Monday, May 14, 2018

किताबों की दुनिया - 177

मौन के ये आवरण मुझको बचा ले जायेंगे 
वरना बातों के कई मतलब निकले जायेंगे 

अब अंधेरों की हुकूमत हो चली है हर तरफ 
अब अंधेरों की अदालत में उजाले जायेंगे 

प्यार का दोनों पे आखिर जुर्म साबित हो गया 
ये फ़रिश्ते आज जन्नत से निकाले जायेंगे 

नशा कोई भी हो बुरा नहीं होता -आप सोचेंगे हैं ? ये क्या कह रहे हैं नीरज जी ?अरे सठियाये हुए तो ये थे ही लगता है अब पगलाय भी गए हैं क्यूंकि पगलाना सठियाने के बाद की सीढ़ी है ,वैसे कुछ कुछ लोग सठियाने से पहले भी पगला जाते हैं। नशा चाहे शराब का हो, भांग का, दौलत का हो या सत्ता का बुरा नहीं होता -अगर -जी हाँ इस अगर के बाद ही मेरी बात पूरी होगी - अगर-वो एक निश्चित सीमा में किया जाय। सीमा पार की नहीं कि इन सभी नशों में दोष दिखाई देने शुरू हो जायेंगे। लेकिन एक नशा है जिसकी सीमा का कोई निर्धारण नहीं किया जा सकता और वो है किताब का नशा। जिसे इसका नशा चढ़ गया उसके लिए बाकि के नशे धूल बराबर हैं। किसी लाइब्रेरी की खुली रेक्स पर सजी पुरानी किताबों के पास से गुज़रें उसमें से उठती गंध को गहरी सांस के साथ अपने भीतर खींचे-अहा-ये गंध आपको मदहोश कर देगी। मुझे तो करती है - सब को करे ये जरूरी तो नहीं। किताबों से उठने वाली ये खुशबू ही मुझे जयपुर की पुरानी लाइब्रेरियों और हर साल होने वाले दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले तक खींच के ले जाती है। इस गंध में डूबा हुआ मैं तलाशता हूँ शायरी, खास तौर पर ग़ज़ल की कोई किताब जिस पर लिखा जा सके।

अभी दीवारो-दर से दिल के, वीरानी नहीं झलकी
ग़मों के वास्ते इस घर में आसाइश अधूरी है
आसाइश = सुविधा

अभी से थक गए हो क्यूँ , अभी हारा नहीं हूँ मैं
सितम में भी इज़ाफा हो अभी सोज़िश अधूरी है
सोज़िश=जलन

मेरे लब सी दिए उसने क़लम है फिर भी हाथों में 
ये हाकिम से कहो जाकर तेरी बंदिश अधूरी है 

दिल्ली में सं 2018 की जनवरी को प्रगति मैदान में चल रही अभूतपूर्व प्रगति के कारण वहां आयोजित पुस्तक मेले तक पहुंचना एक टेढ़ी खीर थी। पुस्तक प्रेमी परेशान जरूर हुए लेकिन निराश नहीं। बड़ी तादाद में पहुंचे। देश में पुस्तकों के प्रति लोगों की दीवानगी देख कर बहुत अच्छा लगा। खास तौर पर युवाओं की। मेरे साथ मेरे प्रिय विकास गुप्ता थे। 'विकास' रेख़्ता के एडिटोरियल बोर्ड में कार्यरत हैं उनका उर्दू साहित्य के प्रति समर्पण और ज्ञान अभूतपूर्व है। किताब ढूंढने में वो भी मेरी मदद करते हुए इधर से उधर घूम रहे थे तभी उनकी भेंट एक चुंबकीय व्यक्तित्व के धीर गंभीर व्यक्ति से हुई। दोनों एक दूसरे को देख मुस्कुराये हाथ मिलाया और बातें करने लगे। विकास ने मेरी और देखा और कहा ' नीरज जी आप इन्हें नहीं जानते ? ये आलोक यादव है -बेहतरीन शायर और यादव जी ये नीरज जी है " हमने हाथ मिलाया और बातें करने लगे।बातों ही बातों में जब मैंने उनसे पूछा कि क्या आपकी कोई किताब मंज़र-ऐ-आम पर आयी है तो मुस्कुराते हुए वो मुझे स्नेह से हाथ पकड़ कर  उस स्टाल पर ले गए जहाँ उनकी किताब "उसी के नाम "रैक पर करीने से सजी हुई दिखाई दे रही थी। उन्होंने किताब उठाई उस पर कुछ लिखा अपने हस्ताक्षर किये और मुझे दी .मैंने उनके लाख मना करने के बावजूद तुरंत काउंटर पर जा कर उसका भुगतान किया। जहाँ तक संभव हो मुझे किताब खरीद कर पढ़ने में ही मज़ा आता है। जहाँ मेरा बस नहीं चलता वहां भेंट में मिली किताबें भी स्वीकार कर लेता हूँ। आज हम इसी किताब और इसके अनूठे शायर की चर्चा करेंगे।



