तुझको शैतान के हो जायेंगे दर्शन वाइज़
डालकर मुंह को गिरेबाँ में कभी देखा है
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ज़िन्दगी को ज़िन्दगी करना कोई आसाँ न था
हज़्म करके ज़हर को करना पड़ा आबे-हयात
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हज़ार शुक्र कि मायूस कर दिया तूने
ये और बात कि तुझसे भी कुछ उमीदें थीं
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तू एक था मेरे अशआर में हज़ार हुआ
इस इक चिराग से कितने चिराग़ जल उट्ठे
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जो ज़हरे-हलाहल है अमृत भी वही नादाँ
मालूम नहीं तुझको अंदाज़ ही पीने के
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मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह देदे
तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के
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मौत का भी इलाज़ हो शायद
ज़िन्दगी का कोई इलाज़ नहीं
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वो आलम और ही है जिसमें मीठी नींद आ जाये
ग़मो-शादी में सोने के लिए रातें नहीं होतीं
ग़मो-शादी =ग़मी और ख़ुशी
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अगर मुमकिन हो तो सौ-सौ जतन से
अज़ीज़ो ! काट लो ये ज़िन्दगी है
***
कुछ नहीं वो निगाहें मगर
बात पहुँचती है कहाँ-से-कहाँ
साल 1982 ,काफी ठण्ड थी , जनवरी में दिल्ली में होती ही है ,तभी तो सुबह के दस बजे तक भी लोग कहीं न कहीं दुबके पड़े थे माहौल सुस्ती से भरा हुआ था कि एम्स में सरगर्मियां अचानक बढ़ गयीं। अफ़रातफ़री का सा माहौल हो गया। एम्स आप जानते ही होंगें दिल्ली का सबसे बड़ा सरकारी हस्पताल है । डाक्टर नर्से और दूसरे सभी विभाग के लोग कमरा नंबर 104 जो वी आई पी रूम था की और दौड़ रहे थे। तभी एम्स के रजिस्ट्रार मिस्टर सिंह धड़धड़ाते हुए कमरे में घुसे, उनके साथ ही आठ दस लोग भी। उन लोगों ने आते ही तुरतफुरत कमरे के परदे बदल दिए, सारा सामान करीने से सजा दिया और बैड पर बैठे बुजुर्ग को उठाकर, पलंग पर बिछी बैडशीट, तकिये के गिलाफ, कम्बल आदि बदल दिए और बुजुर्ग को भी हॉस्पिटल की और से नयी पोषक पहना दी गयी।ये काम आधे घंटे में निपट गया। बुजुर्ग इन सब हरकतों से परेशान नज़र आ रहे थे आखिर गुस्से में बोले 'कोई मुझे बताएगा की ये सब क्या हो रहा है ?' सिंह साहब ने बड़े आदर से जवाब दिया सर प्राइम मिनिस्टर श्रीमती इंदिरा गाँधी साहिबा आप से मिलने आ रही हैं।
मोहब्बत में मेरी तन्हाइयों के हैं कई उनवाँ
तेरा आना, तेरा मिलना, तेरा उठना, तेरा जाना
उनवाँ =शीर्षक
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कुछ आदमी को हैं मज़बूरियां भी दुनिया में
अरे वो दर्दे-मोहब्बत सही, तो क्या मर जाएँ ?
