Monday, July 16, 2018

किताबों की दुनिया - 186

मासूम चिरागों को हवाओं ने बुझाया 
क्यों भड़के हुए शोलों प ताज़ीर नहीं की 
 ताज़ीर = सजा सुनाना 
 *** 
वही शाम है वही रात है मगर अपना अपना नसीब है 
 कहीं काटनी ये मुहाल है कहीं आरज़ू कि सहर न हो 
 *** 
इसको नादानी कहें या सादगी दिल की कहें 
 इक ज़रा चश्मे करम हो खुशगुमाँ हो जाएगा 
 *** 
मेरी बातों की सदाक़त मेरे लहजे का सबात 
 तुमको लगता है बगावत है , चलो यूँ ही सही 
 सदाकत=सच्चाई, सबात : स्थाई भाव 
 *** 
हर्ज क्या है सुनने में मशविरे भी सुन लीजिये 
 फैसला जो दिल का हो बस वही मुनासिब है
 *** 
कुछ हक़ीक़त में ग़म के मारे हैं
 बे सबब भी उदास हैं कुछ लोग
 *** 
बज़्मे तसव्वुरात में माज़ी का रक़्स था 
 यादों के घुँघरू छनन-छनन बोलने लगे
 बज़्मे तसव्वुरात =कल्पना लोक , माज़ी = गुज़रा हुआ समय 

आप यकीनन किसी न किसी गुलशन में सैर के वास्ते जरूर गए होंगे , वहां फूलों को खिलते मुस्कुराते देख के खुश भी हुए होंगे। गुलशन में आपने कितनी तरह के फूल देखें होंगे -वो ही केतकी गुलाब जूही चंपा चमेली कमल हजारा या फिर मौसमी फूल ? आपको ये तो पता ही होगा कि कुछ फूल ऐसे होते हैं जो जंगल में खिलते हैं बनफूल -बन का फूल। इन्हें न किसी माली के देखरेख की जरुरत होती है है न किसी खाद की न किसी गमले की और न ही किसी देखने वाले की। ये बंजर जमीन पर भी खिल उठते हैं क्यूंकि इनके बीज में उगने की जबरदस्त इच्छा शक्ति होती है। इन्हें तो ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा हवा की नमी और सूरज की रौशनी चाहिए होती है बस। इन पर भी तितलियाँ रक़्स करती हैं कायनात फक्र करती है हवाएं दुलारती है शबनम भिगोती है। इन फूलों को देख भले कोई तालियां न बजाये अपने घर के गुलदानों में न सजाये ये फूल हर हाल में हाल में झूमते खिलखिलाते अपने आस-पास की फ़ज़ा को अपने रंगों और खुशबू से आबाद किये रखते हैं -कमाल के होते हैं ऐसे फूल।

 जितने फरज़ाने थे सब दस्तो गिरीबां ही रहे 
 दार तक रौशन हुआ है सिर्फ दीवाने का नाम 
 फरज़ाने =समझदार 

 ज़िन्दगी पैहम सफर है ज़ुस्तुजू दर ज़ुस्तज़ू 
 मौत क्या है ज़िंदगानी के ठहर जाने का नाम 

 आसमाँ की मांग में है जो शफ़क़ की ये लकीर 
 झील के पानी में सूरज के उतर जाने का नाम 

