उसके रंग में रँगे लौट आये हैं घर
घर से निकले थे रँगने उसे रंग में
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हो ज़रा फ़ुर्सत तो मुझको गुनगुना लो
प्रेम का मैं ढाई आखर हो गया हूँ
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जो तुम कहो तो चलें ,तुम कहो तो रुक जाएँ
ये धड़कने तो तुम्हारी ही सेविकाएं हैं
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किताब उलटी पकड़ कर पढ़ रहे हो देर से काफ़ी
तुम्हें बतलाएँ बरख़ुरदार आओ, इश्क का मतलब
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किसी का ज़ुल्फ़ से पानी झटकना
इसी का नाम बारिश है महोदय
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वस्ल की रात था जिस्म ही जिस्म
बस
उसको ओढ़ा, उसे ही बिछाते रहे
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यकायक आ गया था शहर उनका रास्ते में
उसी दिन से जुदा हम हो गए हैं कारवाँ से
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मिलन को मौत आखिर कैसे कह दूँ
नदी सागर से मिलने जा रही है
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यूँ सारी रात बरसोगे तो प्यासा मर ही जाएगा
किसी प्यासे पे ज्यादा बरस जाना भी समस्या है
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किया न वादा कोई आज तक कभी पूरा
तुम्हारे वादे तो सरकारी घोषणाएँ हैं
आज हम बात करेंगे इश्क की। अब ये इश्क़ मजाजी (शारीरिक) है या इश्क़ हक़ीक़ी(ईश्वरीय ) ये आप तय करें वैसे साई बुल्लेशाह इश्के मजाजी को इश्के हकीकी से जोड़ने वाला पुल कहते हैं। !!खैर आप माने न माने ये जो दुनिया है न ये चल ही इश्क के बूते पर रही है। अगर नफ़रत के बूते पर चल रही होती तो कब की खत्म हो गयी होती। ये इश्क ही है जो हर हाल में इसे चलाये रखने की ताकत रखता है। अब अगर आपने किसी से पूछ लिया कि ये इश्क़ है क्या तो पहले जवाब देने वाला आपको ऐसे घूरेगा जैसे आप किसी और ग्रह के प्राणी हैं और फिर जो जवाब देगा उसे सुनकर आपको लगेगा कि इस से तो अच्छा था मैं ये सवाल पूछता ही नहीं। जितने मुंह उतनी बातें। ज्यादातर जवाब देने वाले तो आपको हिक़ारत की नज़र से देखते हुए अपनी कमीज़ या कुर्ते का कॉलर उठाते हुए कहेंगे "तुमने इश्क़ का नाम सुना है , हमने इश्क़ किया है " और फिर टेढ़ी मुस्कान फेकेंगे लेकिन बताएँगे नहीं कि इश्क है क्या ?
हकीकत में इश्क किया नहीं जाता, इश्क जिया जाता है. दरअसल 'इश्क' अंधों का हाथी है। इसका पूर्ण स्वरुप शायद ही किसी ने देखा हो, जिस अंधे ने इस हाथी का जो हिस्सा पकड़ा उसने हाथी को वैसा ही परिभाषित कर दिया।
वस्ल की शब कोई बतलाए शुरू क्या कीजिए
जम गया हो जब रगों का भी लहू क्या कीजिए
वक्त-ए-रुख़सत कह रहे हैं 'आज कुछ भी मांग लो '
और मैं हैरत में हूँ अब आरज़ू क्या कीजिए
उसकी आँखों से मेरे हाथों पे क़तरा था गिरा
उम्र भर फिर ये हुआ कि अब वुज़ू क्या कीजिए