***
गरज़ की काट दिए ज़िन्दगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में
***
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
***
मैं देर तक तुझे खुद ही न रोकता लेकिन
तू जिस अदा से उठा है उसी का रोना है
***
ये ज़िन्दगी के कड़े कोस, याद आता है
तेरी निगाहे-करम का घना-घना साया
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शबे-विसाल के बाद आईना तो देख जरा
तेरे जमाल की दोशीज़गी निखार आई
शबे-विसाल=मिलान की रात , जमाल की=सौंदर्य की , दोशीज़गी =कौमार्य
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हम क्या हो सका मोहब्बत में
खैर तुमने तो बेवफ़ाई की
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आज आँखों में काट ले शबे-हिज़्र
ज़िंदगानी पड़ी है सो लेना
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रहा है तू मेरे पहलू में इक ज़माने से
मेरे लिए तो वही ऐन हिज़्र के दिन थे
हिज़्र के=जुदाई के
प्राइम मिनिस्टर किसी बुजुर्ग से मिलने हॉस्पिटल आये मतलब वो कोई खास ही शख़्स होगा वरना कौन किसे मिलने आता है ? हॉस्पिटल में इसी बात को लेकर खुसुरपुसुर सी हो रही थी कि ऐसा बुजुर्ग है कौन ? दोपहर ठीक एक बजकर पद्रह मिनिट पर इंदिरा जी कमरे में दाखिल हुईं और आते ही दोनों हाथ जोड़ते हुए बोलीं -नमस्कार जी। बुजुर्ग ने बिस्तर पर बैठे बैठे सर ऊपर किया और पूछा कौन ? आंखों में मोतिया बिंद उतर आने की वजह से शायद वो चेहरा पहचान नहीं पाए होंगे। किसी ने उनके कान में कहा ' इंदिरा जी आयी हैं ' . बुजुर्ग की आँखों में आंसू छलछला आये बोले 'बेटी इंदिरा मैं ठीक हूँ , मैंने सिगरेट भी छोड़ दी है ज़िन्दगी में पहली बार'. इंदिरा जी हँसते हुए बोली 'लेट इट भी द फर्स्ट एन्ड लास्ट टाइम' फिर पूछा 'आपको यहाँ कोई तकलीफ तो नहीं है न ?' बुजुर्ग ने कहा -नहीं, बिलकुल नहीं , तुम्हारी वजह से मेरा यहाँ बहुत ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन बेटी यहाँ जो गरीब हैं ,बेसहारा हैं अगर उनका भी ऐसे ही इतना ही ख्याल रखा जाय तो ही जवाहर जी के हिंदुस्तान का सपना साकार होगा। बेटी मेरी एक बात गौर से सुनो 'गो टू द पुअरेस्ट ऑफ दी पुअर'. इंदिरा जी ने उनकी इस बात को गांठ बांध लिया और बाद में इंदिरा जी का बयान अखबार में छपा जिसमें उन्होंने अपनी पार्टी के अधिकारीयों को मुखातिब करते हुए कहा था कि 'गो टू द पुअरेस्ट ऑफ दी पुअर '
रश्क है जिस पर ज़माने भर को है वो भी तो इश्क
कोसते हैं जिसको वो भी इश्क ही है , हो न हो
आदमियत का तकाज़ा था मेरा इज़हारे-इश्क
भूल भी होती है इक इंसान से, जाने भी दो
यूँ भी देते हैं निशान इस मंज़िले-दुश्वार का
जब चला जाए न राहे-इश्क में तो गिर पड़ो
अब तक तो आपको इस बात का अंदाज़ा हो ही गया होगा कि जिस बुजुर्ग की हम बात कर रहे हैं वो और कोई नहीं उर्दू अदब के कद्दावर शायर जनाब 'फ़िराक गोरखपुरी' हैं। फ़िराक जिनका नाम 'रघुपति सहाय' था गोरखपुर की बाँसगाँव तहसील के बनवारपार गाँव में 28 अगस्त 1896 को पैदा हुए थे। इनके पिता गोरखपुर और आसपास के जिलों में सबसे बड़े दीवानी के वकील थे लिहाज़ा घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी। एक विशाल कोठी लक्ष्मी भवन जो आज भी मौजूद है में दर्जनों नौकर चाकरों के बीच वो अपने विशालकाय परिवार के साथ रहते थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई। स्कूली पढाई गोरखपुर के विभिन्न स्कूलों करने के बाद आगे की पढाई के लिए वो इलाहबाद आ गए 1918 में बी.