कफ़स भी हैं हमारे और ज़ंजीरें भी अपनी हैं
युगों से क़ैद हम अपनी ही दीवारों में बैठे हैं
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मुश्किलें ही मुश्किलें हैं रात-दिन इसको
काट कर इस जिस्म से सर को कहीं रख दे
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जानती थी कि तेरे बाद उजड़ जाऊँगी
मैंने फिर भी तिरा हर रंग छुड़ा कर देखा
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इल्ज़ाम सिर्फ तेज़ हवा पर ही क्यों रहे
सूरज की रौशनी भी दिये का अज़ाब है
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सूरत नहीं दिखी तिरि करवे के चाँद में
जाने मुझे क्यों चाँद में बस चाँद ही दिखा
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फिर कोई अब्र आ न जाए इधर
बाम पर जख़्म कुछ सुखाये हैं
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फिर बदन उसको दे दिया वापिस
रूह जब से निखार ली हमने
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फिर लगा तेरी छुअन में अजनबीपन सा
तुझमें कोई और भी रहने लगा है क्या
आप ईश्वर या कोई भी अदृश्य शक्ति जो हमें चला रही है को मानें न मानें ये आप पर है। इस बात पर कोई बहस नहीं लेकिन आप एक बात तो जरूर मानेंगे कि इस शक्ति ने अपने द्वारा सृजित इंसानों में हुनर की एक नदी को प्रवाहित किया है। ये नदी सतत बहती रहती है। कुछ लोग इसे सतह पर ले आते हैं और ये सबको दिखाई देने लगती है लेकिन कुछ ऐसा नहीं कर पाते। ख़ास तौर पर आधी दुनिया की नुमाईंदगी करने वाली महिलाओं के लिए अपने में छिपे हुनर की नदी को सतह पर लाना इतना आसान नहीं होता। समाज और घर की जिम्मेदारियां एक बाँध की तरह इस नदी के प्रवाह को रोक लेते हैं। कुछ में हुनर की ये नदी समय के साथ सूख जाती है और कुछ में इसके लगातार प्रवाहित होते रहने से बाँध का जलस्तर बढ़ने लगता है ,साथ ही बढ़ता है बाँध पर दबाव। कुछ बाँध इस दबाव से टूट जाते हैं , कुछ रिसने लगते हैं और कुछ के ऊपर से नदी बहने लगती है।
उम्र भर का साथ है कुछ फासले रख दरमियाँ
दूरीयां कर देंगी यूँ दिन-रात की नज़दीकियां
मर्द की बातों में आकर, चाहतों के नाम पर
औरतोँ ने फूंक डाले औरतों के आशियाँ
आँख में चुभने लगी है अपने घर की चांदनी
जुगनुओं की चाह में हो ? क्या हो बदकिस्मत मियाँ !!
ये जो शेर आपने ऊपर पढ़े हैं, यकीन मानिये कोई औरत ही लिख सकती है. पुरुष की सोच यहाँ तक पहुँच ही नहीं सकती। हमारी आज की शायरा हैं "निर्मल आर्या ' जिनकी ग़ज़लों की अद्भुत किताब "कौन हो तुम " की बात हम करेंगे। निर्मल जी ने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने हुनर की सरिता को सूखने नहीं दिया। निर्मल जी को ये तो इल्म था कि कुछ है जो उनके मन के अंदर ही अंदर घुमड़ता है लेकिन उसे व्यक्त करने की विधा का उन्हें जरा सा भी भान नहीं था। बाँध की मज़बूत दीवारों से उनके हुनर की नदी टकराती और लौट जाती। आखिर वो दिन आया जब बाँध में हलकी सी दरार पड़ गयी। पानी का रिसाव पहले बूँद बूँद हुआ फिर एक पतली सी धार बनी और फिर हुनर झरने के पानी सा झर झर झरने लगा। हर विपरीत परिस्थिति इस दरार को चौड़ा करने लगी। लबालब भरे बाँध में आयी इस दरार को भरना अब नामुमकिन था।