बहुत कम लोग दुनिया में ऐसे हुए हैं जिन्होंने शायद इश्क को उसके पूरे वुज़ूद में देखा है ,यहाँ सभी का नाम लेना मुमकिन नहीं और न ही हमारा ये मक़सद है। हमारा तो काम है किताब की चर्चा करना और आखिर में हम वो ही करने वाले हैं लेकिन उसे करने से पहले सोचा चलो इश्क पे कुछ चर्चा हो जाए क्यूंकि हमारी आज की किताब का विषय भी इश्क़ है। तो बात शुरू करते हैं संत कबीर से। कबीर से ज्यादा सरल और सीधी बात और कोई करने वाला मिलेगा भी नहीं और उनकी बात तो आप पत्थर पे लकीर समझ लें। कबीर दास जी कहते हैं कि "घड़ी चढ़े घड़ी उतरे वो तो प्रेम न होय , अघट प्रेम ही ह्रदय बसे प्रेम कहिये सोय !!" अब आप मुझसे इसका मतलब मत पूछना अगर कबीर दास जी की बात भी समझानी पड़े तो फिर हो ली इश्क़ पे चर्चा। वैसे बहुत गहरी बात कह गए हैं कबीर दास जी और ऐसी बात यकीनन कोई अँधा नहीं कह सकता।
ख़लाओं पर बरसती हैं न जाने कब से बरसातें
मगर फिर भी ख़लाओं का अँधेरा है कि प्यासा है
सुनहरी बेलबूटे-सा जो काढ़ा था कभी तूने
बदन पर अब तलक मेरे तेरा वो लम्स ज़िंदा है
कोई पुरकैफ़ खुशबू तल्ख़-सी आती रही शब भर
गली में नीम के फूलों का मौसम लौट आया है
ग़ज़लों में नीम के फूलों की अक्सर बात नहीं की जाती बल्कि शहर में रहने वाले तो शायद जानते भी न हों कि नीम के फूलों की खुशबू कितनी मदहोश कर देने वाली होती है। शायरी में नीम के फूलों का प्रयोग वही कर सकता है जिसने इसका अनुभव किया हो। इश्क़ भी नीम के फूलों सा ही होता है सबसे अलग -जिसके बारे में सुना भले ही सब ने हो अनुभव कम ही किया होगा। प्रेम या इश्क के बारे में ईशा फाउंडेशन के सद्गुरु ने कहा है कि " मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है। अगर आप खुद को नहीं मिटाते, तो आप कभी प्रेम को जान ही नहीं पाएंगे। आपके अंदर का कोई न कोई हिस्सा मरना ही चाहिए। आपके अंदर का वह हिस्सा, जो अभी तक ’आप’ था, उसे मिटना होगा, जिससे कि कोई और चीज या इंसान उसकी जगह ले सके। अगर आप ऐसा नहीं होने देते, तो यह प्रेम नहीं है, बस हिसाब-किताब है, लेन-देन है।"
एक लम्हा बस वही है और बाकी कुछ नहीं
ज़िन्दगी सारी अलग और वस्ल का लम्हा अलग
इश्क के बीमार पर सारी दवाएँ बेअसर
चारागर उसकी दवा का है जरा नुस्ख़ा अलग
चलते-चलते आपने देखा था हमको बस यूँही
शहर में उस दिन से अपना हो गया रुतबा अलग
प्रेम की बात हो और ओशो याद न आएं ऐसा हो नहीं सकता , लोग उनके पक्ष में हों या विपक्ष में इस से हमें कोई लेना देना नहीं लेकिन जो उन्होंने कहा है उसे पढ़ लेने में कोई हर्ज़ नहीं वो कहते हैं कि " प्रेम का अर्थ है: जहां मांग नहीं है और केवल देना है। और जहां मांग है वहां प्रेम नहीं है, वहां सौदा है। जहां मांग है वहां प्रेम बिलकुल नहीं है, वहां लेन-देन है। और अगर लेन-देन जरा ही गलत हो जाए तो जिसे हम प्रेम समझते थे वह घृणा में परिणत हो जाएगा। " वो आगे कहते हैं " जहां प्रेम केवल देना है, वहां वह शाश्वत है, वहां वह टूटता नहीं। वहां कोई टूटने का प्रश्न नहीं, क्योंकि मांग थी ही नहीं। आपसे कोई अपेक्षा न थी कि आप क्या करेंगे तब मैं प्रेम करूंगा। कोई कंडीशन नहीं थी। प्रेम हमेशा अनकंडीशनल है। कर्तव्य, उत्तरदायित्व, वे सब अनकंडीशनल हैं, वे सब प्रेम के रूपांतरण हैं।प्रेम केवल उस आदमी में होता है जिसको आनंद उपलब्ध हुआ हो। जो दुखी हो, वह प्रेम देता नहीं, प्रेम मांगता है, ताकि दुख उसका मिट जाए.
