Monday, July 30, 2018

किताबों की दुनिया -188

कफ़स भी हैं हमारे और ज़ंजीरें भी अपनी हैं 
 युगों से क़ैद हम अपनी ही दीवारों में बैठे हैं 
 ***
 मुश्किलें ही मुश्किलें हैं रात-दिन इसको 
 काट कर इस जिस्म से सर को कहीं रख दे
 *** 
जानती थी कि तेरे बाद उजड़ जाऊँगी 
 मैंने फिर भी तिरा हर रंग छुड़ा कर देखा 
 *** 
इल्ज़ाम सिर्फ तेज़ हवा पर ही क्यों रहे
 सूरज की रौशनी भी दिये का अज़ाब है
 *** 
सूरत नहीं दिखी तिरि करवे के चाँद में 
 जाने मुझे क्यों चाँद में बस चाँद ही दिखा 
 *** 
फिर कोई अब्र आ न जाए इधर 
बाम पर जख़्म कुछ सुखाये हैं 
 *** 
फिर बदन उसको दे दिया वापिस
 रूह जब से निखार ली हमने 
 *** 
फिर लगा तेरी छुअन में अजनबीपन सा
 तुझमें कोई और भी रहने लगा है क्या 

 आप ईश्वर या कोई भी अदृश्य शक्ति जो हमें चला रही है को मानें न मानें ये आप पर है। इस बात पर कोई बहस नहीं लेकिन आप एक बात तो जरूर मानेंगे कि इस शक्ति ने अपने द्वारा सृजित इंसानों में हुनर की एक नदी को प्रवाहित किया है। ये नदी सतत बहती रहती है। कुछ लोग इसे सतह पर ले आते हैं और ये सबको दिखाई देने लगती है लेकिन कुछ ऐसा नहीं कर पाते। ख़ास तौर पर आधी दुनिया की नुमाईंदगी करने वाली महिलाओं के लिए अपने में छिपे हुनर की नदी को सतह पर लाना इतना आसान नहीं होता। समाज और घर की जिम्मेदारियां एक बाँध की तरह इस नदी के प्रवाह को रोक लेते हैं। कुछ में हुनर की ये नदी समय के साथ सूख जाती है और कुछ में इसके लगातार प्रवाहित होते रहने से बाँध का जलस्तर बढ़ने लगता है ,साथ ही बढ़ता है बाँध पर दबाव। कुछ बाँध इस दबाव से टूट जाते हैं , कुछ रिसने लगते हैं और कुछ के ऊपर से नदी बहने लगती है।

 उम्र भर का साथ है कुछ फासले रख दरमियाँ 
 दूरीयां कर देंगी यूँ दिन-रात की नज़दीकियां 

 मर्द की बातों में आकर, चाहतों के नाम पर 
 औरतोँ ने फूंक डाले औरतों के आशियाँ 

 आँख में चुभने लगी है अपने घर की चांदनी 
 जुगनुओं की चाह में हो ? क्या हो बदकिस्मत मियाँ !! 

 ये जो शेर आपने ऊपर पढ़े हैं, यकीन मानिये कोई औरत ही लिख सकती है. पुरुष की सोच यहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। हमारी आज की शायरा हैं "निर्मल आर्या ' जिनकी ग़ज़लों की अद्भुत किताब "कौन हो तुम " की बात हम करेंगे। निर्मल जी ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने हुनर की सरिता को सूखने नहीं दिया। निर्मल जी को ये तो इल्म था कि कुछ है जो उनके मन के अंदर ही अंदर घुमड़ता है लेकिन उसे व्यक्त करने की विधा का उन्हें जरा सा भी भान नहीं था। बाँध की मज़बूत दीवारों से उनके हुनर की नदी टकराती और लौट जाती। आखिर वो दिन आया जब बाँध में हलकी सी दरार पड़ गयी। पानी का रिसाव पहले बूँद बूँद हुआ फिर एक पतली सी धार बनी और फिर हुनर झरने के पानी सा झर झर झरने लगा। हर विपरीत परिस्थिति इस दरार को चौड़ा करने लगी। लबालब भरे बाँध में आयी इस दरार को भरना अब नामुमकिन था।


 यूँ हसरतों ने आजमाए मुझपे जम के हाथ 
 फिर पूछिए न मुझसे भी क्या क्या खता हुई

 बेचैनियाँ बहुत थीं बरसने से पेश्तर 
 बरसी जो खुल के जिस्म से हलकी घटा हुई 

 शब् भी विसाल की थी मुहब्बत भी थी जवां
 मुझसे मगर न फिर भी कोई इल्तिजा हुई

 उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के छोटे से गाँव दोघाट में जन्मीं निर्मल एक चुलबुली मस्त मौला लड़की थी। उम्र के उस हसीन दौर में जब गुलाबी सपनों की आमद शुरू होती है याने 16 वें साल में जब वो बाहरवीं कक्षा में पढ़ ही रही थीं, निर्मल जी शादी के बंधन में बंध गयीं। अपना घर छूट गया, स्कूल छूट गया और वो संगी साथी छूट गए जिनके साथ वक्त पंख लगा के उड़ा करता था। शादी हुई तो धीरे धीरे घर परिवार सामाजिक जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ने लगा। पति और परिवार के स्नेह ने उन्हें हिम्मत दी और वो जी जान से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने लगीं। बाँध जरूर बंध गया था लेकिन अंदर चलने वाली नदी सूखी नहीं थी लिहाज़ा वक्त के साथ बांध का जलस्तर तो बढ़ा ही और उसके साथ ही बहने का रास्ता न मिल पाने के कारण मन में बेचैनी भी बढ़ने लगी।

 ये रात होते ही चमकेंगे चांदनी बनकर 
 जो साये धूप के दिनभर शजर में रहते हैं 

 हमें सुकून कि ज्यादा किसी से रब्त नहीं 
 उन्हें गुरूर कि वो हर नज़र में रहते हैं 

 कभी भी दिल से कहीं गलतियां नहीं होतीं 
 खराबियों के जो कीड़े हैं सर में रहते हैं 

 बेचैनियां अभिव्यक्ति का माध्यम ढूंढने के लिए छटपटाने लगीं। कभी वो कहानियों का सहारा लेतीं तो कभी कविताओं का। और तो और खुद को व्यक्त करने के लिए उन्होंने फैशन डिजाइनिंग से लेकर घर भी डिजाइन किये।खूब वाह वाही बटोरी। नाम भी मिला प्रशंशकों की तादाद में बेशुमार इज़ाफ़ा भी हुआ लेकिन मन की बेचैनी का मुकम्मल इलाज़ वो नहीं ढूंढ पायीं। 8 मई 2014 की गर्म दुपहरी थी जब उन्होंने अनमनी सी अवस्था में एक कहानी लिखने की सोची ,थोड़ा बहुत लिखा फिर फाड़ के फेंक दिया। अचानक एक कविता की कुछ पंक्तियाँ उनके दिमाग में बिजली सी कौंधी उन्होंने उसे फ़ौरन कागज़ पर उतारा और घर वालों को सुनाया ,घर वालों ने सुन कर तालियां बजाईं। हिम्मत बंधी तो उसे फेसबुक पे डाल दिया। जैसा कि फेसबुक पर अक्सर होता है, प्रशंशा करने वालों का ताँता लग गया। फिर तो ये सिलसिला चल निकला। एक दिन उनकी किसी पोस्ट पर किन्हीं सुभाष मालिक जी का कमेंट आया जिसमें कहा गया था कि निर्मल जी आप बहुत खूब लिखती हैं लेकिन अगर इसे बहर में लिखें तो आनंद आ जाय।

 वो मुझको भूल गया इक तो ये गिला ,उस पर 
मुझे पुकारा गया नाम भी नया ले कर 

 पहन ले या तो चरागों की रौशनी या फिर 
 वजूद अपना तपा धूप की क़बा लेकर 

 मुझे तो रात की अलसाई सुब्ह प्यारी है 
 ये कौन रोज़ चला आता है सबा लेकर 

 बहर ? चौंक कर निर्मल जी ने सोचा। ये किस चिड़िया का नाम है ? सुभाष जी से संपर्क साधा गया तो उन्होंने फेसबुक पर चलने वाले ग्रुप " कविता लोक " का पता दिया जहाँ ग़ज़ल लेखन सिखाया जाता था । कविता लोक ने निर्मल जी का वो काम किया जो "खुल जा सिम सिम " ने अलीबाबा का किया था। ख़ज़ाने की गुफ़ा का दरवाज़ा खुल गया। फिर तो सिर्फ़ बहर ही क्यों ग़ज़ल की बारीकियां भी निर्मल जी समझने लगीं रफ़्ता रफ़्ता ग़ज़ल कहने भी लगीं। एक नये सफर की शुरुआत हो चुकी थी। जैसे जैसे वो आगे बढ़ती गयीं वैसे वैसे उनका मार्ग दर्शन करने लोग आगे आने लगे सुभाष जी से शुरू हुआ ये सिलसिला विजय शंकर मिश्रा जी -जो उनके सबसे बड़े आलोचक रहे और जिन्होंने उनकी हर इक ग़ज़ल में गलती निकाल कर उसे दोष मुक्त किया - से होता हुआ सईद जिया साहब तक और फिर आखिर में उर्दू अदब के जीते-जागते स्तम्भ और अदबी मर्कज़ पानीपत के आर्गेनाइज़र जनाब डा. कुमार पानीपती जी पर समाप्त हुआ।

 खिड़की पर ही हमने रख दी हैं आँखें 
 क्या जाने कब चाँद इधर से गुज़रेगा 

 ऐसे छू ,बस रूह मुअत्तर हो जाए 
 मिटटी का ये जिस्म कहाँ तक महकेगा

 आखिर कब तक थामे रक्खेगी 'निर्मल' 
दिल तो दिल है ,ज़िंदा है तो मचलेगा 

 डा. कुमार ने निर्मल जी हुई एक मुलाकात को बहुत दिलचस्प ढंग से में बयां किया है संक्षेप में बताऊँ तो वो लिखते हैं कि " एक दिन निर्मल अपने पति के साथ सुबह सुबह कुमार साहब के घर जा पहुंची और उन्हें कागजों का एक पुलंदा थमाते हुए बोलीं कि सर मेरी ये कुछ ग़ज़लें हैं आप इन्हें देख लीजिये मुझे दस पंद्रह दिनों में एक पब्लिशर को इन्हें देना है। कुमार साहब इतनी ग़ज़लें देख कर बोले कि इन्हें दस पंद्रह दिनों में देख कर देना संभव नहीं है। निर्मल निराश क़दमों से लौटने लगी तो उनका दिल पसीज गया। उन्होंने कहा कि चलो इन्हें रख दो मैं कोशिश करूँगा। निर्मल ख़ुशी ख़ुशी लौट गयी। डाक्टर साहब ने तीन दिनों में लगातार बैठ कर करीब पचास ग़ज़लें देख डालीं और निर्मल को कहा कि ये पचास ग़ज़लें तो अभी जाओ बाकि की बाद में दूंगा। निर्मल आयी उसके पाँव ख़ुशी के मारे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। कुमार साहब के पाँव छुए उनका आशीर्वाद लिया और चली गयी। डाक्टर साहब ने निर्मल को वो सब कुछ दिया जो एक पिता अपनी बेटी को और उस्ताद अपने शागिर्द को दे सकता है।