यूँ हसरतों ने आजमाए मुझपे जम के हाथ
फिर पूछिए न मुझसे भी क्या क्या खता हुई
बेचैनियाँ बहुत थीं बरसने से पेश्तर
बरसी जो खुल के जिस्म से हलकी घटा हुई
शब् भी विसाल की थी मुहब्बत भी थी जवां
मुझसे मगर न फिर भी कोई इल्तिजा हुई
उत्तर प्रदेश के बागपत जिले के छोटे से गाँव दोघाट में जन्मीं निर्मल एक चुलबुली मस्त मौला लड़की थी। उम्र के उस हसीन दौर में जब गुलाबी सपनों की आमद शुरू होती है याने 16 वें साल में जब वो बाहरवीं कक्षा में पढ़ ही रही थीं, निर्मल जी शादी के बंधन में बंध गयीं। अपना घर छूट गया, स्कूल छूट गया और वो संगी साथी छूट गए जिनके साथ वक्त पंख लगा के उड़ा करता था। शादी हुई तो धीरे धीरे घर परिवार सामाजिक जिम्मेदारियों का बोझ भी बढ़ने लगा। पति और परिवार के स्नेह ने उन्हें हिम्मत दी और वो जी जान से अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने लगीं। बाँध जरूर बंध गया था लेकिन अंदर चलने वाली नदी सूखी नहीं थी लिहाज़ा वक्त के साथ बांध का जलस्तर तो बढ़ा ही और उसके साथ ही बहने का रास्ता न मिल पाने के कारण मन में बेचैनी भी बढ़ने लगी।
ये रात होते ही चमकेंगे चांदनी बनकर
जो साये धूप के दिनभर शजर में रहते हैं
हमें सुकून कि ज्यादा किसी से रब्त नहीं
उन्हें गुरूर कि वो हर नज़र में रहते हैं
कभी भी दिल से कहीं गलतियां नहीं होतीं
खराबियों के जो कीड़े हैं सर में रहते हैं
बेचैनियां अभिव्यक्ति का माध्यम ढूंढने के लिए छटपटाने लगीं। कभी वो कहानियों का सहारा लेतीं तो कभी कविताओं का। और तो और खुद को व्यक्त करने के लिए उन्होंने फैशन डिजाइनिंग से लेकर घर भी डिजाइन किये।खूब वाह वाही बटोरी। नाम भी मिला प्रशंशकों की तादाद में बेशुमार इज़ाफ़ा भी हुआ लेकिन मन की बेचैनी का मुकम्मल इलाज़ वो नहीं ढूंढ पायीं। 8 मई 2014 की गर्म दुपहरी थी जब उन्होंने अनमनी सी अवस्था में एक कहानी लिखने की सोची ,थोड़ा बहुत लिखा फिर फाड़ के फेंक दिया। अचानक एक कविता की कुछ पंक्तियाँ उनके दिमाग में बिजली सी कौंधी उन्होंने उसे फ़ौरन कागज़ पर उतारा और घर वालों को सुनाया ,घर वालों ने सुन कर तालियां बजाईं। हिम्मत बंधी तो उसे फेसबुक पे डाल दिया। जैसा कि फेसबुक पर अक्सर होता है, प्रशंशा करने वालों का ताँता लग गया। फिर तो ये सिलसिला चल निकला। एक दिन उनकी किसी पोस्ट पर किन्हीं सुभाष मालिक जी का कमेंट आया जिसमें कहा गया था कि निर्मल जी आप बहुत खूब लिखती हैं लेकिन अगर इसे बहर में लिखें तो आनंद आ जाय।
वो मुझको भूल गया इक तो ये गिला ,उस पर
मुझे पुकारा गया नाम भी नया ले कर
पहन ले या तो चरागों की रौशनी या फिर
वजूद अपना तपा धूप की क़बा लेकर
मुझे तो रात की अलसाई सुब्ह प्यारी है
ये कौन रोज़ चला आता है सबा लेकर