 ऐसा ही एक कमाल का फूल है हमारी आज की शायरा "तबस्सुम आज़मी" जो ऐसी ज़मीन पर खिलीं जो शायरी के लिए बिलकुल मुफ़ीद नहीं थी. आज हम उनकी किताब "धनक" की बात करेंगे। आजमगढ़, जहाँ शायरी के एक से बढ़ कर एक उस्ताद पैदा हुए , एक अदद शायरा के लिए तरसता रहा। आज़मगढ़ की मिटटी में ऐसा कुछ जरूर है जिसमें खेलने रचने वाला शख़्स शायरी करने लगता है। शिबली नोमानी याने 1857 से चला ये सिलसिला आजतक बदस्तूर जारी है. लेकिन वहां की मिटटी न जाने क्यों हमेशा शायरों की परवरिश करती रही। तबस्सुम वहां की पहली शायरा होने का फ़क्र हासिल रखती हैं। आज से कोई आधी सदी पहले जब कि लड़कियों की पढाई को लेकर वहां का मुस्लिम समाज एक मत से खिलाफ था तब पास के एक छोटे से गाँव में रहने वाले पिता ने अपनी बेटी को तालीम दिलवाने की सोची। ये एक क्रांतिकारी क़दम था।



 कभी ऐसा भी होता है ये दिल खुद हार जाता है 
 कभी हारी हुई बाज़ी भी सच मानी नहीं जाती 

 कभी कितना बड़ा हो वाक़ेआ हैरत नहीं होती 
 कभी हो बात छोटी फिर भी हैरानी नहीं जाती 

 कभी इक पल में हो जाता है दिल ये बाग़-बाग़ अपना 
 कभी मुद्दत तलक इस दिल की वीरानी नहीं जाती 

 तबस्सुम का जन्म अपने ननिहाल कलकत्ता में हुआ जहाँ उन्होंने वहां के एक कॉन्वेंट स्कूल में तीसरी जमात तक पढाई की। कुछ हालात ऐसे बने कि उनको अपने गाँव जो आजमगढ़ के बेहद करीब है , आना पड़ा। पढ़ने की शौकीन तबस्सुम को यहाँ पढाई का माहौल ही नहीं मिला। गाँव में स्कूल न होने पर तबस्सुम की पढाई का जिम्मा उनके वालिद जनाब अब्दुल हमीद साहब ने उठाया। काश हर बेटी को तबस्सुम जैसे माँ- मिलें जिन्होंने समाज के ख़िलाफ़ जा कर अपनी बेटी को पढ़ाने का फैसला किया और उसके पीछे ठोस चट्टान की तरह खड़े रहे। उन्होंने महज 5 साल की उम्र में कुरानशरीफ नाज़िर ख़त्म कर लिया साथ ही साथ अहम् सूरा-ए कुरान हिफ्ज़ भी। परिवार से उन्हें पाकीजा सोच की तालीम मिली । प्रारभिक पढाई के बाद उन्होंने अपना मुताला (अध्ययन )जारी रखा और जामिया उर्दू अलीगढ से अदीब कामिल किया। लिखने में ये बात जितनी आसान लगती है हकीकत में है नहीं। जहाँ साहित्य के नाम पर बंज़र और सोच के स्तर पर रूढ़ि वादी समाज में किसी लड़की के लिए अफसाने लिखना-पढ़ना और शायरी में दिलचस्पी रखना गुनाह माने जाते हैं वहीं उसी समाज का हिस्सा बने रह कर उन्होंने अपने परिवार खास तौर पर माँ-बाप के सहयोग से अफ़साने भी लिखे और शायरी भी की। इसके लिए बला की हिम्मत और जूनून चाहिए।

 किसको मालूम पसे पर्दा जो सिसकी है निहाँ 
 चूड़ियों का तो कलाई में खनकना तय था 

 आँखों आँखों में वो जज़्बात हुए हैं ज़ाहिर
 जिनके इज़हार में होटों का झिझकना तय था 

 गुल का अंजामे तबस्सुम था निगाहों में मगर
 फिर भी कलियों के मुकद्दर में चटकना तय था 

