Monday, August 27, 2018

किताबों की दुनिया - 192

उसके रंग में रँगे लौट आये हैं घर
 घर से निकले थे रँगने उसे रंग में
 ***
हो ज़रा फ़ुर्सत तो मुझको गुनगुना लो
 प्रेम का मैं ढाई आखर हो गया हूँ
 ***
जो तुम कहो तो चलें ,तुम कहो तो रुक जाएँ 
 ये धड़कने तो तुम्हारी ही सेविकाएं हैं
 ***
किताब उलटी पकड़ कर पढ़ रहे हो देर से काफ़ी
 तुम्हें बतलाएँ बरख़ुरदार आओ, इश्क का मतलब
 ***
किसी का ज़ुल्फ़ से पानी झटकना
 इसी का नाम बारिश है महोदय
 ***
वस्ल की रात था जिस्म ही जिस्म
 बस उसको ओढ़ा, उसे ही बिछाते रहे
 ***
यकायक आ गया था शहर उनका रास्ते में
 उसी दिन से जुदा हम हो गए हैं कारवाँ से
 ***
मिलन को मौत आखिर कैसे कह दूँ
 नदी सागर से मिलने जा रही है
 ***
यूँ सारी रात बरसोगे तो प्यासा मर ही जाएगा
 किसी प्यासे पे ज्यादा बरस जाना भी समस्या है
***
किया न वादा कोई आज तक कभी पूरा 
 तुम्हारे वादे तो सरकारी घोषणाएँ हैं

 आज हम बात करेंगे इश्क की। अब ये इश्क़ मजाजी (शारीरिक) है या इश्क़ हक़ीक़ी(ईश्वरीय ) ये आप तय करें वैसे साई बुल्लेशाह इश्के मजाजी को इश्के हकीकी से जोड़ने वाला पुल कहते हैं। !!खैर आप माने न माने ये जो दुनिया है न ये चल ही इश्क के बूते पर रही है। अगर नफ़रत के बूते पर चल रही होती तो कब की खत्म हो गयी होती। ये इश्क ही है जो हर हाल में इसे चलाये रखने की ताकत रखता है। अब अगर आपने किसी से पूछ लिया कि ये इश्क़ है क्या तो पहले जवाब देने वाला आपको ऐसे घूरेगा जैसे आप किसी और ग्रह के प्राणी हैं और फिर जो जवाब देगा उसे सुनकर आपको लगेगा कि इस से तो अच्छा था मैं ये सवाल पूछता ही नहीं। जितने मुंह उतनी बातें। ज्यादातर जवाब देने वाले तो आपको हिक़ारत की नज़र से देखते हुए अपनी कमीज़ या कुर्ते का कॉलर उठाते हुए कहेंगे "तुमने इश्क़ का नाम सुना है , हमने इश्क़ किया है " और फिर टेढ़ी मुस्कान फेकेंगे लेकिन बताएँगे नहीं कि इश्क है क्या ?
हकीकत में इश्क किया नहीं जाता, इश्क जिया जाता है. दरअसल 'इश्क' अंधों का हाथी है। इसका पूर्ण स्वरुप शायद ही किसी ने देखा हो, जिस अंधे ने इस हाथी का जो हिस्सा पकड़ा उसने हाथी को वैसा ही परिभाषित कर दिया।

 वस्ल की शब कोई बतलाए शुरू क्या कीजिए 
 जम गया हो जब रगों का भी लहू क्या कीजिए 

 वक्त-ए-रुख़सत कह रहे हैं 'आज कुछ भी मांग लो '
 और मैं हैरत में हूँ अब आरज़ू क्या कीजिए 

 उसकी आँखों से मेरे हाथों पे क़तरा था गिरा 
 उम्र भर फिर ये हुआ कि अब वुज़ू क्या कीजिए 

 बहुत कम लोग दुनिया में ऐसे हुए हैं जिन्होंने शायद इश्क को उसके पूरे वुज़ूद में देखा है ,यहाँ सभी का नाम लेना मुमकिन नहीं और न ही हमारा ये मक़सद है। हमारा तो काम है किताब की चर्चा करना और आखिर में हम वो ही करने वाले हैं लेकिन उसे करने से पहले सोचा चलो इश्क पे कुछ चर्चा हो जाए क्यूंकि हमारी आज की किताब का विषय भी इश्क़ है। तो बात शुरू करते हैं संत कबीर से। कबीर से ज्यादा सरल और सीधी बात और कोई करने वाला मिलेगा भी नहीं और उनकी बात तो आप पत्थर पे लकीर समझ लें। कबीर दास जी कहते हैं कि "घड़ी चढ़े घड़ी उतरे वो तो प्रेम न होय , अघट प्रेम ही ह्रदय बसे प्रेम कहिये सोय !!" अब आप मुझसे इसका मतलब मत पूछना अगर कबीर दास जी की बात भी समझानी पड़े तो फिर हो ली इश्क़ पे चर्चा। वैसे बहुत गहरी बात कह गए हैं कबीर दास जी और ऐसी बात यकीनन कोई अँधा नहीं कह सकता।

 ख़लाओं पर बरसती हैं न जाने कब से बरसातें 
 मगर फिर भी ख़लाओं का अँधेरा है कि प्यासा है

 सुनहरी बेलबूटे-सा जो काढ़ा था कभी तूने 
 बदन पर अब तलक मेरे तेरा वो लम्स ज़िंदा है 

 कोई पुरकैफ़ खुशबू तल्ख़-सी आती रही शब भर 
 गली में नीम के फूलों का मौसम लौट आया है

 ग़ज़लों में नीम के फूलों की अक्सर बात नहीं की जाती बल्कि शहर में रहने वाले तो शायद जानते भी न हों कि नीम के फूलों की खुशबू कितनी मदहोश कर देने वाली होती है। शायरी में नीम के फूलों का प्रयोग वही कर सकता है जिसने इसका अनुभव किया हो। इश्क़ भी नीम के फूलों सा ही होता है सबसे अलग -जिसके बारे में सुना भले ही सब ने हो अनुभव कम ही किया होगा। प्रेम या इश्क के बारे में ईशा फाउंडेशन के सद्गुरु ने कहा है कि " मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है। अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।"

 एक लम्हा बस वही है और बाकी कुछ नहीं
ज़िन्दगी सारी अलग और वस्ल का लम्हा अलग 

 इश्क के बीमार पर सारी दवाएँ बेअसर 
 चारागर उसकी दवा का है जरा नुस्ख़ा अलग

 चलते-चलते आपने देखा था हमको बस यूँही 
 शहर में उस दिन से अपना हो गया रुतबा अलग 

 प्रेम की बात हो और ओशो याद न आएं ऐसा हो नहीं सकता , लोग उनके पक्ष में हों या विपक्ष में इस से हमें कोई लेना देना नहीं लेकिन जो उन्होंने कहा है उसे पढ़ लेने में कोई हर्ज़ नहीं वो कहते हैं कि " प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा। " वो आगे कहते हैं " जहां प्रेम केवल देना है, वहां वह शाश्वत है, वहां वह टूटता नहीं। वहां कोई टूटने का प्रश्न नहीं, क्योंकि मांग थी ही नहीं। आपसे कोई अपेक्षा न थी कि आप क्या करेंगे तब मैं प्रेम करूंगा। कोई कंडीशन नहीं थी। प्रेम हमेशा अनकंडीशनल है। कर्तव्य, उत्तरदायित्व, वे सब अनकंडीशनल हैं, वे सब प्रेम के रूपांतरण हैं।प्रेम केवल उस आदमी में होता है जिसको आनंद उपलब्ध हुआ हो। जो दुखी हो, वह प्रेम देता नहीं, प्रेम मांगता है, ताकि दुख उसका मिट जाए.

 कह रहे हैं आप हमसे इश्क़ करना छोड़ दो 
 साफ़ ही कह दो कि जीने की तमन्ना छोड़ दो 

 इश्क़ है तो क्या हुआ सोने न देंगे चैन से ? 
आप ख़्वाबों में मेरे आकर टहलना छोड़ दो 

 दिल मचल बैठा तो जाने क्या ग़ज़ब हो जायेगा 
 डाल कर पाज़ेब सीढ़ी से उतरना छोड़ दो 

 तो जैसा अभी मैंने आपको बताया कि आज की किताब इश्क़ पर लिखी ग़ज़लों की किताब है जिसमें कोई ज्ञान नहीं बघारा गया कोई दार्शनिकता नहीं प्रदर्शित की गयी बल्कि पासबाने-अक़्ल याने अक़्ल के चौकीदार को दिल से जरा दूर बैठा दिया गया है। मामला इश्क़ का है इसलिए वहां अक़्ल का वैसे भी क्या काम ? देखा गया है कि इंसान ने जो जो काम अक़्ल से किये हैं उनसे उसे दुःख ही अधिक मिला है और जो जो काम दिल से किये गए हैं उनसे ख़ुशी। किताब है जनाब पंकज सुबीर द्वारा लिखित और शिवना प्रकाशन -सीहोर द्वारा प्रकाशित "अभी तुम इश्क़ में हो " जिसने सन 2018 के पुस्तक मेले में लगभग सभी ग़ज़ल प्रेमी और खास तौर पर इश्क़ में पड़े खुशकिस्मत लोगों को अपनी और आकर्षित किया और देखते ही देखते इसके 2 संस्करण 4 दिन में बिक गए। कॉफी टेबल बुक के अंदाज़ में छपी गुलाबी रंग की इस किताब के अब तक चार पांच संस्करण तो बाजार में आ चुके हैं और बिक्री अभी जारी है। इस किताब में छपी कुछ ग़ज़लों को तो प्रसिद्ध गायकों ने गाया भी है.