कह रहे हैं आप हमसे इश्क़ करना छोड़ दो
साफ़ ही कह दो कि जीने की तमन्ना छोड़ दो
इश्क़ है तो क्या हुआ सोने न देंगे चैन से ?
आप ख़्वाबों में मेरे आकर टहलना छोड़ दो
दिल मचल बैठा तो जाने क्या ग़ज़ब हो जायेगा
डाल कर पाज़ेब सीढ़ी से उतरना छोड़ दो
तो जैसा अभी मैंने आपको बताया कि आज की किताब इश्क़ पर लिखी ग़ज़लों की किताब है जिसमें कोई ज्ञान नहीं बघारा गया कोई दार्शनिकता नहीं प्रदर्शित की गयी बल्कि पासबाने-अक़्ल याने अक़्ल के चौकीदार को दिल से जरा दूर बैठा दिया गया है। मामला इश्क़ का है इसलिए वहां अक़्ल का वैसे भी क्या काम ? देखा गया है कि इंसान ने जो जो काम अक़्ल से किये हैं उनसे उसे दुःख ही अधिक मिला है और जो जो काम दिल से किये गए हैं उनसे ख़ुशी। किताब है जनाब पंकज सुबीर द्वारा लिखित और शिवना प्रकाशन -सीहोर द्वारा प्रकाशित "अभी तुम इश्क़ में हो " जिसने सन 2018 के पुस्तक मेले में लगभग सभी ग़ज़ल प्रेमी और खास तौर पर इश्क़ में पड़े खुशकिस्मत लोगों को अपनी और आकर्षित किया और देखते ही देखते इसके 2 संस्करण 4 दिन में बिक गए। कॉफी टेबल बुक के अंदाज़ में छपी गुलाबी रंग की इस किताब के अब तक चार पांच संस्करण तो बाजार में आ चुके हैं और बिक्री अभी जारी है। इस किताब में छपी कुछ ग़ज़लों को तो प्रसिद्ध गायकों ने गाया भी है.
भले अपने ही घर जाना है पर भूलोगे रास्ता
किसी को साथ में रक्खो, अभी तुम इश्क़ में हो
नहीं मानेगा कोई भी बुरा बिलकुल जरा भी
अभी तुम चाहे जो कह दो, अभी तुम इश्क़ में हो
कोई समझा बुझा के राह पर फिर ले न आये
किसी के पास मत बैठो, अभी तुम इश्क़ में हो
वो परसों भी नहीं आया नहीं आया वो कल भी
गिनो मत, रास्ता देखो, अभी तुम इश्क़ में हो
"पंकज सुबीर" ग़ज़लकार नहीं हैं और इस बात को वो खुद भी सरे आम कहते हैं. हालाँकि उनके द्वारा ब्लॉग पर निरंतर चलाये जाने वाली ग़ज़ल की कक्षाओं से हम जैसे बहुत से ग़ज़ल प्रेमियों ने ग़ज़ल की बारीकियां सीखीं और कुछ कहने लायक हुए। मूल रूप से वो कहानी उपन्यास और सम्पादन जैसे क्षेत्रों से न केवल जुड़े हुए हैं बल्कि इन क्षेत्रों में उन्होंने बहुत नाम भी कमाया है। उनकी उपलब्धियां गिनने बैठो तो ऊँगली अपने आप दाँतों तले आ जाती है। इश्क़ या प्रेम के अनेक रंगों से उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यास में जो चित्र बनाये हैं वो अद्भुत हैं। ऐसे ही चित्र उन्होंने अपनी प्रेम से पगी ग़ज़लों में भी उकेरे हैं। आप उन्हें पसंद या नापसंद कर सकते हैं लेकिन उनकी रचनाओं को अनदेखा करना संभव नहीं।
बूँद जैसे शबनम की आंच पर गिरी जैसे
जिस्म में उठीं लहरें हो कोई नदी जैसे
वस्ल की कहानी है मुख़्तसर-सी बस इतनी
अंजुरी में भर-भर कर चांदनी हो पी जैसे
सुन के रेल की सीटी याद आयी 'पाकीज़ा'
चलते-चलते कोई हो मिल गया यूँ ही जैसे