 ज़िन्दगी हमें खूबसूरत इसलिए लगती है क्यूंकि ये पता नहीं होता कि ये किस वक्त क्या रंग दिखाएगी।जब कभी आप इसकी रफ़्तार देख सोचते हैं कि ये कभी थमेगी नहीं तभी अचानक थम जाती है और कभी लगने लगता है कि सामने दीवार है तभी अचानक रास्ते नज़र आ जाते हैं। अब तबस्सुम ने कभी सोचा नहीं था कि वो शायरी करेगी। शायरी का बीज उसके जेहन में कब आके गिरा उसे कुछ पता नहीं, अचानक वो कब का गिरा बीज फूटा और उस में से पौधा निकल आया। वो तो खुद कहती हैं कि "मुझे ये तो पता नहीं कि मुझ में शायरी के जरासीम कैसे आये क्यूंकि मेरे घर या खानदान में मुझसे पहले कोई शायर या शायरा नहीं था। जब मुझमें शेर समझने की सलाहियत नहीं थी तब भी हर अच्छा शेर मुझे अपनी और खींचता था ,फिर पता ही नहीं चला कब और कैसे मैं खुद शेर कहने लगी " हालाँकि पहली ग़ज़ल मात्र 13 साल की उम्र में कही लेकिन रुझान उनका कहानियों पर रहा जो देश के मैयारी रिसालों में छपीं।

 बे ग़रज़ हो के अगर डोर ये बाँधी जाए 
 कोई बंधन ही नहीं प्यार के बंधन की तरह 

 दिल में झाँका तो वही मोम का पुतला निकला 
 जो बज़ाहिर नजर आता रहा आहन की तरह 
 आहन=लोहा 

 इक नई सुब्ह की उम्मीद को रक्खा क़ायम 
 ज़िन्दगी रोज़ सँवरती रही दुल्हन की तरह 

 पिता की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनके लेखन का सिलसिला अचानक से थम गया। बरसों उन्होंने कुछ लिखा पढ़ा नहीं आखिर उनके बेटे ने उन्हें संभाला, हिम्मत दी और दुबारा लेखन की और प्रेरित किया। इसलिए ये कहना गलत न होगा कि तबस्सुम का शे'री सफर बहुत पुराना नहीं है। ग़ज़ल कहने की विधिवत शुरुआत उन्होंने 2013 से की। जैसा कि आपसब को पता ही है सोशल मिडिया की वजह से आज ग़ज़ल को जो लोकप्रियता मिली है वो बेमिसाल है -इसकी वजह से हालाँकि ग़ज़ल को नुक्सान भी हुआ है क्यूंकि बहुत से लोग बिना इसकी रूह तक पहुंचे सस्ती वाहवाही के चक्कर में इसका बेडा गर्क करने पर तुले हुए हैं। सिर्फ बहर में तुकबंदी याने काफिया पैमाई करना ग़ज़ल नहीं है ये इसके बहुत आगे की विधा है। हम अगर ग़ज़ल को सस्ता मनोरंजन समझने वाले लोगों को नज़रअंदाज़ कर दें तो आज भी बहुत से युवा और बुजुर्ग ग़ज़ल की चाकरी में पूरे मन से लगे हुए हैं और ग़ज़ल को लोकप्रिय बनाने में सहयोग दे रहे हैं।इसी इंटरनेट के चलते तबस्सुम की मुलाकात फेसबुक पर ग़ज़ल के पारखी डा. प्रमोद लाल यक्ता साहब से हुई। इस मुलाकात ने ही तुकबंदी करने वाली "ताहिरा तबस्सुम" को बेहतरीन शायरा "तबस्सुम आज़मी" बनाया।

 इक मोड़ प किरदारों का यूँ रब्त है टूटा 
 लिख पाया मुसन्निफ़ नहीं अंजाम अभी तक 
 मुसन्निफ़ =लेखक 

 वो जुर्म जो सरज़द न हुआ था कभी मुझ पर 
क़ायम है मिरे सर प वो इल्ज़ाम अभी तक 
 सरज़द = सिद्ध 

 और अपनी वफ़ादारी का क्या दूँ मैं सबूत अब
 लिक्खा है सरे दार मिरा नाम अभी तक 
 सरे दार =सूली पर 