   भले अपने ही घर जाना है पर भूलोगे रास्ता 
 किसी को साथ में रक्खो, अभी तुम इश्क़ में हो 

 नहीं मानेगा कोई भी बुरा बिलकुल जरा भी 
 अभी तुम चाहे जो कह दो, अभी तुम इश्क़ में हो 

 कोई समझा बुझा के राह पर फिर ले न आये 
 किसी के पास मत बैठो, अभी तुम इश्क़ में हो 

 वो परसों भी नहीं आया नहीं आया वो कल भी
 गिनो मत, रास्ता देखो, अभी तुम इश्क़ में हो

 "पंकज सुबीर" ग़ज़लकार नहीं हैं और इस बात को वो खुद भी सरे आम कहते हैं. हालाँकि उनके द्वारा ब्लॉग पर निरंतर चलाये जाने वाली ग़ज़ल की कक्षाओं से हम जैसे बहुत से ग़ज़ल प्रेमियों ने ग़ज़ल की बारीकियां सीखीं और कुछ कहने लायक हुए। मूल रूप से वो कहानी उपन्यास और सम्पादन जैसे क्षेत्रों से न केवल जुड़े हुए हैं बल्कि इन क्षेत्रों में उन्होंने बहुत नाम भी कमाया है। उनकी उपलब्धियां गिनने बैठो तो ऊँगली अपने आप दाँतों तले आ जाती है। इश्क़ या प्रेम के अनेक रंगों से उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यास में जो चित्र बनाये हैं वो अद्भुत हैं। ऐसे ही चित्र उन्होंने अपनी प्रेम से पगी ग़ज़लों में भी उकेरे हैं। आप उन्हें पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन उनकी रचनाओं को अनदेखा करना संभव नहीं।

 बूँद जैसे शबनम की आंच पर गिरी जैसे 
 जिस्म में उठीं लहरें हो कोई नदी जैसे

 वस्ल की कहानी है मुख़्तसर-सी बस इतनी 
 अंजुरी में भर-भर कर चांदनी हो पी जैसे 

 सुन के रेल की सीटी याद आयी 'पाकीज़ा' 
 चलते-चलते कोई हो मिल गया यूँ ही जैसे
 (सन्दर्भ :यूँ ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते चलते ) 

 पंकज जी को मैं सं 2006 से ब्लॉग के माध्यम से जान पाया। उनका सीहोर, जो भोपाल और इंदौर के मध्य है, में निजी व्यसाय है, वो बच्चों को कम्प्यूटर की शिक्षा देने के लिए खोले गए एक संस्थान को चलाते हैं और साथ ही स्वतंत्र लेखन भी करते हैं । मैंने उनकी रचना प्रक्रिया को करीब से देखा है। अपने लेखन में उन्होंने उत्तरोत्तर प्रगति की है। सबसे बड़ी बात है कि वो साहसी हैं अपनी रचनाओं में वो नए प्रयोग करने से घबराते नहीं इसीलिए उनकी कहानियों और उपन्यासों का कथ्य चौंकाता है। सम्बन्ध निभाने में भी उनका कोई सानी नहीं हाँ वो थोड़ा मूडी जरूर हैं, जो हर रचनाकार कम -ज्यादा होता ही है, अपने इस मूड की वजह से कुछ लोग उनसे ख़फ़ा भी हो जाते हैं.पिछले 12 वर्षों में मैं उन्हें जितना जान पाया हूँ उसे व्यक्त करना यहाँ संभव नहीं है क्यूंकि ये पोस्ट शुद्ध रूप से उनकी किताब के बारे में है उनके बारे में नहीं है ,हाँ उनकी उपलब्धियों को जरूर गिनाना चाहूंगा।

 अब तुम्हारा काम क्या वो आ गए
 तख़्लिया ऐ चाँद, तारों तखलिया

 आबे-ऐ-ज़मज़म की किसे दरकार है 
 हमने तेरी आँख का आंसू पिया 

 आपने कल का किया वादा है पर 
 वादा अब तक कौन सा पूरा किया 

 उन्हें मिले सम्मानों /प्रुस्कारों में उनके कहानी संग्रह "चौपड़ें की चुड़ैलें "को राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान, "महुआ घटवारिन और अन्य कहानियां" किताब को लंदन के हॉउस ऑफ कॉमन्स में अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' , उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं तो नहीं " को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'नवलेखन पुरूस्कार' , इंडिपेंडेंट मीडिया सोसाइटी (पाखी पत्रिका ) द्वारा स्व. जे.सी.जोशी शब्द साधक जनप्रिय सम्मान, मध्य्प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन द्वारा ' वागीश्वरी पुरूस्कार' , समग्र लेखन हेतु 'वनमाली कथा सम्मान' ,समग्र लेखन हेतु 53 वां 'अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान' आदि प्रमुख हैं।उन्हें केनेडा और अमेरिका की साहित्यिक संस्थाओं ने अपने यहाँ बुला कर सम्मानित किया है। उनकी कहानी 'दो एकांत' पर बनी फीचर फिल्म 'बियाबान' देश विदेश में होने वाले फिल्म समारोहों में पुरुस्कृत हो चुकी है , इस फिल्म के गीत भी पंकज जी ने लिखे थे। उनकी कहानी 'कुफ्र' पर एक लघु फिल्म भी बन चुकी है। सबसे बड़ा सम्मान तो उनके असंख्य पाठकों द्वारा उन्हें दिया गया प्यार है जिसे आप उनके साथ गुज़ारे कुछ ही पलों में अनुभव कर सकते हैं।

 ये जो कोहरे-सा है बिछा हर सू 
 इसमें ख़ुद को ज़रा समाने दो 

 उँगलियों की है इल्तिज़ा बस ये 
 चाँद के कुछ क़रीब आने दो 

 होंठ बरसेंगे बादलों जैसे 
 तुम अगर आज इनको छाने दो 

 अगर आपको पंकज जी के लेखन की बानगी देखनी है तो इस किताब को पढ़ें क्यूंकि इसमें उनकी लगभग 55 ग़ज़लों के अलावा 14 प्रेम गीत और 7 अद्भुत प्रेम भरी कहानियां भी शामिल हैं। यूँ समझें की ये किताब 'प्रेम' की कॉम्बो डील है।हो सकता है कि इस किताब को पढ़ कर गंभीर शायरी के प्रेमी अपनी नाक-भौं सिकोड़ें लेकिन जो दिल से जवाँ हैं ,इश्क़ कर रहे हैं या इश्क़ करने में विश्वास रखते हैं वो जरूर खुश हो जायेंगे और ऐसे लोगों से निवेदन है कि अगर आपके पास ये किताब नहीं है तो तुरंत इसे मंगवाने का उपक्रम करें। पहली बार हार्ड बाउंड में छपी ये किताब अब पेपर बैक में भी आसानी से मिल सकती है। इसके लिए आप अमेज़न की ऑन लाइन सेवा का उपयोग करें या इस किताब के प्रकाशक 'शिवना प्रकाशन' को shivna.pra kashan@gmail.com पर मेल करें, शिवना प्रकाशन के जनाब 'शहरयार' भाई से 9806162184 पर संपर्क करें और साथ ही साथ पंकज जी को इन ग़ज़लों के लिए बधाई देने के लिए 9977855399 पर निःसंकोच संपर्क करें। समय आ गया है कि अगली किताब की खोज के लिए निकला जाय तब तक आप पढ़ें उनकी ग़ज़ल ये शेर :

 इसे पुकारा, उसे पुकारा, बुलाया इसको , बुलाया उसको 
उमीद लेकर खड़ा हूँ मैं भी कभी तो मेरा भी नाम लेगा

 उठा के नज़रें तो देखिये जी खड़ा है कोई फ़क़ीर दर पर
 लुटा भी दो हुस्न का ख़ज़ाना ये आज है कल कहाँ रहेगा 

 दुआओं में बस ये मांगता हूँ ज़रा ये परदा उठे हवा से 
 अगर वो सुनता है जो सभी की कभी तो मेरी भी वो सुनेगा

 यूँ तो मैं चला ही गया था लेकिन दरवाज़े से वापस लौट आया , मुझे याद आया कि उनकी एक ग़ज़ल के शेर जो मैंने सोचा था कि आपको पढ़वाऊंगा वो तो लिखना ही भूल गया। पहले सोचा कि कोई बात नहीं अब कितनी ग़ज़लों से कितने शेर आपको पढ़वाऊं लेकिन मन नहीं माना सो अब ये शेर पढ़वा कर पक्का जा रहा हूँ - यकीन कर लें।

 होंठों से छू लो अगर तुम धूप से झुलसे बदन को 
 बर्फ-सी हो जाय ठंडी , गर्मियों की ये दुपहरी 