ऐ की परीक्षा देने के बाद वो स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। सं 1930 में आगरा विश्विद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी में एम् ऐ किया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। उन्हें बिना कोई अर्ज़ी दिए ही इलाहबाद युनिवेर्सिटी में अंग्रेज़ी के उस्ताद की हैसियत से नौकरी मिल गयी. सं 1959 में फ़िराक विश्वविद्यालय से रिटायर हुए लेकिन यू.जी.सी ने इन्हें रिसर्च प्रोफ़ेसर नियुक्त कर दिया जिस पर वो 1966 तक काम करते रहे।
वो चुपचाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें
शबे-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम
तिरे हुस्न के रसमसाने की रातें
फुहारें-सी नग्मों की पड़ती हो जैसे
कुछ उस लब से सुनने-सुनाने की रातें
मुझे याद है तेरी हर सुबह-रुख़्सत
मुझे याद हैं तेरे आने की रातें
फ़िराक की शायरी में निखार इलाहबाद जा कर आया जब उनका संपर्क प्रोफ़ेसर 'नासरी, साहब से हुआ। नासरी साहब ने न केवल उनकी ग़ज़लों में संशोधन किया बल्कि उर्दू शायरी के नियमों पर नियमपूर्वक लेक्चर भी दिए और इस तरह उनके दिल में जल रही शायरी की ज्वाला को विधिवत भड़का दिया। फ़िराक साहब के सबसे प्रिय शिष्य और साये की तरह उनके साथ रहने वाले 'रमेश चंद्र द्विवेदी' साहब ने उनके बारे में लिखा है कि ' बहुत से दृश्य, वस्तुएं, विचार, कहानियां और घटनाएं उन्हें ध्यानमग्न कर देते थे और उनकी दशा एक समाधिस्त योगी की तरह हो जाती थी. वो वस्तुओं को देख आत्मविभोर हो जाया करते थे। प्रकृति का प्रत्येक दृश्य, गाँव की पगडंडियां, हरे भरे खेत, अमराइयाँ, बाग़ बगीचे, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी, हवा और बारिश, रात और दिन का हर पल, वनस्पति संसार, तारों भरी रात और सन्नाटा, पहाड़ उनकी चोटियां और घाटियां, स्त्री-पुरुष और बच्चे, अंडे सेते हुए और अपने बच्चों को दाना चुगाते हुए पक्षी, तालाब में तैरती और जीवन-उमंग से उछलती हुई मछलियां,पशुओं के शिशुओं की कूदफाँद और अपने बच्चों को ढूढ़-पान कराते हुए पशु, घर-गृहस्ती के सामान, निर्माण कार्य में रत मजदूर, खेतों में दौड़ता हुआ पानी आदि फ़िराक की चेतना को जागरूक करते बल्कि उसे और भी समृद्ध और भरपूर बना देते'. आज हम उनकी लाजवाब किताब 'सरगम' की बात करेंगे जिसमें फ़िराक साहब ने अपनी पसंद की 120 ग़ज़लों से ज्यादा का चयन किया है।
जिन्हें शक हो वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं
तेरी रूदादे-सितम का है बयाँ नामुमकिन
फायदा क्या है मगर यूँ ही ज़रा कहते हैं
औरों का तजुर्बा जो कुछ हो मगर हम तो ' फ़िराक'
तल्खी-ए-ज़ीस्त को जीने का मज़ा कहते हैं
तल्खी-ए-ज़ीस्त =जीवन की कटुता