 माली का काम सिर्फ इतना होता है कि वो उस बीज की हिफाज़त करे जो उसे मिला है ,उसे जरुरत के मुताबिक पानी खाद दे धूप बारिश से दो चार करवाए उसका ख्याल रखे -बस। अब अगर बीज कमज़ोर है तो उस से खूबसूरत फूल-फल की उम्मीद करना गलत है ,उसमें माली भी कुछ नहीं कर पायेगा। तबस्सुम के भीतर का जो बीज था वो कमज़ोर नहीं था उसमें बेहद खूबसूरत शायरी छुपी हुई थी जिसे उनके उस्ताद ने माली की तरह पालपोस कर एक फूलों से भरे पेड़ बन जाने में मदद की। बीज को हुनर मंद माली का मिलना भी किस्मत की बात होती है। प्रमोद जी जैसा उस्ताद सभी को मयस्सर नहीं होता। तबस्सुम जी फेसबुक पर प्रमोद जी के ग़ज़ल ग्रुप "रू -ब -रु" में लिखती थीं , अब भी लिखती हैं ,जहाँ प्रमोद जी उसे पढ़ कर तबस्सुम जी को मशवरे दिया करते। फोन पर बातचीत के दौरान भी भी वो तबस्सुम जी को शायरी के गुर सिखाते।फेसबुक के माध्यम से बना ये रिश्ता उस्ताद शागिर्द से ज्यादा पिता-पुत्री का रहा जो प्रमोद जी के दुनिया-ऐ-फ़ानी से रुखसत होते वक़्त तक रहा।
 दुनिया प हमको कोई भरोसा नहीं रहा 
 देखेंगे ज़िन्दगी को अब अपनी नज़र से हम 

 अब तो किसी भी शय में कशिश वो नहीं रही 
 गुज़रे तो बारहा हैं तिरी रहगुज़र से हम 

 चारागरों में जब वो मुरव्वत नहीं रही 
 किस वास्ते उमीद रखें चारागर से हम 
 चारागरों =चिकित्सकों 

 तबस्स्सुम जी के बारे में मशहूर शायरा और मेरी छोटी बहन "इस्मत ज़ैदी शिफ़ा " लिखती हैं कि "वो न ये कि एक उम्दा शायरा हैं बल्कि ओरिजिनल शायरा हैं। उनके कलाम में मौसिकी भी है ,सन्नाई(शिल्प कौशल ) भी , मुसव्विरि (चित्रकारी ) भी है पुरकारी भी ,तसव्वुरात की वुसअत (ख्यालों का फैलाव ) और खयालात की पाकीज़गी भी जो पाठक के दिलो-दिमाग को सुकून अता करती है। उनकी ज़बान मुझे बहुत ज्यादा आकर्षित करती है क्यों आज के शायर और शायरा इतनी अलंकृत ज़बान का इस्तेमाल बहुत कम करते हैं। तबस्सुम को पढ़ कर उनकी काबलियत का अंदाज़ा बहुत आसानी से लगाया जा सकता है उनकी ग़ज़लें आबशार की सी ठंडक का एहसास कराती हैं "

हमारा दिल भी दिल ही है ये क्या कभी दुखा नहीं 
 ये और बात है हमें किसी से कुछ गिला नहीं 

 हरेक बार चेहरे पर नई नई परत मिली 
 मिला तो बारहा है वो मगर कभी खुला नहीं 

 ये धूप छाँव ज़ीस्त की ये कुर्बतें जुदाईयाँ 
 ये गर्दिशें हैं वक्त की किसी की कुछ खता नहीं 