(सन्दर्भ :यूँ ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते चलते )
पंकज जी को मैं सं 2006 से ब्लॉग के माध्यम से जान पाया। उनका सीहोर, जो भोपाल और इंदौर के मध्य है, में निजी व्यसाय है, वो बच्चों को कम्प्यूटर की शिक्षा देने के लिए खोले गए एक संस्थान को चलाते हैं और साथ ही स्वतंत्र लेखन भी करते हैं । मैंने उनकी रचना प्रक्रिया को करीब से देखा है। अपने लेखन में उन्होंने उत्तरोत्तर प्रगति की है। सबसे बड़ी बात है कि वो साहसी हैं अपनी रचनाओं में वो नए प्रयोग करने से घबराते नहीं इसीलिए उनकी कहानियों और उपन्यासों का कथ्य चौंकाता है। सम्बन्ध निभाने में भी उनका कोई सानी नहीं हाँ वो थोड़ा मूडी जरूर हैं, जो हर रचनाकार कम -ज्यादा होता ही है, अपने इस मूड की वजह से कुछ लोग उनसे ख़फ़ा भी हो जाते हैं.पिछले 12 वर्षों में मैं उन्हें जितना जान पाया हूँ उसे व्यक्त करना यहाँ संभव नहीं है क्यूंकि ये पोस्ट शुद्ध रूप से उनकी किताब के बारे में है उनके बारे में नहीं है ,हाँ उनकी उपलब्धियों को जरूर गिनाना चाहूंगा।
अब तुम्हारा काम क्या वो आ गए
तख़्लिया ऐ चाँद, तारों तखलिया
आबे-ऐ-ज़मज़म की किसे दरकार है
हमने तेरी आँख का आंसू पिया
आपने कल का किया वादा है पर
वादा अब तक कौन सा पूरा किया
उन्हें मिले सम्मानों /प्रुस्कारों में उनके कहानी संग्रह "चौपड़ें की चुड़ैलें "को राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान, "महुआ घटवारिन और अन्य कहानियां" किताब को लंदन के हॉउस ऑफ कॉमन्स में अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान' , उपन्यास 'ये वो सहर तो नहीं तो नहीं " को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा 'नवलेखन पुरूस्कार' , इंडिपेंडेंट मीडिया सोसाइटी (पाखी पत्रिका ) द्वारा स्व. जे.सी.जोशी शब्द साधक जनप्रिय सम्मान, मध्य्प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मलेन द्वारा ' वागीश्वरी पुरूस्कार' , समग्र लेखन हेतु 'वनमाली कथा सम्मान' ,समग्र लेखन हेतु 53 वां 'अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान' आदि प्रमुख हैं।उन्हें केनेडा और अमेरिका की साहित्यिक संस्थाओं ने अपने यहाँ बुला कर सम्मानित किया है। उनकी कहानी 'दो एकांत' पर बनी फीचर फिल्म 'बियाबान' देश विदेश में होने वाले फिल्म समारोहों में पुरुस्कृत हो चुकी है , इस फिल्म के गीत भी पंकज जी ने लिखे थे। उनकी कहानी 'कुफ्र' पर एक लघु फिल्म भी बन चुकी है। सबसे बड़ा सम्मान तो उनके असंख्य पाठकों द्वारा उन्हें दिया गया प्यार है जिसे आप उनके साथ गुज़ारे कुछ ही पलों में अनुभव कर सकते हैं।
ये जो कोहरे-सा है बिछा हर सू
इसमें ख़ुद को ज़रा समाने दो
उँगलियों की है इल्तिज़ा बस ये
चाँद के कुछ क़रीब आने दो