 दिल के पहले पन्ने पर तुम ही तुम हो 
 क्या तुम मेरे सारे पन्ने भर दोगे 

 ऐसा लगता है मैं छूट गयी हूँ कहीं 
 तुमको मिल जाऊं तो वापिस कर दोगे 

 मैं घर की इज़्ज़त हूँ ज़ीनत हूँ ज़र हूँ 
 क्या तुम मुझको इल्मो-अदब का घर दोगे 

 निर्मल जी बहुत कम बोलती हैं ,और अपने बारे में तो बिल्कुल भी नहीं। ऊपर से कठोर लेकिन भीतर से बेहद नाज़ुक़ मिज़ाज़ की निर्मल जी ने ये रूप जान बूझ कर धरा है वो कहती हैं कि आज के ज़माने को देखते हुए ये बहुत जरूरी है। ये कठोरता एक रक्षा कवच है जो समाज में पाए जाने वाले मौका परस्तों को उनसे दूर रखता है। खुद्दार और जुझारू प्रवति की निर्मल ने 43 वर्ष की उम्र में एक्टिवा चलाना सीखा और फिर कार। उनसे वो महिलाएं प्रेरणा ले सकती हैं जो बढ़ती उम्र की आड़ ले कर अपनी कमज़ोरियाँ छुपाती हैं और अपने ख़्वाबों की पोटली बना कर घर के बाहर रखे सरकारी कूड़े दान में फेंक देती हैं।अगर आप में अपने सपनो को साकार करने की शिद्दत से चाह है तो फिर दुनिया की कोई ताकत आपकी राह नहीं रोक सकती। स्वभाव से हँसमुख और मस्त रहने वाली निर्मल जी ने जीवन में आयी अनेक कड़वाहटों का दौर सफलता पूर्वक झेला है और विजयी बन के निकली हैं।

 तू जरूरी है मुझे ज़ीस्त बनाने के लिए
 ज़ीस्त लग जाएगी तुझको ये बताने के लिए 

 सुनते हैं हिज़्र बिना इश्क मुकम्मल ही नहीं 
 दूर हो जाओ ज़रा इश्क निभाने के लिए 

 मसअला बात के जरिये भी सुलझ जाता, पर 
 खार ही काम आया खार हटाने के लिए 

 निर्मल जी किसी मुशायरे में नहीं जातीं, किसी पत्रिका या अखबार में अपनी ग़ज़लें नहीं भेजती क्यूंकि वो अंतर्मुखी हैं उनका आत्म प्रचार में विश्वास नहीं। उनके शुभचिंतक ही उनकी रचनाएँ इधर उधर भेजते रहते हैं। आज की दुनिया में नाम कमाने के लिए आपको खुद को बेचने का हुनर आना चाहिए, अपने फायदे के लिए दूसरों का इस्तेमाल करना भी आना चाहिए। संस्कार और अध्यात्म में गहरी रूचि के चलते वो चाह कर भी ऐसा नहीं कर पातीं जो है जैसा है उसमें ही बहुत खुश रहने में उनका गहरा विश्वास है। निर्मल जी की ज़िन्दगी में जो भी घटनाएं हुई हैं वो अचानक ही हुई हैं ,शायरी भी अचानक ही उनके जीवन में उतरी। शायरी को एक बोझिल और समय की बर्बादी समझने वाली निर्मल ने आज शायरी के माध्यम से अपनी पहचान बनाई है।

 जरा सी धूप के आसार कर दो 
 तुम्हारी याद पे काई जमी है 

 अकेला है वो मुझसे दूर रह कर 
 मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है 

 मिरी इक राय है मानों अगर तुम 
 जिसे देखा नहीं वो ही सही है 

 ऐनी बुक के पराग अग्रवाल की मैं इसलिए तारीफ करता हूँ कि उन्हें नए अनजान शायरों की किताबें छापने से गुरेज़ नहीं होता। बेहद दिलकश आवरण में लिपटी ये किताब जिसमें निर्मल जी की 100 से अधिक ग़ज़लें संगृहीत हैं ,दूर से ही पाठकों को अपनी और आकर्षित करती है। इस किताब को पाने के लिए आप पराग जी से 9971698930 पर संपर्क करें।ये किताब अमेजन पर भी ऑन लाइन उपलब्ध है। इस किताब को निर्मल जी ने अपने पिता स्वर्गीय चौधरी रामचन्दर सिंह जी को, जो प्रसिद्ध स्वतंत्रता सैनानी और समाजसेवी भी थे ,समर्पित किया है। आप इसे ध्यान से पढ़ें और निर्मल जी को इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए 9416931642 पर फोन कर बधाई भी दें। और अब आखिर में पढ़िए निर्मल जी उस ग़ज़ल के चंद शेर जिसे उनसे हमेशा फरमाइश करके बार बार सुना जाता है और जिसने डा. कुमार जैसे ग़ज़ल पारखी को भी हैरान हो कर दाद देने पर मज़बूर कर दिया था :

 बूँद का रक्स आग पर देखो 
 जान जाओगे इश्क क्या शय है 

 कह रहे हैं ख़ुदा के क़ातिल भी 
 ज़र्रे-ज़र्रे में अब भी है ! है ! है ! 

 हाथ में किसके है कोई लम्हा 
 वक़्त हर शय का आज भी तय है

Monday, July 23, 2018

किताबों की दुनिया -187

बाज़ारों में फ़िरते फ़िरते दिन भर बीत गया
 काश हमारा भी घर होता, घर जाते हम भी
 ***
तुम इक मर्तबा क्या दिखाई दिए
 मिरा काम ही देखना हो गया
 ***
सड़क पे सोए हुए आदमी को सोने दो
 वो ख्वाब में तो पहुँच जायेगा बसेरे तक
 ***
 बसर की इस तरह दुनिया में गोया
 गुज़ारी जेल में चक्की चला के
 ***
मैंने ये सोच के रोका नहीं जाने से उसे
 बाद में भी यही होगा तो अभी में क्या है
 ***
और आलूदा मत करो दामन
 आंसुओं रूह में उतर जाओ
 आलूदा =प्रदूषित
 ***
 किया करते थे बातें ज़िन्दगी भर साथ देने की
 मगर ये हौसला हम में जुदा होने से पहले था
 ***
सिर्फ उस के होंठ कागज़ पर बना देता हूँ मैं
 ख़ुद बना लेती हैं होंठो पर हंसी अपनी जगह
 ***
गुज़ारे हैं हज़ारों साल हमने
 इसी दो चार दिन की ज़िन्दगी में
 ***
था वादा शाम का मगर आये वो देर रात
 मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया
 ***
लोग सदमों से मर नहीं जाते
 सामने की मिसाल है मेरी
***
अच्छा खासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ 
 अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ

 मेरी तो ये बात समझ में आती नहीं , आप ही बताइये कि शराब और शायर के बीच क्या नाता है ?हमने ग़ालिब से लेकर फ़िराक़ ,जिगर ,मज़ाज़ जॉन एलिया आदि बहुत से ऐसे शायरों के बारे में पढ़ा है कि वो शराब के घनघोर प्रेमी थे ,उसी में डूबे रहते थे वगैरह !! शायर और शराब के रिश्ते को बहुत बढ़ा चढ़ा कर लिखा गया है जबकि शराब पीने का चलन आदि काल से चलता आ रहा है। हर तबके और वर्ग के लोग इस की गिरफ्त में रहे, रहते हैं और रहते रहेंगे। दरअसल जिसका नाम होता है वो ही बदनाम भी जल्दी होता है वर्ना आम आदमी अगर शराब में गर्क हुआ पड़ा है तो कौन उसकी परवाह करता है ? शराब दअसल इंसान को उस आभासी दुनिया में ले जाती है जिसकी वो कल्पना करता है -चाहे थोड़ी देर को ही सही। इसके नशे में गिरफ्त इंसान को अपने आप पास फूल खिलते नज़र आते हैं जिन पर रंगीन तितलियाँ रक़्स करती है, खुशबू भरी ठंडी हवाएं चलती हैं दूर बर्फ से ढके पहाड़ नज़र आते हैं ,झरने गीत गाते दिखाई देते हैं परिंदों का समूहगान सुनाई देता है हर इंसान खूबसूरत और खुश दिखाई देता है -इस दुनिया को देख कर शराबी सोचता है कि अगर फिरदौस-ऐ -ज़मीनस्तों , हमीनस्तों हमीनस्त चाहे हकीकत में वो किसी नाली में ही क्यों न गिरा हो।

 कार-ऐ-दुनिया में उलझने से हमें क्या मिलता 
 हम तिरी याद में बेकार बहुत अच्छे हैं 
 कार-ऐ-दुनिया =दुनिया के काम

 सिर्फ नाकारा हैं आवारा नहीं हैं हर्गिज़ 
 तेरी ज़ुल्फ़ों के गिरफ़्तार बहुत अच्छे हैं 

 हद से गुज़रेगा अँधेरा तो सवेरा होगा 
 हाल अब्तर सही आसार बहुत अच्छे हैं 
 अब्तर =ख़राब 

 इस से पहले कि मेरे अज़ीज़ और बेहतरीन शायर जनाब के पी अनमोल साहब हँसते हुए कहें कि नीरज भाई आप भूमिका में क्यों बोर कर रहे हो तो मैं माज़रत के साथ अर्ज़ कर दूँ कि हमारे आज के शायर का शराब के साथ गहरा तअल्लुक है। दोनों शायद एक दूसरे के बिना नहीं रह सकते। बार बार छोड़ देने के बावजूद इस अंगूर की बेटी का हुस्न उन्हें अपने पास खींच लेता है।इसके चलते मैंने सोचा कि चलो शराब से ही बात शुरू की जाय। हमारे आज के शायर हैं जनाब अनवर हुसैन जो शायरी की दुनिया में अनवर शुऊर के नाम से जाने जाते हैं। अनवर साहब भारत के मध्यप्रदेश राज्य के फर्रुखाबाद जिले के एक छोटे से गाँव सियोनी में अशफ़ाक़ हुसैन साहब के यहाँ 11 अप्रेल 1943 को पैदा हुए। प्रारंभिक शिक्षा वहीँ से ली।देश के विभाजन के बाद उनका परिवार कराची चला गया। वो जब पांचवी जमात में पढ़ते थे तभी उनकी माँ का देहांत हो गया ,पिता के अत्याचारों से तंग आ कर वो स्कूल और घर से भाग गए। पढाई से तौबा करली। आप ये न समझे कि वो पढ़े लिखे नहीं हैं , ये जरूर है की स्कूल से तालीम उन्होंने भले ही हासिल न की हो लेकिन दुनिया से मिली ठोकरों और घुमक्कड़ी से उन्होंने बहुत सीखा और फिर उसके बाद अपने दिलचस्पी के विषयों पर खूब पढ़ा। आज हम उनकी किताब "अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता " की बात करेंगे।