बहर ? चौंक कर निर्मल जी ने सोचा। ये किस चिड़िया का नाम है ? सुभाष जी से संपर्क साधा गया तो उन्होंने फेसबुक पर चलने वाले ग्रुप " कविता लोक " का पता दिया जहाँ ग़ज़ल लेखन सिखाया जाता था । कविता लोक ने निर्मल जी का वो काम किया जो "खुल जा सिम सिम " ने अलीबाबा का किया था। ख़ज़ाने की गुफ़ा का दरवाज़ा खुल गया। फिर तो सिर्फ़ बहर ही क्यों ग़ज़ल की बारीकियां भी निर्मल जी समझने लगीं रफ़्ता रफ़्ता ग़ज़ल कहने भी लगीं। एक नये सफर की शुरुआत हो चुकी थी। जैसे जैसे वो आगे बढ़ती गयीं वैसे वैसे उनका मार्ग दर्शन करने लोग आगे आने लगे सुभाष जी से शुरू हुआ ये सिलसिला विजय शंकर मिश्रा जी -जो उनके सबसे बड़े आलोचक रहे और जिन्होंने उनकी हर इक ग़ज़ल में गलती निकाल कर उसे दोष मुक्त किया - से होता हुआ सईद जिया साहब तक और फिर आखिर में उर्दू अदब के जीते-जागते स्तम्भ और अदबी मर्कज़ पानीपत के आर्गेनाइज़र जनाब डा. कुमार पानीपती जी पर समाप्त हुआ।
खिड़की पर ही हमने रख दी हैं आँखें
क्या जाने कब चाँद इधर से गुज़रेगा
ऐसे छू ,बस रूह मुअत्तर हो जाए
मिटटी का ये जिस्म कहाँ तक महकेगा
आखिर कब तक थामे रक्खेगी 'निर्मल'
दिल तो दिल है ,ज़िंदा है तो मचलेगा
डा. कुमार ने निर्मल जी हुई एक मुलाकात को बहुत दिलचस्प ढंग से में बयां किया है संक्षेप में बताऊँ तो वो लिखते हैं कि " एक दिन निर्मल अपने पति के साथ सुबह सुबह कुमार साहब के घर जा पहुंची और उन्हें कागजों का एक पुलंदा थमाते हुए बोलीं कि सर मेरी ये कुछ ग़ज़लें हैं आप इन्हें देख लीजिये मुझे दस पंद्रह दिनों में एक पब्लिशर को इन्हें देना है। कुमार साहब इतनी ग़ज़लें देख कर बोले कि इन्हें दस पंद्रह दिनों में देख कर देना संभव नहीं है। निर्मल निराश क़दमों से लौटने लगी तो उनका दिल पसीज गया। उन्होंने कहा कि चलो इन्हें रख दो मैं कोशिश करूँगा। निर्मल ख़ुशी ख़ुशी लौट गयी। डाक्टर साहब ने तीन दिनों में लगातार बैठ कर करीब पचास ग़ज़लें देख डालीं और निर्मल को कहा कि ये पचास ग़ज़लें तो अभी जाओ बाकि की बाद में दूंगा। निर्मल आयी उसके पाँव ख़ुशी के मारे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। कुमार साहब के पाँव छुए उनका आशीर्वाद लिया और चली गयी। डाक्टर साहब ने निर्मल को वो सब कुछ दिया जो एक पिता अपनी बेटी को और उस्ताद अपने शागिर्द को दे सकता है।
दिल के पहले पन्ने पर तुम ही तुम हो
क्या तुम मेरे सारे पन्ने भर दोगे
ऐसा लगता है मैं छूट गयी हूँ कहीं
तुमको मिल जाऊं तो वापिस कर दोगे
मैं घर की इज़्ज़त हूँ ज़ीनत हूँ ज़र हूँ
क्या तुम मुझको इल्मो-अदब का घर दोगे