 अब न रावण की कृपा का भार ढोना चाहता हूँ 
आ भी जाओ राम मैं मारीच होना चाहता हूँ 

 है हक़ीक़त से तुम्हारी आशनाई खूब लेकिन 
 मैं तुम्हारी आँख में कुछ ख़्वाब बोना चाहता हूँ 

 है क़लम तलवार से भी तेज़तर 'आलोक' तो फिर 
 मैं किसी मजबूर की शमशीर होना चाहता हूँ 

 राम रावण और मारीच के माध्यम से बहुत कुछ कहता उनकी एक ग़ज़ल के मतले का ये शेर विलक्षण है। ऐसे शेर कहाँ रोज रोज पढ़ने को मिलते हैं। बहुमुखी प्रतिभा के धनी अलोक यादव का जन्म 30 जुलाई 1967 को उनके ननिहाल कायमगंज जनपद फर्रुखाबाद में हुआ। उनके पिता फर्रुखाबाद के मुख्यालय फतेहगढ़ में रहते थे जहाँ उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण की और लख़नऊ विश्वविद्यालय से बी एस सी करने के बाद इलाहबाद विश्वविद्यालय से एम् बी ऐ किया। 1989 में कानपुर की लोहिया स्टार्लिंगर में अनमने से मन से नौकरी आरम्भ की क्यूंकि बचपन से ही उन्होंने सिविल सेवा में जाने की ठान रखी थी। लिहाज़ा इस नौकरी को उन्होंने साल भर में ही छोड़ दिया और अर्जुन की तरह अपना लक्ष्य सिविल सेवा रूपी मछली की आँख पर गड़ाए हुए इसको पाने के लिए संघर्ष का एक लम्बा दौर जिया। बच्चन जी की प्रसिद्ध रचना की इन पंक्तियाँ " लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती , हिम्मत करने वालों की कभी हार नहीं होती " को 9 सालों (1989 -1998 ) की अथक मेहनत से साकार करते हुए वो आखिर 1999 में संघ लोक सेवा आयोग से सहायक भविष्य निधि आयुक्त के पद पर चयनित हुए। (Regional Commissioner at Employees Provident Fund Organisation of India)