 हर छुअन में इक तपिश है ,हर किनारा जल रहा है 
 है तुम्हारे जिस्म जैसी , गर्मियों की ये दुपहरी 

 अब्र-सा सांवल बदन उस पर मुअत्तर-सा पसीना 
 हो गयी है बारिशों-सी ,गर्मियों की ये दुपहरी

Monday, August 20, 2018

किताबों की दुनिया -191

नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उसको न देखा हो 
 कन्हैया से नहीं कुछ कम सनम मेरा वो हरजाई 

 मुहब्बत के करूँ भुजबल की मैं तक़रीर क्या यारो 
 सितम हो तो उसको उठा लेता है ज्यूँ राई 

 झंकाया था मुझे ज़ाहिद ने कूचा रंजे-दुनिया का 
 मुगां ने राहते-दुनिया की मुझको बात बतलाई 
 झंकाया=दिखाया, मुगां= साक़ी 

 पर इस से क्या कि तेरी ज़ुल्फ़ ने आरिज़ ने आँखों ने 
 पियारे बाँट ली बाहम मेरी आँखों की बीनाई 
 आरिज़=गाल, बाहम =आपस में 

 इंग्लैंड के प्रसिद्ध लेखक जनाब एच जी वेल्स ने सं 1895 में एक उपन्यास लिखा था जिसका नाम था "द टाइम मशीन " इसमें एक ऐसी मशीन का जिक्र था जिसमें बैठ कर आप अपने वर्तमान समय से पीछे या आगे के समय में जा सकते हैं। मुझे इस मशीन की कब से तलाश थी जो आज सुबह घूमते हुए मुझे एक कूड़ा पात्र में पड़ी मिली। किसने कब और क्यों इस मशीन को वहां फेंका इसका पता नहीं चल पाया। मैं तो देखते ही पहचान गया क्यूंकि टाइम मशीन उपन्यास को मैंने बचपन से अब तक न जाने कितनी बार पढ़ा होगा।मैंने फ़ौरन मशीन उठाई और उसे घर ले जाने लगा ,पार्क में घूम रहे लोग मेरी इस हरकत पे ठहाके लगाने लगे। मूर्ख अक्सर समझदार लोगों की हरकतों पर ठहाके लगाते ही हैं, ये कोई नयी बात तो है नहीं। घर आकर मशीन साफ़ की कुछ ढीले पेच कसे पुर्ज़ों में तेल दिया , सीट पर बैठा और स्टार्ट बटन दबा दिया।

 निकलके चौखट से घर की प्यारे जो पट के ओझल ठिठक रहा है 
 समट के चट से तेरे दरस को नयन में जियरा अटक रहा है 
 समट =सिमट 

 जिन्हों की छाती से पार बरछी हुई है रन में वो सूरमा है 
 बड़ा वो सावंत मन में जिसके बिरह का कांटा खटक रहा है 
 जिन्हों की =जिनकी 

 मुझे पसीना जो तेरे मुख पर दिखाई दे है तो सोचता हूँ 
 ये क्यों कि सूरज की जोत आगे हर एक तारा छिटक रहा है 

 बटन के दबते ही खट खट खटाक की आवाज़ें आयीं एक पंखा बहुत तेज़ी से घूमा और उसके बाद मुझे कुछ याद नहीं जब होश आया तो देखा मैं एक बाग़ में गिरा पड़ा हूँ कुछ लोग मुझे हैरत से देख रहे हैं और आपस में खुसुर-पुसुर कर रहे हैं। मैंने मरियल सी आवाज़ में पास ही खड़े लम्बी सफ़ेद दाढ़ी और अजीब सी कीमती पगड़ी पहने हुए एक बुजुर्गवार से पूछा कि मैं कहाँ हूँ तो वो मुस्कुराते हुए बोले " मियां तुम लखनऊ में हो नवाब आसफुद्दौला के महल के बाग़ में। "लखनऊ ? नवाब आसफुद्दौला ? मैंने हैरत से कहा लेकिन मन ही मन खुश भी हुआ कि टाइम मशीन काम कर रही है ,शायद जोश और ख़ुशी में मुझसे ही कोई गलत बटन दब गया होगा वरना मेरा इरादा लखनऊ वो भी आसफ़ुद्दौला के समय ,याने सन 1777 के आसपास, में आने का तो कतई नहीं था।

 आदम का जिस्म जबकि अनासिर से मिल बना 
 कुछ आग बच रही थी सो आशिक का दिल बना
 अनासिर -तत्व 

 जब तेशा कोहकन ने लिया हाथ तब ये इश्क़ 
 बोला कि अपनी छाती पे धरने को सिल बना
 तेशा =पत्थर काटने का हथियार, कोहकन =फ़रहाद 

 अपना हुनर दिखाएंगे हम तुझको ए शीशागर 
 टूटा हुआ किसी का अगर हम से दिल बना 

 मैंने फक्कड़ से उन बुजुर्गवार से पूछा कि अगर ये 1777 के आसपास का वक्त है तो मियां मीर तकी मीर साहब का आपको कुछ पता है ? अब साहब मीर का नाम सुनना था की बुजुर्गवार के मुंह से फर्राटे से गालियां निकलने लगीं वो भी ऐसी कि अगर उन्हें यहाँ लिख दूँ आप यकीनन मुझे ढूंढते हुए मारने पहुँच जाएँ। गुस्से से कांपते और मुझे गालियाँ देते वो अपनी छड़ी पकडे तुरंत चले गए। उनके वहां से जाते ही पास खड़े एक बुजुर्ग ने धीरे से मेरे कान में कहा ये क्या जुल्म कर दिया मियां इनके सामने मीर का नाम क्यों लिया ? दोनों आपस में एक दूसरे की शक्ल तक नहीं देखते और एक दूसरे पर गालियों की वो बौछार करते हैं कि सुनने वाला कानों पे हाथ धर ले। सच तो ये है कि मीर साहब ने इन्हें अपने बराबर का शायर माना है लेकिन इन्होने अपनी क़ाबलियत का बड़ा हिस्सा लोगों पर कीचड़ उछालने और गालियां देने में खर्च कर दिया। " शायर ? ये जनाब शायर हैं?" - मैंने कहा। "जी हाँ कमाल के शायर हैं आपने इनका नाम नहीं सुना ? ' जी नहीं - मैंने कहा -क्या नाम हैं इनका ? जवाब मिला -मिर्ज़ा 'सौदा'

 क्या हुस्नो-इश्क में अब बिगड़ी है बेतरह से 
 तीरे-निगह तो वां हैं यां बर्छियाँ हैं आहें 

 आवे वो सैर करने इक बार जो चमन में
 गुल आसमाँ पे अपनी फेंकें सदा कुलाहें 
 कुलाहें =टोपियां 

 उस दिल में गो हमारी उल्फ़त नहीं रही अब 
 अपनी तरफ से ऐ दिल हम तो भला निबाहें 

 टुक मेह्र दे खुदाया काफ़िर बुतों के दिल में
 या आशिकों के जी से खो दे उन्हों की चाहें
 टुक=थोड़ी, मेह्र=रहम, उन्हों की =उनकी 

 मैंने बुजुर्गवार से दरख़्वास्त की कि मुझे 'सौदा' के बारे में बताएं क्यूंकि मैंने उनका नाम भले ही कहीं सुना हो लेकिन उनके बारे में कहीं कुछ पढ़ा नहीं है। वो मुझे एक पेड़ के नीचे लेकर बैठ गए। मशक से पानी पिलाया खाने को गुड़ धानी दी और बोले कि मिर्ज़ा मोहम्मद रफ़ी "सौदा" के बुजुर्ग काबुल के रहने वाले थे और सिपाही पेशा थे। अच्छा इज़्ज़तदार खानदान था। उनके पिता मिर्ज़ा मुहम्मद शफी व्यापार के सिलसिले में दिल्ली आये और यहीं बस गए। दिल्ली में ही सौदा का जन्म 1713 में हुआ, उनका लालन-पालन शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में ही हुई , मीर साहब के मामू खान आरज़ू और शाह हातिम जैसे शायर उनके उस्ताद थे। मिर्ज़ा पहले फ़ारसी में लिखा करते थे खान आरज़ू के कहने पर ही उन्होंने से फ़ारसी छोड़ उर्दू सीखी और फिर उर्दू में ही कहने लगे। वो खानदानी रईस थे। जवानी मस्ती में काट रहे थे कि दिल्ली पर मराठाओं ने हमला कर दिया तो जनाब फर्रुखाबाद चले गए और बहुत से साल वहीँ शायरी करते हुए गुज़ारे।

 सब्रो-आराम कहूं या कि मैं अब होशो-हवास
 हो गया उसकी जुदाई में जुदा क्या क्या कुछ 

 जौफ़-ओ-नाताकती-ओ-सुस्ती-ओ-एज़ाशिकनी 
 एक घटने में जवानी के बढ़ा क्या क्या कुछ 
 जौफ़-ओ-नाताकती-ओ-सुस्ती-ओ-एज़ाशिकनी =कमज़ोरी और बदन टूटना 