 पहले सूली पे चढ़ाते हैं मसीहाओं को 
 बाद में सोग मनाते हैं मनाने वाले 

 मेरी बातों के मआ'नी भी समझते ऐ काश
 मेरी आवाज़ से आवाज़ मिलाने वाले 

 नाम देते हैं मुझे आज खराबाती का 
 इस खराबे की तरफ खींच के लाने वाले 
 खराबाती-शराबी, खराबे - वीराना 

 अनवर मानते हैं कि तालीम हासिल करना बहुत जरुरी चीज है और इस बात का अफ़सोस उन्हें आज तक भी है लेकिन अब जो हो गया सो गया। ज़िन्दगी में भटकते भटकते आखिर उन्होंने उर्दू के सबसे ज्यादा छपने वाले पर्चे "सबरंग डाइजेस्ट " में मुलाज़मत की। उसी दौरान उनकी दोस्ती जॉन एलिया से हो गयी। जॉन साहब अपनी एक किताब का पेश लफ्ज़ या दीबाचा या प्रस्तावना लिखवाने सबरंग डाइजेस्ट के दफ्तर आते जहाँ वो बोलते और अनवर साहब उसे लिखते। उर्दू नस्र का एक बेहतरीन नमूना यूँ लिखा गया था। जॉन से उनकी दोस्ती और कुछ उनकी अपनी तबियत ने अनवर को शायर बना दिया। उनकी शायरी में किसी और शायर की शायरी का अक्स नहीं झलकता। उनका अपना स्टाइल है जो सुनने पढ़ने वालों को बहुत आकर्षित करता है।"सबरंग" ने उन्हें उड़ने के लिए आसमान दिया।

 कहीं दिखाई दिए एक दूसरे को हम 
 तो मुंह बिगाड़ लिए रंजिशें ही ऐसी थीं 

 बहुत इरादा किया कोई काम करने का 
 मगर अमल न हुआ उलझने ही ऐसी थीं

 बुतों के सामने मेरी ज़बान क्या खुलती 
 खुदा मुआफ़ करे ख्वाहिशें ही ऐसी थीं 

 लिखने का शौक उन्हें बचपन से ही था। महज़ 11 साल की उम्र में उन्होंने कवितायेँ लिखनी शुरू की जो कराची से लेकर दिल्ली तक की बच्चों की पत्रिकाओं और अख़बारों में प्रकाशित होने लगीं। "सबरंग" में सब एडिटर बनने से पहले उन्होंने 1964 में अपनी मुलाजमत की शुरुआत अंजुमन तरक्की-ऐ-उर्दू से की। 1970 में उन्होंने जो सबरंग का दामन पकड़ा तो फिर 30 साल बाद सन 2000 में छोड़ा। इन तीस सालों में उनकी पहचान पाकिस्तान के बेहद लोकप्रिय शायरों में की जाने लगीं। अनवर आजकल रोजाना की घटनाओं पर पाकिस्तान के नंबर 1 अखबार 'जंग' में नियमित रूप से कतआ लिखते हैं जिसे लाखों लोग रोज नियम से पढ़ते हैं। कतआत ने उनकी लोकप्रियता में चार चाँद लगा दिए लेकिन वो खुद को मूल रूप से एक ग़ज़ल कार ही समझते हैं।

 तमाम दिन की गुलामी के बाद दफ़्तर से
 किसी बहिश्त में जाता हूँ घर नहीं जाता 

 सता रही है मुझे ज़िन्दगी बहुत लेकिन 
 कोई किसी के सताने से मर नहीं जाता 

 ज़ियादा वक्त टहलते हुए गुज़रता है 
 कफ़स में भी मेरा शौक-ऐ-सफर नहीं जाता 

 अनवर साहब की ज़िन्दगी बहुत उतार चढ़ाव वाली रही। बड़ी मुश्किल से गुज़ारा होता था। एक तिमंज़िला इमारत पे बनी छोटी सी कोठरी में उनका ठिकाना रहा जिसमें बमुश्किल घुस के वो देर रात आने के बाद सोया करते थे। बलानोशी के चलते उन्होंने एक काबुली से पैसा उधार लिया और चुका नहीं पाए लिहाज़ा सूद-दर-सूद के हिसाब से अस्ल रकम में कई गुना इज़ाफ़ा हो गया। सूद-खोर ने जब धमकाना शुरू किया तो उन्होंने 'सबरंग' के एडिटर जनाब मुश्फ़िक ख्वाज़ा साहब से मदद की गुहार की। ख्वाजा साहब जो अनवर साहब की पीने की आदत से वाकिफ थे ने उन्हें इस शर्त पर क़र्ज़ अदाई के लिए पैसा देना मंज़ूर किया कि वो शराब छोड़ देंगे। अनवर मान गए , उनकी हरकतों से लगने लगा कि उन्होंने शराब से तौबा कर ली है लेकिन चंद दिन ही गुज़रे कि जॉन एलिया घबराये हुए सबरंग के दफ्तर आये और ख्वाजा साहब से कहा कि अनवर को बुरी तरह नशे की हालत में पोलिस पकड़ के ले गयी है और छोड़ने के 50 रु मांग रही है। ख्वाजा साहब ने सर पकड़ लिया - और करते भी क्या। अनवर ने शायद अपने बारे में जो ग़ज़ल कही उसके ये शेर देखें :

 मुझसे सरज़द होते रहते हैं गुनाह 
 आदमी हूँ क्यों कहूं अच्छा हूँ मैं 

 बीट कर जाती है चिड़िया टाट पर 
 अज़मत-ए- आदम का आईना हूँ मैं 
 अज़मत-ए- आदम =इंसान की महानता 

 मुझ से पूछो हुर्मत-ए-काबा कोई
 मस्जिदों में चोरियां करता हूँ मैं 

 मैं छुपाता हूँ बरहना ख्वाहिशें 
 वो समझती है कि शर्मीला हूँ मैं 
 बरहना = नग्न 

 ख्वाजा साहब लिखते हैं कि "शुऊर साहब की शायरी को किसी दीबाचे याने तआरुफ़ की ज़रूरत नहीं है। अबतक उर्दू ग़ज़ल के जितने सांचे और जितने रंग मिलते हैं शुऊर की ग़ज़ल उन सब से अलग है। इसकी एक अपनी फ़िज़ा है एक अपना मिज़ाज़ है यहाँ तक कि ज़खीरा-इ-अलफ़ाज़ (शब्द भण्डार )भी आम ग़ज़लों में इस्तेमाल होने वाले अल्फ़ाज़ से अलग है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं की शुऊर की ग़ज़ल हमारी शेरी रिवायती से अलग है। अपनी शेरी रिवायत से जितनी वाक़फ़ियत शुऊर को है उतनी कम शायरों को होगी लेकिन शुऊर ने बने बनाये सांचो पर निर्भर न रहते हुए और अपनी शेरी रिवायतों से तालमेल बिठाते हुए एक अलग राह निकाली है और एक अलग लहज़े को पहचान दी है जिससे नयी ग़ज़ल के फैलाव की सम्भावना का अंदाज़ा होता है। "

 तबाह सोच-समझ कर नहीं हुआ जाता 
 जो दिल लगाते हैं फर्ज़ाने थोड़ी होते हैं 
 फर्ज़ाने =समझदार 

 जो आते हैं मिलने तेरे हवाले से 
 नए तो होते हैं अनजाने थोड़ी होते हैं 

 हमेशा हाथ में रखते हैं फूल उनके लिए 
 किसी को भेज के मंगवाने थोड़ी होते हैं 

 आज शादीशुदा और अपने अपने घरों में खुश 3 बेटियों और एक बेटे के पिता शुऊर साहब कराची के पॉश इलाके में बने गुलशन-ऐ-इक़बाल बिल्डिंग में बने अपने अपार्टमेंट में आराम और सुकून से रहते हैं जहाँ से कराची का सर्कुलर रेलवे स्टेशन और अलादीन अम्यूजमेंट पार्क साफ़ दिखाई देता है। वो अपने अपार्टमेंट की बालकनी में बैठ कर लगातार कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं। उनका मानना है कि लेखक को साहित्य की हर विधा पर पढ़ते रहना चाहिए। उपन्यास हो, कहानियां हों, ग़ज़लें हों, नज़्में हों, यात्रा वृत्तान्त हो , दर्शन हो या जीवनियां हों। वो मुस्कुराते हुए वो कहते हैं कि आजकल कहानीकार सिर्फ कहानियां पढता है उपन्यासकार सिर्फ उपन्यास ग़ज़लकार सिर्फ ग़ज़लें इतना ही नहीं हालात इतने ख़राब हैं कि अब तो शायर सिर्फ अपनी ही शायरी पढता है और फिक्शन लेखक सिर्फ अपना लिखा फिक्शन। वो कहते हैं कि मुझे जो भी थोड़ी बहुत पहचान मिली है वो सिर्फ शायरी की बदौलत मिली है।

 दिल जुर्म-ऐ-मोहब्बत से कभी रह न सका बाज़ 
 हालाँकि बहुत बार सज़ा पाए हुए था 

 हम चाहते थे कोई सुने बात हमारी
 ये शौक हमें घर से निकलवाए हुए था 

 होने न दिया खुद पे मुसल्लत उसे मैंने 
 जिस शख़्स को जी जान से अपनाए हुए था
 मुसल्लत =छा जाना

 "अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता " शायद हिंदी में अनवर साहब की शायरी की एक मात्र किताब है जिसे रेख़्ता बुक्स ने प्रकाशित किया है। पाकिस्तान सरकार की और से अल्लामा इक़बाल सम्मान से सम्मानित अनवर शुऊर साहब के चार मजमुए "अनदोख्ता" 1995 में ,मश्क-ऐ-सुखन " 1999 में मी-रक्सम 2008 में और "दिल क्या रंग करूँ " 2009 में प्रकाशित हो चुके हैं। इस किताब को पाने के लिए आप रेख़्ता बुक्स से सम्पर्क करें या फिर अमेजन से ऑन लाइन मंगवा लें। इस किताब में अनवर साहब की 119 ग़ज़लें संग्रहित हैं जो अपने कहन और दिलकश अंदाज़ से आपका मन मोह लेंगी। आप किताब मंगवाने की कवायद करें और मैं नयी किताब की तलाश में निकलने से पहले उनकी एक छोटी बहर की ग़ज़ल के ये शेर पढ़वाता चलता हूँ :

 हमने जिस रोज़ पी नहीं होती
 ज़िन्दगी ज़िन्दगी नहीं होती

 रात को ख़्वाब देखने के लिए
 आँख में नींद ही नहीं होती

 सुब्ह जिस वक्त शहर आती है
 कोई खिड़की खुली नहीं होती

 बे पिए कोई क्या ग़ज़ल छेड़े 
 कोफ़्त में शाइरी नहीं होती

Monday, July 16, 2018

किताबों की दुनिया - 186

मासूम चिरागों को हवाओं ने बुझाया 
क्यों भड़के हुए शोलों प ताज़ीर नहीं की 
 ताज़ीर = सजा सुनाना 
 *** 
वही शाम है वही रात है मगर अपना अपना नसीब है 
 कहीं काटनी ये मुहाल है कहीं आरज़ू कि सहर न हो 
 *** 
इसको नादानी कहें या सादगी दिल की कहें 
 इक ज़रा चश्मे करम हो खुशगुमाँ हो जाएगा 
 *** 
मेरी बातों की सदाक़त मेरे लहजे का सबात 
 तुमको लगता है बगावत है , चलो यूँ ही सही 
 सदाकत=सच्चाई, सबात : स्थाई भाव 
 *** 
हर्ज क्या है सुनने में मशविरे भी सुन लीजिये 
 फैसला जो दिल का हो बस वही मुनासिब है
 *** 
कुछ हक़ीक़त में ग़म के मारे हैं
 बे सबब भी उदास हैं कुछ लोग
 *** 
बज़्मे तसव्वुरात में माज़ी का रक़्स था 
 यादों के घुँघरू छनन-छनन बोलने लगे
 बज़्मे तसव्वुरात =कल्पना लोक , माज़ी = गुज़रा हुआ समय 