निर्मल जी बहुत कम बोलती हैं ,और अपने बारे में तो बिल्कुल भी नहीं। ऊपर से कठोर लेकिन भीतर से बेहद नाज़ुक़ मिज़ाज़ की निर्मल जी ने ये रूप जान बूझ कर धरा है वो कहती हैं कि आज के ज़माने को देखते हुए ये बहुत जरूरी है। ये कठोरता एक रक्षा कवच है जो समाज में पाए जाने वाले मौका परस्तों को उनसे दूर रखता है। खुद्दार और जुझारू प्रवति की निर्मल ने 43 वर्ष की उम्र में एक्टिवा चलाना सीखा और फिर कार। उनसे वो महिलाएं प्रेरणा ले सकती हैं जो बढ़ती उम्र की आड़ ले कर अपनी कमज़ोरियाँ छुपाती हैं और अपने ख़्वाबों की पोटली बना कर घर के बाहर रखे सरकारी कूड़े दान में फेंक देती हैं।अगर आप में अपने सपनो को साकार करने की शिद्दत से चाह है तो फिर दुनिया की कोई ताकत आपकी राह नहीं रोक सकती। स्वभाव से हँसमुख और मस्त रहने वाली निर्मल जी ने जीवन में आयी अनेक कड़वाहटों का दौर सफलता पूर्वक झेला है और विजयी बन के निकली हैं।
तू जरूरी है मुझे ज़ीस्त बनाने के लिए
ज़ीस्त लग जाएगी तुझको ये बताने के लिए
सुनते हैं हिज़्र बिना इश्क मुकम्मल ही नहीं
दूर हो जाओ ज़रा इश्क निभाने के लिए
मसअला बात के जरिये भी सुलझ जाता, पर
खार ही काम आया खार हटाने के लिए
निर्मल जी किसी मुशायरे में नहीं जातीं, किसी पत्रिका या अखबार में अपनी ग़ज़लें नहीं भेजती क्यूंकि वो अंतर्मुखी हैं उनका आत्म प्रचार में विश्वास नहीं। उनके शुभचिंतक ही उनकी रचनाएँ इधर उधर भेजते रहते हैं। आज की दुनिया में नाम कमाने के लिए आपको खुद को बेचने का हुनर आना चाहिए, अपने फायदे के लिए दूसरों का इस्तेमाल करना भी आना चाहिए। संस्कार और अध्यात्म में गहरी रूचि के चलते वो चाह कर भी ऐसा नहीं कर पातीं जो है जैसा है उसमें ही बहुत खुश रहने में उनका गहरा विश्वास है। निर्मल जी की ज़िन्दगी में जो भी घटनाएं हुई हैं वो अचानक ही हुई हैं ,शायरी भी अचानक ही उनके जीवन में उतरी। शायरी को एक बोझिल और समय की बर्बादी समझने वाली निर्मल ने आज शायरी के माध्यम से अपनी पहचान बनाई है।
जरा सी धूप के आसार कर दो
तुम्हारी याद पे काई जमी है
अकेला है वो मुझसे दूर रह कर
मुझे इस बात की बेहद ख़ुशी है
मिरी इक राय है मानों अगर तुम
जिसे देखा नहीं वो ही सही है
ऐनी बुक के पराग अग्रवाल की मैं इसलिए तारीफ करता हूँ कि उन्हें नए अनजान शायरों की किताबें छापने से गुरेज़ नहीं होता। बेहद दिलकश आवरण में लिपटी ये किताब जिसमें निर्मल जी की 100 से अधिक ग़ज़लें संगृहीत हैं ,दूर से ही पाठकों को अपनी और आकर्षित करती है। इस किताब को पाने के लिए आप पराग जी से 9971698930 पर संपर्क करें।ये किताब अमेजन पर भी ऑन लाइन उपलब्ध है। इस किताब को निर्मल जी ने अपने पिता स्वर्गीय चौधरी रामचन्दर सिंह जी को, जो प्रसिद्ध स्वतंत्रता सैनानी और समाजसेवी भी थे ,समर्पित किया है। आप इसे ध्यान से पढ़ें और निर्मल जी को इन लाजवाब ग़ज़लों के लिए 9416931642 पर फोन कर बधाई भी दें। और अब आखिर में पढ़िए निर्मल जी उस ग़ज़ल के चंद शेर जिसे उनसे हमेशा फरमाइश करके बार बार सुना जाता है और जिसने डा. कुमार जैसे ग़ज़ल पारखी को भी हैरान हो कर दाद देने पर मज़बूर कर दिया था :
बूँद का रक्स आग पर देखो
जान जाओगे इश्क क्या शय है
कह रहे हैं ख़ुदा के क़ातिल भी
ज़र्रे-ज़र्रे में अब भी है ! है ! है !
हाथ में किसके है कोई लम्हा
वक़्त हर शय का आज भी तय है