 तेरे रूप की उपमा मैं उसको दे तो देता 
 होता जो थोड़ा भी तेरे मुखड़े जैसा चाँद 

 चंचल चितवन मंद हास की किरणें बिखराता 
 मेरे घर, मेरे आँगन में मेरा अपना चाँद 

 सांझ ढली पंछी लौटे चल तू भी घर 'आलोक' 
बैठ झरोखे कब से देखे तेरा रस्ता चाँद 

संवेदनशील और अंतर्मुखी 'आलोक' को अपने भावों के सम्प्रेषण के लिए ग़ज़ल या गीत का सहारा लेना सुगम लगा। वो किशोर वय से ही कवितायेँ लिखने लगे थे जिनमें ग़ज़लों का अंश बीज रहा करता था। उन्हें ग़ज़ल कहने की विधिवत शिक्षा फतेहगढ़ के श्री कृष्ण स्वरुप श्रीवास्तव जी से मिली जो किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थे। अभी उन्होंने रदीफ़ काफिया और बहर का ज्ञान लिया ही था कि कृष्ण जी का ट्रांसफर किसी दूसरे शहर में हो गया। अब जिस तरह अंग्रेजी के 'ऐ' से लेकर 'जेड' तक के वर्णाक्षर पढ़-लिख लेने से अंग्रेजी नहीं आती वैसे ही रदीफ़, काफिया और बहर के ज्ञान से ग़ज़ल कहनी नहीं आ सकती। ये तीन तो महज़ शरीर हैं जिसमें जब तक भाव की आत्मा न डाली जाय तब तक प्राण नहीं आते। तो हुआ यूँ कि नयी नौकरी और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उनकी संवेदनशील और रचनात्मक वृति को बैक फुट पे धकेल दिया। बैकफुट क्रिकेट की भाषा में उस स्थिति को कहते हैं जहाँ खिलाड़ी शॉट मारने की जगह अपना विकेट बचाने को खेलता है।

हवा के दम पे है जब ज़िन्दगी का दारोमदार 
तो क्यूँ ग़ुरूर तुझे ऐ हुबाब रहता है 
हुबाब =बुलबुला 

मेरे लिए हैं मुसीबत ये आईनाख़ाने
यहाँ ज़मीर मेरा बेनक़ाब रहता है 

हसीन ख़्वाब हों कितने ही पर कोई 'आलोक' 
तमाम उम्र कहाँ महवे-ख़्वाब रहता है 
महव=तल्लीन 

 जब परिस्थितियां थोड़ी अनुकूल हुईं तो आलोक जी की बरसों से दबी रचनात्मकता बाहर आने को छटपटाने लगी। तभी उनकी मुलाकात हुई मोतबर और मकबूल शायर जनाब 'अकील नोमानी' साहब से। अकील साहब ने न केवल उन्हें ग़ज़ल कहने का सलीका सिखाया बल्कि अपनी इस्लाह से उनकी ग़ज़ल में प्राण फूंके और वो बोलने लगी।आलोक जी की ग़ज़ल को निखारने में बरेली के जनाब सरदार जिया साहब ने भी बहुत मदद की।इन दो साहबान के सहयोग से आलोक की ग़ज़लों ने वो मुकाम हासिल किया जो किसी भी शायर का सपना होता है। 'उसी के नाम' में आलोक जी की महज़ तीन सालों याने 2012 से 2015 के बीच कही गयी ग़ज़लों का ही संग्रह किया गया है। बकौल आलोक " इस किताब में पाठक को एक शायर के शैशव से युवावस्था तक की यात्रा का आनंद मिलेगा , साथ ही वे रचनाकार के रूप में मेरी विकास यात्रा का भी अवलोकन कर सकेंगे "

नयी नस्लों के हाथों में भी ताबिन्दा रहेगा 
मैं मिल जाऊंगा मिटटी में क़लम ज़िंदा रहेगा 
ताबिन्दा=स्थाई 

ग़ज़ल कोई लिखे कैसे लबो-रुख़्सार पे अब
समय से अपने कब तक कोई शर्मिंदा रहेगा 

बना कर पाँव की बेड़ी को घुंघरू ज़िंदगानी 
करेगी रक्स जब तक दर्द साज़िन्दा रहेगा 

आज आलोक एक बेहतरीन ग़ज़लकार के रूप में स्थापित हो चुके हैं। उनकी ग़ज़लें इंटरनेट की सभी श्रेष्ठ ग़ज़ल या काव्य से सम्बंधित साइट्स जिसमें रेख़्ता भी है, पर उपलब्ध हैं। इन दिनों वो मयारी मुशायरों में कद्दावर शायर जनाब वसीम बरेलवी , ताहिर फ़राज़ , मंसूर उस्मानी और कुंअर बैचैन आदि के साथ शिरकत कर वाहवाहियां बटोरते नज़र आ जाते हैं। देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित हिंदी-उर्दू की पत्र पत्रिकाओं में उनकी ग़ज़लें छपती रहती हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन के विभिन्न केंद्रों से उनकी ग़ज़लों का प्रसारण होता रहता है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी आलोक जमीन से जुड़े इंसान हैं ,अहम् उन्हें छू भी नहीं गया है। हर छोटे को प्यार और बड़े को सम्मान देना उनकी फितरत में है तभी उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। अच्छा इंसान होना अच्छे शायर से ज्यादा जरूरी है और आलोक तो एक अच्छे इंसान भी हैं और बहुत अच्छे शायर भी । उनकी 'बेटी' पर कही एक मुसलसल ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय हुई है जो उनके अच्छे इंसान और अच्छे ग़ज़लकार होने का पुख्ता सबूत है :