 सैर की क़ुदरते-ख़ालिक़ की बुताँ में 'सौदा' 
मुश्त भर ख़ाक में जल्वा है भरा क्या क्या कुछ 
 क़ुदरते-ख़ालिक़ =ईश्वर की लीला , मुश्त =मुठ्ठी 

 बुजुर्ग अपनी रौ में बोले जा रहे थे और मैं सुने जा रहा था कि "आखिर 1771 में सौदा फर्रुखाबाद से फैज़ाबाद होते हुए लखनऊ आ बसे। सौदा एक और तो बहुत मिलने-जुलने वाले और यारबाश आदमी हैं तुनकमिज़ाज ऐसी कि क्या कहा जाय , जिस पर बिगड़ते उसकी सात पुश्तों की खबर ले डालते और ऐसी ऐसी जगहों से बख़िया उधेड़ते कि शर्म से आँखें नीची हो जाएँ। ये हज़रत औरत मर्द लड़का लड़की बूढा बुढ़िया किसी के भी कपडे उतारने से नहीं चूकते और तो और बेज़बान और नासमझ जानवरों घोडा हाथी वैगरह को भी नहीं छोड़ते।" मैंने ये सुनकर कहा कि "बड़े ही अजीब इंसान हैं मिर्ज़ा सौदा, तो बुजुर्गवार बोले कि " सौदा की ज़बान जितनी ज़हरीली है उनका दिल उतना ही बड़ा है वो सच्चे मायने में बड़े शायर ही नहीं बड़े आदमी भी हैं "

 क्या जानिये किस-किस से निगह उनकी लड़ी है
 जिस कूचे में जा देखो तो इक लोथ पड़ी है 
 लोथ =लाश 

 मैं हाल कहूं किससे तेरे अहद में अपना 
रोते हैं कहीं दिल को कहीं जी की पड़ी है 

 ठहरा है तेरी चाल में और जुल्फ में झगड़ा 
 हर एक ये कहती है लटक मुझमें बड़ी है

 'उर्दू' में कसीदे कहने का चलन अगर देखा जाय तो मिर्ज़ा सौदा ने ही शुरू किया। कसीदों के अलावा उन्होंने मर्सिये लिखने में भी महारत हासिल की .मिर्ज़ा सौदा की शायरी में फ़ारसी शब्दों का बहुत कम प्रयोग हुआ है और जो हुआ है वो इतना पुख्ता है कि वो लफ्ज़ आने वाले समय में भी बने रहेंगे "ये बात कह कर बुजुर्गवार चुप हुए और बोले "बरखुरदार इस से पहले की मिर्ज़ा सौदा तुम्हें गिरफ्तार करने नवाब के सिपाही साथ ले कर आयें तुम फ़ौरन यहाँ से निकल लो।" मैंने भी इसी में अपनी भलाई समझी ,टाइम मशीन में बैठा बटन दबाया तो लिखा आया सन ---? मैंने फ़ौरन 2018 टाइप किया, पंखा तेजी से घूमा खट खट खटाक की आवाज़ हुई और उसके बाद तेज़ झटका सा लगा होश आया तो मैं अपने घर पे अपने बिस्तर पे था. किसी तरह की कोई टाइम मशीन वहां नहीं थी। मुझे लगता है ये सब सपना ही था। शायद मिर्ज़ा सौदा चाहते थे कि मैं उनके बारे में लिखूं ,तभी ये सब कुछ हुआ।

 आलूदा -जि-कतराते-अरक़ देख जबीं को 
अख़्तर पड़े झांके हैं फ़लक पर से जमीं को
 आलूदा -जि-कतराते-अरक़ देख जबीं को =लज्जा से माथे पे आये पसीने को देख कर , अख़्तर=तारे 

 आता है तो आ शोख़ कि मैं रोक रहा हूँ 
 मानिंदे-हुबाब अपने दमे-बाज़पसीं को 
 मानिंदे-हुबाब =बुलबुले की तरह , दमे-बाज़पसीं=आखरी सांस 

 मतलब के मेरे अर्ज़ पे इक बार भी 'सौदा'
 'हाँ' ने न छुड़ाया कभी उस लब से 'नहीं' को 

 होश में आते ही मैंने सौदा की शायरी तलाशने की कोशिश की नतीजतन मुझे राजपाल एन्ड संस् दिल्ली से प्रकाशित 'उर्दू के लोकप्रिय शायर' श्रृंखला के अंतर्गत छपी "सौदा -जीवनी और संकलन " किताब हाथ लगी। आज उसी किताब की ग़ज़लों से कुछ अशआर आपके सामने रख रहा हूँ। ये किताब अब शायद उपलब्ध नहीं है।हिंदी में सौदा को पढ़ने के लिए आपको रेख़्ता की वेबसाइट पर जाना होगा। सौदा की ग़ज़लों में करुणा का पक्ष लगभग नहीं है कारण चाहे उनका मुग़ल बच्चा होना हो ,दरबारियों और सामंत वर्ग के साथ उठना-बैठना हो, प्रेम का वास्तविक अनुभव न होना हो आदि दूसरे उनकी ग़ज़लों में सूफ़ीवाद का प्रभाव न के बराबर है फिर भी सौदा की ग़ज़लों का अपना महत्त्व है और उर्दू साहित्य में एक विशिष्ठ स्थान है। उनका शब्द चयन अनूठा होता था और उनके विषयों की सादगी भी बहुत मनमोहक हुआ करती थी।


 जाते हैं लोग काफ़िले के पेशो-पस चले
 दुनिया अज़ब सरा है जहाँ आ के बस चले 
 पेशो-पस =आगे पीछे 

 ऐ गुंचा आँखें खोल के टुक तो चमन को देख
 जमईयते-दिली पे तेरी फूल हँस चले 
 जमईयते-दिली = इत्मीनान 

 तेरे सुखन को मैं ब-सरो-चश्म नासेहा 
मानूं हज़ार बार अगर दिल पे बस चले 
 सुख़न=बात , ब-सरो-चश्म=रात-दिन, नासेहा=धर्मोपदेशक 

 एक बात और जो सौदा को बड़ा शायर बनाती है वो है ईहामगोई से परहेज़। ईहामगोई याने दो अर्थ रखने वाले शब्दों का प्रयोग। इस शाब्दिक कलाबाज़ी में कवित्व की हत्या हो जाती है. सौदा के पूर्व के शायरों ने इस कलाबाज़ी का भरपूर प्रयोग किया था जिसे 'सौदा' ने नक़्क़ारे की चोट पर इस खिलवाड़ को ख़तम कर दिया जबकि उनके समकालीन 'मीर' इसके बड़े शौकीन थे । 'सौदा' ने अलंकारों के प्रयोग से पीछा छुड़ाया और बयान को ज्यादा महत्त्व दिया। 'सौदा' अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए एक काम करते थे जिसे आज कोई पसंद नहीं करता वो है मुश्किल से मुश्किल रदीफ़-काफियों में शेर कहना, इसके लिए बड़ी प्रतिभा और अभ्यास की जरुरत होती है लेकिन ये भी है तो कलाबाज़ी ही.

 जौहर को जौहरी और सर्राफ़ ज़र को परखे 
 ऐसा कोई न देखा वो जो बशर को परखे 
 ज़र=सोना 

 जौहर न होवे जिसमें जौहर-शनास कब है 
 जो साहबे -हुनर हो वो ही हुनर को परखे 

 दर्रे-सुख़न को अपने परखाए आदमी से 
 हरगिज़ न कह तू 'सौदा' हर जानवर को, परखे 
दर्रे-सुख़न=काव्य-मुक्ता

  'सौदा' से पहले हिंदी के देशज शब्द अंधाधुंध प्रयोग में लिए जाते थे 'सौदा ' ने इनमें बहुत से खड़खड़ाने वाले शब्द हटा कर फ़ारसी के मीठे शब्द प्रयोग किये।उन्होंने फ़ारसी की उपमाएं रूपक संकेत आदि भी उर्दू में लाने का काम किया जो अभी तक उर्दू काव्य की नींव का काम दे रहे हैं। उर्दू का वर्तमान रूप दरअसल 'सौदा'का ही दिया हुआ है। चलिए अब 'सौदा' की बात को यहीं विराम देते हुए निकलते हैं अगली किताब की तलाश में तब तक आप उनके ये मुख्तलिफ शेर पढ़ें और दाद दें :

 दिल को तो हर तरह से दिलासा दिया करूँ 
 आँखें तो मानती नहीं मैं इसको क्या करूँ
 ***
 ऐ मियां इश्क़ के मारों को कहीं ठौर नहीं 
 दिल नहीं अब्र नहीं आप नहीं और नहीं 
 *** 
मसीहा सुन के उठ जावे जो कुछ कहिये दवा कीजे 
 मुहब्बत सख्त बीमारी है इसको आह क्या कीजे
 *** 
ऐसा ही जाऊं-जाऊं करते हो तो सिधारो 
 इस दिल पे कल जो होगी सो आज ही वो हो ले 
 *** 
हर आन देखता हूँ मैं अपने सनम को शैख़ 
 तेरे खुदा का तालिबे-दीदार कौन है
 तालिबे-दीदार =दर्शन का इच्छुक
 *** 
गैरते-इश्क़ आके ऐ 'सौदा' तू परवानों से सीख 
 शमअ से अपना भी मिलन देख जल जाते हैं ये 
 ***" 
क़ीमत में उनके गो हम दो जग को दे चुके अब
 उस यार की निगाहें तिस पर भी सस्तियाँ हैं
 *** 
बे-इख़्तियार मुंह से निकले है नाम तेरा 
 करता हूँ जिस किसी को प्यारे ख़िताब तुझ बिन
 ख़िताब=सम्बोधन 
 *** 
किस्मत कि मैं दिल अपना किया पीस के सुरमा
 तिस पर भी नहीं चश्म में मंज़ूर किसू के
 *** 
वही जहाँ में रमूज़े-क़लन्दरी जाने 
 भभूत तन पे जो मलबूस-कैसरी जाने 
 रमूज़े-क़लन्दरी=फ़कीरी के रहस्य , मलबूस-कैसरी =राजाओं के वस्त्र