आप यकीनन किसी न किसी गुलशन में सैर के वास्ते जरूर गए होंगे , वहां फूलों को खिलते मुस्कुराते देख के खुश भी हुए होंगे। गुलशन में आपने कितनी तरह के फूल देखें होंगे -वो ही केतकी गुलाब जूही चंपा चमेली कमल हजारा या फिर मौसमी फूल ? आपको ये तो पता ही होगा कि कुछ फूल ऐसे होते हैं जो जंगल में खिलते हैं बनफूल -बन का फूल। इन्हें न किसी माली के देखरेख की जरुरत होती है है न किसी खाद की न किसी गमले की और न ही किसी देखने वाले की। ये बंजर जमीन पर भी खिल उठते हैं क्यूंकि इनके बीज में उगने की जबरदस्त इच्छा शक्ति होती है। इन्हें तो ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा हवा की नमी और सूरज की रौशनी चाहिए होती है बस। इन पर भी तितलियाँ रक़्स करती हैं कायनात फक्र करती है हवाएं दुलारती है शबनम भिगोती है। इन फूलों को देख भले कोई तालियां न बजाये अपने घर के गुलदानों में न सजाये ये फूल हर हाल में हाल में झूमते खिलखिलाते अपने आस-पास की फ़ज़ा को अपने रंगों और खुशबू से आबाद किये रखते हैं -कमाल के होते हैं ऐसे फूल।

 जितने फरज़ाने थे सब दस्तो गिरीबां ही रहे 
 दार तक रौशन हुआ है सिर्फ दीवाने का नाम 
 फरज़ाने =समझदार 

 ज़िन्दगी पैहम सफर है ज़ुस्तुजू दर ज़ुस्तज़ू 
 मौत क्या है ज़िंदगानी के ठहर जाने का नाम 

 आसमाँ की मांग में है जो शफ़क़ की ये लकीर 
 झील के पानी में सूरज के उतर जाने का नाम 

 ऐसा ही एक कमाल का फूल है हमारी आज की शायरा "तबस्सुम आज़मी" जो ऐसी ज़मीन पर खिलीं जो शायरी के लिए बिलकुल मुफ़ीद नहीं थी. आज हम उनकी किताब "धनक" की बात करेंगे। आजमगढ़, जहाँ शायरी के एक से बढ़ कर एक उस्ताद पैदा हुए , एक अदद शायरा के लिए तरसता रहा। आज़मगढ़ की मिटटी में ऐसा कुछ जरूर है जिसमें खेलने रचने वाला शख़्स शायरी करने लगता है। शिबली नोमानी याने 1857 से चला ये सिलसिला आजतक बदस्तूर जारी है. लेकिन वहां की मिटटी न जाने क्यों हमेशा शायरों की परवरिश करती रही। तबस्सुम वहां की पहली शायरा होने का फ़क्र हासिल रखती हैं। आज से कोई आधी सदी पहले जब कि लड़कियों की पढाई को लेकर वहां का मुस्लिम समाज एक मत से खिलाफ था तब पास के एक छोटे से गाँव में रहने वाले पिता ने अपनी बेटी को तालीम दिलवाने की सोची। ये एक क्रांतिकारी क़दम था।



 कभी ऐसा भी होता है ये दिल खुद हार जाता है 
 कभी हारी हुई बाज़ी भी सच मानी नहीं जाती 

 कभी कितना बड़ा हो वाक़ेआ हैरत नहीं होती 
 कभी हो बात छोटी फिर भी हैरानी नहीं जाती 

 कभी इक पल में हो जाता है दिल ये बाग़-बाग़ अपना 
 कभी मुद्दत तलक इस दिल की वीरानी नहीं जाती 

 तबस्सुम का जन्म अपने ननिहाल कलकत्ता में हुआ जहाँ उन्होंने वहां के एक कॉन्वेंट स्कूल में तीसरी जमात तक पढाई की। कुछ हालात ऐसे बने कि उनको अपने गाँव जो आजमगढ़ के बेहद करीब है , आना पड़ा। पढ़ने की शौकीन तबस्सुम को यहाँ पढाई का माहौल ही नहीं मिला। गाँव में स्कूल न होने पर तबस्सुम की पढाई का जिम्मा उनके वालिद जनाब अब्दुल हमीद साहब ने उठाया। काश हर बेटी को तबस्सुम जैसे माँ- मिलें जिन्होंने समाज के ख़िलाफ़ जा कर अपनी बेटी को पढ़ाने का फैसला किया और उसके पीछे ठोस चट्टान की तरह खड़े रहे। उन्होंने महज 5 साल की उम्र में कुरानशरीफ नाज़िर ख़त्म कर लिया साथ ही साथ अहम् सूरा-ए कुरान हिफ्ज़ भी। परिवार से उन्हें पाकीजा सोच की तालीम मिली । प्रारभिक पढाई के बाद उन्होंने अपना मुताला (अध्ययन )जारी रखा और जामिया उर्दू अलीगढ से अदीब कामिल किया। लिखने में ये बात जितनी आसान लगती है हकीकत में है नहीं। जहाँ साहित्य के नाम पर बंज़र और सोच के स्तर पर रूढ़ि वादी समाज में किसी लड़की के लिए अफसाने लिखना-पढ़ना और शायरी में दिलचस्पी रखना गुनाह माने जाते हैं वहीं उसी समाज का हिस्सा बने रह कर उन्होंने अपने परिवार खास तौर पर माँ-बाप के सहयोग से अफ़साने भी लिखे और शायरी भी की। इसके लिए बला की हिम्मत और जूनून चाहिए।

 किसको मालूम पसे पर्दा जो सिसकी है निहाँ 
 चूड़ियों का तो कलाई में खनकना तय था 

 आँखों आँखों में वो जज़्बात हुए हैं ज़ाहिर
 जिनके इज़हार में होटों का झिझकना तय था 

 गुल का अंजामे तबस्सुम था निगाहों में मगर
 फिर भी कलियों के मुकद्दर में चटकना तय था 

 ज़िन्दगी हमें खूबसूरत इसलिए लगती है क्यूंकि ये पता नहीं होता कि ये किस वक्त क्या रंग दिखाएगी।जब कभी आप इसकी रफ़्तार देख सोचते हैं कि ये कभी थमेगी नहीं तभी अचानक थम जाती है और कभी लगने लगता है कि सामने दीवार है तभी अचानक रास्ते नज़र आ जाते हैं। अब तबस्सुम ने कभी सोचा नहीं था कि वो शायरी करेगी। शायरी का बीज उसके जेहन में कब आके गिरा उसे कुछ पता नहीं, अचानक वो कब का गिरा बीज फूटा और उस में से पौधा निकल आया। वो तो खुद कहती हैं कि "मुझे ये तो पता नहीं कि मुझ में शायरी के जरासीम कैसे आये क्यूंकि मेरे घर या खानदान में मुझसे पहले कोई शायर या शायरा नहीं था। जब मुझमें शेर समझने की सलाहियत नहीं थी तब भी हर अच्छा शेर मुझे अपनी और खींचता था ,फिर पता ही नहीं चला कब और कैसे मैं खुद शेर कहने लगी " हालाँकि पहली ग़ज़ल मात्र 13 साल की उम्र में कही लेकिन रुझान उनका कहानियों पर रहा जो देश के मैयारी रिसालों में छपीं।

 बे ग़रज़ हो के अगर डोर ये बाँधी जाए 
 कोई बंधन ही नहीं प्यार के बंधन की तरह 

 दिल में झाँका तो वही मोम का पुतला निकला 
 जो बज़ाहिर नजर आता रहा आहन की तरह 
 आहन=लोहा 

 इक नई सुब्ह की उम्मीद को रक्खा क़ायम 
 ज़िन्दगी रोज़ सँवरती रही दुल्हन की तरह 

 पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके लेखन का सिलसिला अचानक से थम गया। बरसों उन्होंने कुछ लिखा पढ़ा नहीं आखिर उनके बेटे ने उन्हें संभाला, हिम्मत दी और दुबारा लेखन की और प्रेरित किया। इसलिए ये कहना गलत न होगा कि तबस्सुम का शे'री सफर बहुत पुराना नहीं है। ग़ज़ल कहने की विधिवत शुरुआत उन्होंने 2013 से की। जैसा कि आपसब को पता ही है सोशल मिडिया की वजह से आज ग़ज़ल को जो लोकप्रियता मिली है वो बेमिसाल है -इसकी वजह से हालाँकि ग़ज़ल को नुक्सान भी हुआ है क्यूंकि बहुत से लोग बिना इसकी रूह तक पहुंचे सस्ती वाहवाही के चक्कर में इसका बेडा गर्क करने पर तुले हुए हैं। सिर्फ बहर में तुकबंदी याने काफिया पैमाई करना ग़ज़ल नहीं है ये इसके बहुत आगे की विधा है। हम अगर ग़ज़ल को सस्ता मनोरंजन समझने वाले लोगों को नज़रअंदाज़ कर दें तो आज भी बहुत से युवा और बुजुर्ग ग़ज़ल की चाकरी में पूरे मन से लगे हुए हैं और ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने में सहयोग दे रहे हैं।इसी इंटरनेट के चलते तबस्सुम की मुलाकात फेसबुक पर ग़ज़ल के पारखी डा. प्रमोद लाल यक्ता साहब से हुई। इस मुलाकात ने ही तुकबंदी करने वाली "ताहिरा तबस्सुम" को बेहतरीन शायरा "तबस्सुम आज़मी" बनाया।

 इक मोड़ प किरदारों का यूँ रब्त है टूटा 
 लिख पाया मुसन्निफ़ नहीं अंजाम अभी तक 
 मुसन्निफ़ =लेखक 

 वो जुर्म जो सरज़द न हुआ था कभी मुझ पर 
क़ायम है मिरे सर प वो इल्ज़ाम अभी तक 
 सरज़द = सिद्ध 

 और अपनी वफ़ादारी का क्या दूँ मैं सबूत अब
 लिक्खा है सरे दार मिरा नाम अभी तक 
 सरे दार =सूली पर 