 मशहूर शायर प्रोफ़ेसर सुबोध लाल साक़ी ने लिखा है कि "तबस्सुम की 'धनक में मुझे सात दिलकश रंग नज़र आते हैं - सादगी ,सच्चाई ,सहजता , पाकीज़गी ,पुख़्तगी और हिन्दुस्तानियत। ये रंगों का एक जादुई संगम है लेकिन यहाँ आ कर प्यास बुझती नहीं और भड़क जाती है " सुबोध जी ने ही तबस्सुम जी की इस किताब का नाम 'धनक' रखा था। धनक में तबस्सुम जी की 73 ग़ज़लें संगृहीत हैं जो उन्होंने जनवरी 2015 से लेकर नवम्बर 2016 के बीच कही हैं। इस छोटे से वक़्फ़े में इतनी मयारी ग़ज़लें कहना आसान काम नहीं है। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि आने वाले वक्त में हमें उनकी और भी बहुत सी किताबें पढ़ने को मिलेंगी।

 ज़िन्दगी लगती है ज़िन्दान को घर होने तक 
 दम न घुट जाएगा दीवार में दर होने तक 

 रक्से परवाना के शैदाई को क्या इस से गरज़ 
 शम'अ किस दर्द से गुज़री है सहर होने तक 

 बेहिसी ओढ़ के सोते हैं हमारे रहबर 
 आँख खुलती ही नहीं रक्से शरर होने तक 

 आज आलम ये है कि तबस्सुम जी की ग़ज़लें देश की प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में छप रही हैं और उनका नाम उर्दू के कद्रदानों में बड़े आदर से लिया जाने लगा है फिर वो कद्रदान चाहे अपने देश के हों या विदेश के। पड़ौसी देश पाकिस्तान के नामवर शायर अदबी हलकों में एक मुमताज़ हैसियत रखने वाले जनाब अज़ीज़ुद्दीन खिज़री जो जोश मलीहाबादी साहब के नवासे हैं इस किताब की भूमिका में लिखते हैं कि "तबस्सुम की ग़ज़लों में मकसदियत ज़ज़्बात के इज़हार में सलीक़ा। शाइस्तगी और सुथरापन ग़ज़ल की रवायत को मज़रूह किये बगैर नुमायाँ नज़र आता है। तबस्सुम बचपन से ही हस्सास तबियत की मालिक है। भरी भरकम अलफ़ाज़ के बगैर सीधे सादे लफ़्ज़ों में अपनी बात कारी के दिल में उतार देती हैं।

उनके दामन की सबा ले के जो खुशबू आई 
 मुद्दतों बाद निगाहों में चमक उभरी है 

 दर्द के तार से बाँधा गया एक इक घुँघरू 
 सोज़ छलका है तो पायल में छनक उभरी है 

 अश्कबारी में जो फूटी है तबस्सुम की किरन 
 तब कहीं जा के ये रंगीन धनक उभरी है 

 'धनक' को सैंड पाइपर्स पब्लिशर्स 327/89 मीर अनीस लें चौक लख़नऊ ने सं 2017 में प्रकाशित किया है। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप डा मोहम्मद आज़मी को 9984784445 पर संपर्क कर सकते हैं। वैसे धनक अमेजन से भी ऑन लाइन मंगवाई जा सकती है। इस किताब में तबस्सुम जी की ग़ज़लों के अलावा उनके द्वारा की गयी 8 तख़मीस सॉनेट,कत'आत, रुबाइयाँ त्रिवेणियाँ और दोहे भी संकलित हैं जिसे पढ़ कर उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अंदाज़ा हो जाता है। आप तबस्सुम जी से उनके इ-मेल tabassumazmi 68 @ gmail.com पर संपर्क कर उन्हें इन बेहतरीन ग़ज़लों के लिए बधाई दे सकते हैं। उनका फेसबुक एकाउंट भी है जहाँ जा कर आप उन्हें मैसेज कर सकते हैं।चलते चलते पेशे खिदमत हैं उनकी एक ग़ज़ल के ये शेर : 