फ़िराक जैसी शख़्सियत को किसी एक लेख या किताब में समेटना बहुत मुश्किल काम है। इतनी बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्ति बहुत कम हुए हैं। उन पर बहुत से लेख और किताबें लिखी गयीं हैं जिनमें प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी साहब की किताब "इंतिखाब -फ़िराक गोरखपुरी" लाजवाब है। चलिए फिर से लौटते हैं उनके जीवन प्रसंगों पर। स्वतंत्रता संग्राम में कूदने के एवज में अंग्रेजी सरकार ने उन्हें आगरा जेल में डाल दिया जहाँ वो लगभग दो साल रहे। इस जेल में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ बहुत से काव्य प्रेमी भी बंद थे। फ़िराक साहब जेल की बालकोनी से ताजमहल को निहारा करते और ग़ज़लें कहा करते। और तो और उन्होंने जेल में बाकायदा हर हफ्ते मुशायरा रखना शुरू कर दिया जिसमें मिसरा-ऐ-तरही पर ग़ज़लें पढ़ी जातीं। ये साप्ताहिक मुशायरा बाकायदा 10-12 हफ़्तों तक लगातार चलता रहा बाद में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। दो साल की जगह जेल की अवधि को घटा कर ढेड़ साल कर दिया गया, जब फ़िराक जेल से बाहर आये तो पाया कि उनके घर की आर्थिक दशा बहुत खराब है। पिता तो लम्बी बीमारी के बाद जेल जाने से पहले ही गुज़र चुके थे जेल के दौरान उनके जवान भाई को भी टी.बी. ने अपना शिकार बना लिया था। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू उनके घर ठहरने आये और फ़िराक साहब के बिना कुछ कहे ही सारा माज़रा समझ गए। उन्होंने फ़िराक से इलाहबाद में कांग्रेस पार्टी के अंडर सेकेट्री के पद पर काम करने की पेशकश की। फ़िराक ने उनका कहा माना और ढाई सौ रूपए माहवार की पगार पर इलाहबाद में कांग्रेस पार्टी के अंडर सेकेट्री के पद पर काम करने लगे।
मैंने सोचा था तुझे इक काम सारी उम्र में
वो बिगड़ता ही गया, ऐ दिल, कहाँ बनता गया
मेरी घुट्टी में पड़ी है हो के हल उर्दू जबाँ
जो भी मैं कहता गया हुस्ने-बयाँ बनता गया
हल=घुलमिल कर
वक्त के हाथों यहाँ क्या क्या ख़ज़ाने लुट गए
एक तेरा ग़म कि गंजे-शायगां बनता गया
गंजे-शायगां=बहुमूल्य खज़ाना
वो लोग जो उर्दू जबाँ को एक खास मज़हब के लोगों की बपौती मानते हैं फ़िराक की शायरी को बर्दाश्त नहीं कर पाते। फ़िराक साहब ने ये सिद्ध किया कि उर्दू भी बाकि दूसरी ज़बानों की तरह एक ज़बान है जिसे कोई भी बोल सकता है लिख या पढ़ सकता है ,इसके लिए किसी ख़ास मज़हब का होना जरूरी नहीं। ये देखा गया है कि जब आप किसी की बराबरी नहीं कर पाते तो उसकी बुराई करने लगते हैं। यूँ किसी की तारीफ़ करने से कोई महान नहीं हो जाता और किसी की बुराई करने से कोई बुरा नहीं हो जाता। लोगों ने फ़िराक साहब के शेरों को काने, लूले और लंगड़े साबित करने की कोशिश की लेकिन जब वो कामयाब नहीं हो पाए तो उन्होंने उनके व्यक्तिगत जीवन पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया। ये बात सच है कि फ़िराक साहब का गृहस्त जीवन शांत नहीं था। पत्नी की बदसूरती और उनके अधिक पढ़े लिखे न होने का मलाल उन्हें जीवन भर सालता रहा। दरअसल फ़िराक बचपन से ही खूबसूरती के दीवाने थे अच्छी और दिलकश चीज़ें और मंज़र उन्हें आकर्षित करते थे। कुरूप महिलाओं की गोद में जाते ही वो रोने लगते। जब स्वयं की पत्नी उन्हें बदसूरत मिली तो वो इस सदमे को सहन नहीं कर पाए ,पत्नी को लेकर उनके मन में आदर नहीं था लेकिन उन्होंने कभी उनकी अवहेलना नहीं की। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी। फ़िराक साहब को दो बेटियां और एक बेटा इसी पत्नी से मिला। उनके और उनकी पत्नी के संबंधों पर लिखी रमेश चंद्र द्विवेदी जी की किताब 'कोयला भई न राख़' पठनीय है। लोग उनके सामने बोलने में भी कतराते थे क्यूंकि फ़िराक साहब मुंहफट होने की हद तक स्पष्टवादी और कलमफट होने की हद तक साहित्य योद्धा थे।