 माली का काम सिर्फ इतना होता है कि वो उस बीज की हिफाज़त करे जो उसे मिला है ,उसे जरुरत के मुताबिक पानी खाद दे धूप बारिश से दो चार करवाए उसका ख्याल रखे -बस। अब अगर बीज कमज़ोर है तो उस से खूबसूरत फूल-फल की उम्मीद करना गलत है ,उसमें माली भी कुछ नहीं कर पायेगा। तबस्सुम के भीतर का जो बीज था वो कमज़ोर नहीं था उसमें बेहद खूबसूरत शायरी छुपी हुई थी जिसे उनके उस्ताद ने माली की तरह पालपोस कर एक फूलों से भरे पेड़ बन जाने में मदद की। बीज को हुनर मंद माली का मिलना भी किस्मत की बात होती है। प्रमोद जी जैसा उस्ताद सभी को मयस्सर नहीं होता। तबस्सुम जी फेसबुक पर प्रमोद जी के ग़ज़ल ग्रुप "रू -ब -रु" में लिखती थीं , अब भी लिखती हैं ,जहाँ प्रमोद जी उसे पढ़ कर तबस्सुम जी को मशवरे दिया करते। फोन पर बातचीत के दौरान भी भी वो तबस्सुम जी को शायरी के गुर सिखाते।फेसबुक के माध्यम से बना ये रिश्ता उस्ताद शागिर्द से ज्यादा पिता-पुत्री का रहा जो प्रमोद जी के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत होते वक़्त तक रहा।
 दुनिया प हमको कोई भरोसा नहीं रहा 
 देखेंगे ज़िन्दगी को अब अपनी नज़र से हम 

 अब तो किसी भी शय में कशिश वो नहीं रही 
 गुज़रे तो बारहा हैं तिरी रहगुज़र से हम 

 चारागरों में जब वो मुरव्वत नहीं रही 
 किस वास्ते उमीद रखें चारागर से हम 
 चारागरों =चिकित्सकों 

 तबस्स्सुम जी के बारे में मशहूर शायरा और मेरी छोटी बहन "इस्मत ज़ैदी शिफ़ा " लिखती हैं कि "वो न ये कि एक उम्दा शायरा हैं बल्कि ओरिजिनल शायरा हैं। उनके कलाम में मौसिकी भी है ,सन्नाई(शिल्प कौशल ) भी , मुसव्विरि (चित्रकारी ) भी है पुरकारी भी ,तसव्वुरात की वुसअत (ख्यालों का फैलाव ) और खयालात की पाकीज़गी भी जो पाठक के दिलो-दिमाग को सुकून अता करती है। उनकी ज़बान मुझे बहुत ज्यादा आकर्षित करती है क्यों आज के शायर और शायरा इतनी अलंकृत ज़बान का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। तबस्सुम को पढ़ कर उनकी काबलियत का अंदाज़ा बहुत आसानी से लगाया जा सकता है उनकी ग़ज़लें आबशार की सी ठंडक का एहसास कराती हैं "

हमारा दिल भी दिल ही है ये क्या कभी दुखा नहीं 
 ये और बात है हमें किसी से कुछ गिला नहीं 

 हरेक बार चेहरे पर नई नई परत मिली 
 मिला तो बारहा है वो मगर कभी खुला नहीं 

 ये धूप छाँव ज़ीस्त की ये कुर्बतें जुदाईयाँ 
 ये गर्दिशें हैं वक्त की किसी की कुछ खता नहीं 

 मशहूर शायर प्रोफ़ेसर सुबोध लाल साक़ी ने लिखा है कि "तबस्सुम की 'धनक में मुझे सात दिलकश रंग नज़र आते हैं - सादगी ,सच्चाई ,सहजता , पाकीज़गी ,पुख़्तगी और हिन्दुस्तानियत। ये रंगों का एक जादुई संगम है लेकिन यहाँ आ कर प्यास बुझती नहीं और भड़क जाती है " सुबोध जी ने ही तबस्सुम जी की इस किताब का नाम 'धनक' रखा था। धनक में तबस्सुम जी की 73 ग़ज़लें संगृहीत हैं जो उन्होंने जनवरी 2015 से लेकर नवम्बर 2016 के बीच कही हैं। इस छोटे से वक़्फ़े में इतनी मयारी ग़ज़लें कहना आसान काम नहीं है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वक्त में हमें उनकी और भी बहुत सी किताबें पढ़ने को मिलेंगी।

 ज़िन्दगी लगती है ज़िन्दान को घर होने तक 
 दम न घुट जाएगा दीवार में दर होने तक 

 रक्से परवाना के शैदाई को क्या इस से गरज़ 
 शम'अ किस दर्द से गुज़री है सहर होने तक 

 बेहिसी ओढ़ के सोते हैं हमारे रहबर 
 आँख खुलती ही नहीं रक्से शरर होने तक 

 आज आलम ये है कि तबस्सुम जी की ग़ज़लें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में छप रही हैं और उनका नाम उर्दू के कद्रदानों में बड़े आदर से लिया जाने लगा है फिर वो कद्रदान चाहे अपने देश के हों या विदेश के। पड़ौसी देश पाकिस्तान के नामवर शायर अदबी हलकों में एक मुमताज़ हैसियत रखने वाले जनाब अज़ीज़ुद्दीन खिज़री जो जोश मलीहाबादी साहब के नवासे हैं इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "तबस्सुम की ग़ज़लों में मकसदियत ज़ज़्बात के इज़हार में सलीक़ा। शाइस्तगी और सुथरापन ग़ज़ल की रवायत को मज़रूह किये बगैर नुमायाँ नज़र आता है। तबस्सुम बचपन से ही हस्सास तबियत की मालिक है। भरी भरकम अलफ़ाज़ के बगैर सीधे सादे लफ़्ज़ों में अपनी बात कारी के दिल में उतार देती हैं।

उनके दामन की सबा ले के जो खुशबू आई 
 मुद्दतों बाद निगाहों में चमक उभरी है 

 दर्द के तार से बाँधा गया एक इक घुँघरू 
 सोज़ छलका है तो पायल में छनक उभरी है 

 अश्कबारी में जो फूटी है तबस्सुम की किरन 
 तब कहीं जा के ये रंगीन धनक उभरी है 

 'धनक' को सैंड पाइपर्स पब्लिशर्स 327/89 मीर अनीस लें चौक लख़नऊ ने सं 2017 में प्रकाशित किया है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप डा मोहम्मद आज़मी को 9984784445 पर संपर्क कर सकते हैं। वैसे धनक अमेजन से भी ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। इस किताब में तबस्सुम जी की ग़ज़लों के अलावा उनके द्वारा की गयी 8 तख़मीस सॉनेट,कत'आत, रुबाइयाँ त्रिवेणियाँ और दोहे भी संकलित हैं जिसे पढ़ कर उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अंदाज़ा हो जाता है। आप तबस्सुम जी से उनके इ-मेल tabassumazmi 68 @ gmail.com पर संपर्क कर उन्हें इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं। उनका फेसबुक एकाउंट भी है जहाँ जा कर आप उन्हें मैसेज कर सकते हैं।चलते चलते पेशे खिदमत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर : 

कुरबतों में बारहा ऐसा लगा 
 दरमियाँ इक फासला मौजूद है 

 दूसरों की आँख में ख़ामी न ढूंढ 
 देख ! उसमें आईना मौजूद है 

 कब भला हर मसअला हल हो सका
 सिलसिला दर सिलसिला मौजूद है 

 मुद्दई खामोश है बोले भी क्या 
 पहले से जब फैसला मौजूद है

Monday, July 9, 2018

किताबों की दुनिया-185

क्या और उससे मांगता जिसने तमाम उम्र
तुझसे बिछुड़ के जाने की हिम्मत न दी मुझे
***
मुझसे मिलने ही नहीं देती मुझको
 वो जो दीवार खड़ी है मुझ में
***
रात सोने के लिए दिन काम करने के लिए
वक़्त मिलता ही नहीं आराम करने के लिए
***
ये लोग तुझसे हमें दूर कर रहे हैं मगर
तिरे बग़ैर हमारा गुज़ारा थोड़ी है
***
चराग बुझते चले जा रहे हैं सिलसिला-वार
मैं खुद को देख रहा हूँ फ़साना होते होते
***
उसने बारिश में खिड़की खोल के देखा
नहीं भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई 
 *** 
ज़मीन पैर से निकली तो ये हुआ मालूम 
हमारे सर पे कई दिन से आस्मां भी नहीं 
 *** 
उसीने सबको किया है लहूलुहान कि जो 
 किसी पे वार न करता हुआ नज़र आया 
 *** 

 मौसम में उमस है. अक्टूबर के महीने में कराची की रातें उमस भरी ही होती हैं। एक घर की छत पर तीन लोग बैठे शराब पी रहे हैं, साथ में धुएँ के छल्ले उड़ा रहे हैं ,आधे चाँद की रात है यही कोई ग्यारह बजे होंगे ,हवा भी नहीं चल रही है, अगर ये लोग नीचे किसी कमरे में बैठते तो ज्यादा सुकून मिलता लेकिन तीनों को पता है कि ये मुमकिन नहीं। जिसकी छत पे बैठे हैं ये लोग उसके परिवार के लिए पाँव पसारने की जगह भी कमरे में नहीं है लिहाज़ा छत पर बैठे रहने के अलावा और रास्ता भी क्या है ? हाँ- किसी छोटे मोटे रेस्त्रां या शराबखाने में बैठा जा सकता था लेकिन तीनों के पास अगर इतने पैसे होते तो शराब की एक बोतल और न खरीद लाते। तंगदस्ती के इस आलम की भनक तक नहीं लगायी जा सकती इन्हें देख कर। हल्की रौशनी में साफ़ तो नहीं दिख रहा लेकिन अंदाज़ा जरूर हो रहा है कि जिस शख़्स के लम्बे लम्बे बाल और पतला मरियल सा शरीर है वो बाकी के दोनों लोगों से उम्र में काफी बड़ा है -बोल भी ज्यादा वही रहा है और पी भी वही ज्यादा रहा है। बाकि के दोनों जवान उसकी बात को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। चलिए, लेकिन दबे पाँव-कोई आहट न हो -हम उनके पास चलते हैं।

 रुख़्सत हुआ है दिल से तुम्हारा ख़्याल भी 
 इस घर से आज आख़िरी मेहमान भी गया 

 ऐसा कहाँ वो मानने वाला था मेरी बात 
 बादल उमड़ के आए हैं तो मान भी गया 

 क्या कर सकेगा शहर कि मरने से पेश्तर 
 गर अपने क़ातिलों को मैं पहचान भी गया

 "जानी " लम्बे बाल वाले अधेड़ ने गिलास से एक लम्बा घूँट भरते हुए दोनों से कहा " शायरी क्या है ? शायरी पसमंज़र को देख पाने और उसे बयान करने का हुनर है। एक तो मंज़र होता है जिसे हमारी आँखें देखती हैं, उस मंज़र के पीछे क्या है उसे हमारे दिलो-दिमाग की आँख देखती है अल्फ़ाज़ चुनती है और शेर में पिरोती है। हँसते हुए आदमी या औरत के पीछे छुपी घुटन, तड़पन, उदासी और अकेलापन हर कोई नहीं देख सकता। मंज़र को बयां करना शायर का काम नहीं ये काम खबरनवीस करते हैं पसे मंज़र बयां करो तो नाम कमाओगे। पसमंज़र के नज़ारे जितनी सफाई से देख पाओगे उतना ही तुम्हारा नाम होगा।तो सबसे पहले वो नज़र पैदा करो जो वो देख पाए जो दूसरे नहीं देख पाते, दूसरी जो अहम् चीज है 'जानी' वो है इल्म -उसे मज़बूत करो- मतलब खूब पढ़ो फिर लिखो ,समझे ?"हम देख रहे हैं कि एक युवा उनकी बात को बड़ी शिद्दत से आत्मसात कर रहा है और दूसरा बीच बीच में उनके द्वारा सुनाये शेरों पर अँधेरे में ही स्केचिंग कर रहा है।