Monday, August 13, 2018

किताबों की दुनिया - 190

 सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
 इलज़ाम आइनों पे लगाना फ़ुज़ूल है

 उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
 कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़ुज़ूल है

 जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफा दिया मुझे
 दुश्मन जरूर है वो मगर बा-उसूल है

 उर्दू गुलिस्तां में एक से बढ़ एक बुलबुले हुई हैं जिनकी शायरी को लोगों ने पसंद तो किया लेकिन याद नहीं रखा। कारण ये रहा कि उन्होंने अपनी शायरी में कमो-बेस वो ही सब कुछ कहा जो की मर्द शायर कह रहे थे। फ़र्क इतना था कि शायर मेहबूबा को लेकर आंसू बहा रहे थे और शायरायें महबूब को लेकर। मुशायरों के मंच पर शायरा को एक सजी धजी गुड़िया के रूप में पेश किया जाता रहा है जो तरन्नुम और अपने हुस्न से सामयीन के दिलों पर कब्ज़ा करने की कोशिश करती थीं। आज भी हालात कुछ कुछ वैसे ही हैं लेकिन आधी आबादी की नुमाइंदगी कर रहीं शायराओं में से कुछ ने अपनी शायरी में उन अहसासात और ज़ज़्बात को पिरोना शुरू किया जो शायर की सोच के बाहर थे। इस सिलसिले में लिए जाने वाले नामों में पाकिस्तान की शायरा परवीन शाक़िर का नाम सबसे ऊपर है उन्होंने शायरी में जो मुकाम हासिल किया है उसकी कोई मिसाल नहीं। आज हमारे यहाँ भी गिनती की कुछ शायरा हैं जिनका कलाम उर्दू शायरी के किसी भी मोतबर शायर के कलाम से कम नहीं आँका जा सकता।

कौन चक्कर लगाए दुनिया के
 कम नहीं होते सात फेरे भी

 मेरी साँसों को जोड़ने वाले
 है तुझे हक़ मुझे बिखेरे भी

 इतनी ज़हरीली साज़िशें होंगी
 डस लिए जायेंगे सपेरे भी

 मेरी आँखों में जागने वाले
 टूट सकते हैं ख़्वाब तेरे भी

 हमारी आज की शायरा भी उसी फेहरिश्त में हैं जिनके कलाम ने सामिईन के दिल में जगह बनाई हुई है लोग उन्हें देखने सुनने को हमेशा मुशायरों में मौजूद रहते हैं। बात सन 1977 के एक मुशायरे की है जब मंच से एक नाम पुकारा जाता है और मंच पर बैठी एक पंद्रह साल की कमसिन सी लड़की माइक के सामने आ खड़ी होती है। उसके चलने और माइक के सामने खड़े होने में उसका अपने आप पर बला का भरोसा नज़र आता है। उसकी उम्र को देखते हुए लोग उसे बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देते लेकिन इस बात की परवाह न करते हुए वो अपना गला साफ़ कर तरुन्नम में अपना कलाम पढ़ती है. लोग हैरान हो जाते हैं और उनकी सारी तवज्जो अब उस लड़की के कलाम पर हो जाती है। तालियां हैं कि थमने का नाम नहीं लेती। उस मुशायरे में जिस लड़की ने उर्दू अदब में अपनी शिरकत करने का ऐलान सरे आम कर दिया था उसका नाम है "अंजुम रहबर " जिनकी किताब "मलमल कच्चे रंगों की " मेरे सामने है।


 कहीं रास्ते में उसने मेरा हाथ छू लिया था
 तो कलाइयों के कंगन कई रोज़ खन-खनाये

 तुझे क्या खबर कि मैंने शबे हिज़्र कैसे काटी
 कभी नाविलें पढ़ी हैं कभी गीत गुनगुनाये

 मेरी इक तमन्ना 'अंजुम' कभी हो सकी न पूरी
 कि मैं उससे रूठ जाऊँ मुझे आके वो मनाये

 "अंजुम रहबर" मध्य प्रदेश के गुना जिले में 17 सितम्बर 1962 को पैदा हुईं। पढ़ने में होशियार अंजुम ने उर्दू में एम्. ऐ की डिग्री हासिल की। अंजुम जैसे शायरी के लिए ही पैदा हुई हैं। 1977 से आज तक याने लगभग 40 वर्षों से लगातार उनकी मंच पर मौजूदगी किसी भी मुशायरे की कामयाबी मानी जाती है। कारण जानना बहुत आसान है उन्हें सुन कर ही आपको उनकी सफलता का राज़ पता चल जायेगा। दरअसल अंजुम रहबर के गीतों और ग़ज़लों की भाषा सरल और स्पष्ट है जिसे हिन्दी का आम पाठक श्रोता भी आसानी से समझ सकता है।

मेरी आँखों तुम्हें रोने का सलीका भी नहीं
 रोज दरियाओं में सैलाब नहीं आते हैं

 कुछ तो दुनिया ने यहाँ मौत बिछा रक्खी है
 कुछ हमें जीने के आदाब नहीं आते हैं

 ये भी इक किस्म का संगीन मरज़ है 'अंजुम'
 नींद आती है मगर ख़्वाब नहीं आते हैं

 उनकी सभी रचनायें जीवन और जगत के विभिन्न रस-रंगों, सुख-दुख, दर्द और आनन्द की लहरों में अविरल गतिमान रहती हैं तथा हर आम और हर खास इंसान को उसकी हकीकत से रुबरु कराती हैं। यह जज़्बाती पाकीज़गी के साथ मुहब्बत का अहसास कराती हुई चलती है। इस किताब के बारे में बशीर बद्र लिखते हैं कि " ग़ज़लों की ये किताब शायरी की शानदार कद्रों का बेहतरीन नमूना है, जिसमें बोली जाने वाली सादा और तहदार ज़बान में उनका फन गज़ल की खूबसूरत ज़िन्दा रिवायतों और सच्ची जिद्दतों के मिले-जुले रंगों से वुजूद में आया है। हमारे अहद की शायरात की शायरी की तारीख़ इस किताब के ज़िक्र के बग़ैर नामुक्कमल रहेगी "

 तूफ़ान पर लिखे थे मेरे दोस्तों के नाम 
 कश्ती को साहिलों की तरफ मोड़ना पड़ा 

 मेरी पसंद और थी सबकी पसंद और 
 इतनी ज़रा सी बात पे घर छोड़ना पड़ा 

 'अंजुम' मैं क़ैद जिस्म की दीवार में रही 
 अपने बदन से अपना ही सर फोड़ना पड़ा 

 अंजुम की बढ़ती लोकप्रियता से प्रभावित हो कर उस काल में बहुत सी शायराओं ने उनके जैसी बनने की कोशिश की। आप यूँ समझें कि लता मंगेशकर के काल में न जाने कितनी गायिकाओं ने उनके जैसे गाने की कोशिश की है लेकिन लता लता ही रही। लता के पास सुर तो थे ही सबसे बड़ी बात उनके गाने में जो अदायगी थी जो भावनाएं पिरोयी गयीं थीं वो सुनने वाले को अपनी लगती थीं तभी तो वो लता बनी रहीं। आप सुर में उनकी भले नक़ल कर लें लेकिन गायन में वैसे भाव कैसे लाएंगे , ठीक इसी तरह अगर कोई अंजुम जैसी तरन्नुम से या उस से भी बेहतर तरन्नुम से अपनी रचनाएँ सुनाएँ उसको क्षणिक सफलता तो भले ही मिल जाए लेकिन लगातार सफलता नहीं मिल सकती। अंजुम साहिबा के पास बेहतरीन तरन्नुम तो है ही साथ में वो अलफ़ाज़ और अहसासात हैं जो उनके फ़न में चार चाँद लगा देते हैं।

 तन्हाइयों के दोश पे यादों की डोलियाँ 
 जंगल में जैसे निकली हों हिरणों की टोलियां 
 दोश =कंधे 