कुरबतों में बारहा ऐसा लगा 
 दरमियाँ इक फासला मौजूद है 

 दूसरों की आँख में ख़ामी न ढूंढ 
 देख ! उसमें आईना मौजूद है 

 कब भला हर मसअला हल हो सका
 सिलसिला दर सिलसिला मौजूद है 

 मुद्दई खामोश है बोले भी क्या 
 पहले से जब फैसला मौजूद है

8 comments:

  1. *धनक*
    शीर्षक पढ़ते ही एक बहुत मशहूर शेर याद आ गया:
    आप भी सुनिए:
    शफ़क़ धनक महताब घटाएं
    तारे नग़में बिजली फूल
    उस दामन में क्या क्या कुछ है
    वो दामन हाथ में आए तो

    अब एक क्षण ठहरिए *दामन* शब्द को *पुस्तक* पढ़ लीजिए।

    ठीक ऐसा ही मुझे लगा जब यह पोस्ट पढी।
    शेरी शायरी के अनेकानेक इंद्रधनुषी रंगों का यह गुलदस्ता *धनक* हर शेर पर पाठक की तवज्जो: का मुस्तहक़ है।

    आपने जो शेर अपने बेजोड़ अंदाज़ में पढ़वाए हैं एक से बढ़ कर एक हैं।

    तबस्सुम आज़मी साहिब को और आपको बहुत बहुत बधाई।

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  2. कभी ऐसा भी होता है ये दिल ख़ुद हार जाता है
    कभी हारी हुई बाज़ी भी सच मानी नहीं जाती
    वाक़ई 'धनक' में से पेश किए गये अशआर एक से बढ़कर एक आ'ला दर्जे के हैं।
    इस जानदार तब्सिरे के लिए आपको दिली शुक्रिया और
    इस शे'री मजमूए के लिए तबस्सुम साहिबा को दिली मुबारकबाद।
    --दरवेश भारती, मो.09268798930

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  3. नीरज सर हमेशा की तरह आपकी बेहतरीन समीक्षा और उम्दा शेर
    किसको मालूम पसे पर्दा जो सिसकी है निहाँ
    चूड़ियों का तो कलाई में खनकना तय था

    आँखों आँखों में वो जज़्बात हुए हैं ज़ाहिर
    जिनके इज़हार में होटों का झिझकना तय था
    कभी ऐसा भी होता है ये दिल खुद हार जाता है
    कभी हारी हुई बाज़ी भी सच मानी नहीं जाती

    कभी कितना बड़ा हो वाक़ेआ हैरत नहीं होती
    कभी हो बात छोटी फिर भी हैरानी नहीं जाती

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  4. गोस्वामी जी-- बहुत सम्यक विश्लेषण किया है । एक सच्ची ग़ज़ल वाक़ई एक रूहानी सकून देती है जो बहुत कम और कभी कभी ही दिखाई देती है
    मगर आजकल तो ग़ज़ल के नाम पर क्या क्या परोसा जा रहा है --कहने की ज़रूरत नहीं ,आप सभी जानते है
    तबस्सुम साहिबा के जो भी अश’आर आप ने पेश किए है वाक़ई क़ाबिल-ए-दाद है। मुबारक

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (18-07-2018) को "समय के आगोश में" (चर्चा अंक-3036) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  6. वाह भैया क्या उम्दा तब्सिरा है, मुझे फ़ख़्र है कि तबस्सुम न सिर्फ़ मेरी दोस्त है वह मेरी छोटी बहन है । बेहतरीन लिखती है । और आप तो हैं ही पारखी ।

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  7. बहुत बढ़िया

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  8. वही शाम है वही रात है मगर अपना अपना नसीब है
    कहीं काटनी ये मुहाल है कहीं आरज़ू ,कि सहर न हो

    दर्द के तार से बाँधा गया एक इक घुँघरू
    सोज़ छलका है तो पायल में छनक उभरी है
    Kya kahne waah Neeraj ji kamaal waaaaaah

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे