसा शेर कहे जो मेरी जिंदगी से इतना नज़दीक से जुड़ा हो तो मैं क्या कह सकता हूँ, बस चेहरे पे एक ख़ामोशी आ जाती हैं।
काँटे तो सब निकाल लिये मैंने अपने आप
अब कोई मेरे पाँव का चक्कर निकाल दे
जिंदगी ने इतना घुमाया हैं एक जगह से दूसरी जगह अब चाहें इसे घुमक्क्ड़ी कहे या चाहें किस्मत के धक्के पर इसे जीने में भी अपना ही अलग मज़ा हैं।
उफ़ क्या शेर है ये
पैसे नहीं हों जेब में जिस चीज़ के लिये
वो चीज़ ये समझ लो कि बाज़ार में नहीं
कैसे शब्दों में मज़बूरी उकेर दी गयी है,
इस शेर को पढ़ कर ही राजेश रेड्डी साहब का एक शेर याद आ गया
शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं
कोई कुछ भी कहे सुनो ही नहीं
ऐसे बन जाओ जैसे हो ही नही
ये तो मेरी जिंदगी का असली फंडा हैं
न सही कोई सायादार शजर
रास्ते में कहीं रुको ही नहीं
मेरी जिंदगी का असूल है ये शेर, जब तक चलते रहो जब तक मंज़िल मिल ना जाये
'शकील ग्वालियरी'जी का व्यक्तित्व जैसा नीरज जी ने चित्रण किया हैं एक ऐसे इंसान का हैं जिसने अपनी मेहनत के दम पे आसमां को छू लिया और ऐसा ही इंसान आम आदमी के लिए ऐसी शेरो शायरी कर सकता है।
एक बार फिर मेरी तरफ़ से नीरज जी का तहेदिल शुक्रिया और 'शकील ग्वालियरी'जी के लिये दुआ की वो ऐसी ही शायरी से हमे बहुत लम्बे समय तक नवाज़ते रहें।
जियो अमित...तुम्हारी टिप्पणी पाने के लिए ही सारी मशक्कत की जाती है... शुक्रिया
Deleteआपकी समीक्षा काफ़ी रोचक और मानवीय संघर्ष को उत्कृष्ट शैली में पेश करती है ।मुबारक हो आपको !
ReplyDeleteशाइरी पर समीक्षात्मक टिप्पणियाँ सराहनीय हैं।
शुक्रिया सर
Deleteशकील साहब से बरसों पहले एक बार ग्वालियर की ही एक निशस्त में मुलाक़ात हुई थी। बस मुलाकात भर ही क्योंकि उन की शख़्सियत और शाइरी के बारे में तो आज ही आप की पोस्ट पढ़ कर के सही मा"यनों में जान पाया हूँ। कमाल के अश्आर कहे हैं उन्होंने और उन की ज़िन्दगी की जिद्दोजहद का तो क्या कहना। उन की हालाते-ज़िन्दगी के वाक़ेयात कुछ-कुछ मेरे वालिदे-मोहतरम की ज़िन्दगी से मिलते हैं। वे भी स्कूल के नाम पर गाँव के मौलवी से दर्जा चहार्रुम तक तालीम पाकर निकले थे और आगे की राहें उन्होंने भी अपने बलबूते पर तय की थीं। तमाम डिग्रियाँ, नौकरियाँ, ज़बानों का इल्म ख़ुद स्वाध्याय से मशक़्क़त कर के हासिल किया था। ट्रूली ए सेल्फ़ मेड मैन।
ReplyDeleteशकील ग्वालियरी की शाइरी आम आदमी के कलेजे में सीधे उतर जाने की ता'सीर रखती है। बहुत अच्छा और बहुत पुख़्ता कलाम कहा है उन्होंने। लेख अच्छा लगा। फ़नकार की कहानी और आप की ज़बानी। चार चाँद फ़िर क्यों न लगें ? शुक्रिया नीरज भाई ! डूब कर के लिखते हैं आप। जिस शाइर को भी आप क़ारेईन से मिलवाते हैं उस का नक़्श रूबरू सामने खींच कर के रख देते हैं। नस्रनिगारी का ऐसा बाकमाल हुनर ख़ुदा की आप पर ख़ास इनायत है।
अनिल अनवर
जोधपुर
राजस्थान
ये अशआर और कोई नहीं हम ही कह रहे थे. ये अशआर हम ही सुन रहे थे. ये अशआर हम ही सुन-सुना कर जन्म-जन्मांतर चुप होते रहे हैं. इन अशआर को सुन-सुना कर हमारा ही दिल जन्मों-जन्मों रीतता रहा है.
ReplyDeleteये है शकील ग्वालियरी की नग़मानिग़ारी !! आमजन की आवाज़..
इस दफ़े की प्रस्तुति भक्क कर गयी है, नीरज भाई.
सच, आप एक अज़ीब नशा हैं.
अस्फुट ज़ुबान में अर्ज़ करूँ तो -
ये जहाँ ख़ूब पाठशाला है
शर्त है तालबिल्म कैसा है
--सौरभ
नशा तो आपकी टिप्पणी से हो गया सौरभ भाई...
Deleteबहुत खूब. बहुत सुन्दर शायरी
ReplyDeleteशुक्रिया भाई
Deleteनीरज साहब क्या कहूँ आप कभी कभी शायर का ताअररूफ इतनी मेहनत से कराते हैं कि मिलने ख़्वाहिश जग उठती है
ReplyDeleteअम्न एक लफ़्ज़ है अक्सर जो उभर आता है
ख़ूने - ए -इंसान में डूबी हुई तलवारों पर
साहिल पे एक कमीज़ मिली चाक की हुई
ये किसने ख़ुदकुशी का इरादा बदल दिया
बेहतरीन अशआर पढ़वाए आपने बेहद उम्दा कलाम बेहद उम्दा आपका अंदाज़ ज़िन्दाबाद
मोनी गोपाल 'तपिश'
उम्दा अशआर, बेहतरीन आलेख।
ReplyDeleteBehtreen ashaar padhwane ke liye sadhuwad
ReplyDeleteKya khoobsoorti SE taaruf karwate haiN aap Naman aap ki