 इक आदमी से तर्क-ए-मरासिम के बाद अब 
 क्या उस गली से कोई गुज़ारना भी छोड़ दे 
 तर्क-ए-मरासिम=सम्बन्ध विच्छेद 

 आना अब उसने छोड़ दिया है अगर तो क्या 
 दिल बेसबब चराग़ जलाना भी छोड़ दे 

 मज़बूत कश्तियों को बचाने के वास्ते 
 दरिया में एक नाव शिकस्ता भी छोड़ दे 

 तीनों की गुफ़्तगू लगातार चल रही है ये रोज का काम है ,महीनो से चल रहा है और उसके साथ साथ ठहाके भी - कमाल के लोग हैं ये -चैन की एक भी सांस इन्हें ज़िन्दगी नहीं लेने दे रही फिर भी हंस रहे हैं और वहां देखें सब कुछ होते हुए भी लोग टसुए टपकाते रहते हैं -अपना रोना रोना भी एक फैशन हो गया है -कोई किसी बात से खुश ही नहीं होता -दुखी रहने के बहाने ढूंढता है -और एक तरफ ये हैं कि दुखी होने के सारे कारण पास में होने के बावजूद हंस रहे हैं - कौनसी दुनिया के हैं ये लोग ? लम्बे बालों वाले ने एक गहरा कश लेते हुए ढेर सा धुआं छोड़ा और कहा कि "जानी शायरी में सिर्फ इंसान तक मत पहुंचो उसके सब कांशियस माइंड तक जाओ -पता करो की जो वो कह रहा है या कर रहा है उसके पीछे क्या सोच रहा है -इंसान का दिमाग बहुत काम्प्लेक्स है उसका एनालिसिस करो-उसकी फ़ितरत को समझो फिर लिखो "

 हिज़्र में ऐसे अँधेरे भी न देखे कोई 
 दिल मुंडेरों पे दिये देख के डर जाता है 

 कैसी नींदें हैं कि बंद आँखें जगाती है मुझे
 कैसा सपना है कि हर रात बिखर जाता है 

 यूँ गुज़रता है बस अब दिल से तिरे वस्ल का ध्यान 
 जैसे परदेश में त्यौहार गुज़र जाता है 

 सोच रहे होंगे कि इस उमस भरी आधी रात को क्यों मैं टाइम मशीन में बिठा कर आप को इस छत पे ले आया हूँ -सोचना लाजमी भी है। दरअसल हमारे आज के शायर इस तिगड्डे में से ही कोई एक हैं। किसे पता था कि लम्बे बालों वाले इस बेतरतीब सी शख्सियत वाले इंसान के ये दो होनहार साथी आने वाले वक्त में अपना नाम रोशन करेंगे।आज तो हालात ये हैं कि इन्हें ये भी पता नहीं कि कल को रोटी भी मयस्सर होगी या नहीं। हमारे आज के शायर वो हैं जो लम्बे बालों वाले के दाहिनी और बैठे हैं नाम है "जमाल एहसानी" और बाएं और बैठे इस खूबसूरत से नौजवान का नाम है "शाहिद रस्सम" जिन्होंने अपनी पेंटिंगस से पूरी दुनिया में पहचान बनाई है। रंग इनके हाथों में आ कर रक्स करने लगते हैं -और ये जो इन सब से बड़े हैं वो हैं जनाब "जॉन एलिया " साहब। जॉन साहब उस यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं जहाँ शाहिद पढ़ते हैं। शाहिद और जमाल दोस्त हैं। दोनों ही जॉन साहब के जबरदस्त फ़ैन। उम्र इन तीनों के रिश्ते में कभी आड़े नहीं आयी।

 जो मेरे जिक्र पर अब क़हक़हे लगाता है 
 बिछड़ते वक्त कोई हाल देखता उसका 

 मुझे तबाह किया और सबकी नज़रों में 
 वो बेकुसूर रहा, ये कमाल था उसका 

 जो साया साया शब-ओ-रोज़ मेरे साथ रहा 
 गली गली मैं पता पूछता फिरा उसका 

 जनाब "जमाल एहसानी" जिनकी किताब "अकेलेपन की इन्तिहा " की हम बात कर रहे हैं का जन्म पाकिस्तान के "सरगोधा" जो लाहौर से 172 की मी दूर है में 21 अप्रेल 1951 को हुआ। उनके पूर्वज भारत के पानीपत जिले के थे जो 1947 में शायद रोजी रोटी के चक्कर में सरगोधा जा बसे।सरगोधा में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद छोटी उम्र में ही वो कराची चले गए। कराची में उन्होंने आगे पढाई की , कॉलेज भी गए और बीए पास किया। शाहिद रस्सम जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है ,से उनकी दोस्ती हुई। शाहिद ने ही उन्हें जॉन साहब से मिलवाया। ज़िन्दगी से उनकी जद्दोजेहद कराची पहुँचने के साथ ही शुरू हो गयी। क्या क्या पापड़ नहीं बेले उन्होंने। कैसे कैसे इम्तिहान नहीं दिए। पता नहीं क्यों अक्सर देखा गया है कि क्रिएटिव इंसान को ज़िन्दगी में सुकून नहीं मिलता। उसके अंदर का कोलाहल उसे शांत बैठने नहीं देता। वो नज़र, जो सबके पास नहीं होती, उन्हें बैचैन रखती है क्यूंकि उसकी वजह से उन्हें तल्ख़ हकीकतें दिखाई पढ़ती हैं जो जान लेवा होती हैं।


 ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो न सके 
 ये रन्ज है कि कोई दरमियान में भी न था 

 हवा न जाने कहाँ ले गयी वो तीर कि जो
 निशाने पर भी न था और कमान में भी न था 

 'जमाल' पहली शनासाई का वो इक लम्हा 
 उसे भी याद न था मेरे ध्यान में भी न था

 मैं तो क्या कहूं आप वो पढ़ें जो जॉन एलिया साहब उनके बारे में फ़रमा गए हैं "जमाल उन 'नामवर' शाइरों से कहीं ज़ियादा शुऊर रखता है जो अज़ीमुश्शान कहलाते हैं। 'जमाल' ज़बान-ओ-बयान के मामले के मुआमले में बहुत मोहतात (सतर्क) है। जमाल एहसानी जमालियात (सौंदर्य शास्त्र ) का काबिल-ए-रश्क़ शुऊर रखते हैं और उसे बड़ी हुनरमंदी के साथ काम में लाते हैं " यही कारण है कि उर्दू लिटरेचर के छात्रों ने जितना जमाल के काम को पसंद किया है उतना उनके साथ के शायरों को नहीं। उनके चाहने वाले पूरी दुनिया में फैले हुए हैं -अफ़सोस की बात है कि उस वक्त सोशल मिडिया का बोलबाला नहीं था वरना तो उनका नाम हर शायरी के चाहने वालों के घर में लिया जाता।

 अभी तो मंज़िल-ए-जानां से कोसों दूर हूँ मैं 
 अभी तो रास्ते हैं याद अपने घर के मुझे 

 जो लिखता फिरता है दीवार-ओ-दर पे नाम मिरा
 बिखेर दे न कहीं हर्फ़ हर्फ़ कर के मुझे 

 मोहब्बतों की बुलंदी पे है यकीं तो कोई 
 गले लगाए मिरी सतह पर उतर के मुझे 

 चराग़ बन के जला जिसके वास्ते इक उम्र 
 चला गया वो हवा के सुपुर्द कर के मुझे 

 जमाल एहसानी की ज़िन्दगी को समझने के लिए हमें उनकी उस बात को पढ़ना होगा जो उन्होंने अपने लिए कही और जो इस किताब में भी दर्ज़ है ,इतनी साफ़ और दिलकश खुद बयानी बहुत कम पढ़ने को मिलती है " मुझे शायरी ने अच्छे दिनों के ख़्वाब और बुरे दिनों की हक़ीक़तों से रुशनास (परिचित ) कराया। मैंने शायरी ही से सब कुछ जाना और शायरी ही से सब कुछ माना। मेरी तमन्नाएँ , आसूदा और ना आसूदा (पूरी-अधूरी) ख़्वाइशें, जुनूँ , ख़िरद (बुद्धि ), दोस्तियां, दुश्मनियां ,इन्तिहा-पसंदी ,मयाना-रवी (मध्य मार्ग पर चलना ), तलव्वुन-मिज़ाज़ी (स्वभाव की अस्थिरता) कुछ न कुछ करते रहने की धुन या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने का लुत्फ़ ये सब कुछ मेरी शायरी की अता (देन) है। "

बहुत आराइश-ए-खाना के मन्सूबे बनाता हूँ
 मगर कमरे की छत पर एक जाला अच्छा लगता है
 आराइश-ए-खाना= घर सजाना

 मुझे अच्छा नहीं लगता ज़बाँ को बन्द कर लेना
 मगर बच्चों के हाथों में निवाला अच्छा लगता है

 कभी दिल शाद रहता है किसी के मिलते रहने से 
 कभी कोई बिछुड़ कर जाने वाला अच्छा लगता है 

 वो कोई और है हम में से हरगिज़ हो नहीं सकता 
 जिसे इस घर से बाहर का उजाला अच्छा लगता है

 इंसान की मज़बूरी छटपटाहट और पीड़ा की नुमाइंदगी "मुझे अच्छा नहीं लगता ---" वाले शेर में जिस तरह बयां हुई है वो आपको अंदर तक कचोटती है ,हिला देती है। इतने सादा लफ़्ज़ों में अपनी मज़बूरी का इज़हार करना ये बताता है कि 'जमाल' किस पाए के शायर हैं। आप उस इंसान की पीड़ा का अंदाज़ा लगाइये जब मज़बूरी में उसे अपनी ख़ुद्दारी दबानी पड़ती है। जमाल अपने बारे में आगे लिखते हैं कि " मैंने मिसरा मौजूँ (बनाने ) के सिवा जो भी काम किया उसमें मुंह की खाई ,बल्कि बाज़-औकात (कभी कभी) तो मिसरा मौजूँ करने का भी यही नतीजा सामने आया। ऐसे लम्हात भी गुज़रे कि शायरी से हाथ खींचने का इरादा किया मगर दूसरे सब इरादों की तरह ये भी शर्मिंदा-ए-ताबीर(पूरा ) न हुआ लिहाज़ा आम आदमी की तरह जीने को जी चाहता है न ख़ास आदमी की ख़ूबू (प्रकृति) मिज़ाज का हिस्सा है। बहर हाल ये रास्ता मेरा ख़ुद इख़्तियार-कर्दा (अपनाया हुआ ) है , इसलिए मुझे इसके सुख भी अज़ीज़ हैं और दुःख भी।