होंठ बरसेंगे बादलों जैसे
तुम अगर आज इनको छाने दो
अगर आपको पंकज जी के लेखन की बानगी देखनी है तो इस किताब को पढ़ें क्यूंकि इसमें उनकी लगभग 55 ग़ज़लों के अलावा 14 प्रेम गीत और 7 अद्भुत प्रेम भरी कहानियां भी शामिल हैं। यूँ समझें की ये किताब 'प्रेम' की कॉम्बो डील है।हो सकता है कि इस किताब को पढ़ कर गंभीर शायरी के प्रेमी अपनी नाक-भौं सिकोड़ें लेकिन जो दिल से जवाँ हैं ,इश्क़ कर रहे हैं या इश्क़ करने में विश्वास रखते हैं वो जरूर खुश हो जायेंगे और ऐसे लोगों से निवेदन है कि अगर आपके पास ये किताब नहीं है तो तुरंत इसे मंगवाने का उपक्रम करें। पहली बार हार्ड बाउंड में छपी ये किताब अब पेपर बैक में भी आसानी से मिल सकती है। इसके लिए आप अमेज़न की ऑन लाइन सेवा का उपयोग करें या इस किताब के प्रकाशक 'शिवना प्रकाशन' को shivna.pra kashan@gmail.com पर मेल करें, शिवना प्रकाशन के जनाब 'शहरयार' भाई से 9806162184 पर संपर्क करें और साथ ही साथ पंकज जी को इन ग़ज़लों के लिए बधाई देने के लिए 9977855399 पर निःसंकोच संपर्क करें। समय आ गया है कि अगली किताब की खोज के लिए निकला जाय तब तक आप पढ़ें उनकी ग़ज़ल ये शेर :
इसे पुकारा, उसे पुकारा, बुलाया इसको , बुलाया उसको
उमीद लेकर खड़ा हूँ मैं भी कभी तो मेरा भी नाम लेगा
उठा के नज़रें तो देखिये जी खड़ा है कोई फ़क़ीर दर पर
लुटा भी दो हुस्न का ख़ज़ाना ये आज है कल कहाँ रहेगा
दुआओं में बस ये मांगता हूँ ज़रा ये परदा उठे हवा से
अगर वो सुनता है जो सभी की कभी तो मेरी भी वो सुनेगा
यूँ तो मैं चला ही गया था लेकिन दरवाज़े से वापस लौट आया , मुझे याद आया कि उनकी एक ग़ज़ल के शेर जो मैंने सोचा था कि आपको पढ़वाऊंगा वो तो लिखना ही भूल गया। पहले सोचा कि कोई बात नहीं अब कितनी ग़ज़लों से कितने शेर आपको पढ़वाऊं लेकिन मन नहीं माना सो अब ये शेर पढ़वा कर पक्का जा रहा हूँ - यकीन कर लें।
होंठों से छू लो अगर तुम धूप से झुलसे बदन को
बर्फ-सी हो जाय ठंडी , गर्मियों की ये दुपहरी
हर छुअन में इक तपिश है ,हर किनारा जल रहा है
है तुम्हारे जिस्म जैसी , गर्मियों की ये दुपहरी
अब्र-सा सांवल बदन उस पर मुअत्तर-सा पसीना
हो गयी है बारिशों-सी ,गर्मियों की ये दुपहरी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28-08-2018) को "आया भादौ मास" (चर्चा अंक-3077) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
इस पुस्तक का पहला* आधिकारिक पाठक होने का सौभाग्य मुझे मिला था।
ReplyDelete* - पुस्तक छपने के बाद 😊
(Reference: सुबीर संवाद सेवा)
वो जो कोहरे-सा है बिछा हर सू
ReplyDeleteइसमें ख़ुद को ज़रा समाने दो
इतनी उम्दा शाइरी और शानदार/जानदार तब्सिरे के लिए आप दोनों को मुबारकबाद।
------दरवेश भारती, मो 9268798930
बेहद बिना हद के कमाल
ReplyDeleteवाह
ReplyDelete