घर में बेटी जो जनम ले तो ग़ज़ल होती है 
दाई बाहों में जो रख दे तो ग़ज़ल होती है 

उसकी किलकारियों से घर जो चहकता है मेरा 
सोते सोते जो वो हँस दे तो ग़ज़ल होती है 

छोड़कर मुझको वो एक रोज़ चली जाएगी 
सोचकर मन जो ये सिहरे तो ग़ज़ल होती है 

यूँ तो अधिकतर सम्मान, वज़ीफ़े, उपाधियों और अवार्ड्स की कोई अहमियत नहीं होती लेकिन कुछ सम्मान या अवार्ड्स की वाकई कीमत होती है क्यूंकि वो जिन शख्सियतों को दिया जाता है उनमें खास बात होती है। आलोक को मिले सम्मान उन सम्मानों से अलग हैं जो थोक के भाव लोगों को खुश करने के लिए हर साल बाँटे जाते हैं। उन्हें वर्ष 2014 में 'इंटरनेशनल इंटेलेचुअल पीस अकेडमी ' द्वारा डा इक़बाल उर्दू अवार्ड एवं डा. आसिफ़ बरेलवी अवार्ड से नवाज़ा गया था. इसके बाद वर्ष 2015 में उन्हें प्रतिष्ठित 'दुष्यंत कुमार सम्मान 'मिला एवं वर्ष 2016 में विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ,भागलपुर द्वारा 'विद्या वाचस्पति' की मानद उपाधि प्रदान की गयी।

 ऐसे सिस्टम की अहमियत क्या है 
इसमें इन्सां की हैसियत क्या है

नौकरी जब मिले सिफ़ारिश पर 
कौन पूछे सलाहियत क्या है 
सलाहियत = योग्यता 

फूल से जिस्म बोझ बस्तों का 
क्या है तालीम तरबियत क्या है 

 उनके उस्ताद मोतरम जनाब अकील नोमानी साहब द्वारा उनके बारे में कहे इन अलफ़ाज़ को पढ़ने के बाद मेरे पास कहने को कुछ नहीं रह जाता कि "आलोक के पास काबिलीयत भी है और सलाहियत भी ,हस्सास दिल भी है और दुनिया को उसके तमाम रंगों के साथ देखने वाली नज़र भी। उनकी शायरी में ख़ुलूसो-मुहब्बत के ज़ज़्बों,समाजी क़द्रों, आला उसूलों और इंसानी रिश्तों का एहतराम भी है और ज़ुल्म,ज़ब्र ,नाइंसाफी और इस्तहाल के ख़िलाफ़ मोहज़्ज़ब एहतिजाज भी. उनके अशआर एक तरफ उर्दू से वालिहाना लगाव का एलान करते नज़र आते हैं तो दूसरी तरफ हिंदी से उनके मज़बूत रिश्ते और गहरी रग़बत के गम्माज़ भी है।"

