क़ैद हो कर रह गया है अपने घर में हर कोई
झाँकती हैं दूर तक कुछ खिड़कियाँ बरसात में
इस जवाँ मौसम में आओ भीगने का लें मज़ा
कब तलक थामे रहोगे छतरियाँ बरसात में
कट गया हूँ आज कल दुनिया से मैं कुछ इस तरह
जैसी कटती हैं पहाड़ी वादियाँ बरसात में
अहा !! "झांकती हैं दूर तक कुछ खिड़कियाँ बरसात में" वाले मिसरे में इंतज़ार का मंज़र कुछ इस तरह से बयाँ हुआ है की सोच कर ही कलेजे में हूक सी उठने लगती है ,लेकिन कुछ हैं जो इसे पढ़ कर खुश नहीं है, कह रहे हैं साहब इस शेर में मयार नहीं है ,शेर समझ जल्दी आ रहा है याने जब तक शेर में उलझाव न हो बात की गेंद टप्पा कहीं खाये और घूम कहीं और जाय तब तक वो वाह वाह करने से परहेज करते हैं। सीधी सरल सहज बात करने के अंदाज़ को बहुत से उस्ताद शायरी मान ने से साफ़ इंकार करते हुए उसे तुकबंदी कहते हुए मुंह फेर लेते हैं। खैर साहब पसंद अपनी अपनी ख़्याल अपना अपना। मुझे तो वो ही शेर पसंद आते हैं जो दिल के ज़ज़्बात ख़ूबसूरती से पेश करते हैं, अब आपकी आप जानें ।
ख़ुशी का अश्क हो कोई कि ग़म का हो कोई आंसू
कि जिन आँखों से हंसना है उन्हीं आँखों से रोना भी
करूँ तो और क्या ख़िदमत करूँ तेरी बता मुझको
तेरा हथियार भी हूँ तेरे हाथों का खिलौना भी
मुसीबत में रहूं ये भी नहीं उसको ग़वारा है
नहीं मंज़ूर है उसको मेरा खुशहाल होना भी
हमारे आज के शायर के बारे में दिल्ली के कामयाब और मशहूर शायर जनाब "इक़बाल अश्हर" साहब ने लिखा है कि " पंजाब की ज़िंदा दिली ,हिमाचल की मुसव्विरी, जम्मू कश्मीर का हुस्न , घुट्टी में शामिल पुरानी तहज़ीब की जादूगरी ,अदब की भूल-भुलैय्यां में जनाब "राजिन्दर नाथ रहबर की रहबरी, घर-आँगन में बसी सच्चे रिश्तों की महकार, कुछ बन पाने का ख़्वाब , कुछ कर गुजरने की तमन्ना इन तमाम अनासिर के जहूर-ऐ-तरतीब ने जनाब "
नरेश 'निसार' साहब का शेरी पैकर तराशा है। " हम उनकी किताब "
सौदा" की बात करेंगे जिसे अप्रेल 2016 में दर्पण पब्लिकेशन , पठानकोट ने प्रकाशित किया था।
किसी भी ज़ाविये से देख लेती हैं मिरी आँखें
तिरी आँखों से अच्छी हैं तिरी तस्वीर की आँखें
हो तुम तो आँख वाले, जंग से तुम बाज़ आ जाओ
नहीं होतीं नहीं होतीं किसी शमशीर की आँखें
वो हैं किस काम की आँखें नहीं हो रौशनी जिनमें
यूँ होने को तो होती हैं बहुत ज़ंजीर की आँखें
पठानकोट से लगभग 19 कि मी दूर काँगड़ा जिले की इंदौरा तहसील में एक छोटा सा गाँव है 'सूरजपुर' जहाँ 14 फरवरी ,जी ठीक वेलेंटाइन वाले दिन ही, सं 1968 को जनाब
नरेश'निसार' का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ। ये परिवार भले आर्थिक दृष्टि से साधारण रहा हो लेकिन मानवीय मूल्यों और सामाजिक सरोकारों को निभाने में असाधारण था। तभी आज के इस युग में भी 21 जनों का ये आदर्श परिवार इकठ्ठे रहता है, इनके सुख-दुःख सांझे हैं. शायरी ने नरेश जी को कब और कैसे प्रभावित किया ये तो पता नहीं लेकिन उनकी शायरी को निखारने में उनके उस्ताद जनाब "
राजिन्दर नाथ रहबर' साहब का बहुत बड़ा योगदान रहा। रहबर साहब को कौन नहीं जानता ? उनकी नज़्म "तेरे खुशबू में भरे खत मैं जलाता कैसे..." को महान ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह जी ने अपनी आवाज़ दे कर अमर कर दिया था।
हज़ारों बार उभरा हूँ हज़ारों बार डूबा हूँ
मुझे लगता है मैं कोई समन्दर का किनारा हूँ
नहीं है राबिता मुझ से ही मेरा इन दिनों कोई
न जाने आज-कल मैं कौन सी दुनिया में रहता हूँ
मिली है हमको दरवेशी की ये दौलत विरासत में
मिरा बेटा है मुझ जैसा मैं अपने बाप जैसा हूँ
नरेश 'निसार' जैसा कि मैंने बताया हिमांचल की ऐसी सुदूर जगह से हैं जहाँ अदब का कोई नाम लेवा भी नहीं है, शायरी तो दूर की बात है लेकिन उसी जगह नरेश निसार साहब के जज़्बे के कारण ही "
मंथन अदबी अंजुमन " जैसी संस्था को खड़ी हुई । इस संस्था के अंतर्गत कुल हिन्द मुशायरों का सफलता पूर्वक सञ्चालन होता है। मुंबई के शायर "इब्राहीम अश्क " ने इस बात को यूँ कहा है " ' '
इंदौरा' कांगड़ा जिले की वो जगह है जहाँ शायरी और मुशायरों का कभी नामो-निशान तक नहीं रहा। ऐसे बंज़र माहौल में कोई ग़ज़लों की फसलें उगाने और उसकी आबयारी (पानी देना ) करने का फ़र्ज़ अदा करता है , शेरो-सुख़न का माहौल बनाता है और मुशयरों की रिवायत को आम करके 'मंथन अदबी अंजुमन, कायम करता है तो ये काम आसान नहीं ,जूऐ-शीर (दूध की नहर) लाने जैसा है। इसे तो कोई फ़रहाद ही अंजाम दे सकता है जो कभी-कभी ही पैदा होता है। 'नरेश निसार' मौजूदा दौर के ऐसे ही फ़रहाद हैं. "
मैं उसको देखता रहता हूँ छू नहीं सकता
वो मेरे सामने रहता है आसमाँ की तरह
अगर मैं देर से लौटूँ तो डाँटती है मुझे
ख़ुदा ने बख़्शी है बेटी भी मुझको माँ की तरह
वो बात जो कि हमारे न दरमियां थी कभी
बना लिया है उसे हमने दास्तां की तरह
आप उनकी शायरी के बारे में चाहे जो कहें लेकिन उनके शायरी के प्रति जूनून के बारे में कुछ कहने को है ही नहीं। नरेश का अपना "स्टोन क्रशिंग" का व्यापार है याने दिमाग पत्थर तोड़ने में लगा है और उनका दिल फूल सी नाज़ुक शायरी करने में । खूबसूरत व्यक्तित्व के मालिक, बड़े दिल वाले ,हर परिस्थिति में सच और सिर्फ सच बोलने को प्रतिबद्ध, झुझारू प्रकृति के और हर किसी पर आँख मूँद कर भरोसा करने वाले 'नरेश' पूरी तरह परिवार को समर्पित इंसान हैं। अपनी पत्नी ममता जी के लिए उन्होंने जो घर बनवाया उसका नाम रखा " ममता'ज़ महल " वो इस किताब में अपने पाठकों को निमंत्रण देते हुए लिखते हैं कि " ताज महल तो आप ने देखा होगा लेकिन कभी वक्त मिले तो किसी रोज़ मेरे गरीबखाने ममता'ज़ महल " जरूर आइयेगा।
किसी बच्चे को माँ की गोद में सोते हुए देखा
भला इस से भी बढ़ कर कोई जन्नत और होती है
नहीं मिलते हैं हम उनसे तो सालों तक नहीं मिलते
अगर मिलते हैं तो मिलने की चाहत और होती है
यही रोना रहा उनके हमारे दरमियाँ अक्सर
हमारी और तो उनकी मसर्रत और होती है
मसर्रत=ख़ुशी
नरेश ग़ज़लों के अलावा नज़्में और गीत भी लिखते हैं। "सौदा" उनकी ग़ज़लों की दूसरी किताब है, इस से पहले सं 2008 में उनका पहला ग़ज़ल संग्रह "
बरसात में " शाया हो कर बहुत चर्चित हो चुका है। उनकी ग़ज़लें , नज़्में और गीत देश की प्रतिष्ठित हिंदी और उर्दू पत्र पत्रिकाओं में छपती रहती हैं। कुल हिन्द मुशायरों के आयोजन के अलावा वो देश भर में होने वाले मुशायरों में शिरकत भी करते हैं। उनकी ग़ज़लों का प्रसारण आकाशवाणी और दूरदर्शन से भी होता रहता है। दुनिया की 125 ज़बानों में गाने वाले गिनीज़ वर्ल्ड रेकार्ड होल्डर प्रसिद्ध गायक डा. ग़ज़ल श्रीनिवास ने उनकी ग़ज़लों को आवाज़ दी है और अपने अमेरिका ,कैनेडा और यूरोप के दौरे के दौरान सुना कर खूब वाह वाही बटोरी है।
एक इन्सां को खुदा मान लिया क्या हमने
हम पे करता है सितम भी वो इनायत की तरह
तेरा इन्साफ़ तेरा हुक्म तिरा रहमो-करम
तेरी महफ़िल नज़र आती है अदालत की तरह
मेहरबां होगा खुदा हम पे तो कैसे होगा
हम इबादत ही नहीं करते इबादत की तरह
नरेश जी की ग़ज़लों की ज़बान निहायत सादा है ,हालाँकि उन्होंने उर्दू सीखी है लेकिन भाषा को अपनी ग़ज़लों पर कभी हावी नहीं होने दिया। अपनी ग़ज़लों के बारे में उन्होंने लिखा है कि " व्यापार के सिलसिले में रोज़ मुझे तीन सूबों से होकर गुज़ारना पड़ता है। हिमांचल से पंजाब (पठानकोट) पंजाब से जम्मू-कश्मीर (कठुआ), शायद यही वजह है कि मैं गंगा-जमनी भाषा और साँझा तहज़ीब में यकीन रखता हूँ। मैंने अपनी शायरी में भी उसी आम ज़बान का इस्तेमाल किया है जो पूरे हिंदुस्तान को एक दूसरे से जोड़ती है। मुझे दूसरों से जियादा मेहनत करनी पड़ती है क्यूंकि जानकारों के मुताबिक सादा ज़बान में शायरी करना एक बेहद मुश्किल काम है. मेरे ख्याल में किसी का अच्छा इंसान होना अच्छा शायर होने से अधिक मायने रखता है। न तो जीते जी कोई इंसान मुकम्मल हो सकता है न ही शायर। बहुत सारी खामियों के बीच अच्छा इंसान बनने की क़वायद के साथ साथ जनाब रहबर साहब की रहनुमाई में पिछले सत्रह से अधिक सालों से मेरा अदबी सफ़र जारी है "
न जाने किस तरफ ले जायेंगे मेरे कदम मुझको
मिरि मंज़िल है वो मुझको जो इक सीढ़ी समझता है
बड़े क़द से नहीं रुतबा किसी का भी बड़ा होता
बहुत नादान है चींटी को जो चींटी समझता है
कोई इज़हार अपने इश्क का करता है बढ़-चढ़ कर
कोई खामोश रहने में समझदारी समझता है
इस किताब की प्राप्ति के लिए जिसमें नरेश जी की चुनिंदा 88 ग़ज़लें संग्रहित हैं के लिए सबसे सरल रास्ता है 'नरेश निसार' साहब को उनके मोबाईल न. 9815741931 या 9779831310 पर बात कर उन्हें इन खूबसूरत ग़ज़लों के लिए बधाई देते हुए किताब पाने का सबसे आसान रास्ता पूछें। आखिर में नरेश जी के उस्ताद-ऐ-मोहतरम जनाब रहबर साहब के उनके बारे में लिखे इन लफ़्ज़ों के साथ आपसे विदा लेता हूँ " '
निसार' एक अनुभवी कारोबारी इंसान हैं और बिजनेस के मुआमलात में घाटे का सौदा नहीं करते लेकिन कारोबार-ऐ-इश्क में वो घाटे का सौदा करने से भी गुरेज़ नहीं करते। वो शायरी की राह के रौशन चिराग हैं और एक लम्बी मुद्दत से अदब की राहों को पुर नूर कर रहे हैं। उनके काव्य में ज़िन्दगी की गर्माहट महसूस की जा सकती है। "
आईये पढ़ते हैं उनके कुछ फुटकर अशआर :
उनसे बस इक बार मिलने के लिए
फिर नहीं मिलने का सौदा कर लिया
***
अब यही बेहतर है उसके ख़्वाब लेना छोड़ दें
दिन में जो मिलता नहीं वो क्या मिलेगा रात को
***
कपड़े पसंद के हुए उस उम्र में नसीब
जिस वक़्त चेहरे पर कोई रंगत नहीं रही
***
लगाया था किसी पर दाव हमने सोच कर लेकिन
किसे मालूम था सोने की क़ीमत टूट जाएगी
***
वो अँधेरे में मुझको रखता है
मैं
जिसे आफ़ताब लिखता हूँ
***
लो कड़ी धूप में होता है सफ़र अपना तमाम
किसने देखा तेरी ज़ुल्फ़ों का घटा हो जाना
***
किस तरफ़ रुख है हवाओं का ये पूछो उनसे
ख़ाक बन-बन के जो हर रोज़ उड़ा करते हैं
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (27-03-2017) को "सरस सुमन भी सूख चले" (चर्चा अंक-2922) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लगाया था किसी पर दाव हमने सोच कर लेकिन
ReplyDeleteकिसे मालूम था सोने की क़ीमत टूट जाएगी
Khoob
Waaaaaah waaaaaah
कभी-कभी किसी शायर को पढ़कर दिल कुछ अशोक पर ही अटका रह जाता है आगे पढ़ता भी है तो सरसरी तौर पर। और महसूसता रहता है के उन खास अशआर में शायर ने आह क्या बात कह दी। ऐसा ही नरेश जी को पढ़कर मेरे साथ हुआ। अब आगे जब बढ़ेंगे तब कुछ कहेंगे,अभी तो हम इन शेरो के साथ हैं।
ReplyDeleteकरूँ तो और क्या ख़िदमत करूँ तेरी बता मुझको
तेरा हथियार भी हूँ तेरे हाथों का खिलौना भी
मुसीबत में रहूं ये भी नहीं उसको ग़वारा है
नहीं मंज़ूर है उसको मेरा खुशहाल होना भी
खूबसूरत शाइर की बेहद खूबसूरत शाइरी की बेहतरीन समीक्षा
ReplyDeleteवो हैं किस काम की आँखें नहीं हो रौशनी जिनमें
ReplyDeleteयूँ होने को तो होती हैं बहुत ज़ंजीर की आँखें
बेहतरीन अशआर---जिस जाविये से जंजीर को देखा वाह और खूब---
ReplyDeleteवो हैं किस काम की आँखें नहीं हो रौशनी जिनमें
यूँ होने को तो होती हैं बहुत ज़ंजीर की आँखें
Neeraj Ji.. Bahut shukriya ek nayab shayar se parichay karwane ke liye.. Naresh ji ko badhai.... Raqeeb
ReplyDelete'सौदा' का विस्तृत परिचय पढ़कर दिली मसर्रत हुई। किताब के कई अश्आर अश्आर न होकर मुरस्सा ग़ज़ल का किरदार निभाते हैं और यही कोशिश गज़लगो की कामयाबी को साबित करती है।निसार साहिब के मुख़्तलिफ़ अश्आर को पढ़ते हुए उनकी एक ग़ज़ल के वो शे'र याद आ गये जो 'ग़ज़ल के बहाने' के अकतूबर,2009 पुष्प-4 में इशायतपज़ीर हुए थे--
ReplyDeleteतू ख़ुदा है तो ख़ता तुझसे नहीं हो सकती
हम तो इन्सान हैं, इन्सान ख़ता करते हैं
काम आते थे मुसीबत में जो हमसायों के
लोग ऐसे भी थे दुनिया में, सुना करते हैं
मैँ आप दोनों को दिली मुबारकबाद पेश करता हूँ।आमीन!
------'दरवेश' भारती। मो. 9268798930.
Waah kya baat hai
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