 ढांप देते हैं हवस को इश्क की पोशाक में
 लोग सारे शहर में बदनाम हो जाने के बाद 

 याद करने के सिवा अब कर भी क्या सकते हैं हम 
 भूल जाने में तुझे नाकाम हो जाने के बाद 

 खुद जिसे मेहनत-मशक्कत से बनाता हूँ 'जमाल' 
छोड़ देता हूँ वो रस्ता आम हो जाने के बाद 

 ज़माने भर के ग़म को अपने सीने में दफ़्न किये ये मोतबर शायर लीवर की बीमारी के चलते आखिर 10 फरवरी 1998 याने महज़ 47 साल की उम्र में ज़िन्दगी की जंग हार गया। 'जमाल' को इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुखसत हुए 20 साल हो चुके हैं लेकिन उनके कलाम की ताज़गी आज भी मोनालिसा की मुस्कान तरह ताज़ी और दिलकश है।उनकी शायरी की दो किताबें " सितारा-ए -सफ़र" और "रात के जागे हुए " उनके जीते जी मंज़र-ए-आम पर आये और तीसरा "तारे को महताब किया " उनके इन्तेकाल के तुरंत बाद।

 बंद कमरों में मकीं सोते हैं और आँगन में 
 मेरे और रात की रानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 जो उतरता है वो बहता ही चला जाता है 
 गोया दरिया में रवानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 जितने चेहरे हैं वो मिटटी के बनाये हुए हैं 
 जितनी आँखें हैं वो पानी के सिवा कुछ भी नहीं 

 12 अक्टूबर को 'जमाल' साहब की दसवीं बरसी के मौके पर के उनकी तीनो किताबों से तैयार "कुलियात-ए-जमाल" को मंज़र-ए-आम पर लाने का प्रोग्राम रखा गया। जिसमें और लोगों के अलावा उनके अज़ीज़ दोस्त शाहिद रस्सम साहब को बुलाया गया था। शाहिद जमाल की बातें करते करते करते रो पड़े उनके साथ ही वहां बैठे दर्शकों की आँखें भी भर आयीं। अगर आपकी रुखसती के बाद लोग आपको याद कर के रोयें तो मेरी नज़र में आपने जो ज़िन्दगी में कमाया है उसकी तुलना किसी दौलत से नहीं की जा सकती। दुनिया में हज़ारों लोग रोज मरते हैं कौन किसी की याद में रोता है ? ज़िन्दगी भर आपके साथ रहने वाले, साथ चलने वाले भी दो चार रोज में रो-धो कर चुप हो जाते हैं , गैरों की तो बात ही छोड़ दें। काश इस मंज़र को साहिर देखते तो उन्हें 'हमदोनो' फिल्म में अपना लिखा गाने "कौन रोता है किसी और की खातिर ऐ दोस्त , सबको अपनी ही किसी बात पे रोना आया " को दुबारा लिखना पड़ता।

 जरा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ 
 बना-बनाया हुआ घर उजाड़ आया हूँ 

 वो इन्तिक़ाम की आतिश थी मेरे सीने में 
 मिला न कोई तो खुद को पछाड़ आया हूँ 

 मैं इस जहां की किस्मत बदलने निकला था 
 और अपने हाथ का लिख्खा ही फाड़ आया हूँ 

 हम लोगों को, जो उर्दू पढ़ना नहीं जानते लेकिन शायरी से मोहब्बत करते हैं ,रेख़्ता बुक्स का एहसानमंद होना चाहिए जिसकी बदौलत हम उन शायरों का कलाम देवनागरी में पढ़ पा रहे हैं जिनका नाम भी हमने नहीं सुना था (मैं अपनी बात कर रहा हूँ ). ऐसी बहुत कम किताबें होती हैं जिसके हर पेज पर आपको एक आध या कभी ढेर से शेर ऐसे मिल जाएँ जो तालियां बजाने पर मज़बूर करें। ये किताब ऐसी ही है। इसे आप अमेज़न से ऑन लाइन बहुत आसानी से मंगवा सकते हैं। जो अमेजन से नहीं मंगवा सकते वो सीधे रेख़्ता बुक्स को बी-37 सेक्टर -1 नोएडा वाले पते पर लिख सकते हैं या contact@rekhta.org पर मेल कर सकते हैं। रास्ता आप चुनें मैं जमाल साहब की इस किताब से कुछ फुटकर शेर आपको पढ़वा कर नयी किताब की तलाश में निकलता हूँ।

 इस सफर में कोई दो बार नहीं लुट सकता 
 अब दोबारा तिरि चाहत नहीं की जा सकती
 *** 
याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ
 भूल जाना भी बड़ी बात हुआ करती है
 *** 
तेरे बगैर जिसमें गुज़ारी थी सारी उम्र 
 तुझसे जब आए मिल के तो वो घर ही और था 
 *** 
 दिल से तेरी याद निकल कर जाए क्यों 
 घर से बाहर क्यों घर का सामान रहे 
 *** 
जो सिर्फ एक ठिकाने से तेरे वाकिफ़ हैं
 तिरी गली में वो नादान जाया करते हैं
 *** 
अजब है तू कि तुझे हिज़्र भी गराँ गुज़रा 
 और एक हम कि तिरा वस्ल भी गवारा किया
 *** 
इश्क करने वालों को सिर्फ ये सहूलत है
 कुछ न करने से भी दिल बहलता रहता है
 *** 
देखने वालों ने यकजान समझ रख्खा था 
 और हम साथ निभाते रहे मजबूरी में 
 *** 
जमाल खेल नहीं है कोई ग़ज़ल कहना 
 की एक बात बतानी है इक छुपानी है

Monday, July 2, 2018

किताबों की दुनिया - 184

लायक़ कुछ नालायक़ बच्चे होते हैं 
शे'र कहाँ सारे ही अच्छे होते हैं 

बच्चोँ की खुशियाँ ढेरों सुख देती हैं 
हाथ में उम्मीदों के लच्छे होते हैं 

हम ही उल्टा-सीधा सोचा करते हैं 
रिश्ते थोड़े पक्के-कच्चे होते हैं 

जब आँखों का एक भरोसा ढहता है 
सपनों के लाखों परखच्चे होते हैं 

बहुत मुश्किल काम है भाई , बहुत मतलब हद से ज्यादा मुश्किल । मुझे लगता है इस से आसान तो बिना ऑक्सीजन के एवरेस्ट पर चढ़ना हो सकता है। आप ही बताएं जिस किताब पर इंटरनेट खोलते ही ढेरों समीक्षाएं पढ़ने को मिलें , वो भी एक से बढ़ कर एक धुरंदर समीक्षकों द्वारा लिखी हुई ,टी.वी अख़बारों और पत्रिकाओं में किताब की चर्चा छाई हो, और तो और लोगों की ज़बान पर जिस किताब के शे'र लोकोक्ति मुहावरों की तरह आएं ,उस किताब पर मुझ जैसा अदना सा नौसिखिया भला कैसे और क्या लिख पायेगा ? इसी सोच के चलते ये किताब मेरे पास काफी अर्से से मेरी अलमारी में बंद रही। तभी अन्तर्मन से आवाज़ आयी -कभी कभी आती है ,विशेष रूप से जब मैं उलझन में होता हूँ तब -इस बार जरा देर से आयी लेकिन आयी- कि, रे मूर्ख नीरज गोस्वामी तू किस दुविधा में घिरा है ? तू कोई समीक्षक है ? तू तो एक साधारण सा पाठक है तू अब तक भी तो एक पाठक की हैसियत से ही लिखता आया तो अब भी लिख। 

 घर से बाहर झाँकती कुछ खिड़कियाँ अच्छी लगीं 
खिलखिलाती, चहचहाती बेटियाँ अच्छी लगीं 

मैंने उस एक्वेरियम की घुटती साँसे देख लीं 
कैसे कह देता मुझे वो मछलियाँ अच्छी लगीं 

था वो बचपन या जवानी या कि फिर अब इन दिनों 
मुझको बालों में टहलती उँगलियाँ अच्छी लगीं 

कुछ भी कहें ये अंतरआत्मा की आवाज़ होती जबरदस्त है ,हालाँकि ये अलग बात है कि हम में से अधिकांश इस की बात नहीं सुनते। मैं सुनता हूँ इसलिए जो कुछ ग़ज़ल की इस किताब के बारे में यहाँ लिख रहा हूँ वो एक पाठक की दृष्टि से लिख रहा हूँ , एक ऐसे पाठक की दृष्टि से जिसका शायरी पढ़ना जूनून बन चुका है। इस किताब को पढ़ते वक्त यूँ लगता है जैसे लफ्ज़ बहुत हौले से मिसरे में पिरोये गए हैं , जरा सी भी आवाज़ नहीं करते जैसे कोई गहरी नदी मंथर गति से बहे जा रही हो। सिर्फ गहरी नदी ही मंथर गति से बहती है और उथली शोर मचाती हुई. सलीके से बरते हुए लफ्ज़ मिसरों में मोतियों से जड़े लगते हैं। शे'र इतने सरल हैं कि हैरानी होती है। मेरे देखे सरल लिखना सबसे मुश्किल काम है क्यूंकि सरल लिखने के चक्कर में शे'र के सपाट होने का डर बना रहता है जरा सा चूके नहीं कि शे'र का कचरा हुआ समझिये। 

दोनों में बने रहना अपने से भी धोखा है 
चाहे तो इधर जाएँ, चाहे तो उधर जाएँ 

पहचान बुरे दिन की ऐसे ही तो होती है 
कुछ लोग बिना देखे आगे से गुज़र जाएँ 

वे खोखले बादल थे पानी ही न था उनमें 
बस यूँ ही गरजते थे चाहें सभी डर जाएँ 

शायर का काम होता है भाव पर लफ़्ज़ का मुलम्मा चढ़ाना। मुलम्मा चढाने में जो शायर खूबसूरत रंगों का और चढ़ाई गयी परत की मोटाई का खास ध्यान रखता है वो कामयाब कहलाता है। कुछ शायर निहायत बदरंग मुलम्मा चढ़ाते हैं तो कुछ इतना मोटा मुलम्मा चढ़ा देते हैं कि भाव उसमें घुट कर दम तोड़ देते हैं।आप जो कहना चाहते हैं अगर वो खूबसूरत तरीके से पेश किया गया है और पाठक की समझ में आ रहा है तो पाठक से वाह-वाही की भीख नहीं मांगनी पड़ती वो खुद ही उत्साहित हो कर वाह वाह करने लगता है। हमारे आज के शायर जनाब "प्रताप सोमवंशी " जिनकी किताब "इतवार छोटा पड़ गया " की बात मैं कर रहा हूँ को ये हुनर बखूबी आता है. इस किताब की ग़ज़लों के शे'र बेहद सरल हैं लेकिन सपाट नहीं। 