मैं आस्माने मुहब्बत से रुख्सते-शब हूँ
तिरा ख़्याल कोई डूबता सितारा है
कभी हयात कभी मौत के झरोखे से
कहाँ-कहाँ से तेरे इश्क ने पुकारा है
बयाने-कैफ़ियत उस आँख का हो क्या जिसने
हज़ार बार जिलाया है और मारा है
फ़िराक ने 1923 से 1927 तक कांग्रेस के अंडर सेकेट्री पद पर काम करने के बाद गाँधी जी से गोरखपुर में जनजागरण पैदा करने की अनुमति मांगी जिसे गाँधी ने सहर्ष प्रदान कर दिया। गोरखपुर में चलने वाली सभी राष्ट्रीय आन्दोलनों की बागडोर फ़िराक साहब ने अपने हाथ में ले ली। फ़िराक का मौलिक चिंतन ग़ज़ब का था। वो अपनी रोजमर्रा की बातचीत में ऐसे वाक्य बोल जाते थे जो बड़े से बड़े शिक्षित लोगों को चौंका देते थे। उनके वाक्यों ने, भाषणों और लेखों ने अंग्रेजी हकूमत के दिल में भय उपजा दिया। उन्होंने फ़िराक की सभाओं और लेखों पर पाबन्दी लगा दी। गोरखपुर छोड़ वो 1930 से इलाहबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाने लगे। उनका लेक्चर सुनने के बाद विद्यार्थी ये अनुभव करने लगता था कि वो लाइब्रेरी हज़्म करके उठा है। वो बच्चों से कहते 'सोचो चिंतन करो मनन करो सोचो विचारो' फ़िराक अपने अनूठे सेन्स ऑफ ह्यूमर के चलते पूरी यूनिवर्सिटी के सबसे चहेते अध्यापक थे। फ़िराक तुलसीदास जी को विश्व का सबसे बड़ा कवि मानते थे उन्होंने एक बार कहा था कि रामचरितमानस पढ़ कर मैं राम का तो नहीं लेकिन तुलसीदास जी का पुजारी जरूर बन गया हूँ।
ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ मेरी आँख नम नहीं
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं
अब न ख़ुशी की है ख़ुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं
कीमते हुस्न दो जहाँ
कोई बड़ी रकम नहीं
बहुत कम लोग जानते हैं कि फ़िराक ने उर्दू के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में भी किताबें लिखी हैं। उन्हें उनकी उर्दू किताब 'गुले नग्मा' जिसमें उनकी अधिकांश रचनाएँ संगृहीत हैं , पर साहित्य अकादमी और बाद में ज्ञानपीठ सम्मान से सम्मानित किया गया था। फ़िराक साहब को बातें करने का बेहद शौक था और वो घंटों बिना किसी और को मौका दिए किसी भी विषय पर पूरी ऑथरिटी से बोल सकते थे। उनके जैसे ज़हीन वक्ता बहुत कम हुए हैं। सुना है कि इलाहबाद के कॉफी हाउस में जब वो दोपहर बाद जाया करते थे तो वहां बैठे सभी लोग उन्हें घेर कर बैठ जाते और उनकी बातें सुनते। लगभग 630 ग़ज़लों के अलावा नज़्मों, रुबाइयों और कतआत के रचयिता फ़िराक साहब को उनके सैंकड़ों शेरों जो अब क्लासिक का दर्ज़ा पा चुके हैं के कारण बरसों बरस याद रखा जायेगा। एक नयी उर्दू ज़बान को को अपनी ग़ज़लों में ढालने वाले फ़िराक आखिर 3 मार्च 1982 को इस दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत फरमा गए। फ़िराक उर्दू साहित्य की वो शख़्शियत थे जिसकी भरपाई आने वाले सालों में तो नामुमकिन लगती है. उनके साथ के और बाद के शायरों ने फिर वो भारत के हों या पाकिस्तान के उनकी स्टाइल को खूब कॉपी किया है। पाकिस्तान के लोकप्रिय शायर 'नासिर काज़मी' फ़िराक साहब के बहुत बड़े दीवाने थे।
भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शर्मा रहा हूँ
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ
'सरगम' जिसे राजपाल एन्ड सन्स 1590 मदरसा रोड कश्मीरी गेट दिल्ली -6 ने प्रकाशित लिया था को आप उनसे 011-23869812 पर फोन करके मंगवा सकते हैं , ये किताब अमेजन पर ऑन लाइन भी उपलब्ध है। इसमें आपको फ़िराक साहब की कुछ ऐसी ग़ज़लें भी पढ़ने को मिलेंगी जो अमूमन कहीं पढ़ने को नहीं मिलती। कुछ ग़ज़लों में तो 15-20 से भी ज्यादा शेर हैं। इन ग़ज़लों को पढ़ते हुए आप फ़िराक साहब को बहुत अधिक तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत समझ सकते हैं। उन्हें समझने के लिए आपको उनकी सारी याने हिंदी अंग्रेजी और उर्दू में लिखी किताबें पढ़नी पड़ेंगी तब कहीं जा के हो सकता है की आपको उनके लेखन की गहरायी का अंदाज़ा हो पाए। लीजिये आखिर में पेश है फ़िराक साहब की एक बहुत मशहूर ग़ज़ल जिसे ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह और उनकी पत्नी चित्रा सिंह ने गा कर अमर कर दिया ,के ये शेर :
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
तबियत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं
खुद अपना फ़ैसला भी इश्क में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-11-2018) को "छठ माँ का उद्घोष" (चर्चा अंक-3154) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Waaaaaaaaah...bahut khoob...Neeraj sahib laajwaab andaaz ... shukriya, badhai air shubhkaamnaaye ...Raqeeb
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब आदरणीय
ReplyDeleteआने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
ReplyDeleteजब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने 'फ़िराक़' को देखा है
इस तरह का शेर शायद ग़ालिब के बाद फ़िराक ने ही कहा है आलोचक इसमें खुदपसंदी की इंतेहा खोज सकते हैं. आत्ममुग्धता के, घमंडीपन के इल्ज़ाम लगा सकते हैं. ऐसे इल्ज़ाम सच के कितने करीब होंगे हम नहीं जानते. हम बस इतना जानते हैं कि ये अल्फाज़ आगे चलकर हकीकत . वाकई दुनिया उन लोगों पर रश्क करती है, जिन्होंने फ़िराक़ गोरखपुरी को देखा. उनका कलाम उनके सामने बैठकर सुना. उनसे गुफ्तगू की. उस महफ़िल में हाज़िरी लगाई जहां वो मौजूद रहे
मशहूर शायर निदा फाज़ली उन्हें उर्दू शायरी की दुनिया में ग़ालिब और मीर के बाद तीसरे पायदान पर रखते हैं. निदा साहब कहते हैं,
“ग़ालिब अपने युग में आने वाले कई युगों के शायर थे. अपने युग में उन्हें इतना नहीं समझा गया, जितना बाद के युगों में पहचाना गया. हर बड़े दिमाग़ की तरह वह भी अपने समकालीनों की आंखों से ओझल रहे. ऐन यही बात फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में कही जा सकती है.”
नीरज जी का तहेदिल शुक्रिया की इस महान शायर की किताब और उनके जीवन के विषय में इतना कुछ जानने को मिला
fraq gorkhpuri bada shair shaandaar tabsara waaah waaah
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