 कुर्बान मैं तुम्हारे लबों की मिठास पर 
 अंगूर जैसी लगती हैं कड़वी निबोलियाँ 

 यूँ गुदगुदा रहे हैं मेरे दिल को तेरे हाथ 
 आंगन में जैसे कोई बनाये रंगोलियां 

 सन 1988 में उनकी शादी लाज़वाब शायर जनाब राहत इंदौरी साहब से हुई. उनसे उन्हें एक बेटा "समीर राहत" भी हुआ लेकिन ये शादी अधिक टिकी नहीं और 1993 में दोनों अलग हो गये। अंजुम साहब की ज़िन्दगी अब अपने बेटे और शायरी को समर्पित हो गयी। देश-विदेश से उन्हें शिरकत के लिए पैगाम आने लगे और वो शोहरत की बुलंदियों पर जा बैठीं। देश के प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय गोपाल दास 'नीरज' ने उनके बारे में लिखा है कि " अंजुम रहबर की रचनाओं में जहां वैयक्तिक अनुभूतियों की मिठास, कड़वाहट और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का रसपूर्ण मिश्रण है, वहीं आज के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक विकृतियों और विद्रुपताओं की भी मार्मिक अभिव्यक्ति है। निश्चित ही जो भी पाठक इन रचनाओं में झांकेगा उसे अवश्य ही अपना और अपने समाज का कोई न कोई रुप अवश्य दिखाई देगा।’

 बस्ती के सारे लोग ही आतिश परस्त थे 
 घर जल रहा था और समन्दर करीब था 

 दफ़्ना दिया गया मुझे चांदी की कब्र में 
 मैं जिसको चाहती थी वो लड़का ग़रीब था 

 अंजुम मैं जीत कर भी यही सोचती रही 
 जो हार कर गया है बहुत खुश नसीब था 

 अंजुम रहबर साहिबा ने मुशायरों के अलावा टेलीविजन के अनेक चेनल्स जैसे ABP न्यूज ,सब टी.वी ,सोनी पल , ई टी.वी नेटवर्क ,डी डी उर्दू आदि में अपनी रचनाओं का पाठ किया है. उन्हें 1986 में इंदिरा गाँधी अवार्ड ,राम-रिख मनहर अवार्ड साहित्य भर्ती अवार्ड ,हिंदी साहित्य सम्मेलन अवार्ड ,अखिल भारतीय कविवर विद्यापीठ अवार्ड ,दैनिक भास्कर अवार्ड , चित्रांश फ़िराक़ गोरखपुरी अवार्ड और गुना का गौरव अवार्ड से सम्मानित किया गया है। सब से बड़ा अवार्ड तो मंच से उन्हें सुनते हुए बजने वाली वो तालियाँ हैं जो उनके चाहने वाले बजाते नहीं थकते।

 तेरी पलक पे इक आंसू की तरह ठहरी हूँ 
 मैं कहीं ख़ाक न हो जाऊं बचाले मुझको 

 तेरे चेहरे पे नज़र आती है सूरत मेरी 
 अब तुझे देखते हैं देखने वाले मुझको 

 है मोहब्बत की लड़ाई भी मोहब्बत 'अंजुम'
  जब भी जी चाहे वो आ जाये मना ले मुझको 

 अंजुम साहिबा की शायरी मोहब्बत में डूबी हुई शायरी है उन्हें पढ़ते सुनते हुए वही आनंद आता है जो शहद चखते हुए आता है क्यूंकि उसमें पता नहीं चलता की गुलाब चंपा चमेली गुलमोहर रातकी रानी मोगरे का रस कितना और कहाँ घुला हुआ है। मधुमख्खी की तरह वो अलग अलग ज़ज़्बातों के फूलों का रस अपनी शायरी में बहुत हुनर से घोल देती हैं। मशहूर शायर जनाब मुनव्वर राणा साहब लिखते हैं कि " अंजुम रहबर उम्र के उस हिस्से से निकल आई हैं जहां संजीदगी पर हँसी आती है, बल्कि अब उनकी हँसी में भी एक संजीदगी होती है और संजीदगी को जब ग़ज़ल की शाहराह मिल जाती है तो गज़ल इक बाविकार औरत की सहेली बन जाती है। जज़्बात की पाकीज़ा तरजुमानी, लहजे का ठहराव और अश्कों की रौशनाई से ग़ज़ल के हाथ पीले करने के हुनर ने उन्हें सल्तनत-ए-शायरी की ग़ज़लज़ादी बना दिया है। वो जिस सलीके, एहतराम और यकीन के साथ दिलों पर हुकूमत करती हैं, अगर सियासतदां चाहें तो उनसे हुकूमत करने का हुनर सीख सकते हैं .

दिन रात बरसता हो जो बादल नहीं देखा 
 आँखों की तरह कोई भी पागल नहीं देखा 

 तुमने मेरी आँखों के क़सीदे तो लिखे हैं 
 लेकिन मेरा बहता हुआ काजल नहीं देखा 

 उसने भी कभी नींद से रिश्ता नहीं रखा 
 मैंने भी कोई ख़्वाब मुकम्मल नहीं देखा 

 "मलमल कच्चे रंगों की " का प्रकाशन सबसे पहले सं 1998 में रहबर साहिबा ने खुद ही करवाया था बाद में इसे मंजुल प्रकाशन भोपाल से प्रकाशित किया गया। आप इस किताब को जिसमें अंजुम साहिबा की लगभग 63 ग़ज़लें कुर कुछ गीत भी संकलित किये गए हैं, अमेज़न से तो ऑन लाइन मंगवा ही सकते हैं यदि ऐसा न करना चाहें तो मंजुल पब्लिशिंग हॉउस को 'सेकंड फ्लोर, उषा प्रीत काम्प्लेक्स ,42 मालवीय नगर भोपाल-462003 "के पते पर लिख सकते हैं। मंजुल की साइट www. manjulindia.com से भी इसे मंगवाया जा सकता है। अंजुम साहिबा को इस किताब के लिए आप उनके फेसबुक पेज पर जा कर बधाई दे सकते हैं। मेरे पास उनका मोबाईल नंबर नहीं है वरना जरूर देता। नयी किताब की तलाश पे निकलने से पहले मैं पढ़वाता हूँ आपको उनकी कुछ ग़ज़लों से चुने हुए ये शेर :

 पाजेब तोड़ देने में साज़िश उन्हीं की थी
 जो लोग कह रहे हैं कि झनकार भी गई
 ***
अंजुम तुम्हारा शहर जिधर है उसी तरफ
 इक रेल जा रही थी कि तुम याद आ गए
 ***
वो चाह कर भी किसी का शिकार कर न सका 
 वो एक तीर था लेकिन मेरी कमान में था
 ***
रौशनी आँखें जलाकर कीजिये
 चाँद को कब तक निचोड़ा जाएगा
 ***
छुपती कभी नहीं है मोहब्बत छुपाये से
 चूड़ी हो हाथ में तो खनकती जरूर है
 ***
वादा अगर करें तो भरोसा न कीजिये
 खुलकर नहीं बरसते वो बादल हैं लड़कियाँ
 ***
जो बिखरा था कभी सारे जहाँ में
 वो ग़म अब एक औरत बन गया है
 ***
हर क़दम देखभाल कर रखिये
 हादसे बेज़बान होते हैं
*** 
आँखों में मामता है तो घुँघरू हैं पाँव में 
 रक्कासा है कहीं, कहीं मरियम है ज़िन्दगी  

आपके कीमती वक्त को देखते हुए वैसे तो क़ायदे से तो इन फुटकर शेरों के साथ ही बात ख़तम हो जानी चाहिए थी लेकिन साहब कम्बख्त दिल कब क़ायदे मानता है ? तो क़ायदे को बाक़ायदा तोड़ते हुए मैं आपको अंजुम साहिबा की एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वा कर आपसे रुख़सत होता हूँ :

 तेरा फेरा तेरा चक्कर लगेगा 
 न जाने कब मेरा घर, घर लगेगा 

 वो पल भर के लिए आयेगा लेकिन
 संवरने में मुझे दिनभर लगेगा 

 जो है बिक जाने को तैयार 'अंजुम' 
वो कुछ दिन बाद सौदागर लगेगा।

Monday, August 6, 2018

किताबों की दुनिया - 189

रह के दुनिया में है यूँ तर्के-हवस की कोशिश
जिस तरह अपने ही साये से गुरेज़ाँ होना 
 तर्के-हवस=इच्छाओं का त्याग, गुरेज़ाँ =भागना

 ज़िन्दगी क्या है ?अनासिर में ज़हूरे-तरतीब 
 मौत क्या है ? इन्हीं अजज़ा का परीशां होना 
 अनासिर=पंच तत्व , ज़हूरे तरतीब = संगठित होना , अजज़ा =टुकड़ों ,परीशाँ =विघटन 

 दफ़्तरे-हुस्न पे मोहरे-यदे-क़ुदरत समझो 
 फूल का ख़ाक के तूदे से नुमायां होना 
 मोहरे-यदे-क़ुदरत= प्रकृति के हाथ की छाप , तूदे=ढेर 

 दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का 
 वलवलों के लिए मुमकिन नहीं ज़िन्दा होना 
 असीरी=क़ैद , ज़िन्दा=क़ैद