नहीं कुछ और, नतीजा है अपनी कमियों का
खुद अपने आप के बारे में पूछते रहना 

थका ही जानिये हमको, हमारे बस का नहीं 
जिधर हो भीड़ उसी और दौड़ते रहना 

ये उसका खुद को छिपाने का इक तरीका है 
किसी भी शख़्स से मिलते ही बोलते रहना

20 दिसम्बर 1968 को गाँव हरखपुर,प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश में पैदा हुए प्रताप सोमवंशी ने हिंदी में एम् ऐ करने के बाद पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा और इसी से उनकी समाज और इंसान की गतिविधियों को देखने, परखने की दृष्टि बदल गयी। हम जिन छोटी मोटी बातों पर अमूमन ध्यान नहीं देते उन्हीं को प्रताप जी अपने अनोखे अंदाज़ में अपनी ग़ज़लों में पिरो देते हैं। उन्हें पढ़ कर लगता है कि अरे ये तो जैसे मेरी या फिर मेरे आस पड़ौस में रहने वालों की ही बात कर रहे हैं. हमें कोई भी शायरी तब पसंद आती है जब हम उस से खुद को कनेक्ट कर लेते हैं वरना तो वो बे-पढ़े लिखे वालों के लिए फ़ारसी के समान है। 

राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था 
दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था

शाम ढले ये टीस तो भीतर उठती है 
मेरा खुद से हर इक वादा झूठा था 

मेरे दौर को कुछ यूँ लिखा जायेगा 
राजा का किरदार बहुत ही बौना था 

राम तुम्हारे युग का - शेर तो बरसों से दशहरे पर बार बार व्हाट्सएप के ग्रुप्स में घूम घूम कर वॉयरल की श्रेणी में पहुँच चुका है. किस बला की सादगी से प्रताप जी ने रावण के माध्यम से आज के दौर के इंसान के दोगले-पन को नंगा किया है। इस विषय पर बहुत से शायरों ने क़लम चलाई है लेकिन जिस तरह प्रताप जी ने इसे बयां किया है वो विलक्षण है। इस किताब में ऐसे बहुत से शेर हैं जो पढ़ते ही झकझोर देते हैं और जेहन में अपनी जगह पक्की कर लेते हैं। विषय वही हैं जो बरसों बरस से चले आ रहे हैं लेकिन उनका प्रस्तुतिकरण ही उन्हें यादगार बना देता है। नए विषय खोजना आसान नहीं होता लेकिन हज़ारों बार कहे गए विषयों पर नए ढंग से कुछ कहना एक बहुत ही कठिन कला है और प्रताप जी इस कला के माहिर खिलाडी हैं। 

चोटी तक पहुँची राहों से सीखो भी 
कैसे पर्वत काट के आना पड़ता है 

सच का कपड़ा फूल-सा हल्का होता है 
झूठ को पर्वत लाद के जाना पड़ता है 

दिल का क्या है जो कह दो सुन लेता है 
आँखों को ज़्यादा समझाना पड़ता है

30 वर्षों के लेखन के पश्चात जब प्रताप जी ने अपने इस पहले ग़ज़ल संग्रह पर काम करना शुरू किया तब उनके पास अधिक ग़ज़लें नहीं थी क्यूंकि उन्होंने अपनी ग़ज़लों का कहीं संग्रह किया ही नहीं था ना किसी पत्रिका को जिसमें उनकी ग़ज़लें छपी सहेजा और न ही अखबार में छपी ग़ज़लों की कतरनों को लेकिन जब इस बात का पता उनके इष्ट मित्रों को चला तो बहुत से परिचितों ने उनकी पुरानी संग्रह कर रखी हुई ग़ज़लें जो कभी किसी अखबार या पत्रिका में बरसों पहले छपी होगी उन तक पहुँचाने का काम किया। उनकी पत्नी ने घर के कोने कोने से ढूंढ ढूंढ कर उनकी डायरियों और पर्चियों को इकठ्ठा किया और इस तरह उनकी लगभग 100 ग़ज़लें इकठ्ठा हो गयीं इसीलिए वो कहते हैं कि ये ग़ज़ल संग्रह सब का है सिर्फ लिखा हुआ मेरा है। लगभग तीस वर्षों के पत्रकारिता के अनुभव का निचोड़ हैं सोमवंशी जी की ग़ज़लें। 

हर मौके की, हर रिश्ते की ढेर निशानी उसके पास 
अल्बम के हर इक फ़ोटो की एक कहानी उसके पास 

कई ख़ज़ाने किस्से वाले इक बच्चे के पास मिले 
दादा-दादी उसके पास, नाना-नानी उसके पास 

सोच रहा हूँ गाँव में जाकर कुछ दिन अब आराम करूँ  
वहीँ कहीं पर रख आया हूँ नींद पुरानी उसके पास 

पत्रकारिता और ग़ज़ल या कविता लेखन यूँ तो दो विरोधभासी काम हैं लेकिन सोमवंशी जी ने दोनों को बहुत खूबी से अंजाम दिया है। पत्रकारिता ने उनके अनुभव का विस्तार किया जिसकी बदौलत उनके ग़ज़ल लेखन को नए आयाम मिले। पत्रकारिता ने उन्हें देश दुनिया के खूबसूरत -बदसूरत चेहरे देखने समझने का मौका दिया तो ग़ज़ल लेखन ने उन्हें शब्द बद्ध करने की संवेदना दी। बहुत अच्छी बुरी घटनाओं को और नयी पुरानी यादों को वो बहुत अद्भुत ढंग से अपनी ग़ज़लों में ले आते हैं। कविता या ग़ज़लें लिखना उन्हें सुकून देता है। 

आह, उदासी, बेचैनी, कोहराम लिखूं 
यादों के मैं आखिर क्या-क्या नाम लिखूं 

यादें ढोये ,ख्वाब भी पाले, धड़के भी 
इक बेचारे दिल को कितने काम लिखूं 

एक नया फ़रमान मुझे मिल जाता है 
जब ये चाहा इक पल का आराम लिखूं 

प्रताप जी के बारे में प्रसिद्ध शायर एहतराम इस्लाम साहब लिखते हैं कि "सोमवंशी जी की समाजी हैसियत कितनी भी बुलंद क्यों न हो गयी हो वो आज भी ज़मीन के ही आदमी हैं। आज भी उनका मुआमला यही है कि सामने चुने हुए पुर-तकल्लुफ़ दस्तरख़्वान पर सजी ढेर सारी आधुनिक थालियों के बीच किसी देसी थाली पर उनकी निगाह सबसे पहले पहुँचती है। तले हुए काजुओं पर भुने हुए चनों को तरजीह देना उनकी पहचान है। इसीलिए उनके अशआर में अवामी परिवेश अपनी तमामतर गर्माहट के साथ मौजूद नज़र आता है। उसमें भी 'बाज़ार' की तुलना में 'घर' पर बात करना प्रताप को अधिक प्रिय है " 

सब केवल अपनी कमज़ोरी जीते हैं 
रिश्ता तो कोई बीमार नहीं होता 

सुनना, सहना, चुप रहना फिर हंसना भी 
खुद पे इतना अत्याचार नहीं होता 

ये सच है वो हर हफ्ते ही आता है 
सबकी किस्मत में इतवार नहीं होता 

पत्रकारिता के अलावा उनकी रूचि कविता ,कहानी, कृषि, पर्यावरण, शिक्षा और राजनीती के क्षेत्र में भी है। बहु आयामी प्रतिभा के धनी प्रताप जी की मलाला युसुफ़ज़ई पर लिखी कविता का अनेक भाषाओँ में अनुवाद और प्रकाशन हुआ है। वो बुंदेलखंड में किसानों की आत्महत्या और खेती के सवालों पर लगातार लिखते आ रहे हैं। बच्चों के लिए भी उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। प्रताप जी इनदिनों हिंदी दैनिक अखबार हिंदुस्तान में वरिष्ठ स्थानीय संपादक हैं और मयूर विहार फेज़ -1 दिल्ली में रहते हैं। 

रिश्तों के उलझे धागों को धीरे धीरे खोल रही है 
बिटिया कुछ-कुछ बोल रही है ,पूरे घर में डोल रही है 

दिल के कहे से आँखों ने बाज़ार में इक सामान चुना है 
हाथ बिचारा सोच रहा है जेब भी खुद को तोल रही है 

एक अकेला कुछ भी बोले कौन शहर में उसकी सुनता 
पेड़ पे एक अकेली कोयल जंगल में रस घोल रही है

 "इतवार छोटा पड़ गया " वाणी प्रकाशन की "दास्ताँ कहते कहते " श्रृंखला की किताब है जो हार्ड बाउन्ड और पेपरबैक दोनों में उपलब्ब्ध है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप वाणी प्रकाशन को vaniprkashan@gmail.com पर मेल करें या इनकी वेब साइट www .vaniprkashan.in पर लॉग इन करके ऑन लाइन मंगवा लें। ये किताब अमेज़न के अलावा और भी साहित्य की बहुत सी इंटरनेट साइट पर उपलब्ध है। सबसे श्रेष्ठ तो ये है कि आप सोमवंशी जी को उनके मोबाईल न 9650938886 पर संपर्क कर इन बेजोड़ ग़ज़लों के लिए बधाई दें। आप उन्हें pratapsomvanshi@gmail.com पर मेल से बधाई भेज सकते हैं। 

दर्जनों किस्से-कहानी खुद ही चलकर आ गये 
उससे मैं जब भी मिला इतवार छोटा पड़ गया 

उसने तो एहसास के बदले में सब कुछ दे दिया 
फायदा-नुक़सान का व्यापार छोटा पड़ गया 

चाहतों की उँगलियों ने उसका काँधा छू लिया 
सोने,चाँदी, मोतियों का हार छोटा पड़ गया 

सौ से अधिक ग़ज़लों से सजी इस किताब में से कुछ एक शेर छांटना बाकि के शेरों के साथ नाइंसाफी होती है।जो शेर इस पोस्ट में आ नहीं पाए उनसे माज़रत के साथ अर्ज़ करना चाहूंगा कि लॉटरी का टिकट सब खरीदते हैं लेकिन नंबर किसी-किसी का ही निकलता है इसका मतलब ये तो नहीं कि जिनका नंबर नहीं निकला वो निकम्मे हैं या उन्होंने टिकट के पैसे कम दिए हैं ये तो महज़ चांस की बात है। तो पाठको अगर आपको सभी शेरों का आनंद लेना है तो इस किताब की और हाथ बढ़ाना ही होगा ,आपके हाथ बढ़ाने से ये किताब आपको गले लगा लेगी। लीजिये चलते चलते पढ़िए इस किताब से लिए गए कुछ फुटकर शेर :  

कभी खत में कोई ख़्वाहिश न आयी 
ये घर मज़बूरियां पढता बहुत है 
*** 
छपा हो जिसके दोनों और मतलब 
वो सिक्का आजकल चलता बहुत है
*** 
पहले दिन छोटे पड़ते थे 
अब लगता है रात बड़ी है 
*** 
किसी के साथ रहना और उससे बच के रह लेना 
बताओ किस तरह से लोग ये रिश्ता निभाते हैं
***
 तेरा-मेरा , लेना-देना ,खोना-पाना कौन गिने
 इतना ज्यादा जोड़-घटाना मेरे वश की बात नहीं 
 ***
 हर कमरे की अपनी दुनिया होती है 
 आँगन ही बस तन्हा-तन्हा दिखता है 
*** 
दिन कुछ उलटी-सीधी हरकत करता है 
इसीलिए मन रात को बोझिल होता है