   अपने ही जादू में जकड़े रखता है 
 जाने जंतर-मंतर मौसम बारिश का 

 बिछड़ गया जाते बसंत सा पल भर में 
 आखों को वो दे के मौसम बारिश का 

 उससे पूछो जिसकी मज़दूरी छूटी 
 काँटों का है बिस्तर मौसम बारिश का 

 आलोक जी ने ग़ज़लें थोक के भाव में नहीं कही हैं लेकिन जो कहीं है पुख्ता कहीं हैं तभी तो तीन साल के दौरान कही महज़ 74 ग़ज़लें ही इस किताब में शुमार की गयी हैं। इस किताब की प्राप्ति के लिए आप "लोक भारती प्रकाशन " दरबारी बिल्डिंग महात्मा गाँधी मार्ग इलाहाबाद को लिख सकते हैं या उन्हें info@lokbhartiprakashan.com पर मेल करें।ये किताब हार्ड बाउन्ड और पेपर बैक में भी उपलब्ध है जिसे आप www. pustak.org या फिर amazon.in से ऑन लाइन मंगवा सकते हैं। इस खूबसूरत किताब के लिए आलोक जी को उनके मोबाईल न. 9412736688 पर फोन करके बधाई दें या alokyadav1 @rediffmail.com पर मेल से बधाई सन्देश भेजें। आप अपना ये काम करें तब तक आलोक जी के चंद शेर आप तक पहुंचा कर मैं निकलता हूँ किसी और नयी किताब की तलाश में:

 अब भी सोफे में है गर्मी बाक़ी
 वो अभी उठ के गया हो जैसे
 ***
वाइज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
 ***
न वो इस तरह बदलते न निगाह फेर लेते
 जो न बेबसी का मेरी उन्हें ऐतबार होता
 ***
तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
 रास्ते मुख़्तसर भी होते हैं
 ***
गोपियों ने सुनी राधिका ने पढ़ी
 बांसुरी से लिखी श्याम की चिठ्ठियां
 ***
कर लेंगे खुद तलाश कि मंज़िल है किस तरफ 
 उकता गए हैं यार तेरी रहबरी से हम 
 *** 
ख्वाइशों के बदन ढक न पायी कभी 
 कब मिली है मुझे नाप की ज़िन्दगी ?

11 comments:

  1. शानदार, आपकी लेखनी का तज़ुर्बा वास्तव में काबिले-तारीफ़ है ।
    तभी तो सोमवार सार्थक हो पाता है ।

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  2. बहुत ख़ूब!

    तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
    रास्ते मुख़्तसर भी होते हैं

    सुंदर शायरी का सुंदर आकलन। आप दोनों को बधाई।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-05-2017) को     "रखना सम अनुपात" (चर्चा अंक-2971)    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. आलोकजी की ग़ज़लों से पहली बार रु बरू हुआ.. बेहतरीन कहते हैं .. उनसे मिलवाने का शुक्रिया..

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  5. Bahut khoobsurat shayari Alok je bahut bahut Mubarak baad

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  6. मेरे लिए हैं मुसीबत ये आईनाख़ाने
    यहाँ ज़मीर मेरा बेनक़ाब रहता है
    ----
    तुम हुए हमसफ़र तो ये जाना
    रास्ते मुख़्तसर भी होते हैं
    Waaaaaah waaaaaah kya kahne shukriya Neeraj ji
    Naman

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  7. इस ख़ूबसूरत तब्सिरे के लिए आपको बधाई और प्रिय भाई आलोक जी को शुभ कामनाएँ।

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  8. भाई नीरज जी, अब मै क्या कहूं । बस सुधि पाठकों से मेरा परिचय करवाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
    यहां अपनी टिप्पणी देने वालों का भी बेहद शुक्रिया।

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  9. मैं जब भी नीरज जी की किसी भी प्रविष्ठी पे टिप्पणी करता हूँ तो ज्यादातर उनकी शुरुवाती बातों से ही अपनी बात शुरू करता हूँ पर आज उनकी आखिरी लिखी हुई बात से अपनी बात शुरू कर रहा हूँ। अलोक जी,जो की इस बार किताबों की दुनिया के मेहमान है, ने ज्यादा ग़ज़लें नहीं लिखी है पर जो भी लिखी है वो वास्तव में पुख्ता है तो इस बात में कोई शक नहीं है।

    मौन के ये आवरण मुझको बचा ले जायेंगे
    वरना बातों के कई मतलब निकले जायेंगे

    ग़ज़ल के व्याकरण की बहुत ज्यादा समझ तो नहीं है पर हर्फ़ों में छुपी हुई बात को समझना आता है। ये शेर अपने आप में मुक़्क़मल है और अपनी बात भी पूरी तरीके से कहता है और इसे पढ़ते हुए मुझे ऐसे ही एक शेर और याद आ गया जो कभी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी ने किसी सवाल के जवाब में सुनाया था

    हज़ारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी,
    न जाने कितने सवालों की आबरू रखी

    खामोश रह पाना भी एक कला जो हर किसी को नहीं आती है।

    मेरे लब सी दिए उसने क़लम है फिर भी हाथों में
    ये हाकिम से कहो जाकर तेरी बंदिश अधूरी है

    ये शेर तो लाजवाब है क्योकि सरकार हर असरकार चीज़ को दबा देती है और एक शायर और उसकी शायरी अवाम पे असर तो डालते ही है। इस शेर के टक्कर में मुझे हिंदी ग़ज़ल के पुरोधा दुष्यंत कुमार जी का शेर याद आता है

    तिरा निज़ाम है सिल दे ज़बान-ए-शायर को
    ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

    अलोक जी ने भी आज के दौर में अपने हर्फों में वो ही बात समेटी है जो इंदिरा जी के समय में दुष्यंत जी ने सरकार का विरोध करते हुए कही थी।

    है क़लम तलवार से भी तेज़तर 'आलोक' तो फिर
    मैं किसी मजबूर की शमशीर होना चाहता हूँ

    कलम की ताक़त को बताता ये शेर और साथ में ही कलम पे ये दूसरा शेर

    नयी नस्लों के हाथों में भी ताबिन्दा रहेगा
    मैं मिल जाऊंगा मिटटी में क़लम ज़िंदा रहेगा

    दोनों ही अश’आर कलम की उस ताक़त का वर्णन कर रहे है जिस से हम बड़े से बड़े हथियार से लड़ सकते है

    ग़ज़ल कोई लिखे कैसे लबो-रुख़्सार पे अब
    समय से अपने कब तक कोई शर्मिंदा रहेगा

    आज के दौर में गजल सिर्फ प्रेमिका की जुल्फों तक ही सीमित हो कर नहीं रह गयी है अब गजल एक हथियार बन चुकी है जैसे भारत में कही भी कोई भी आन्दोलन हो दुष्यंत जी के कुछ अश’आरजरूर सुनाये जाते है

    सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
    सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

    मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
    हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

    कौन कहता है कि आसमान में सुराख़ हो नही सकता,
    एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों |


    आलोक जी की इस गजल को वो ही समझ सकता है जिसके बेटी हो

    घर में बेटी जो जनम ले तो ग़ज़ल होती है
    दाई बाहों में जो रख दे तो ग़ज़ल होती है

    नन्हे हाथों से पकड़ती है वो उंगली मेरी
    साथ मेरे जो वो चल दे तो ग़ज़ल होती है

    उसकी किलकारियों से घर जो चहकता है मेरा
    सोते सोते जो वो हँस दे तो ग़ज़ल होती है

    थक के आता हूँ मैं जब चूर चूर घर अपने
    वो जो हाथों में सहेजे तो ग़ज़ल होती है

    छोड़कर मुझको वो एक रोज़ चली जाएगी
    सोचकर मन जो ये सिहरे तो ग़ज़ल होती

    इस गजल ने मुझे अपने साढ़े पाँच साल के हर उस पल को याद दिला दिया जो मैंने अपनी गुड़िया के साथ जिया है; आलोक जी आपने ये बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है |

    अब आज के दौर पे तब्सिरा करती ये ग़ज़ल आज के आम आदमी के अंतर्मन की आवाज़ है

    ऐसे सिस्टम की अहमियत क्या है
    इसमें इन्सां की हैसियत क्या है

    नौकरी जब मिले सिफ़ारिश पर
    कौन पूछे सलाहियत क्या है

    फूल से जिस्म बोझ बस्तों का
    क्या है तालीम तरबियत क्या है


    बेहतरीन शायरी का परिचय कराने के लिए नीरज जी का धन्यवाद और अलोक जी को उनकी शायरी के लिए साधुवाद

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तुझको रक्खे राम तुझको अल्लाह रक्खे
दे दाता के नाम तुझको अल्लाह रक्खे