 ज़िन्दगी क्या है ?- जैसा शेर उर्दू के कालजयी शेरों में शुमार होता है इस हिसाब से तो इसके शायर का नाम भी कालजयी होना चाहिए था -लेकिन हुआ नहीं। मीर-ओ-ग़ालिब के चलते ऐसे बहुत से शायरों को जिनका कलाम मयारी और क़ाबिले रश्क था अनजाने में या जानबूझ कर किसी सोची समझी साजिश के तहत भुला दिया गया। शायद इसलिए कि उनकी मादरी ज़बान उर्दू फ़ारसी या अरबी नहीं थी -वजह जो भी रही हो लेकिन इसका खामियाज़ा उर्दू शायरी के अनगिनत चाहने वालों को भुगतना पड़ा - वो ऐसे अनेक शायरों के बेजोड़ कलाम तक नहीं पहुँच पाए जिन्हें उन तक पहुंचना चाहिए था। इतना ही नहीं इनका कलाम सिर्फ उर्दू ज़बान जानने वालों तक ही सीमित रहा। आज के हिंदी पढ़ने लिखने वाले युवाओं ने तो शायद ये नाम सुना भी न हो।

 ज़बाँ को बंद करें या मुझे असीर करें 
मिरे ख़याल को बेड़ी पिन्हा नहीं सकते 
असीर =कैद ,पिन्हा=पहना 

 ये कैसी बज़्म है और कैसे उस के साक़ी हैं 
शराब हाथ में है और पिला नहीं सकते 

 ये बेकसी भी अजब बेकसी है दुनिया में 
कोई सताए हमें, हम सता नहीं सकते 

 आज हम जिस शायर और उसकी उस शायरी की किताब की बात कर रहे हैं जिसे राजपाल एन्ड साँस ने 'लोकप्रिय शायर " श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित किया था। शायर का नाम है "पंडित ब्रजनारायण चकबस्त " जो एक कश्मीरी ब्राह्मण खानदान के घर 19 जनवरी 1882 को उत्तर प्रदेश के फैज़ाबाद में पैदा हुए -जी हाँ आज से करीब 136 साल पहले। उर्दू फ़ारसी ज़बान घर पर सीखी और अंग्रेजी पढ़ने के लिए स्कूल में दाखिल हुए। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने फैज़ाबाद में ही ली। उनके पिता उस वक्त डिप्टी कलेक्टर थे जो किसी भी भारतीय के लिए सिविल सेवा में उच्चतम पोस्ट हुआ करती थी। उनके पिता उदित नारायण शायरी भी किया करते थे। पिता की असामयिक मृत्यु के बाद उनका परिवार लखनऊ आ बसा। उन्होंने 1905 में कैनिंग कालेज लखनऊ से बी.ऐ किया और वहीँ से वकालत की परीक्षा पास करके 1908 से बाकायदा वकालत करने लगे. चकबस्त बेहद मेहनती ,समझदार और लगन के पक्के थे लिहाज़ा उनकी वकालत चल निकली और उनका नाम लखनऊ के मशहूर वकीलों में शामिल हो गया। पेशे से वकील लेकिन दिल से शायर ब्रजनारायण ने मात्र 9 साल की उम्र में पहली ग़ज़ल कही। इसे कहते हैं पूत के पाँव पालने में दिखाई देना।


 जहाँ में आँख जो खोली फ़ना को भूल गये 
 कुछ इब्तदा ही में हम इन्तहा को भूल गये 
 फ़ना=मौत , इब्तदा = शुरुआत , इन्तहा=अंत 

 निफ़ाक़ गब्रो-मुसलमां का यूँ मिटा आखिर 
 ये बुत को भूल गए वो खुदा को भूल गये 
 निफ़ाक़ = दुश्मनी , गब्रो-मुसलमां= हिन्दू मुसलमान

 ज़मीं लरज़ती है बहते हैं ख़ून के दरिया
 ख़ुदी के जोश में बन्दे खुदा को भूल गये

 चकबस्त साहब ने कभी किसी को उस्ताद नहीं बनाया क्यूंकि होता ये है कि लाख कोशिशों के बावजूद आपकी शायरी में आपके उस्ताद का अक्स नज़र आ ही जाता है। बिना उस्ताद के शायरी करना उर्दू कविता की परम्परा के अनुसार सही नहीं है लेकिन साहब कोई चकबस्त जैसा इन्सान ही ऐसा हौसला कर सकता है। एक तो हिन्दू ऊपर से बिना किसी उस्ताद के सहारे के मयारी अशआर कहना कोई आसान काम नहीं था। उस ज़माने में बिना किसी उस्ताद के सहारे अपनी पहचान बनाना मुश्किल काम रहा होगा। उस्ताद की जगह उन्होंने सीखने के लिए पुराने शायरों जैसे मीर, आतिश, ग़ालिब, अनीस आदि को खूब पढ़ा। जो लोग बिना दूसरों को पढ़े ये सोचते हैं कि वो बेहतरीन शायर बन सकते हैं वो जरूर किसी ग़लतफहमी में हैं.

 कमाले-बुजदिली है पस्त होना अपनी आँखों में 
 अगर थोड़ी सी हिम्मत हो तो फिर क्या हो नहीं सकता 

 उभरने ही नहीं देती यहाँ बेमायगी दिल की 
 नहीं तो कौन कतरा है जो दरिया हो नहीं सकता 
 बेमायगी=निर्धनता 

 चकबस्त साहब ने ग़ज़लें बहुत कम कही हैं यही कुल जमा 50 के करीब लेकिन जो जितनी कही हैं वो बेजोड़ हैं। उन्होंने नज़्में खूब लिखी और बाद में तो उनके लेखन में देश प्रेम सर्वोपरि हो गया। उन्होंने अपनी पूरी काव्य प्रतिभा को देश के लिए लुटा दिया अगर उनकी रचनाओं से राष्ट्रीयता के तत्व को निकाल दें तो बाकि कुछ खास नहीं बचता। देशप्रेम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उनकी सभी रचनाओं में दिखाई देता है। वो सच्चे देशभक्त तो थे लेकिन उनका विश्वास राजनीतिक क्रांति में नहीं था। बहरहाल उनके विचार चाहे जो कुछ हों उनके देश प्रेम की सच्चाई और गहराई में कोई संदेह नहीं किया जा सकता।

 रहेगी आबो-हवा में ख्याल की बिजली 
 ये मुश्ते-ख़ाक है फानी रहे रहे न रहे 

 जो दिल में ज़ख्म लगे हैं वो खुद पुकारेंगे 
 ज़बाँ की सैफ-बयानी रहे रहे न रहे 
 सैफ-बयानी= तेजी 

 जो मांगना हो अभी मांग लो वतन के लिए 
 ये आरज़ू की जवानी रहे रहे न रहे 

 चकबस्त साहब ने अपनी ग़ज़लों को अद्भुत रंगों में ढाला है. 'आतिश' की चुस्त बंदिश के साथ उन्होंने 'ग़ालिब' की दार्शनिकता का पुट देकर अपनी ग़ज़लों के लिए में नयी राह बनायीं। ग़ज़ल में उनसे पहले के शायरों द्वारा कहे जाने वाले वैयक्तिक प्रेम के विषय से अलग ही विषयों का प्रयोग किया। उनकी ग़ज़लों में नरमी ,करुणा , व्यापकता और गागर में सागर भरने की अनूठी क्षमता पूरी तरह से कायम है। इसीलिए उन्हें पढ़ने से दिमाग पर किसी तरह का बोझ नहीं पड़ता और आंनद की अनुभूति भी हो जाती है।

 ये हयात आलमे-ख़्वाब है , न गुनाह है न सवाब है
 वही कुफ्रो-दीं में ख़राब है जिसे इल्मे-राजे-जहां नहीं 
 कुफ्रो-दीं =इस्लाम के अलावा , इल्मे-राजे-जहां=संसार के रहस्य 

 वो है सब जगह जो करो नज़र , वो कहीं नहीं जो है बे-बसर
 मुझे आजतक न हुई खबर वो कहाँ है और कहाँ नहीं 
 बे-बसर=न देखने वाला 

 वो ज़मीं पे जिनका था दबदबा कि बुलंद अर्श पे नाम था 
 उन्हें यूँ फ़लक ने मिटा दिया कि मज़ार तक का निशां नहीं 

 20 वीं सदी में उस वक्त जब भाषा को मजहब में बांटा जा रहा था चकबस्त साहब ने रामायण को अपने अनूठे ढंग से उर्दू में काव्य की सूरत में लिखा। उनकी लिखी रामायण के तीन हिस्से उर्दू साहित्य में बहुत ऊंचा स्थान रखते हैं। पाठक इसे इंटरनेट की वेब पत्रिका 'कविता कोष' में पढ़ सकते हैं। चकबस्त बहुत संवेदन शील शायर थे उन्होंने समाज और इंसान के बिगड़ते-संवरते विषयों पर उर्दू के अनेक पत्र पत्रिकाओं में कई लेख लिखे जो बहुत सराहे गए।उनकी विभिन्न काव्य विधाओं का संकलन लगभग 15 वर्ष पूर्व "सुबह वतन " शीर्षक से उनकी पोती उमा चकबस्त ने प्रकाशित करवाया। चकबस्त साहब लखनऊ के कश्मीरी मोहल्ले में , जहाँ वो रहते थे , हर साल नियम से ऑल इण्डिया मुशायरे का आयोजन करवाया करते थे ,जिसमें शिरकत करना हर बड़े शायर का सपना हुआ करता था। अपने बारे में कहे उनके इन अशआरों को पढ़ कर चकबस्त साहब की सोच का अंदाज़ा हो जाता है :

 जिस जा हो ख़ुशी, है वो मेरी मंज़िले-राहत
 जिस घर में हो मातम वो अज़ाख़ाना है मेरा
 जा =तरफ , अज़ाख़ाना =रोने की जगह

 जिस गोशाए-दुनिया में परस्तिश हो वफ़ा की 
 काबा है वही और वही बुतखाना है मेरा 
 परस्तिश=पूजा 

 मैं दोस्त भी अपना हूँ उदू भी हूँ मैं अपना 
 अपना है कोई और न बेगाना है मेरा 
 उदू =दुश्मन 

 ‘खाक-ए-हिन्द’, ‘गुलजार-ए-नसीम’, ‘रामायण का एक सीन’ (मुसद्दस), ‘नाल-ए-दर्द’, नाल-ए-यास’ और कमला (नाटक) ‘चकबस्त’ की प्रमुख रचनाएं हैं। 1983 में जन्मशती के अवसर पर उनका समग्र साहित्य ‘कुल्लियाते चकबस्त’ नाम से कालिदास गुप्ता ‘रजा’ के संपादन में प्रकाशित हुआ। लेकिन अब फैजाबाद स्थित उनकी जन्मस्थली में उनकी स्मृतियों और साहित्य के संरक्षण का सिर्फ एक ही उपक्रम है – वह लाइब्रेरी जिस पर मीर बबरअली अनीस के साथ पंडित बृजनारायण ‘चकबस्त’ का नाम भी चस्पां है और जिसे अवध की सांप्रदायिक एकता की अनूठी मिसाल माना जाता है।

 है शौक़ की मंज़िल यही दुनिया के सफर में 
 क्या ख़ाक जवानी है जो सौदा नहीं सर में 
 सौदा =उन्माद

 दुनिया मेरे नाले से खिंच आती है क़फ़स तक 
 मेला सा लगा रहता है सय्याद के घर में 

 रहती हैं उमंगें कहीं ज़ंज़ीर की पाबंद 
 हम कैद हैं ज़िंदा में बियाबां है नज़र में 
 ज़िंदा =कैदखाना 

 पंडित बृजनारायण ‘चकबस्त’। अल्लामा इकबाल के बेहद गहरे दोस्त। दोनों की दोस्ती कितनी गहरी थी इसका अंदाजा इस बात से होता है कि इकबाल मुंबई में मलाबार हिल्स पर रहने वाली अपनी प्रेमिका अतिया फैजी (राजा धनराजगीर के सेक्रटरी अंकल फैजी की बहन) से मिलने जाते तो भी चकबस्त को साथ ले जाते।धनराजमहल में शाम की महफिलें जमतीं तो ‘चकबस्त’ झूम-झूम कर कलाम सुनाते। बाद में उन्हें उर्दू के आधुनिक कविता स्कूल के संस्थापकों में से एक माना जाने लगा और उन्होंने आलोचना, संपादन व शोध के क्षेत्रों में भी भरपूर शोहरत पाई।

 उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फ़ा क्या है
 हमें ये शौक है देखें सितम की इंतिहा क्या है 
 तर्ज़े जफ़ा =अत्याचार /जुल्म 

 गुनहगारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाकिफ़
 सजा को जानते हैं हम ,खुदा जाने खता क्या है 

 नया बिस्मिल हूँ मैं , वाकिफ नहीं रस्मे-शहादत से 
 बता दे तू ही , ऐ ज़ालिम ! तड़पने की अदा क्या है 
बिस्मिल =घायल , रस्मे-शहादत = शहीद होने की रस्म 

 लखनऊ में ही वे प्रसिद्ध उर्दू निबंधकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ से एक बहुचर्चित साहित्यिक विवाद में उलझे। दरअसल, उन्होंने 1905 में ‘गुलजार-ए-नसीम’ नाम से शायर दयाशंकर कौल ‘नसीम’ (1811-1843) की रचनाओं का संग्रह प्रकाशित किया तो शरर ने यह कहकर उनकी तीखी आलोचना की कि उन्होंने झूठ-मूठ ही नसीम की प्रशंसा के पुल बांधे हैं और उनको ‘गुल-ए-बकावली’ का रचयिता बता दिया है। शरर के अनुसार ‘गुल-ए-बकावली’ वास्तव में आतिश लखनवी की रचना थी। बाद में यह मामला अदालत तक गया, जिसमें चकबस्त ने अपना सफल बचाव किया .

दिल ही की बदौलत रंज भी है दिल ही की बदौलत राहत भी
 यह दुनिया जिसको कहते हैं दोज़ख भी है और जन्नत भी

 अरमान भरे दिल खाक हुए और मौत के तालिब जीते हैं
 अंधेर पे इस दुनिया के हमें आती है हंसी और रिक़्क़त भी
 तालिब =इच्छुक , रिक़्क़त =रोना

 या ख़ौफ़े-खुदा या ख़ौफ़े-सकर हैं दो ही बयां तेरे वाइज़
 अल्लाह के बन्दे ! दिल में तेरे है सोज़ो-गुदाज़े-मुहब्बत भी
 ख़ौफ़े-खुदा =ईश्वर का डर ,ख़ौफ़े-सकर =नर्क का डर , वाइज़ =धर्मोपदेशक, सोज़ो-गुदाज़े-मुहब्बत =प्रेम की नरमी

 उन्होंने 12 फ़रवरी 1926 के तीसरे पहर रायबरेली में एक मुक़दमे की पैरवी की और शाम 6 बजे की ट्रेन से लखनऊ आने के लिए उसमें बैठे ही थे कि अचानक उनपर दिमागी फालिज का तेज दौरा पड़ा और उनकी ज़बान बंद हो गयी। साथियों ने उन्हें प्लेटफॉर्म पर उतारा यथासंभव उपचार की व्यवस्था की गयी लेकिन सफलता नहीं मिली। डाक्टर द्वारा स्टेशन पर ही दो घंटों की भरसक कोशिशों के बावजूद मात्र 44 की उम्र में उर्दू शायरी का ये चमकता हुआ सितारा अंग्रेजी की एक कहावत कि "जिन्हें भगवान् प्यार करता है वे नौजवानी में मर जाते हैं " को चरितार्थ करते हुए अचानक बुझ गया। उम्र दराज़ लोग मेरी बात को अन्यथा न लें मैंने तो एक कहावत का जिक्र किया है। लखनऊ में नहीं बल्कि पूरे उर्दू जगत में इस खबर से शोक छा गया .

अगर दर्द-ए-मोहब्बत से न इंसाँ आश्ना होता
 न कुछ मरने का ग़म होता न जीने का मज़ा होता 

 बहार-ए-गुल में दीवानों का सहरा में परा होता 
जिधर उठती नज़र कोसों तलक जंगल हरा होता

 मय-ए-गुल-रंग लुटती यूँ दर-ए-मय-ख़ाना वा होता
 न पीने की कमी होती न साक़ी से गिला होता 

हज़ारों जान देते हैं बुतों की बेवफ़ाई पर 
अगर उन में से कोई बा-वफ़ा होता तो क्या होता 

 रुलाया अहल-ए-महफ़िल को निगाह-ए-यास ने मेरी 
क़यामत थी जो इक क़तरा इन आँखों से जुदा होता 

 चकबस्त साहब की कोई किताब देवनागरी में उपलब्ध है या नहीं मैं नहीं बता सकता क्यूंकि जिस किताब की चर्चा मैं कर रहा हूँ वो अब राजपाल एन्ड संस पर उपलब्ध नहीं है। उनकी ग़ज़लें आप रेख़्ता या कविता कोष की वेब साइट पर पढ़ सकते हैं या फिर गूगल से पूछें शायद वो कोई मदद कर पाए मुझे तो उसने अंगूठा दिखा दिया है। आईये पढ़ते हैं चकबस्त के कुछ चुनिंदा शेर और निकलते हैं किसी नयी किताब की तलाश में :

 उलझ पड़ूँ किसी के दामन से वह खार नहीं,
 वह फूल हूँ जो किसी के गले का हार नहीं।
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 कौम का गम लेकर दिल का यह आलम हुआ,
 याद भी आती नहीं, अपनी परीशानी मुझे।
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 जिन्दगी और जिन्दगी की यादगार,
पर्दा और पर्दे के पीछे कुछ परछाइयाँ।
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बादे-फना फिजूल है, नामों-निशां की फिक्र,
जब हम नहीं रहे तो रहेगा मजार क्या। .
बादे-फना - मृत्यु के बाद
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मुहब्बत है मुझे बुलबुल के गमअंगेज नालों से,
चमन में रह के मैं फूलों का शैदा हो नहीं सकता।
 गमअंगेज - गम बढ़ाने वाला, नाला - फरियाद, शैदा - आशिक
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 हमारे और ज़ाहिदों के मज़हब में फ़र्क अगर है तो इस क़दर है  
कहेंगे हम जिसको पासे-इंसां वो उसको खौफ़े-ख़ुदा कहेंगे 
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आशना हों कान क्या इंसान की फ़रियाद से
 शेख़ को फ़ुरसत नहीं मिलती खुदा की याद से